शुक्रवार, 1 मई 2020

राजभाषा के संदर्भ में हिंदी ः तब और अब


राजभाषा के संदर्भ में हिंदी ः तब और अब
डॉ. नीरज भारद्वाज
हिंदी ने आज जिस वैश्विक रूप में स्थान लिया है, उसके लिए उसने एक लंबी यात्रा को तय किया है। भारतवर्ष में ही कितने पड़ावों को पार करती हुई हिंदी आज हमारे सामने है। राजभाषा हिंदी होने की भी एक लंबी यात्रा है। किसी भी देश के विकास के लिए उसकी एक भाषा का देश के सभी लोगों तक पहुँच होना बहुत जरूरी है। अंग्रेजों का भारत में साम्राज्य विस्तार के साथ-साथ भाषा विस्तार भी होता गया। भारत में पहले कंपनी का शासन हुआ और फिर ब्रिटिश राज का शासन हुआ। सन् 1747 में ईस्ट इंडिया कंपनी के डारेक्टरों के पास अंग्रेजी शिक्षा के प्रचार-प्रसार की बात कही गई। जिससे भारतवर्ष में भाषा के प्रचार के साथ-साथ कम वेतन पर पढ़े-लिखे मजदूर मिल सकें और कंपनी को काम करने में आसानी भी हो। लेकिन इस बात पर इतना कुछ हो न सका। आचार्य रामचंद्र शुक्ल के लिखते हैं कि, 'संवत् 1854 में ही ईस्ट इंडिया कंपनी के डारेक्टरों के पास अंग्रेजी की शिक्षा द्वारा भारतवासियों को शिक्षित बनाने का परामर्श भेजा गया था पर उस पर कुछ न हुआ।' [1]
हम यहाँ पर हिंदी के विकास का सफर सन् 1800 में कलकत्ता में अंग्रेजों द्वारा बनाए फोर्ट विलियम कॉलेज से शुरू करते हैं, अंग्रेजी सरकार के गवर्नर जनरल लार्ड वेलेजली ने सन् 1800 में इस कॉलेज की स्थापना की। वेलेजली का भाषाओं से प्रेम था और इस बात का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि वेलेजली ग्रीक, लैटिन और अंग्रेजी के विद्वान थे। उनकी नियुक्ति भारत में सन् 1798 में हुई। इसी दौरान सत्ता में और कॉलेज में भाषा विकास के लिए अर्थात् हिंदी-उर्दू की जानकारी के लिए गिलक्राइस्ट का सहयोग लिया गया। डॉ. बाबू गुलाबराय के मतानुसार, 'शासन की सुविधा के लिए अफसर जनता की भाषा से परिचय प्राप्त करना चाहते थे। इसीलिए उन्होंने फोर्टविलियम के मदरसे में उर्दू के अतिरिक्त हिन्दी भाषा (खड़ी बोली) के अध्ययन अध्यापन का प्रबन्ध किया। इस समय जान गिलक्राइस्ट आदि अफसरों की प्रेरणा से कुछ ग्रन्थ लिखे गये।'[2] गिलक्राइस्ट की नियुक्ति वास्तव मैडिकल ऑफिसर के पद पर हुई थी। लेकिन उनके भाषा के प्रति लगाव को देखते हुए उन्हें फोर्ट विलियम कॉलेज में हिंदी-उर्दू भाषा के विकास का काम भी सौंपा गया। इसके पहले गिलक्राइस्ट सन् 1790 में अंग्रेजी और हिंदुस्तानी कोश के दो भाग प्रकाश में आ गए थे। गिलक्राइस्ट हिंदी-उर्दू विकास के इस कार्य के लिए चार वर्ष रहे अर्थात् 1800 से 1804 तक। आचार्य रामचंद्र शुक्ल लिखते हैं कि, 'फोर्ट विलियम कॉलेज में हिंदी-उर्दू अध्यापक जॉन गिलक्राइस्ट ने देशी भाषा की गद्य पुस्तकें तैयार कराने की व्यवस्था की तब उन्होंने उर्दू और हिंदी दोनों के लिए अलग-अलग प्रबंध किया।'[3] जहाँ तक हिंदी के संदर्भ की बात है कॉलेज ने हिंदी के लिए चार विद्वानों को नियुक्त किया 1. मुंशी सदासुखलाल, 2. सदल मिश्र, 3. लल्लूलाल, 4. इंशा अल्ला खाँ। इन चारों को भाषा मुंशी कहा जाता था, इसी पद पर इनकी नियुक्ति भी हुई थी। इस बात को स्पष्ट करते हुए डॉ. कृष्णकुमार गोस्वामी लिखते हैं कि, 'फोर्ट विलियम कॉलेज में हिन्दी के लिए भाषा मुंशी का प्रयोग हुआ है।'[4]
