ठाकुर का कुआँ (प्रेमचंद)
सन् 1932 में प्रकाश में आई प्रेमचंद की
कहानी 'ठाकुर का कुआँ' अपने छोटे से कलेवर में बड़ी बात कहती नजर आती है। कहानी ग्रामीण
परिवेश मं उबरे जात-पात और ऊँच-नीच के बीच भेद को उजागर करती है। कहानी में दलित
जोखू और उसकी पत्नी गंगी मुख्य पात्र है। दलित जोखू दूषित पानी पीने को मजबूर है।
जबकि पत्नी उसे वह पानी नहीं पीने देती और हट करके ठाकुर के कुएँ से पानी लेने जाती
है। डरी हुई गंगी जैसे ही कुएँ से पानी निकालने लगती है और पानी का घड़ा भरकर कुएँ
के ऊपर तक आ जाता है तो ठाकुर का दरवाजा खुलता है जिससे गंगी के हाथ से रस्सी छूट
जाती है और घड़ा फूट जाता है। घड़ा गिरते ही वह वहाँ ले दौड़ी घर को आती है तथा
जोखू को दूषित पानी पीते देख उसे रोक नहीं पाती है।
दलित विमर्श को लेकर प्रेमचंद की कहानी
1930 में प्रकाशित सद्गति भी है। इनके आलावा भी हिंदी में दलित विमर्श को लेकर
बहुत सारी कहानियाँ प्रकाश में आई हैं ओम प्रकाश बाल्मीकि की काहनी अम्मा, यह अंत
नहीं, खानाबदोश। ज्ञानरंजन की कहानी मनु आदि।
प्रेमचंद ग्रामीण परिवेश पर कहानी लिखने वाले
रचनाकार रहे हैं उनका मूल उद्देश्य ग्रामिणों की समस्याओं को सभी के सामने लाना
रहा है। कहानी में बहुत से बिंदुओं पर विचार किया गया है, जो इस प्रकार है-
1.
जातिगत भेदभाव।
2.
निम्न वर्ग और उच्च वर्ग का भेद।
3.
समाज में असमानता को दिखाना।
4.
कृषक या मजदूर की दशा।
5.
आर्थिक विपन्नता।
6.
जमींदारी प्रथा।
कुत्ते की पूँछ (यशपाल)
कुत्ते की पूँछ 1951 में प्रकाशित यशपाल की कहानी
है। यशपाल के साहित्य में हर वर्ग को देखा जा सकता है, यहाँ कुत्ते की पूँछ कहानी
के माध्यम से लेखक बालश्रम और बाल मनोविज्ञान दोनों को ही दिखाना चाहता है। साथ ही
वह मध्यवर्गीय परिवार की स्थिति को भी उजागर करता है। हरीश (हरूआ) जिसे कढ़ाई में
सोता हुआ देखकर श्रीमान और श्रीमती जी के दिल में उसे स्वतंत्र कराने की सोची और
पैसे देकर अपने घर पर अपने बच्चे बिशू के साथ रखते हैं। लेकिन हरूआ कहाँ बदलने
वाला था। उसकी हरकत वैसी की वैसी ही रही और अंत में लेखक लिखता है कि 'मनुष्यता का चसका किसी को लग जाने पर उसे जानवर
बनाये रखना भी सम्भव नहीं।'
बालमन को लेकर हिंदी साहित्य में और भी
कहानियाँ लिखी गई हैं, जिनमें प्रेमचंद की ईदगाह, रामलीला, गुल्ली डंडा। रांघेय
राघव की गूंगे। जयशंकर प्रसाद की कहानी छोटा जादूगर। सियाराम शरण गुप्त की काकी। रवीन्द्रनाथ टैगोर की काबुली वाला आदि।
कहानी के महत्त्वपूर्ण
बिन्दू इस प्रकार हैः-
1.
बालश्रम
और बालमन
2.
करूणा
और उदारता
3.
मध्यवर्गीय
स्वार्थ
4.
संवेदनशीलता
और हृद्य परिवर्तन
5.
शोषित
पीडित मनुष्य की चेतना
6.
