शनिवार, 30 मार्च 2019

हिंदी शोध के प्रतिमान : डॉ.कमलकिशोर गोयनका



हिंदी शोध के प्रतिमान : डॉ.कमलकिशोर गोयनका
डॉ.नृत्य गोपाल शर्मा
हंसराज कॉलेज,
बीसवीं शताब्दी का पूर्वार्द्ध हिंदी के व्यवस्थापन का काल है । इस कार्य को व्यवस्थित रूप देने का श्रेय नागरी प्रचारिणी सभा वाराणसी को जाता है । हिंदी साहित्य का इतिहास- आचार्य रामचंद्र शुक्ल, हिंदी व्याकरण -कामताप्रसाद गुरु, साहित्य की दिशा निर्धारित करने वाली पत्रिका सरस्वती , इसके यशस्वी संपादक श्री महावीर प्रसाद द्विवेदी, हिंदी शब्द संपदा का व्यवस्थापन करने वाले बाबू श्याम सुंदर दास, मध्यकालीन कवियों की ग्रंथावलियों का प्रकाशन करने में लक्ष्मीधर मालवीय तथा पं.सुधाकर पाण्डेय का योगदान । ये सब 20 वीं शती के पूर्वार्द्ध में होता है ।
रचनात्मक लेखन में कहानी, उपन्यास, निबंध, आलोचना, नाटक, जीवनी, संस्मरण और इन सबके साथ महत्वपूर्ण विधा कविता के आधुनिक काल का स्वर्ण युग छायावाद इसी दौर की घटना है । उपरलिखित तमाम गद्य विधाओं का आरंभ भलेहि भारतेंदु युग में हुआ हो किंतु विकास के  केंद्र में इसी समय के रचनाकार हैं ।
20वीं शती के उत्तरार्द्ध में साहित्य के क्षेत्र में जो घटनाक्रम अपनी ओर आकर्षित करता है वह है हिंदी में शोध कार्यों की गति । हिंदी में शोध की नई प्रक्रिया आरंभ होती है जिसका स्वरूप  अकादमिक होता है । अब इससे हिंदी के अध्येताओं को उपाधि मिलती हैं । अनेक लोगों के नाम के आगे डॉ. शब्द  जुडता है । डॉ.पीतांबर दत्त बडत्थवाल, डॉ.नगेन्द्र, डॉ.प्रेम टंडन, डॉ.नामवर सिंह आदि हिंदी में शोधकार्य करने वाले आरंभिक शोधार्थी हैं ।
अनेक शोधकार्य होने के बावजूद भी हिंदी शोध का मूल्यांकन अभी तक नहीं हो पाया है । इसका एक कारण यह है कि किसी भी शोधकार्य को उपाधि प्राप्त करने से आगे बढाने की हिंदी जगत में कोई मंशा दिखाई नहीं पडती है । वर्तमान समय में हिंदी क्षेत्र में अपने शोध कार्य को दूर तक ले जाने की दृढइच्छा वाला कोई एक निर्विवाद शोधार्थी दिखाई पडता है तो वे हैं डॉ.कमल किशोर गोयनका । सम्पूर्ण हिंदी जगत इस तथ्य को स्वीकार करता है कि अभी तक किसी एक रचनाकार पर हिंदी में सर्वाधिक शोध कार्य यदि किसी एक शोधार्थी ने किया है तो वे हैं डॉ.कमल किशोर गोयनका और उनके शोध के विषय हैं यशस्वी कथाकार मुंशी प्रेमचंद ।
डॉ.कमल किशोर गोयनका मुंशी प्रेमचंद के साहित्यिक योगदान पर लगभग 30 पुस्तकेंं लिख चुके हैं । पी-एच.डी. की उपाधि प्राप्त करने हेतु आपके शोध का विषय था ’’प्रेमचंद के उपन्यासों का शिल्प विधान।’’ यह कार्य किया था उन्होंने वर्ष .1972 तब से अब तक प्रेमचंद के ऊपर लगभग 25 शोधपूर्ण  पुस्तकें आप लिख चुके हैं और हर रोज शोध के लिए एक नया विषय खोज लेते हैं । एक कार्य पूरा होता नहीं कि दूसरे शोध क्षेत्र के साथ प्रेमचंद उनके सामने आ खडे होते हैं और वे उस पर काम शुरू भी कर देते हैं । हिंदी जगत में विनाशकारी झोला झंडा ने अनेक रचनाकारों पर लाल लकीर खींच एक टोकरी में फेंककर निरर्थक कर दिया है । ऐसे में प्रेमचंद भी कबके निरर्थक हो गये होते यदि डॉ.गोयनका ने इस रचनाकार को उस खांचे से खींचकर बाहर ना निकाला होता? मन होता है प्रेमचंद जी से पूछ लिया जाए कि प्रेमचंद तू जिंदा क्यों है? प्रेमचंद पर उनके शोधकार्य की वैश्विक स्वीकृति का सबसे बडा कारण है शोध कार्य के तथ्य और तर्क का प्रमाण प्रस्तुत करना। इसके सामने उनके सभी विरोधी बगलें झांकने लगते हैं । वे हर खोज का प्रमाण साथ प्रस्तुत करते हैं ।
डा. गोयनका का प्रेमचंद पर काम अभी अधूरा है । वह किस दिशा में जायेगा , कब पूरा होगा, कैसे पूरा होगा इसका उत्तर संभव है डॉ. गोयनका स्वयं भी ना देना चाहें या दे ही न पाएं। डॉ.गोयनका बने ही शोधकार्य के लिए हैं ।
मात्र प्रेमचंद ही उनकी शोध दृष्टि में रहे हों ऐसा नहीं है वे जब भी जिस विषय पर लिखते हैं शोधपरक ही लिखते हैं । आपने वर्ष 1985 में एक पुस्तक संपादित की जिसका नाम है ’’जगदीश चतुर्वेदी- विवादास्पद रचनाकार’’ । इस पुस्तक से दो बातें बहुत स्पष्ट होती हैं- एक डॉ.गोयनका जब भी कुछ कहेंगे लिखेंगे प्रामाणिक होगा । तर्कगत होगा और पुष्टि हेतु तथ्य प्रस्तुत करेंगे । दूसरी बात डॉ. गोयनका की सोच मात्र प्रेमचंद तक सीमित नहीं है अपने समकालीन रचनाकारों को देखने समझने में भी वे उतने ही उत्सुक , जिज्ञासु और स्पष्ट दृष्टि वाले हैं । इस पुस्तक की भूमिका में आपने लिखा है -’’कई समकालीन मुझे आकर्षित करते थे , कुछ में मुझे अमित संभवनाएं दिखाई देती थीं, कुछ के व्यक्तित्वों में कशिश थी, कुछ मेरे समानधर्मा मेरे समीप थे किंतु मुझे एक ऐसे  व्यक्तित्व की तलाश थी जिस पर कार्य करने में , चाहे मेरी रुचि को देखते हुए अधिक अध्यवसाय करना पडे, लेकिन जो समकालीन साहित्य में निरन्तर विवादास्पद एवं बहुचर्चित रहा हो, जिसका सीधा सरोकार साहित्य के विस्तृत फलक से हो , जिसने साहित्य को नयी गति दी हो , किसी नयी सम्वेदना एवं भाषिक संरचना का निर्वाह किया हो ओर जिसमें अमित सम्भावनाएं अभी निःशेष न हुई हों।’’
डॉ. गोयनका की सोच अपने समकालीनों के प्रति इतनी व्यापक है कि वे उन्हें रचनाधर्मिता के तमाम धरातलों पर शोधपरक दृष्टि से देखना चाहते हैं । उन्होंने ऐसा किया भी । जगदीश चतुर्वेदी के व्यक्तित्व को उभारने के लिए अनेक ऐसे तथ्यों की खोज की जो एक शोधार्थी की दृष्टि में ही आ सकते हैं सामान्य व्यक्ति की में नहीं । इस कृति के पहले अध्याय के बारे में उन्होंने लिखा-’’पहले अध्याय में बावन वर्षीय जगदीश चतुर्वेदी की वर्षक्रम  से संक्षिप्त किंतु प्रामाणिक जीवनी की प्रस्तुति का प्रयास किया गया है । मैंने चाहा यह है कि कोई भी