विचार किया जाए तो फोर्ट विलियम कॉलेज से ही हिंदी-उर्दू के बीच खाई बढ़ती चली गई और हिंदी-उर्दू की यह लड़ाई अंग्रेजों की समझ में आ रही थी। अंग्रेजों ने अपने आरंभिक दौर में अदालती भाषा उर्दू को बनाया, इससे मुस्लिम पक्ष अर्थात् उर्दू के पक्षधर बहुत खुश हुए। दूसरी ओर हिंदी का भी प्रचार-प्रसार धीरे-धीरे बढ़ रहा था। उर्दू के पक्षधर अंग्रेजो के बीच अपनी गहरी पैठ बनाए हुए सर सैयद अहमद खाँ हिंदी को किसी भी रूप में भारत में नहीं देखना चाहते थे, आचार्य रामचंद्र शुक्ल लिखते हैं कि, 'वर्नाक्यूलर स्कूलों में हिंदी की शिक्षा जारी ही न होने पाये। विरोध के नेता थे सर सैयद अहमद खाँ साहब जिनका अंग्रेजों के बीच बड़ा मान था। वे हिंदी को एक गँवारी बोली बताकर अंग्रेजों को उर्दू की ओर झुकने की लगातार चेष्टा करते आ रहे थे।'[5] बात सोचने की यह भी है कि मुस्लिम शासन काल में भी हिंदी का व्यापक रूप से प्रयोग होता चला आ रहा था, फिर यह लोग हिंदी का विरोध क्यों कर रहे थे। इस बात को स्पष्ट करते हुए डॉ. हरदेव बाहरी लिखते हैं कि, 'मुसलमान बादशाहों के शासन-काल में हिन्दी राष्ट्रभाषा के रूप में सर्वमान्य थी। सिक्कों पर सारी सूचना हिन्दी में रहती थी। शाही फरमानों में भी हिन्दी का प्रयोग होता था। मुगल-काल में फ़ारसी राजभाषा हो गयी, किन्तु हिन्दी का प्रयोग शासन में वैकल्पिक रूप में होता ही था, जनता में तो हिन्दी ही सार्वदेशिक भाषा थी। ब्लाखमैन ने अपनी खोज के आधार पर कलकत्ता रिव्यू (1871) में लिखा था कि मुगल बादशाहों के शासन काल में ही नहीं, इससे पहले भी सभी सरकारी कागजात हिन्दी में रखे जाते थे।'[6] इन सब विचारों से एक बात तो स्पष्ट हो ही जाती है कि हिंदी भाषा ही हर समय भारतवर्ष में शासन की सबसे बड़ी भाषा रही है।
बहरहाल उपर्युक्त विचार को पढ़कर हम हिंदी की महत्ता को तो अब सभी जान ही गए हैं, फिर अंग्रेजों को तो देश में शासन करना था। इसीलिए उन्होंने उर्दू के साथ-साथ जनता के बीच हिंदी में भी बराबर विचार विमर्श किया और अपना शासन करते रहे। भाषाओं के बीच की यह प्रतिस्पर्धा किसी से छुपी नहीं थी और रोज नए विचार आगे आ रहे थे। इस प्रतिस्पर्धा के बीच अंग्रेजी भी जन के बीच अपना अलग स्थान बना रही थी और अंग्रेज शासक अंग्रेजी भाषा को भारत में लागू करना चाह रहे थे तथा उन्होंने ऐसा किया भी। डॉ. कृष्णकुमार गोस्वामी लिखते हैं कि, 'सन् 1835 में लार्ड विलियम बैंटिक के काल में लार्ड मैकाले ने अंग्रेजी को भारत की शासन व्यवस्था की भाषा के रूप में लाने के लिए विधेयक पारित किया और इस प्रकार अंग्रेजी ब्रिटिश शासन काल की राजभाषा बन गई।'