संघर्ष
और समाज
भोलाराम का जीव (हरिशंकर परसाई)
भोलाराम का जीव नामक कहानी भारत के हर उस दफ्तर के
कर्मचारी की है, जो रिश्वत न देने के कारण कागजों में ही फँस कर रह जाता है। कहानी
अपने छोटे से कलेवर में कर्मचारियों की समस्या, पारिवारिक समस्या, रिश्वतखोरी,
भ्रष्टतंत्र, मध्यमवर्ग का जीवन और सामाजिक धरातल को दिखाती नज़र आती है। कहानी
में भोलाराम
नाम के एक ऐसे व्यक्ति की कथा है, जो मृत्यु के बाद यमदूत की पर्याप्त सावधानी के
बावजूद यमराज के दरबार में नहीं पहुँच पाता। धर्मराज, चित्रगुप्त और
यमदूतµसभी
इस नयी समस्या से परेशान हैं क्योंकि ऐसा पहले कभी नहीं हुआ था। इस नयी स्थिति पर
सोच-विचार करते हुए वे अनुमान लगाते हैं कि आजकल पृथ्वीलोक में भ्रष्टाचार और
राजनैतिक दाव-पेंचों का बोलबाला है, कहीं भोलाराम की आत्मा भी तो इन दाव-पेंचों की
शिकार नहीं हो गयी। परंतु यह अनुमान निराधार प्रतीत होता है क्योंकि वह किसी
प्रभावशाली व्यक्ति की आत्मा नहीं थी, वह तो एक अतिसामान्य नागरिक की आत्मा थी जिससे
किसी का भी स्वार्थ सिद्ध नहीं हो सकता था।
कहानी
में नारद जी का भी प्रवेश होता है, वे भोलाराम नामक जीव की विचित्र समस्या के
समाधान हेतु धर्मराज से उसकी जाँच-पड़ताल
का दायित्व लेते हैं और भोलाराम का नाम-पता पूछकर उसकी खोज में पृथ्वी लोक पर आ
जाते हैं। सबसे पहले वे भोलाराम के घर पहुँचते हैं, उन्हें सबसे पहले किसी ऐसे स्रोत का पता लगाना था, जिसके प्रति भोलाराम का मोह हो और उसकी आत्मा
वहीं अटक गयी हो। बातचीत से उन्हें मोह का कारण तो ज्ञान नहीं हुआ बस यही पता लग
पाया कि सरकारी दफ्तर से रिटायर होने के पाँच वर्ष बाद भी उनकी पेंशन नहीं मिल
सकी। उसे पाने के लिए वे निरंतर प्रयत्न करते रहे लेकिन कुछ हासिल न हो सका।
नियमित आय और अन्य कोई काम ने होने के कारण अब भूखों मरने की नौबत आ गयी। भोलाराम
की पत्नी नारद जी से आग्रह करती है कि वे ही उसकी पेंशन के लिए प्रयत्न करें जिससे
कि उसके परिवार का लालन पालन हो सके। नारद जी सरकारी दफ्तर में जाते हैं, जहाँ कि
भोलाराम की पेंशन की फाइल रुकी पड़ी थी। दफ्तर के कर्मचारियों से पता चला कि
भोलाराम की अर्जियों पर इसलिए निर्णय नहीं लिया जा सका था कि उन पर वजन नहीं रखा
गया था अर्थात् रिश्वत नहीं दी गई थी, जिसके चलते वे अर्जियाँ हवा में उड़ गयीं।
दफ्तर में इतने सारे पेपरवेट रखे होने के बावजूद वजन न रखने के कारण भोलाराम की अर्जियाँ
उड़ने की बात नारद जी की समझ में नहीं आयी। वे बड़े साहब से मिलते हैं और बात को
जानने की कोशिश करते हैं। वे संकेतों से नारद जी को पेपरवेट का अभिप्राय समझाने
का प्रयत्न करते हैं और अंत में नारद जी की वीणा को ही वज़न की भाँति रखने की बात