महत्वपूर्ण घटना या जीवन प्रसंग इस विवरण में छूट न जाय । उनके बचपन से लेकर अर्द्धशती पार करने तक के ये विवरण जुटाने में मुझे पत्रों के माध्यम से , व्यक्तिगत सम्पर्क द्वारा तथा स्वतः चतुर्वेदी से सहायता मिली है । वर्णनक्रम का ढंग मैंने ऐसा रखा है कि उसमें सच्चाई के साथ साथ कथात्मक गुण भी रहें । और रोचकता कम न होने पाये । इस तथ्यात्मक विवरण से रचनाकार के व्यक्तित्व एवं कृतित्व में रुचि रखने वाले पाठकों एवं शोधार्थियों को अवश्य लाभ होगा ।’’
डॉ. गोयनका ने जगदीश चवुर्वेदी के व्यक्तित्व को उभारने के लिए उनके बाह्य और आंतरिक दोनों पक्षों को बेहद संजीदगी के साथ साधा है । जिन लोगों से इस पुस्तक में लिखवाया अथवा जिनके लेखन को इस पुस्तक में शामिल किया गया उसमें एक कुशल संपादक की भूमिका यह सिद्ध करती है कि डॉ.गोयनका संपादकीय दायित्व के साथ भी सौ फीसद ईमानदार हैं ।
एक और पुस्तक की चर्चा करना भी आवश्यक लगता है क्योंकि यह पुस्तक भारत के ही नहीं अपितु विश्व के सर्वाधिक चर्चित लोगों में से एक महात्मा गांधी जी के ऊपर लिखी गयी है । पुस्तक का नाम है-’’गांधी : पत्रकारिता के प्रतिमान’’ । पुस्तक के शीर्षक से स्पष्ट है कि शोधार्थी गोयनका गांधी जी के पत्रकार व्यक्तित्व पर चिंतन प्रस्तुत कर रहे हैं । इस तरह के चिंतन पूर्व में भी हुए होंगे लेकिन डॉ.गोयनका की दृष्टि कुछ खास अंदाज की है । ये किस कदर के शोधार्थी हैं इसकी एक झलक इस पुस्तक की भूमिका से यूं समझी जा सकती है-’’यह पुस्तक मेरे दूसरे अमेरिका प्रवास ; अप्रेल सितम्बर 2006द्ध में लिखी गई थी। यहॉं सम्पूर्ण गांधी  वाड्मय 98 खंड में से हजारों पृष्ठ फोटोकॉपी कराकर ले गया था और मैनहटन , न्यूयार्क की पब्लिक लाइब्रेरी में बैठकर इसकी रचना हुई ।’’ इस पुस्तक में गांधी के पत्रकार व्यक्तित्व पर सधी हुई टिप्पणी करते हुए डॉ. गोयनका लिखते हैं कि -’’ गांधी स्वयं को शोकिया पत्रकार कहते थे, जबकि उन्हें लगभग चार दशकों की पत्रकारिता का अनुभव था तथा उन्होंने अंग्रेजी के साथ भारतीय भाषाओं में भी पत्रकारिता की थी ं वे भारत के सम्भवतः एकमात्र ऐसे पत्रकार थे जिन्होंने अंग्रेजी, हिंदी, गुजराती, तमिल तथा अन्य देशी भाषाओं की पत्रकारिता एक साथ की थी । अतः वे केवल अंग्रेजी के पत्रकार न थे, बल्कि वे भारतीय भाषाओं के भी पत्रकार थे , और इस रूप में वे सच्चे अर्थों में राष्ट्रीय पत्रकार थे ।’’ यहॉं गांधी को राष्ट्रीय पत्रकार घोषित कर डॉ. गोयनका ने अपनी राष्ट्रवादी सोच को भी स्थापित कर दिया है ।