[7] इतना कुछ होते ही अंग्रेजी सरकार ने भारत में अंग्रेजी भाषा के प्रचार-प्रसार  का कार्य भी आरंभ कर दिया और अब हर जगह अंग्रेजी में कार्य होने लगा। आचार्य शुक्ल के मतानुसार, '07 मार्च, 1835 में कंपनी की सरकार ने अंग्रेजी शिक्षा के प्रचार का प्रस्ताव पास कर दिया और धीरे-धीरे अंग्रेजी के स्कूल खुलने लगा।'[8] इस दृष्टि से अब हिंदी-उर्दू के झगड़े के बीच एक नई भाषा अंग्रेजी भी आ गई और अब अंग्रेजी ने अपना वर्चस्व स्थापित करना शुरू कर दिया। डॉ. मुकेश अग्रवाल लिखते हैं कि, 'सन् 1835 तक यही स्थिति रही, उसके बाद अंग्रेजी ने हिन्दी का स्थान ले लिया परन्तु ब्रिटिश सरकार ने अनुभव किया कि हिन्दी का कोई विकल्प नहीं है।'[9]
इस दृष्टि से विचार करें तो हिंदी दिन-प्रतिदिन जन-जन के बीच अपनी गहरी पैठ बना रही थी और भारतवर्ष में हिंदी के बिना किसी कार्य का होना संभव नहीं था। इस बात को अंग्रेजी सरकार भी समझ चुकी थी। हिंदी के प्रचार-प्रसार का कार्य हमारे साहित्य सेवी, समाज सुधारक आदि कर रहे थे। इनमें भारतेंदु युग के, महावीर प्रसाद द्विवेदी युग के, छायावादी युग के, पंजाब से श्रद्धाराम फुल्लौरी, नवीन बाबू आदि कितने ही साहित्य सेवियों के नाम गिनाए जा सकते हैं। जन-जन तक हिंदी की लोकप्रियता अपना अलग ही स्थान बना चुकी थी। इस लोकप्रियता और जन समर्थन के देखते हुए ग्रिफिथ की रिपोर्ट को भी जानना जरूरी हो जाता है। डॉ. कृष्णकुमार गोस्वामी लिखते हैं कि, 'श्रीमान ग्रिफिथ ने सन् 1878 की रिपोर्ट में यह बात खोलकर रख दी थी कि इस देश की भाषा हिंदी है।'[10] हिंदी की कार्यशैली को देखते हुए और भारतवर्ष में अपने राज को आगे बढ़ाने के लिए अंग्रेजों ने सन् 1881 में राजकाज की दृष्टि से हिंदी, हिंदुस्तानी तथा भारतीय भाषाओं के महत्त्व को स्वीकार कर लिया। इतना ही नहीं अब अंग्रेजी सरकार ने हिंदी को अलग-अलग क्षेत्रों में काम करने की अनुमति भी दे दी। इस बात को स्पष्ट करते हुए डॉ. कृष्णकुमार गोस्वामी लिखते हैं कि, 'हिंदी क्षेत्र में बिहार के न्याय-क्षेत्र में हिंदी का विधिवत प्रारंभ सन् 1875 में हो गया था, किंतु 1880 में कड़ा आदेश निकाला गया कि जनवरी, 1881 से प्रांत अदालती भाषा एकमात्र नागरी लिपि में लिखित हिंदी होगी।'[11] इस दृष्टि से हिंदी अब अपना स्थान प्रशासन के कार्य में भी बढ़ाने लगी।
समय की गति से साथ हिंदी अपना कार्य करती गई और अंग्रेजी सरकार भी उसकी उपयोगिता तथा जन सामान्य तक जुड़ने के लिए उसके महत्त्व को समझते चले गए। अंग्रेजी विद्वान भी अंग्रेजी के साथ-साथ हिंदी पर कार्य करने लगे साथ ही भारतीय भाषाओं पर भी अध्ययन होना शुरू हुआ। इसमें एक बड़ा नाम जॉर्ज इब्राहिम ग्रियर्सन का है, जिसने भारतीय भाषाओं का सर्वे (1927) किया और भारत में भाषाओं के महत्त्व को दुनिया के