कहते हैं। नारद जी के सहमत होते ही बड़े साहब भोलाराम की फाइल मँगाते हैं। भोलाराम
का जीव उसी फाइल में है। अपना नाम सुनकर वह समझता है कि शायद उसकी पेंशन के आदेश
लेकर डाकिया आ गया है। नारद जी उसे समझाते हैं कि वे उसे स्वर्ग ले जाने के लिए आए
हैं। परंतु भोलाराम के जीव के लिए स्वर्ग का कोई आकर्षण नहीं क्योंकि उसका मन तो
अपने पेंशन के कागज़ों में ही अटका है, अतः वह नारद जी के साथ जाने से इन्कार कर देता है।
कहानी पाठक के मन में भ्रष्टतंत्र और सरकारी कामों के चक्र में बार-बार दफ्तर के
चक्र काट कर थक जाने वाले व्यक्ति की कहानी है। सच मानों तो सरकार की योजनाओं का व्यक्ति
को जो लाभ मिलना चाहिए, उसे नहीं मिल पाता है। अधिकारी अपनी लाभप्रदत्ता के कारण
कामों को अटकायें रहते हैं। इस कहानी में यही दिखाया गया है।
पुरस्कार (जयशंकर प्रसाद)
प्रसाद की कहानियों
में देशप्रेम, ऐतिहासिकता और मानव संघर्ष आदि का वर्णन हमें दिखाई देता है।
पुरस्कार कहानी प्रेम और मुक्ति चेतना का विकास करके लिखी गई कहानी है। कहानी की
शुरआत कोशल के प्रसिद्ध परम्परागत उत्सव से होती है, जिसमें राजा किसी भी कृषक की
जमीन को बोने के लिए चुनता है और उसे उपहार स्वरूप स्वर्ण मुद्रा देता है। इस
वर्ष मधूलिका की जमीन ली जाती है। मधूलिका
वीर सेनापति सिंहमित्र की कन्या होती है। राजा बड़ा खुश होता है क्योंकि सिंहमित्र
ने मगध के साथ युद्ध में विजय दिलाई थी। लेकिन मधूलिका राजा का उपहार लेना स्वीकार
नहीं करती और अपनी भूमि पर काम करना चाहती है। इन सभी बातों को दूर खड़ा कोशल का
राजकुमार अरूण देख रहा था। मधूलिका को दूसरी जगह भूमि दे दी जाती है और वहीं पर
अपना गुजर बसर करती है। इसी दौरान उसका परिचय अरूण से होता है, वह नहीं जानती यह
युवक कौन है और किस उद्देश्य से मेरे पास आया है।
अरूण राजा से
मधूलिका की जमीन वापस दिलाने की बात भी कहता है। दोनों ही युवा है मधूलिका अरूण के
बीच प्रेम हो जाता है। लेकिन दोनों ही मर्यादा में रहते हैं। मधूलिका को धीरे-धीरे
अरूण की वास्तविकता का पता चल जाता है कि वह मगध पर आक्रमण कर उसे अपना गुलाम
बनाना चाहता है और अपनी हार का बदला लेना चाहता है। मधूलिका भी वीर स्वर्गीय
सिंहमित्र की कन्या थी। उसने प्रेम से बड़ा देशप्रेम सोचा और अरूण को सेना के
हाथों पकड़वा देती है। अरूण को प्राण दंड़ दिया जाता है। वीर कन्या मधूलिका की
बड़ी जय जयकार होती है। राजा ने पुरस्कार देने के बारे में पूछा तो मधूलिका ने
कहा- मुझे कुछ न चाहिए। अरूण हँस पड़ा। राजा ने कहा- नहीं मैं तुझे अवश्य दूंगा।
माँग ले। मधूलिका कहती है- तो मुझे भी प्राण दण्ड मिल। -कहती वह बन्दी अरूण के पास
जा खड़ी होती हुई।
1.
देशप्रेम
2.
ऐतिहासिकता
3.
मानव संघर्ष
4.
मुक्ति चेतना
5.
सच्चा प्रेम (अधूरा
प्रेम)
6.