एक और रोचक बात जो यहॉं दिखाई पडती है वह है एक शोधार्थी विदेश प्रवास के दौरान भी घूमने फिरने में समय व्यतीत नहीं करता अपितु उसकी दृष्टि में शोध सर्वोपरि रहता है । इस अध्ययन में उन्होंने यह स्थापना भी दी कि-’’गांधी ने पत्रकारिता में जो प्रतिमान बनाये वे उनके परम्परागत भारतीय ज्ञान, तात्कालिक भारतीय परिवेश, चिन्तन तथा संघर्ष से बने थे और उनमें भारतीयता की गहरी छाप थी । उन्होंने  पत्रकारिता में पश्चिम की नकल की प्रवृत्ति तथा उससे होने वाले प्रदूषण की भर्त्सना करते हुए भारतीय पत्रकारिता की नींव रखी और अपने राष्ट्र-बोध से उसके प्रतिमानों की सृष्टि की ।’’
इस पुस्तक की यह भी विशेषता है कि डॉ. गोयनका गांधी जी के पत्रकारिता जीवन की स्थापनाओं को सिलसिलेवार व्यवस्थित करते हैं । भारत की समस्याओं के बारे में गांधी जी की सोच को तिथिक्रम के साथ पृ. संख्या 38-39 पर प्रस्तुत किया है ।
गांधी जी के राष्ट्रप्रेम, संस्कृति प्रेम, देशाभिमान तथा भारत भक्ति संबंधी विचारों को एक सूत्र में पिरोते हुए डॉ.गोयनका इस पुस्तक के पृ0 सं0 109 पर बिंदुवार प्रस्तुत करते हैं । एक पत्रकार के गुणावगुणों तथा दायित्व के बारे में गांधी जी क्या आचार संहिता स्थापित करते हैं इसका व्यौरा बडी बारीकी के साथ पृ0सं0 124 से 129 तक दर्शाया गया है । वर्तमान पत्रकारिता पर आर्थिक दबाव बहुत बढ गया है यह दबाव गांधी जी के समय में भी था । गांधी जी पत्रकारिता और अर्थ के संबंध का कैसे निर्वाह करते हैं , इस संबंध में उनके क्या विचार थे इस पुस्तक की पृ0 सं0 134-135 पर पुनः बिंदुवार ब्यौरा प्रस्तुत किया है ।
डॉ. गोयनका की सूक्ष्म शोधपरक दृष्टि उन्हें हिंदी शोध का योद्धा सिद्ध करती है । यह संयोग नहीं डॉ. गोयनका के शोध परिश्रम का परिणाम था कि पहली बार व्यास सम्मान हिंदी में शोध समीक्षा के लिए वर्ष 2014 में दिया जाता है तथा इस पुरस्कार के शोधार्थी विजेता डॉ.कमल किशोर गोयनका बनते हैं । शोध समीक्षा के क्षेत्र में उनकी दूर तक की यात्रा जारी है। उसके और लंबी एवं सार्थक होने की शुभकामनाएं हमारी भी जारी हैं ।    


अन्वेषी : डॉ. कमल किशोर गोयनका


           

अन्वेषी : डॉ. कमल किशोर गोयनका

यूरोप (पोलैंड) में वार्सा यूनिवर्सिटी में आई.सी.सी.आर. की चेयर हिंदी पद की नियुक्ति होने पर मुझे खुशी हुई, यह बात सामान्य है। विशेष बात यह हुई कि मेरी भारतीयता, राष्ट्रीयता और भारतीय संस्कृति की आश्वस्ति को चार चाँद लग गए। खेद होने लगा कि भारत में हम राष्ट्रीय चेतना के संवाहकों को प्रश्न चिन्हित करके क्या दिखाना चाहते हैं। सूर्य के प्रकाश को ग्रहण कुछ समय के लिए ढक सकता है, हमेशा के लिए नहीं। यूरोप, अमेरिका, कनाड़ा, फीजी, मॉरीशस आदि देशों में प्रेमचंद के पर्याय माने-जाने वाले मेरे अग्रज, मेरे अध्यापक, मेरे गुरूवर डॉ. कमल किशोर गोयनका का नाम सभी वे लोग जिनका प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष रूप से हिंदी से संबंध है, श्रद्धाभाव से लेते हैं। प्रवासी साहित्यकारों के मन में ऐसी प्रेम गंगा किसी के प्रति ऐसे ही कल-कल करती हुई प्रवाहित नहीं होती है। प्रोफ़ेसर पुष्पिता अवस्थी जो नीदरलैंड में हिंदी यूनीवर्सल फाउण्डेशन की डायरेक्टर हैं, हिंदी साहित्य में एक अमूल्य निधि है। वे डॉ. कमल किशोर गोयनका में प्रेमचंद की परछाई देखती हैं। प्रेमचंद की गांधीवादी विचारधारा ने उन्हें राष्ट्र-सेवक के चरित्र की पहचान दी हैं।
