शनिवार, 30 मार्च 2019

हिंदी शोध के प्रतिमान : डॉ.कमलकिशोर गोयनका



हिंदी शोध के प्रतिमान : डॉ.कमलकिशोर गोयनका
डॉ.नृत्य गोपाल शर्मा
हंसराज कॉलेज,
बीसवीं शताब्दी का पूर्वार्द्ध हिंदी के व्यवस्थापन का काल है । इस कार्य को व्यवस्थित रूप देने का श्रेय नागरी प्रचारिणी सभा वाराणसी को जाता है । हिंदी साहित्य का इतिहास- आचार्य रामचंद्र शुक्ल, हिंदी व्याकरण -कामताप्रसाद गुरु, साहित्य की दिशा निर्धारित करने वाली पत्रिका सरस्वती , इसके यशस्वी संपादक श्री महावीर प्रसाद द्विवेदी, हिंदी शब्द संपदा का व्यवस्थापन करने वाले बाबू श्याम सुंदर दास, मध्यकालीन कवियों की ग्रंथावलियों का प्रकाशन करने में लक्ष्मीधर मालवीय तथा पं.सुधाकर पाण्डेय का योगदान । ये सब 20 वीं शती के पूर्वार्द्ध में होता है ।
रचनात्मक लेखन में कहानी, उपन्यास, निबंध, आलोचना, नाटक, जीवनी, संस्मरण और इन सबके साथ महत्वपूर्ण विधा कविता के आधुनिक काल का स्वर्ण युग छायावाद इसी दौर की घटना है । उपरलिखित तमाम गद्य विधाओं का आरंभ भलेहि भारतेंदु युग में हुआ हो किंतु विकास के  केंद्र में इसी समय के रचनाकार हैं ।
20वीं शती के उत्तरार्द्ध में साहित्य के क्षेत्र में जो घटनाक्रम अपनी ओर आकर्षित करता है वह है हिंदी में शोध कार्यों की गति । हिंदी में शोध की नई प्रक्रिया आरंभ होती है जिसका स्वरूप  अकादमिक होता है । अब इससे हिंदी के अध्येताओं को उपाधि मिलती हैं । अनेक लोगों के नाम के आगे डॉ. शब्द  जुडता है । डॉ.पीतांबर दत्त बडत्थवाल, डॉ.नगेन्द्र, डॉ.प्रेम टंडन, डॉ.नामवर सिंह आदि हिंदी में शोधकार्य करने वाले आरंभिक शोधार्थी हैं ।
अनेक शोधकार्य होने के बावजूद भी हिंदी शोध का मूल्यांकन अभी तक नहीं हो पाया है । इसका एक कारण यह है कि किसी भी शोधकार्य को उपाधि प्राप्त करने से आगे बढाने की हिंदी जगत में कोई मंशा दिखाई नहीं पडती है । वर्तमान समय में हिंदी क्षेत्र में अपने शोध कार्य को दूर तक ले जाने की दृढइच्छा वाला कोई एक निर्विवाद शोधार्थी दिखाई पडता है तो वे हैं डॉ.कमल किशोर गोयनका । सम्पूर्ण हिंदी जगत इस तथ्य को स्वीकार करता है कि अभी तक किसी एक रचनाकार पर हिंदी में सर्वाधिक शोध कार्य यदि किसी एक शोधार्थी ने किया है तो वे हैं डॉ.कमल किशोर गोयनका और उनके शोध के विषय हैं यशस्वी कथाकार मुंशी प्रेमचंद ।
डॉ.कमल किशोर गोयनका मुंशी प्रेमचंद के साहित्यिक योगदान पर लगभग 30 पुस्तकेंं लिख चुके हैं । पी-एच.डी. की उपाधि प्राप्त करने हेतु आपके शोध का विषय था ’’प्रेमचंद के उपन्यासों का शिल्प विधान।’’ यह कार्य किया था उन्होंने वर्ष .1972 तब से अब तक प्रेमचंद के ऊपर लगभग 25 शोधपूर्ण  पुस्तकें आप लिख चुके हैं और हर रोज शोध के लिए एक नया विषय खोज लेते हैं । एक कार्य पूरा होता नहीं कि दूसरे शोध क्षेत्र के साथ प्रेमचंद उनके सामने आ खडे होते हैं और वे उस पर काम शुरू भी कर देते हैं । हिंदी जगत में विनाशकारी झोला झंडा ने अनेक रचनाकारों पर लाल लकीर खींच एक टोकरी में फेंककर निरर्थक कर दिया है । ऐसे में प्रेमचंद भी कबके निरर्थक हो गये होते यदि डॉ.गोयनका ने इस रचनाकार को उस खांचे से खींचकर बाहर ना निकाला होता? मन होता है प्रेमचंद जी से पूछ लिया जाए कि प्रेमचंद तू जिंदा क्यों है? प्रेमचंद पर उनके शोधकार्य की वैश्विक स्वीकृति का सबसे बडा कारण है शोध कार्य के तथ्य और तर्क का प्रमाण प्रस्तुत करना। इसके सामने उनके सभी विरोधी बगलें झांकने लगते हैं । वे हर खोज का प्रमाण साथ प्रस्तुत करते हैं ।