नारी जीवन
त्रिशंकु (मन्नू भंडारी)
त्रिशंकु कहानी में माँ और बेटी के संबंधो,
शिक्षा, प्रेम, उदारता, कठोरता, नई-पुरानी सोच, बदलते मानव मूल्यों, रिश्तों की
समझ, पारिवारिक जिम्मेदारी, स्त्री विमर्श और अंतःद्वंद्व की कहानी है। कहानी में
बेटी (तनु) अपने पड़ोस में रहने आये लड़के शेखर से प्रेम की कहानी है। माँ पहले तो
तनु के द्वारा ही शेखर को घर पर चाय के लिए स्वयं बुलवाती है। पुरानी रूढियों को
तोड़ती नज़र आती है। लेकिन जब तनु और शेखर दोनों करीब आने लगते हैं, तो माँ उनके
रिश्ते को स्वीकरा नहीं करना चाहती है और कहती है- 'बड़े हो जाओ तो प्रेम भी करना और शादी भी। मैं तो
वैसे भी तुम्हारे लिए लड़का ढूँढने वाली नहीं हूँ।' कहानी के अंत में तनु कहती है- 'इन ममी से लड़ा भी कैसे जाए, जो एक पल
नाना होकर जीती है तो एक पल ममी होकर।'
कहानी अपने व्यापक कलेवर में संबंधो की
दुनिया को दिखाती है। स्त्री विमर्श या ये कहें कि स्त्री के कई रूपों का लेखिका
ने वर्णन किया है- माँ, बेटी, पत्नी, गृहणी, प्रेमिक, आदर्श पड़ोसी आदि का। प्रमुख
दो पात्रो यानि माँ और बेटी के माध्यम से स्त्री चित्रण किया गया है। कहानी को
प्रेम कहानी, माँ-बेटी के रिश्ते की कहानी, मध्यवर्गीय समाज की कहानी आदि कहा जा
सकता है। कहानी ने सभी बिंदुओं को छुआ है, मूल रूप से कहानी दो पीढियों के बीच
समाज के द्वंद्व को प्रकट करती है।
प्रेम की होली
प्रेम की होली कहानी होली पर्व के साथ-साथ भारतीय
नारी के प्रेम और व्यवस्था को उजागर करती नज़र आती है। कहानी की मुख्य पात्र गंगी
जो 17 वर्ष की है, जिसका बाल विवाह हुआ है और तीन साल पहले विधवा भी हो गई है।
पिता के घर रहती है और कोई सहारा नहीं है। पिता मैकू महतो के पास रहकर
पशुओं, खेत-खलियान और घर का काम करती है। भाई की शादी हो चुकी है। होली के दिन
गरीब सिंह जो बुद्धु सिंह ठाकुर का लड़का है, उसकी भेंट गंगी से होती है। यहीं से
दोनों के बीच आँखों-आँखों में प्यार शुरू होता है। लेकिन कहता कोई किसी से नहीं
है।
गरीब सिंह एक दिन मैकू
महतो से मिला। महतो ने ठाकुर का हाल चाल जाना तथा बीमार दिखाई देने पर बीमारी के
बारे में पूछ ही लिया। ठाकुर ने मैकू महतो को अपनी बीमारी के बारे में विस्तार से
बताया। दिन बीतते गए और फिर होली आयी। ढोल, भंग और गान हुआ। लेकिन इस बार ठाकुर
गरीब सिंह नहीं आया। जब गंगी शाम को छत पर चढ़कर देखा तो दूर चिता जल रही थी, गंगी
इसे होलिका दहन समझ रही थी। लेकिन जब पता चलता है कि वह होलिका दहन नहीं, बल्कि
गरीब सिंह की चिता जल रही थी, गंगी वहीं ठहर सी जाती है। कहानी का अंत दुखद दिखाकर
कहानीकार ने समाज की कई बातों को आत्मसात करके कहने का मन बनाया है। कहानी के
बिंदुओं की ओर ध्यान दें तो कई सारी बातें एक साथ उभरकर आती हैं।
1.
बाल
विवाह
2.
जातिगत
भेदभाव
3.
ग्रामीण
जीवन की त्रासदी
4.
ऊँच नीच
का भेदभाव
5.
विधवा
पुनर्विवाह
6.