       डेनमार्क की मशहूर कहानीकार अर्चना पैन्यूली का मानना है कि डॉ. कमल किशोर गोयनका की साधना को देखकर मैंने कथा-साहित्य की ओर लेखनी चलाई। उनके अद्भुत मानवीय-गुणों की सहजता और सरलता एक बार मिलने पर फिर मिलने को बेचैन करती है। अमेरिका में रची-बसी अंजना संधीर कहती हैं कि, 'डॉ. कमल किशोर गोयनका जी ने मेरी कश्मीर पर लिखी कविताओं और कहानियों पर उत्साहवर्धन शुभाशीष भेजी। उन्होंने प्रेमचंद जी के बारे में अनूठी जानकारियों से सबको विस्मित कर दिया।'
       ऐसे साधक, कर्मयोगी, भारतीयता का परचम लहराने वाले गुरूवर का जाकिर हुसैन महाविद्यालय, दिल्ली विश्वविद्यालय में नियुक्त होना और वहीं से सेवानिवृत्त हो जाना मुझे ही नहीं अपितु मुझे जैसे असंख्य लोगों को खटकता रहा। उस समय के तीन विद्वान डॉ. कमल किशोर गोयनका, डॉ. कृष्णदत्त पालीवाल और डॉ. लक्ष्मीनारायण भारद्वाज जिनकी तूती बोला करती थी। एक बार मिलने पर फिर मिलकर सुनने को मन बेताब रहता था। केवल डॉ. कृष्णदत्त पालीवाल अंतिम समय में विभाग में प्रोफ़ेसर बन सके। ऐसे समय में निराशा से ग्रस्त न होकर दुगने उत्साह से कर्मरत होना विरले महानुभावों के लक्षण होते हैं। गोयनका जी अपनी लेखनी और श्रम साधना से प्रोफ़ेसर के पद को एक तरफ करते हुए सृजन-कर्म में जुट गए। आज उनका नाम किसी परिचय का मोहताज नहीं है, अपने क्षेत्र, अपने देश और विश्व में अपनी, भारतीयता का ध्वजा फेरा रहे हैं। गोयनका जी को गांधी और प्रेमचंद की परछाई कहना अतिश्योक्ति न होगा। लोग जिस तरह से गांधी को केवल अपने हित में प्रयोग करते हैं, अवसर निकल जाने पर भूल जाते हैं। अधिकतर आलोचकों ने जहाँ खाया वहीं छेद किया है। एक वस्तुनिष्ठ दृष्टि ना होने के कारण कई साहित्यकार, तो कई विद्वान हाशिए पर चले गए। 31 वर्ष के अपने अध्यापन अनुभव में केवल एक ही नाम उभर कर आता है, जिसने अपनी विचारधार को, अपनी कर्मभूमि को, अपनी अन्वेषण दृष्टि को धूमिल नहीं होने दिया। आज भी शोधार्थी के रूप में सजग, कलम और डायरी लिए 80 वर्ष की लगभग आयु में कार्यरत दिखलाई पड़ते हैं। अध्यापकीय सहजता और सरलता से सम्पन्न जिज्ञासुओं को शांत ही नहीं करते हैं, अपितु आगे बढ़ने के लिए प्रेरित भी करते हैं।
