'गार्सां द तासी'
हिंदुओं में राजा शिवप्रसाद अंग्रेजों के उसी ढंग
के कृपापात्र थे जिस ढंग से सर सैयद अहमद। अत: हिन्दी की रक्षा के लिए उन्हें खड़ा
होना पड़ा और वे बराबर इस संबंध में प्रयत्नशील रहे। इससे हिन्दी उर्दू का झगड़ा
बीसों वर्ष तक ये कहें की भारतेंदु के समय तक चलता
रहा। हिन्दी उर्दू के झगड़े में तासी का नाम भी जानना जरूरी है। यहाँ उनके जीवन पर
प्रकाश डालना जरूरी है।
तासी के इस्त्वार द ल लितरेत्यूर ऐंदूई ऐ
ऐंदूस्तानी- इस ग्रंथ के दो संस्करण प्रकाशित है एक 1839 में दूसरा 1847 में हुआ।
इसमें 738 कवियों और लेखकों की जीवनियाँ और ग्रंथों का उल्लेख है। इसके भूमिका में
16 और कुल 630 पृष्ठ हैं। 'गार्सां द तासी' एक फ्रांसीसी
विद्वान थे जो पेरिस में हिंदुस्तानी या उर्दू के अध्यापक थे। डॉ लक्ष्मीसागर
वार्ष्णेय ने इस्त्वार द ल लितरेत्यूर ऐंदूई ऐ ऐंदूस्तानी पुस्तक का अनुवाद किया।
उसकी भूमिका में वे लिखते हैं कि तासी का जीवन संबंधी विवरण उपलब्ध न हो सका।
इस समय उन्ही के उल्लेखानुसार केवल इतना ही कहा जा सकता है कि वे फ्रांस के एक
राजकीय और विशेष स्कूल में जीवित पूर्वी भाषाओं के प्रोफेसर रहे। इसके साथ ही
उन्होंने अनेक संस्थाओं के नाम भी लिखे हैं, जिनसे वो जुड़े रहे। तासी को स्टार
ऑव दि साउथ पोल की उपाधियाँ भी प्राप्त
थी। आचार्य शुक्ल के मतानुसार, 'गार्सां द तासी' एक फ्रांसीसी
विद्वान थे जो पेरिस में हिंदुस्तानी या उर्दू के अध्यापक थे। उन्होंने संवत् 1896 में 'हिंदुस्तानी
साहित्य का इतिहास' लिखा था जिसमें उर्दू के कवियों के साथ हिन्दी के
भी कुछ विद्वान कवियों का उल्लेख था। डॉ लक्ष्मीसागर वार्ष्णेय जी लिखते हैं कि, प्रेमसागर को तासी काफी
महत्त्व देते थे और उसका उन्होंने जिस प्रकार विश्लेषण किया है, उससे उनके कट्टर
ईसाई होने का प्रमाण मिलता है।
तासी ने हिंदी कवियों का परिचय देने के लिए
भक्तमाल का सहारा लिया था, वह पढ़ने के लिए फोर्ट विलियम कॉलेज के पुस्तकालय का
सहारा लेते थे। डॉ लक्ष्मीसागर वार्ष्णेय जी के मतानुसार- तासी द्वारा भक्तमाल
से लिए गए अवतरणों का फ्रेंच से हिन्दी में अनुवाद करते समय मैंने छप्पय सर्वत्र
और कुछ अन्य उपयुक्त अंश मूल भक्तमाल से ही ले लिए हैं। वे आगे लिखते है कि तासी
ने हिन्दी उर्दू के मूल ग्रन्थों का अवलोकन करने के साथ साथ भारतीय तथा यूरोपीय
विद्वानों द्वारा निर्मित संदर्भ ग्रन्थों का आश्रय भी ग्रहण किया था। इन सभी
ग्रन्थों का उल्लेख उन्होनें साहित्य के इतिहास की भूमिका में किया गया है उदाहरण
के लिए नाभादास का भक्तमाल, कृष्णानन्द व्यासदेव का राग कल्पद्रुम आदि।
तासी के समय भारत में अंग्रेजी शासन रहा और कुछ
राज्यों में मुसलमान बादशाह थे। बादशाह सदा से एक हिन्दी सेक्रेटरी, जो हिन्दीनवीस कहलाता था और एक फारसी सेक्रेटरी, जिसको फारसीनवीस कहते थे, रखा करते थे। जिससे उनकी आज्ञाएँ दोनों भाषाओं में लिखी जायँ।
इस प्रकार विचार करें तो भारत की शासन व्यवस्था आदिकाल से ही द्विभाषिक नीति के
साथ चली है। अंग्रेज सरकार पश्चिमोत्तार प्रदेश में हिंदू जनता के लिए प्राय:
सरकारी कानूनों का नागरी अक्षरों में हिन्दी अनुवाद भी उर्दू कानूनी पुस्तकों के
साथ देती है। तासी के व्याख्यानों से पता लगता है कि उर्दू के अदालती भाषा नियत हो
जाने पर कुछ दिन सीधी भाषा और नागरी अक्षरों में भी कानूनों और सरकारी आज्ञाओं के
हिन्दी अनुवाद छपते रहे। जान पड़ता है कि उर्दू के पक्षपातियों का जोर जब बढ़ा तब
उनका छपना एकदम बंद हो गया। जैसा कि अभी कह आए हैं राजा शिवप्रसाद और भारतेंदु के