सामने रखा। ग्रियर्सन ने ही हिंदी को पाँच उपभाषाओं के क्षेत्र में बाँटा। इससे पहले सन् 1901 की जनगणना में जो मत उभरकर आए उसे भी जान लेना चाहिए। डॉ. कृष्णकुमार गोस्मामी लिखते हैं कि, '1901 की जनगणना की रिपोर्ट में प्रथम खंड में भारतीय संदर्भ में हिंदी महत्त्व को प्रतिपादित करते हुए क्रस्ट महोदय ने लिखा, हिंदी के पास ऐसा शब्दोकोश और अभिव्यक्ति का ऐसा सामर्थ्य है, जो अंग्रेजी से किसी भी प्रकार कम नहीं है।'[12] इन सब बातों से एक बात तो पूर्ण रूप से स्पष्ट हो जाती है कि हिंदी किसी भी काल या व्यवस्था में रही उसने अपनी छाप सभी के ऊपर छोड़ी है। साथ ही हिंदी के योगदान, महत्त्व, या ये कहें सहयोग को सभी ने सराहा है, जो उपर्युक्त विभिन्न मतों से प्रमाणित भी है। हिंदी को लेकर और कई सारे शोध हुए, उनमें भी भारत में हिंदी की महत्ता को स्वीकार किया है, डॉ. हरदेव बाहरी लिखते हैं कि, 'एच.टी कोल ब्रुक ने एशियाटिक रिसर्च में लिखा था- जिस भाषा का व्यवहार भारत के प्रत्येक प्रान्त के लोग करते हैं, जो पढ़े-लिखे तथा अनपढ़ दोनों की साधारण बोलचाल की भाषा है और जिसको प्रत्येक गाँव में थोड़े-बहुत लोग अवश्य समझ लेते हैं, उसी का यथार्थ नाम हिन्दी है।'[13] इस प्रकार हम देखें तो भारतवर्ष में हिंदी भाषा देशी-विदेशी सभी विद्वानों के शोध का विषय युगों-युगों से रहा है और उन्होंने हिंदी के योगदान को स्वीकार भी किया है।
अब हम भारतवर्ष के स्वतंत्र होने के बाद उसके संविधान बनने में भाषाओं का महत्त्व या योगदान की बात करें तो यह भी बहुत ही रोचक है। डॉ. कृष्णकुमार गोस्वामी लिखते हैं कि, 'फरवरी 1948 में संविधान का जो प्रारूप प्रस्तुत किया गया उसमें राजभाषा विधेयक कोई उपबंध नहीं था। इतना ही उल्लेख था कि संसद की भाषा अंग्रेजी या हिंदी होगी।'[14] विचार करें तो अंग्रेजों के आगमन और अंग्रेजों के भारत में पैर जमाने तक हिंदी-उर्दू के बीच झगड़ा खड़ा हुआ था और अब स्वतंत्रता के बाद हिंदी-अंग्रेजी का झगड़ा खड़ा हो गया। कहने का भाव यह है कि हिंदी अपने ही देश में अपने ही लोगों से लड़ाई लड़ रही थी और अभी लड़ रही है। बहरहाल जो भी हो भारतीय संविधान लागू होने से पूर्व 14 सितंबर, 1949 को हिंदी को राजभाषा के रूप में लेने के विचार पर सहमति बन गई और संविधान में हिंदी को राजभाषा के रूप में स्थान मिला। किस अनुच्छेद में यह बताया गया है इस पर हम आगे चर्चा कर रहे हैं। जहाँ तक राजभाषा की बात है राजभाषा उस भाषा को कहा जाता है, जो राज-काज अर्थात् प्रशासन की भाषा हो। इस बात को और अधिक स्पष्टता से बताते हुए डॉ. मुकेश अग्रवाल लिखते हैं कि, 'राज अर्थात् राज-काज अथवा सरकारी काम-काज या कार्यालय की भाषा। इस दृष्टि से राजभाषा से तात्पर्य है- राज(शासक) या राज्य (सरकार) द्वारा प्राधिकृत भाषा। राजभाषा देश के प्रशासक वर्ग की भाषा होती है। इसका प्रयोग मुख्यतः चार क्षेत्रों में अपेक्षित है- शासन, विधान, न्यायपालिका और कार्यपालिका।'[15] इस प्रकार हिंदी भाषा को भारतीय संविधान में स्थान मिला और उसके कार्य करने की बातों को भी स्पष्ट किया गया।