       मैंने उन्हें कभी किसी की निंदा करते हुए नहीं देखा, अपितु बहुत सामान्य भाव से 'मेरे भाग्य में नहीं कोई क्या करे।' यह कहकर अगले पल अपने कार्य में जुड़ जाने वाले गोयनका जी का जीवन गंगा-सागर कैसे बना, यह विचारणीय बात है। लगभग आधी शताब्दी या यह कहें प्रेमचंद की रचनाओं पर विश्व में एक मात्र गोयनका जी ही हैं, जिन्होंने प्रेमचंद के साहित्य को राजनीति के गलियारों में भटकने से बचाया। उनके नित्य शोध उनकी रचनाओं में किसानों-मजदूरों, गांधी विचारधारा, स्वाधीनता और भारतीय संघर्ष-गाथा के अमरत्व को दिखाकर, भारतीय-दर्शन की अजेय-गाथा को गौरवान्वित किया है। भारतीय-दर्शन मृत्यु को भी उत्सव मानकर जीता है। झुकना, तिल-तिल कर मरना रंगभूमि के सूरदास को पसंद नहीं, सूरदास क्या गोयनका जी का जीवन इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है। अपने ऊपर गाल-बजाऊँ आलोचकों को उनकी लेखनी एवं अकाट्य तर्को ने बड़ी शालीनता से जवाब दिया है। स्वयं को सर्वश्रेष्ठ आलोचक मानने वालो को भी बगले झाँकनी पड़ गई। शर्म की बात यह है, जिन्होंने केवल गाल बजाए वे आक्षेप लगाते हैं, उन जैसा कर्म करके कुछ बोलते तो अच्छा भी लगता। प्रेमचंद विश्वकोश की दुनिया भर में चर्चा हुई, भारत में कुछ हिंदी मठाधीशों को अपने मूर्ख को समर्थन देने और दूसरे पंथ के विद्वान् को विद्वान् न समझने की भयंकर बीमारी रही है। उनके मुख से एक वाक्य प्रशस्ति का नहीं निकला।
गोयनका जी ने प्रेमचंद और गांधी को पढ़ा ही नहीं, अपने जीवन में उतारा है। यही उनके जीवन की सबसे बड़ी शक्ति बनी हैं। गांधी जिस तरह से अपने आलोचकों से भी बड़ी विनम्रता से बात करते थे, उसी प्रकार गोयनका जी प्रबल से प्रबल आलोचक को विनम्रता से बात करते हैं। वे अपना विरोधी किसी को मानते ही नहीं है, आप अपने मन में चाहें कैसी भी धारणा बनाए रखें। उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता है। उन्हें कोई सेठ कहे, तो कोई प्रेमचंद की दुकान चलाने वाला, तो कोई गऊछाप हिंदूवादी आदि आदि व्यंग्यों से अपनी विद्वता प्रकट करते रहे। परंतु सौम्य, मृदुभाषी, शांत प्रिय गोयनका जी ने सभी का उत्तर लेखनी से ही दिया।  जो मित्र साथ छोड़ गए वह गोयनका जी का भला ही कर गए। इमरजेंसी के समय जेल भी गए, परंतु जेल के कई महीनों के वास ने उनकी विचारधारा को डिगने नहीं दिया। उनका कर्मयोगी सा आचरण एवं क्रिया विधान ही उन्हें आज भारत ही नहीं विश्व में प्रेमचंद के साथ ही नहीं अन्य कई प्रवासी साहित्यकारों की अन्वेषण दृष्टि के साथ ख्याति दिला रहा है। उनकी पारखी दृष्टि प्रेमचंद तक ही नहीं अभिमन्यु अनत, हरिवंशराय बच्चन, हजारी प्रसाद द्विवेदी और राष्ट्रपिता गांधी की पत्रकारिता तक गई है। उन्होंने जिस पर नज़र डाली उसे स्थापित ही नहीं किया
अपितु उनके बारे में शोध के कई आयामों को  उजागर किया है। प्रेमचंद पर लगभग 23 और अन्य साहित्यकारों पर लगभग इतनी ही पुस्तकें  लिखने वाले आधुनिक युग के अकेले एकमात्र लेखक गोयनका जी की श्रम साधना को दर्शाता है। प्रवासी साहित्यकारों को मुख्यधारा से जोड़ने का श्रेय भी इन्हें ही है।