असफल
प्रेम कहानी
बेटों बाली विधवा
सन् 1932 में प्रकाश में आयी यह कहानी प्रेमचंद
के अंतिम दौर की कहानियों में है। यहाँ तक प्रेमचंद की कलम लोगों के दिलो-दिमाग
में अपना अलग ही स्थान बना चुकी थी। फूलमती के पति पं. अयोध्यानाथ का निधन
हो चुका था, उसके चार बेटे और एक बेटी थी- कामतानाथ, उमानाथ, दीनानाथ, सीतानाथ और
बेटी कुमुद। जो शादी के लायक हो गई थी। कामतानाथ दफ्तर में पाँच रूपये पर नौकर था,
उमानाथ डॉक्टरी पास कर चुका था, दीनानाथ बी.ए. में फैल होकर पत्रिकाओं में लेख
लिखता था, सीतानाथ एम.ए. कर रहा था। पूरी कहानी में चारों भाई पिता की संपत्ति
हथियाने और माँ के पास रखे जेवर लेने पर लगे हुए थे। सभी को अपना-अपना हिस्सा
चाहिए था। लेकिन कुमुद की शादी के बारे में कोई भी नहीं सोच रहा था।
कुमुद की शादी 40 वर्ष
के एक अधेड़ उम्र के व्यक्ति दीनदयाल के साथ कर दी गई। शादी के बाद माँ कुमुद को
खाली हाथ घर से न जाए इसीलिए कुछ पैसे देती है। लेकिन बेटी का हृदय बहुत विशाल है
वह माँ को ही उस पैसे को वापस दे देती है।
कहानी का अंत बड़ा ही
दुखद है। माँ और बेटी को दुख देने के कारण कामतानाथ टाईफाईड से मर गया। दीनानाथ को
छह महीने की सजा हुई। उमानाथ रिश्वत लेते पकड़ा गया और उसकी सनद छीन गई।
आलोचना
इस कहानी में प्रेमचंद ने पहले ही पहरे में चारों
भाइयों की शादी दिखाई है, जिसका संवाद इस प्रकार है- चारों बहुएँ एक-से-एक
बढ़कर आज्ञाकारिणी। जबकि कहानी के मध्य में सीतानाथ के विवाह की बात होती है,
जो इस प्रकार है- सीतानाथ सबसे छोटा था। सिर झुकाये भाइयों की स्वार्थ भरी
बातें सुन-सुनकर कुछ कहने के लिए उतावला हो रहा था। अपना नाम सुनते ही बोला- मेरे
विवाह की आप लोग चिन्ता न करें।
कहानी के बिंदुओं पर बात करें तो-
1.
वृद्ध
समासाय
2.
पारिवारिक
कलह (संघर्ष)
3.
अनमेल
विवाह
4.
ग्रामीण
जीवन
5.
रीति-रिवाज
6.
नैतिक
मूल्यों को दृष्टिगत करना
घासवाली
घासवाली एक रोचक प्रेम कहानी है। प्रेम के अलग ही
स्वरूप को दिखलाती यह कहानी पतिव्रता धर्म को निभाती भी दिखाई देती है। कहानी में मुलिया
को दलित जाति का दिखाया गया है। मुलिया के सुंदर शरीर के साथ-साथ अच्छे व्यवहार को
भी दिखाया गया है। मुलिया का पति महावीर नेक और सच्चा व्यक्ति, जो ताँगा चलाने का
काम करता है। कहानी में लेखक ने दिखाने का प्रयास किया है कि निम्न जाति में
सुंदरता और वहाँ भी गरीबी तो वह कैसे लोगों के लिए अभिशाप बन जाता है। लेकिन सुंदर
मन हो तो सभी कुछ बदल जाता है। मुलिया का अपना कोई खेत नहीं है वह इधर-उधर से घास
खोदती है और उसे बाज़ार में बेचने जाती है तो लोग उस पर बुरी नज़र रखते हैं। बुरी
नज़र रखने वालों में ठाकुर चैनसिंह भी है, जो एक दिन मुलिया का हाथ पकड़ लेता है।
मुलिया के व्यंग्य बाणों और समझदार संवाद को सुनकर ठाकुर का हृदय परिवर्तन हो जाता
है।
एक दिन मुलिया बाज़ार
में घास बेचने गई थी और लोग उसके बारे में कुछ अच्छा तो कुछ बुरा कह रहे थे। यह
बात चैनसिंह ने सुनी। घर जाकर चैनसिंह ने मुलिया के पति महावीर को बुलाता है और
मुलिया को कभी बाज़ार घास न बैचने के लिए कहता है साथ ही साथ महावीर को अपने खेतों
में काम करने के लिए भी कहता है। इतना ही नहीं रोजाना एक रूपया फ्री में घर से ले
जाने के लिए कहता है, जो की घोड़े का कर्ज उतारने के लिए है। लेकिन यह बात मुलिया
को पता न चले इसके लिए वह महावीर को कह देता है।
एक दिन मुलिया चैनसिंह
के पीछे-पीछे दौड़े आती है, यह वही जगह होती है जब पहली बार चैनसिंह ने मुलिया का
हाथ पकड़ा था। मुलिया चैनसिंह को महावीर को कही सारी बात बता देती है। ठाकुर कहता
है कि मैंने तो महावीर को यह सभी कुछ बताने के लिए नहीं कहा था, अब तुम्हें पता ही
चल गया तो क्या। मुलिया सारी बात बताकर चली जाती है। चैनसिंह उसे दूर से निहारता
रहता है।
कहानी के महत्वपूर्ण तथ्य
1.