डा. गोयनका का प्रेमचंद पर काम अभी अधूरा है । वह किस दिशा में जायेगा , कब पूरा होगा, कैसे पूरा होगा इसका उत्तर संभव है डॉ. गोयनका स्वयं भी ना देना चाहें या दे ही न पाएं। डॉ.गोयनका बने ही शोधकार्य के लिए हैं ।
मात्र प्रेमचंद ही उनकी शोध दृष्टि में रहे हों ऐसा नहीं है वे जब भी जिस विषय पर लिखते हैं शोधपरक ही लिखते हैं । आपने वर्ष 1985 में एक पुस्तक संपादित की जिसका नाम है ’’जगदीश चतुर्वेदी- विवादास्पद रचनाकार’’ । इस पुस्तक से दो बातें बहुत स्पष्ट होती हैं- एक डॉ.गोयनका जब भी कुछ कहेंगे लिखेंगे प्रामाणिक होगा । तर्कगत होगा और पुष्टि हेतु तथ्य प्रस्तुत करेंगे । दूसरी बात डॉ. गोयनका की सोच मात्र प्रेमचंद तक सीमित नहीं है अपने समकालीन रचनाकारों को देखने समझने में भी वे उतने ही उत्सुक , जिज्ञासु और स्पष्ट दृष्टि वाले हैं । इस पुस्तक की भूमिका में आपने लिखा है -’’कई समकालीन मुझे आकर्षित करते थे , कुछ में मुझे अमित संभवनाएं दिखाई देती थीं, कुछ के व्यक्तित्वों में कशिश थी, कुछ मेरे समानधर्मा मेरे समीप थे किंतु मुझे एक ऐसे  व्यक्तित्व की तलाश थी जिस पर कार्य करने में , चाहे मेरी रुचि को देखते हुए अधिक अध्यवसाय करना पडे, लेकिन जो समकालीन साहित्य में निरन्तर विवादास्पद एवं बहुचर्चित रहा हो, जिसका सीधा सरोकार साहित्य के विस्तृत फलक से हो , जिसने साहित्य को नयी गति दी हो , किसी नयी सम्वेदना एवं भाषिक संरचना का निर्वाह किया हो ओर जिसमें अमित सम्भावनाएं अभी निःशेष न हुई हों।’’
डॉ. गोयनका की सोच अपने समकालीनों के प्रति इतनी व्यापक है कि वे उन्हें रचनाधर्मिता के तमाम धरातलों पर शोधपरक दृष्टि से देखना चाहते हैं । उन्होंने ऐसा किया भी । जगदीश चतुर्वेदी के व्यक्तित्व को उभारने के लिए अनेक ऐसे तथ्यों की खोज की जो एक शोधार्थी की दृष्टि में ही आ सकते हैं सामान्य व्यक्ति की में नहीं । इस कृति के पहले अध्याय के बारे में उन्होंने लिखा-’’पहले अध्याय में बावन वर्षीय जगदीश चतुर्वेदी की वर्षक्रम  से संक्षिप्त किंतु प्रामाणिक जीवनी की प्रस्तुति का प्रयास किया गया है । मैंने चाहा यह है कि कोई भी महत्वपूर्ण घटना या जीवन प्रसंग इस विवरण में छूट न जाय । उनके बचपन से लेकर अर्द्धशती पार करने तक के ये विवरण जुटाने में मुझे पत्रों के माध्यम से , व्यक्तिगत सम्पर्क द्वारा तथा स्वतः चतुर्वेदी से सहायता मिली है । वर्णनक्रम का ढंग मैंने ऐसा रखा है कि उसमें सच्चाई के साथ साथ कथात्मक गुण भी रहें । और रोचकता कम न होने पाये । इस तथ्यात्मक विवरण से रचनाकार के व्यक्तित्व एवं कृतित्व में रुचि रखने वाले पाठकों एवं शोधार्थियों को अवश्य लाभ होगा ।’’
डॉ. गोयनका ने जगदीश चवुर्वेदी के व्यक्तित्व को उभारने के लिए उनके बाह्य और आंतरिक दोनों पक्षों को बेहद संजीदगी के साथ साधा है । जिन लोगों से इस पुस्तक में लिखवाया अथवा जिनके लेखन को इस पुस्तक में शामिल किया गया उसमें एक कुशल संपादक की भूमिका यह सिद्ध करती है कि डॉ.गोयनका संपादकीय दायित्व के साथ भी सौ फीसद ईमानदार हैं ।