       गोयनका जी की प्रसिद्धि का कारण उनकी शोध-परक दृष्टि को माना जाता है। हिंदी साहित्य का शोध मात्र उपाधि तक ही रह जाता है, लेकिन उपाधि उपरान्त निरन्तर नयी दृष्टि से तर्क संगत, प्रमाण युक्त, क्रमानुसार विवेचना करने वाले लेखक गिनती के होते हैं। उनमें कमल किशोर गोयनका जी हैं। प्रेमचंद के पुत्रों ने भी अपने पिता पर इस प्रकार की साधना नहीं की होगी जिस प्रकार गोयनका जी ने की है। कारण स्पष्ट है भारतीयता, राष्ट्रप्रेम, गांधीवादी विचारधारा को आत्मसात करते हुए जीवन-जीना। अपने मूल्यों से समझौता न करना जीवन मंगल हो ऐसी कामना से कार्यरत होना। अभी भी उनका कार्य पूरा नहीं हुआ है, वे कौन सी नई परियोजना प्रेमचंद के बारे में या अन्य प्रवासी साहित्यकार के बारे में ले आएं।
       गोयनका जी एक पत्रकार के रूप में उभर कर आए हैं। तमाम साहित्यकारों ने उनके पत्र-व्यवहार की प्रशंसा की है। वे हमेशा पत्र का उत्तर देते हैं और पत्रों को संभाल कर रखते हैं। उनकी पत्रकारिता के क्षेत्र में 'गांधी : पत्रकारिता के प्रतिमान' पुस्तक विश्व में चर्चित हुई है। वे लिखते हैं, 'यह पुस्तक मेरे दूसरे अमेरिका प्रवास, अप्रैल-सितंबर 2006 में लिखी गई थी। यहाँ सम्पूर्ण गांधी वाङमय 98 खंड में से हजारों पृष्ठ फोटो कॉपी कराकर ले गया था और मैनहटन, न्यूयार्क की पब्लिक लाइब्रेरी में बैठकर इसकी रचना हुई।' इस पुस्तक पर गोयनका जी ने अपनी राष्ट्रीय-दृष्टि को उजागर किया है। वे गांधी जी को भारतीय स्वाधीनता आंदोलन में राष्ट्रपिता से अलग एक पत्रकार के रूप में स्थापित करते हैं। गांधी जी का पत्रकार रूप केवल अंग्रेजी भाषा में न होकर हिंदी, गुजराती और अन्य भारतीय भाषाओं में रहा है। गांधी जी के पत्रकार रूप से प्रभावित पंजाबी, मराठी, तमिल, गुजराती भाषाओं में पत्रकारिता ने भारत को जोड़ने का कार्य किया। गांधी जी का प्रवास भी मात्र भ्रमण हेतु नहीं रहा। उन्होंने वहाँ भी पैनी दृष्टि से जो देखा उसका तर्क संगत ब्यौरा दिया है। गोयनका जी यह भी बताते हैं कि गांधी जी की पत्रकारिता ने जो प्रतिमान स्थापित किए हैं वे भारतीय परिवेश, भारतीयता और संघर्ष-गाथा के जीते-जागते बिंब हैं। यही कारण है कि वे पत्रकार की पूरी आचार-संहिता को दर्शाते हैं। आज के समय में जिसका महत्त्व और भी बढ़ जाता है। गांधी की प्रासंगिकता आज और भी बढ़ गई है। जबकि पूरा देश ही नहीं विश्व भी शांति और विश्व मंगल की कामना कर रहा है। यह पुस्तक गांधी जी की सम्पूर्ण दृष्टि को उजागर करती है। गांधी जी के साथ-साथ गोयनका जी की उदारवादी, मानववादी, राष्ट्रवादी दृष्टि को भी दर्शाती है।