संविधान की दृष्टि से बात करें तो अनुच्छेद 120, 210, 343 से 351 तक इन सभी में भाषा से जुड़े तत्वों के बारे में चर्चा की गई है। हम यहाँ पर इन सभी अनुच्छेदों पर संक्षेप में चर्चा कर रहे हैं-
अनुच्छेद 120 में संसद में प्रयुक्त की जाने वाली भाषा के बारे में कहा गया है।
अनुच्छेद 210 में राज्य विधान मंडलों में प्रयुक्त की जाने वाली भाषा।
अनुच्छेद 343 (1) के अनुसार देवनागरी में लिखित हिंदी संघ की राजभाषा है अर्थात् हिंदी संघ की राजभाषा के रूप में स्थापित हो गई।
अनुच्छेद 343 (2) के अनुसार संविधान के लागू होने के समय से 15 वर्ष की अवधि तक संघ के सभी कार्यों के लिए पहले की भाँति अंग्रेजी का प्रयोग करने की व्यवस्था की गई। दूसरे शब्दों में कहें तो अंग्रेजी सह संघीय भाषा के रूप में उभरकर सामने आई।
यहाँ ध्यान देने की बात यह है कि 15 वर्ष की अवधि से पूर्व ही वर्ष 1963 में अंग्रेजी को सदा के लिए सह संघीय भाषा का स्थायी रूप में दर्जा दे दिया गया। अर्थात् अब हिंदी के साथ अंग्रेजी का भी सभी सरकारी दस्तावेजों में प्रयोग किया जायेगा।
अनुच्छेद 343 (3) में संसद को यह अधिकार दिया गया है कि वह 1965 के बाद भी सरकारी कामकाज में अंग्रेजी का प्रयोग जारी रखने के बारे में व्यवस्था कर सकती है।
इस बात पर प्रकाश डालते हुए डॉ. कृष्णकुमार गोस्वामी लिखते हैं कि, 'राजभाषा अधिनियम 1963 में अन्य बोतों के होते हुए धारा 3 (3) में सरकारी कार्यालयों से जारी होने वाले सभी दस्तावेजों में हिंदी और अंग्रेजी का अनिवार्य रूप से प्रयोग किया जाना चाहिए, जिससे राष्ट्रीय स्तर पर द्विभाषिकता की स्थिति पैदा हो गई।'[16] इस मत से एक बात तो स्पष्ट हो गई की अब कोई भी सरकारी कागजात अंग्रेजी और हिंदी दोनों भाषाओं में जन के सामने आयेगें और यहाँ एक नया विषय अनुवाद भी सरकारी कार्यालयों के लिए आवश्यक हो गया। इन सरकारी कार्यों में सामान्य आदेश, प्रेस विज्ञप्तियाँ, संविदाएँ, नियम, अधिनियम, टेंडर फार्म, टेंडर नोटिस, लाइसेंस, सूचना, प्रशासनिक तथा अन्य रिपोर्ट, परमिट, संसद के दोनों सदनों के सरकारी पत्र आदि सभी कुछ अनिवार्य रूप से दोनों भाषाओं अर्थात् हिंदी और अंग्रेजी में जारी करने की बात कही गई।
अनुच्छेद 344 में राजभाषा के लिए आयोग और संसद समिति के गठन की व्यवस्था की गई।
अनुच्छेद 345 में राज्य की राज्यभाषा या राज्यभाषाएँ पर चर्चा है।
अनुच्छेद 346 में एक राज्य दूसरे राज्य के साथ अथवा राज्य और संघ के बीच पत्राचार की भाषा की व्यवस्था पर विचार है।
अनुच्छेद 347 में किसी राज्य के जन समुदाय के किसी भाग द्वारा बोली जाने वाली भाषा के संबंध में विशेष अनुबंध है।