समय तक हिन्दी-उर्दू का झगड़ा चलता रहा। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के अनुसार, ''ग्रार्सां द तासी ने संवत् 1909 के आसपास हिन्दी और उर्दू दोनों का रहना आवश्यक
समझा था और कभी कहा था कि, यद्यपि मैं खुद उर्दू का बड़ा भारी पक्षपाती हूँ, लेकिन मेरे विचार में हिन्दी को विभाषा या बोली
कहना उचित नहीं। '' आचार्य शुक्ल लिखते हैं कि, 'ग्रार्सां द तासी आगे चलकर, मजहबी कट्टरपन की प्रेरणा से, सर सैयद अहमद की भरपेट तारीफ करके हिन्दी के
संबंध में फरमाते हैं , इस वक्त हिन्दी की हैसियत भी एक बोली (डायलेक्ट)
की सी रह गई है, जो हर गाँव में अलग अलग ढंग से बोली जाती है।' तासी के उर्दू के प्रेम के विषय में शुक्ल लिखते
हैं कि, 'संवत् 1927 के अपने व्याख्यान में गार्सां द तासी ने साफ
खोलकर कहा, मैं सैयद अहमद खाँ जैसे विख्यात मुसलमान विद्वान
की तारीफ में और ज्यादा नहीं कहना चाहता हूँ। उर्दू भाषा और मुसलमानों के साथ मेरा
जो लगाव है वह कोई छिपी हुई बात नहीं है।'
हिन्दी की रक्षा के लिए उन्हें उर्दू के
पक्षपातियों से उसी प्रकार लड़ना पड़ता था जिस प्रकार यहाँ राजा शिवप्रसाद को।
विद्या की उन्नति के लिए लाहौर में 'अंजुमन लाहौर' नाम की एक सभा स्थापित थी। संवत् 1923 के उसके एक अधिावेशन में किसी सैयद हादी हुसैन
खाँ ने एक व्याख्यान देकर उर्दू को ही देश में प्रचलित होने के योग्य कहा, उस सभा की दूसरी बैठक में नवीनबाबू ने खाँ साहब
के व्याख्यान का पूरा खंडन करते हुए कहा, उर्दू
के प्रचलित होने से देशवासियों को कोई लाभ न होगा क्योंकि वह भाषा खास मुसलमानों
की है। उसमें मुसलमानों ने व्यर्थ बहुत से अरबी फारसी के शब्द भर दिए हैं। पद्य या
छंदोबद्ध रचना के भी उर्दू उपयुक्त नहीं। हिंदुओं का यहर् कत्ताव्य है कि ये अपनी
परंपरागत भाषा की उन्नति करते चलें। उर्दू में आशिकी कविता के अतिरिक्त किसी गंभीर
विषय को व्यक्त करने की शक्ति ही नहीं है। नवीन
बाबू के इस व्याख्यान की खबर पाकर इसलामी तहबीज के पुराने हामी, हिन्दी के पक्के दुश्मन गार्सां द तासी फ्रांस
में बैठे बैठे बहुत झल्लाए और अपने एक प्रवचन में उन्होंने बड़े जोश के साथ हिन्दी
का विरोध और उर्दू का पक्षमंडन किया तथा नवीन बाबू को कट्टर हिंदू कहा।
जब जहाँ कहीं हिन्दी का नाम लिया जाता तब तासी
बड़े बुरे ढंग से विरोध में कुछ न कुछ इस तरह की बातें कहता। सर सैयद अहमद का अंगरेज अधिकारियों पर कितना
प्रभाव था, यह पहले कहा जा चुका है। संवत् 1925 में इस प्रांत के शिक्षा विभाग के अधयक्ष हैवेल
साहब ने अपनी यह राय जाहिर की कि , यह अधिक
अच्छा होता यदि हिंदू बच्चों को उर्दू सिखाई जाती न कि एक ऐसी 'बोली' में विचार प्रकट
करने का अभ्यास कराया जाता जिसे अंत में एक दिन उर्दू के सामने सिर झुकाना पड़ेगा।
इस राय को गार्सां द तासी ने बड़ी खुशी के साथ
अपने प्रवचन में शामिल किया। इसी प्रकार इलाहाबाद इंस्टीटयूट के एक अधिावेशन में
(संवत् 1925) जब यह विवाद हुआ था कि 'देसी जबान' हिन्दी को मानें या
उर्दू को, तब हिन्दी के पक्ष में कई वक्ता उठकर बोले थे। गार्सां
द तासी ने हिन्दी के पक्ष में बोलने वालों का उपहास किया था। उसी काल में इंडियन डेली न्यूज के एक लेख में
हिन्दी प्रचलित किए जाने की आवश्यकता दिखाई गई थी। उसका भी जवाब देने तासी साहब
खड़े हुए थे। 'अवध अखबार' में जब एक बार
हिन्दी के पक्ष में लेख छपा था तब भी उन्होंने उसके संपादक की राय का जिक्र करते
हुए हिन्दी को एक 'भद्दी बोली' कहा था जिसके अक्षर
भी देखने में सुडौल नहीं लगते।
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