       प्रेमचंद को अनेक दृष्टियों से पढ़ा जाता है। संयोग से मैंने उनकी कहानियों को कालक्रम के नज़रिए से पढ़ा। प्रत्येक कहानी को पढ़ते ही उसके ऊपर अपनी टिप्पणी डाली। मैंने एक पाठक के नज़रिए से जो श्रेष्ठ रचनाएँ हो सकती हैं, उनका संकलन तैयार कर दिया। संयोग से यह संकलन भाग एक से दस तक विभाजित होकर पाठक के सामने आया है। जिस कालक्रम के नज़रिए को मैंने अध्ययन का आधार बनाया है, वह अंतरराष्ट्रीय ख्यति प्राप्त डॉ. कमल किशोर गोयनका की पुस्तक 'प्रेमचंद की कहानियों का कालक्रमानुसार अध्ययन' है। प्रत्येक कहानी को कालक्रमानुसार रखते हुए उस कहानी के कालक्रम और परिवेश के साथ कहानीकार की बदलती नई संवेदना और शिल्प को दिखाया गया।
       गोयनका जी प्रेमचंद को वाल्मीकि, व्यास, कबीर, तुलसीदास, भारतेंदु हरिश्चंद्र, महावीर प्रसाद द्विवेदी की परंपरा के कहानीकार मानते हैं और स्वाधीन भारत में भारतीयता की परिभाषा एवं उसकी प्रवृत्तियों को खोजने का काम प्रमुखतः आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी, अज्ञेय, विद्यानिवास मिश्र, निर्मल वर्मा, शैलेश मटियानी, रामस्वरूप चतुर्वेदी, नंद किशोर आचार्य, धर्मपाल मैनी को मानते हैं। लाल फीताशाही वाले तो भारतीयता को विभिन्न-विभिन्न विशेषणों से शोभित करते हुए, भारतीयता को भूल-भुलैया बना देते हैं। प्रेमचंद का साहित्य अगर आज मुख्यधारा से जुड़कर जीवित बचा है तो उसका श्रेय गोयनका जी को ही जाता है।
       व्यास सम्मान से सम्मानित डॉ. कमल किशोर गोयनका जी का मित्र, पंडित जी का संबोधन और चश्मे से झाँकती आत्मीयता से परिपूर्ण आँखें हृदय को गद् गद् कर देती हैं। मैं चाहे कितना गुरू मानूँ, लेकिन वे मुझे छोटे भाई और मित्र के रूप में ही स्नेह करते हैं। कई बार त्रसित-दुखित होकर मैं उनके पास गया। उनके मित्रवत् व्यवहार की संजीवनी ने मुझे लक्ष्मण मूर्च्छा से जीवित ही कर दिया। आज भी हम मित्र जब सोचते हैं, तो काँप उठते हैं, अगर हम उनका सुझाव ना मानते तो आज जीवन में कुछ और ही होते। जिस तरह से उन्होंने प्रेमचंद को कहानी सम्राट, हिंदी की राष्ट्रीय संस्कृति धारा का पहला कहानीकार कहा है, उसी तरह वह समकालीन साहित्यकारों, प्रवासी साहित्यकारों को भी स्थापित करते चलते हैं, साथ ही साथ अनुजों को भी विशेषणों से सुशोभित करके कार्यरत होने की प्ररेणा देते हैं।
       हमारी पीढ़ी का यह सौभाग्य है कि ऐसे कर्मठ, समालोचक वस्तुनिष्ठ दृष्टि रखने वाले एक प्रख्यात अध्यापक, अन्वेषण कर्ता से हम आसानी से मिल सकते हैं। अपनी जिज्ञासाएँ शांत कर सकते हैं, उनसे बहुत सीख सकते हैं। वे अपने आप में अपने सानी हैं, उन जैसा कोई दूसरा नहीं है। प्रेम, आस्था, सादा-जीवन, उच्च विचार, जियो और जीने दो के समर्थक सबके शुभ चिंतक से संपर्क होना मेरे लिए अति गौरव की बात है। उन्हें शत्-शत् नमन करते हुए शब्दों को विराम।
डॉ. सुधांशु कुमार शुक्ला
आई.सी.सी.आर.
चेयर हिंदी,
वार्सा यूनिवर्सिटी,
वार्सा पोलैंड
+48579125129