अनुच्छेद 348 में उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालयों तथा अधिनियमों, विनियमों आदि में प्रयुक्त भाषा।
अनुच्छेद 349 में भाषा से संबंधी कुछ विधियों को अधिनियमित करने के लिए विशेष प्रक्रिया।
अनुच्छेद 350 में किसी व्यथा के निवारण के लिए अभ्यावेदन में प्रयुक्त की जाने वाली भाषा।
       350 (क) में प्राथमिक स्तर पर मातृभाषा में शिक्षा की सुविधाएँ।
       350 (ख) में भाषाई अल्पसंख्यक-वर्गों के लिए विशेष अधिकार।
अनुच्छेद 351 में हिंदी भाषा के विकास के लिए निदेश हैं अर्थात् हिंदी का विकास ऐसे किया जाए कि वह भारत की सामासिक संस्कृति के सब तत्वों की अभिव्यक्ति का माध्यम बन सके।
संवैधानिक दृष्टि से भाषा की यह बात यहीं समाप्त नहीं होती, बल्कि स्वतंत्र भारतवर्ष में तो भाषाओं की बाढ़ आ गई और अष्टम अनुसूची में वर्तमान में 22 भाषाएँ अपनी जगह बना चुकी हैं। सन् 1950 में इसमें 14 भाषाएँ थी, 1967 में एक भाषा सिंधी को जोड़ा गया, 1992 में तीन भाषाओं को कोंकणी, नेपाली, मणिपुरी और 2003 में चार भाषाओं को जोड़ा गया बोडो, डोगरी, संथाली और मैथिली।
इतना ही नहीं अब शास्त्रीय भाषा का दर्जा मिलने का कार्यक्रम शुरू हुआ और पहली शास्त्रीय भाषा का दर्जा सन् 2004 में तमिल को मिला। बहुत से पाठकों के मस्तिष्क में यह सवाल चल रहा होगा की संस्कृत विश्व की सभी भाषाओं की जननी है, तो फिर तमिल को पहले कैसे स्थान मिला। भारत में राजनीति इच्छा शक्ति के बिना कुछ भी संभव नहीं है। बहरहाल सन् 2005 में संस्कृत को भी शास्त्रीय भाषा का दर्जा मिल गया। इसके बाद सन् 2008 में कन्नड़ और तेलुगू को शास्त्रीय भाषा का दर्जा मिला, सन् 2013 में मलयालम को शास्त्रीय भाषा का दर्जा मिला और सन् 2014 में ओडिया को शास्त्रीय भाषा का दर्जा मिला। यह एक बात और समझने की है कि भारतवर्ष में चार भाषा परिवार हैं- 1. भारोपीय, 2. द्रविड़, 3. तिब्बत-बर्मी, 4. आस्ट्रो-एशियाटिक। इसमें द्रविड़ भाषा परिवार के अंदर आने वाली सभी भाषाओं को तमिल, तेलुगू, कन्नड़, मलयालम को शास्त्रीय भाषा का दर्जा दिया गया है। भाषाओं की यह बाढ़ भारतवर्ष में कहाँ रूकने वाली है, इसीलिए भारतीय कक्षाओं में पढ़ाते समय अध्यापक को बहुभाषी शब्द का प्रयोग करना होता है। अब यही बहुभाषिकता ही हमारी पहचान बन गई है।
इतना ही नहीं स्वतंत्रता के बाद 1953 में यूनेस्को ने घोषणा की कि बच्चों की शिक्षा का माध्यम मातृभाषा से बेहतर और कोई भाषा नहीं हो सकती, साथ ही भारतीय संविधान के अनुच्छेद 350 (क) में प्राथमिक स्तर पर मातृभाषा में शिक्षा की सुविधाएँ देने की बात कही गई है। यही सभी बातें राज्य भाषा और ये कहें कि भाषा के आधार पर राज्य बनने की शुरूआत का आगाज बन गई। अब तो भारतवर्ष में यह भाषाई आंदोलन आने ही वाला था और सबसे पहले रामुल्लू ने आंदोलन कर भाषा के आधार पर अलग प्रदेश अर्थात् आंध्र प्रदेश बनाने की मांग कर दी, 56 दिन के आमरण अनशन के बाद 15 दिसंबर 1952 को रामुल्लू की मृत्यु हो गई और 01 अक्टूबर, 1953 को भाषा के आधार पर आंध्र प्रदेश राज्य का गठन हो गया। यह भाषाई ज्वाला यहाँ रूकने वाली नहीं थी। 