एक और पुस्तक की चर्चा करना भी आवश्यक लगता है क्योंकि यह पुस्तक भारत के ही नहीं अपितु विश्व के सर्वाधिक चर्चित लोगों में से एक महात्मा गांधी जी के ऊपर लिखी गयी है । पुस्तक का नाम है-’’गांधी : पत्रकारिता के प्रतिमान’’ । पुस्तक के शीर्षक से स्पष्ट है कि शोधार्थी गोयनका गांधी जी के पत्रकार व्यक्तित्व पर चिंतन प्रस्तुत कर रहे हैं । इस तरह के चिंतन पूर्व में भी हुए होंगे लेकिन डॉ.गोयनका की दृष्टि कुछ खास अंदाज की है । ये किस कदर के शोधार्थी हैं इसकी एक झलक इस पुस्तक की भूमिका से यूं समझी जा सकती है-’’यह पुस्तक मेरे दूसरे अमेरिका प्रवास ; अप्रेल सितम्बर 2006द्ध में लिखी गई थी। यहॉं सम्पूर्ण गांधी  वाड्मय 98 खंड में से हजारों पृष्ठ फोटोकॉपी कराकर ले गया था और मैनहटन , न्यूयार्क की पब्लिक लाइब्रेरी में बैठकर इसकी रचना हुई ।’’ इस पुस्तक में गांधी के पत्रकार व्यक्तित्व पर सधी हुई टिप्पणी करते हुए डॉ. गोयनका लिखते हैं कि -’’ गांधी स्वयं को शोकिया पत्रकार कहते थे, जबकि उन्हें लगभग चार दशकों की पत्रकारिता का अनुभव था तथा उन्होंने अंग्रेजी के साथ भारतीय भाषाओं में भी पत्रकारिता की थी ं वे भारत के सम्भवतः एकमात्र ऐसे पत्रकार थे जिन्होंने अंग्रेजी, हिंदी, गुजराती, तमिल तथा अन्य देशी भाषाओं की पत्रकारिता एक साथ की थी । अतः वे केवल अंग्रेजी के पत्रकार न थे, बल्कि वे भारतीय भाषाओं के भी पत्रकार थे , और इस रूप में वे सच्चे अर्थों में राष्ट्रीय पत्रकार थे ।’’ यहॉं गांधी को राष्ट्रीय पत्रकार घोषित कर डॉ. गोयनका ने अपनी राष्ट्रवादी सोच को भी स्थापित कर दिया है ।
एक और रोचक बात जो यहॉं दिखाई पडती है वह है एक शोधार्थी विदेश प्रवास के दौरान भी घूमने फिरने में समय व्यतीत नहीं करता अपितु उसकी दृष्टि में शोध सर्वोपरि रहता है । इस अध्ययन में उन्होंने यह स्थापना भी दी कि-’’गांधी ने पत्रकारिता में जो प्रतिमान बनाये वे उनके परम्परागत भारतीय ज्ञान, तात्कालिक भारतीय परिवेश, चिन्तन तथा संघर्ष से बने थे और उनमें भारतीयता की गहरी छाप थी । उन्होंने  पत्रकारिता में पश्चिम की नकल की प्रवृत्ति तथा उससे होने वाले प्रदूषण की भर्त्सना करते हुए भारतीय पत्रकारिता की नींव रखी और अपने राष्ट्र-बोध से उसके प्रतिमानों की सृष्टि की ।’’
इस पुस्तक की यह भी विशेषता है कि डॉ. गोयनका गांधी जी के पत्रकारिता जीवन की स्थापनाओं को सिलसिलेवार व्यवस्थित करते हैं । भारत की समस्याओं के बारे में गांधी जी की सोच को तिथिक्रम के साथ पृ. संख्या 38-39 पर प्रस्तुत किया है ।
गांधी जी के राष्ट्रप्रेम, संस्कृति प्रेम, देशाभिमान तथा भारत भक्ति संबंधी विचारों को एक सूत्र में पिरोते हुए डॉ.गोयनका इस पुस्तक के पृ0 सं0 109 पर बिंदुवार प्रस्तुत करते हैं । एक पत्रकार के गुणावगुणों तथा दायित्व के बारे में गांधी जी क्या आचार संहिता स्थापित करते हैं इसका व्यौरा बडी बारीकी के साथ पृ0सं0 124 से 129 तक दर्शाया गया है । वर्तमान पत्रकारिता पर आर्थिक दबाव बहुत बढ गया है यह दबाव गांधी जी के समय में भी था । गांधी जी पत्रकारिता और अर्थ के संबंध का कैसे निर्वाह करते हैं , इस संबंध में उनके क्या विचार थे इस पुस्तक की पृ0 सं0 134-135 पर पुनः बिंदुवार ब्यौरा प्रस्तुत किया है ।
डॉ. गोयनका की सूक्ष्म शोधपरक दृष्टि उन्हें हिंदी शोध का योद्धा सिद्ध करती है । यह संयोग नहीं डॉ. गोयनका के शोध परिश्रम का परिणाम था कि पहली बार व्यास सम्मान हिंदी में शोध समीक्षा के लिए वर्ष 2014 में दिया जाता है तथा इस पुरस्कार के शोधार्थी विजेता डॉ.कमल किशोर गोयनका बनते हैं । शोध समीक्षा के क्षेत्र में उनकी दूर तक की यात्रा जारी है। उसके और लंबी एवं सार्थक होने की शुभकामनाएं हमारी भी जारी हैं ।    


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