नारी
चित्रण
2.
व्यक्तित्व
का बदलता स्वरूप
3.
ग्रामीण
जीवन (ऋण या कर्ज समस्या)
4.
प्रेम
में विश्वास
5.
सामाजिक
चित्रण
जुलूस
जुलूस देश-भक्ति से प्रेरित कहानी है। इसमें लेखक
ने स्वतंत्रता से पूर्व की अंग्रेजों द्वारा भारतीयों के आंदोलनों के दबाए जाने की
कहानी है। साथ ही साथ हृदय परिवर्तन की भी कहानी है, क्योंकि अंग्रेजी फौज या सेना
में भारतीय लोग ही रहते थे, सिर्फ अधिकारी अंग्रेज होते थे। ऐसे ही बीरबल
सिंह जो दरोगा के पद पर है और अपने घोड़े पर बैठकर जुलूस को रोकने जाते हैं। अपने
फर्ज और ईमान के आगे वह अपनी ड्यूटी करते हैं। लेकिन इब्राहिम के सिर पर दारोगा का
बेटन लगने से उसकी मौत हो गई। जन आक्रोश शांत हुआ कितने ही लोग घायल हुए। दारोगा
बीरबल सिंह का अंग्रेजों की नज़र में नाम हुआ। लेकिन अपने ही लोगों से हार गए।
पत्नी मिट्ठन बाई ने बीरबल सिंह के इस काम की आलोचना की और उन्हें ऐसा न करने की
बात कही।
इब्राहिम की मौत ने
बीरबल सिंह का हृदय परिवर्तन कर दिया। इब्राहिम के घर पर मिट्ठन शोक सभा में जाती
हैं, जहाँ उसे अपने पति को भी आते देखा। बीरबल सिंह का यह हृदय परिवर्तन दिखाता है
कि स्वतंत्रता सभी के हृदय में थी। पर फर्ज के हाथों कभी-कभी अपने ही लोगों पर
हथियार चलाना पड़ता था।
कहानी के बिंदु-
1.
स्वतंत्रता
आंदोलन की कहानी
2.
हृदय
परिवर्तन
3.
सच्ची
देश-भक्ति
4.
धर्म और
जाति का मेल
5.
फर्ज,
ईमान और आत्मीयता की कहानी
बलिदान
सन् 1918 में प्रकाश में आयी बलिदान कहानी कृषक
जीवन उसकी त्रासदी, ऋण, लगान, मजदूरी, गरीबी, जमींदारी आदि के आत्याचार की कहानी
है। कहानी में हरखू किसान के पास पाँच बीघा जमीन है और दो बैल। उसी में बोता खाता
था। परिवार नहीं था, अकेला रहता था, अचानक ज्वर आया और उसी में चल बसा। गिरधारी और
उसकी पत्नी सुभागी ने हरखू के क्रियाकर्म में और ब्राह्मणों के भोज में पैसा लगाया।
जिससे वह ज्यादा ही कर्ज में डूब गया। हरखू के मरते ही जमीन पर हक गिरधारी का होना
चाहिए था। लेकिन लाला ओंकारनाथ ने गिरधारी से हरखु की जमीन के लिए नजराना माँगा और
आठ रूपये बीधे के हिसाब से जोतने को कहा। गिरधारी पहले ही कर्ज में था। अब वह यह
पैसे कैसे देता।
लाला ओंकारनाथ ने पैसे
अधिक के लालच में जमीन कालिदीन, जो गाँव का मुखिया था उसे दे दी। एक दिन तुलसी
बनिया गिरधारी के घर उधार के पैसे माँगने आया अब न जमीन न काम ऐसे में बैल बेचने
के सिवाय कोई दूसरा रास्ता न था। गिरधारी ने बैल बेचकर कर्ज चुकता किया। लेकिन इस
सदमें को वह सह न सका और दुनिया से चल बसा।
गिरधारी का बड़ा बेटा
ईंट के भट्टे पर काम करने लगा। सुभागी दूसरे गाँव में रहने लगी, क्योंकि मजदूर का
बेटा और बहू हैं, जो उस समय बुरा माना जाता था। गिरधारी की आत्मा खेतों में
मँडराती रहती है, कोई खेत में जाने की हिम्मत नहीं करता। खेत खाली पड़े हैं।
कहानी के बिंदु-
1.