01 मई, 1960 को मराठी और गुजराती भाषियों के बीच संघर्ष के कारण महाराष्ट्र और गुजरात नामक दो राज्यों की स्थापना हुई। 01 नवंबर,1966 में पंजाब को विभाजित करके (पंजाबी भाषा) तथा हरियाणा (हिंदी भाषी) दो राज्य बना दिए गए। हम इतिहास पर दृष्टि डालें तो पंजाब में हिंदी भाषा के विकास को लेकर स्वतंत्रता से पूर्व कितने ही साहित्य सेवियों ने इसे आगे बढ़ाया। आज भारतवर्ष के हर घर में ओम् जय जगदीश जी की जो आरती गायी जाती है उसकी रचना करने वाले श्रद्धाराम फुल्लौरी पंजाब से ही थे। इतना ही नहीं नवीन बाबू के योगदान को भी नहीं भूलाया जा सकता।
इस दृष्टि से विचार करें तो स्वतंत्रता से पूर्व जिस हिंदी के विकास के लिए भारतवर्ष के कोने-कोने से आवाज उठी। स्वतंत्रता के बाद वही देश के कोने-कोने से अपने-अपने राज्यों की भाषा की बात करने लगे और भारतवर्ष आज बहुभाषाओं के इस विचार को लेकर आगे बढ़ रहा है तथा बहुभाषिकता का सफ़र तय कर चुका है। समझा जाए तो भारतवर्ष में हिंदी का सफ़र इतना सरल न तो स्वतंत्रता से पूर्व रहा और न ही स्वतंत्रता के बाद। बहरहाल जो भी हो आज हिंदी ने विश्व में अपना अलग ही स्थान बना रखा है। हिंदी के विकास में काम करने वाले उन सभी विद्वानों, समीक्षकों, आलोचकों, साहित्यकारों, मीडियाकर्मियों आदि को प्रणाम है, जिसने देश या विदेश में रहते हुए दिन-रात एक करके अपनी कलम से हिंदी की सच्ची सेवा करने का प्रण लिया हुआ है।


[1]  हिंदी साहित्य का इतिहास, आचार्य रामचंद्र शुक्ल, पेज- 310
[2]  हिन्दी-साहित्य का सुबोध इतिहास, डॉ. बाबू गुलाबराय, पेज- 178
[3]  हिंदी साहित्य का इतिहास, आचार्य रामचंद्र शुक्ल, पेज-301
[4]  प्रयोजनमूलक भाषा और कार्यालयी हिन्दी, डॉ. कृष्णकुमार गोस्वामी, पेज- 23
[5]  हिंदी साहित्य का इतिहास, आचार्य रामचंद्र शुक्ल, पेज- 313
[6]  हिन्दी उद्भव, विकास और रूप, डॉ हरदेव बाहरी, पेज- 203
[7]  प्रयोजनमूलक भाषा और कार्यालयी हिन्दी, डॉ. कृष्णकुमार गोस्वामी, पेज- 39
[8]  हिंदी साहित्य का इतिहास, आचार्य रामचंद्र शुक्ल, पेज- 310
[9]  भाषा साहित्य और संस्कृति, डॉ. मुकेश अग्रवाल, पेज-218
[10]  प्रयोजनमूलक भाषा और कार्यालयी हिन्दी, डॉ. कृष्णकुमार गोस्वामी, पेज- 40
[11]  प्रयोजनमूलक भाषा और कार्यालयी हिन्दी, डॉ. कृष्णकुमार गोस्वामी, पेज- 41
[12]  प्रयोजनमूलक भाषा और कार्यालयी हिन्दी, डॉ. कृष्णकुमार गोस्वामी, पेज- 42
[13]  हिन्दी उद्भव, विकास और रूप, डॉ हरदेव बाहरी, पेज- 204
[14]  प्रयोजनमूलक भाषा और कार्यालयी हिन्दी, डॉ. कृष्णकुमार गोस्वामी, पेज- 46
[15]  भाषा साहित्य और संस्कृति, डॉ. मुकेश अग्रवाल, पेज- 216
[16]  प्रयोजनमूलक भाषा और कार्यालयी हिन्दी, डॉ. कृष्णकुमार गोस्वामी, पेज- 65