कर्ज और
ऋण की समस्या
2.
जमींदार
का अत्याचार
3.
रीति-रिवाजों
पर कुठाराघात
4.
कृषक
जीवन
5.
गरीबी
में घुटता-मरता इंसान
सुजान भगत
सन् 1927 में प्रकाश में
आयी कहानी सुनाज भगत पारिवारिक जिम्मेदारी, आत्मविश्वास, वृद्ध का सम्मान,
रीति-रिवाज, सामाजिक जीवन आदि कितने ही विषयों को लेकर हमारे समाने खड़ी होती है।
कहानी में सुजान महत्तो किसानी करता है और भगवत भजन में अपना जीवन बिताता
है। बेटों की शादी हो गई, अब खेत में कम भजन में समय अधिक लगाना चाहता है, सुजान
की पत्नी बुलाकी भी पति सेवा और द्वार पर आए किसी भक्त, साधु, संत को खाली हाथ न
जाने देती थी। घर की व्यवस्थाएँ बदली तो काम बेटों-बहुओं के हाथ में चला गया था,
जिससे हमेशा सुजान और बुलाकी को डर बना रहता था। एक दिन बड़े लड़के भोला ने माँ के
द्वारा भिखारी को दाल दान करते हुए देख लिया और भड़क गया। मेहनत को ऐसी ही मत
उड़ाओ वाक्य को सुनकर माँ जस की तस बनी रह गई।
सुजान भगत ने दोबारा कमर
कसी और सुबह जल्दी उठना शुरू किया, बैलों को लेकर खेत में जाना शुरू किया। दिन-रात
मेहनत कर खेतों को सुधार दिया और खेत सोना उगलने लगे। हर बार से अब की बार दस मन
अनाज ज्यादा हुआ। अनाज घर पर ही पहुँचा था तभी द्वार पर भिक्षुक आया और सुजान भगत ने दिल
खोलकर उसे जितना तुम उठा सकते हो उतना ले जाओ कहकर दान दिया। अब उसे कोई
रोकने वाला नहीं था। सुजान भगत दान करने में पीछे न था। बेटा बैठा-बैठा देख रहा
था। लेकिन कह कुछ नहीं सकता है, मेहनत रंग लाई थी, दान बढ़ाकर देता है, साधु-संतों
का आशीर्वाद था, दया धर्म का मूल है और सेवा से बड़ा कोई धर्म नहीं है।
कहानी के बिंदु-
1.
कृषक
जीवन
2.
पारिवारिक
संघर्ष
3.
मानव की
मेहनत
4.
वृद्ध
सम्मान
5.
दान-पुण्य
का महत्त्व
‘कर्मनाशा
की हार’ शिवप्रसाद सिंह
कर्मनाशा की हार’ कहानी
शिवप्रसाद सिंह द्वारा रचित पुराने विचारों तथा
अन्धविश्वासों को पूर्णतः नष्ट कर मानवतावादी दृष्टिकोण की स्थापना पर विशेष बल देती
है। कहानी अपने अंचल में ग्रामीण रूढ़ियों और अन्धविश्वासों को लेकर चलती
है। विचार करें तो यह एक चरित्रप्रधान कहानी है। इसमें भैरो पांडे के व्यक्तित्व
के माध्यम से लेखक ने बदलते सामाजिक दृष्टिकोण को दिखाने का प्रयास किया है। भैरो पांडे
का छोटा भाई कुलदीप अपने घर के नजदीक रहने वाली मल्लाह परिवार की विधवा फुलमत से प्रेम करने लगता है।
दोनों प्रेम में इतने नजदीक आ जाते हैं कि वह समाज की सभी दीवारें तोड़ देते हैं
और इसी का परिणाम होता है कि फुलमत गर्भधारण कर लेती है। बिना विवाह के गर्भ धारण
करना भारतीय समाज में एक अपराध है।
फुलमत से प्रेम संबंध की जानकारी मिलने पर कुलदीप अपने
बड़े भाई भैरो पांडे की डाँट से घबराकर घर छोड़कर भाग जाता है। इसी दौरान फुलमत एक
बच्चे को जन्म देती है। विचार करें तो इस बच्चे का पिता तो कुलदीप ही है। लेकिन
सामाजिक सरोकार के कारण इसे स्वीकार कौन करें। तभी कर्मनाशा नदी में बाढ़ आ जाती
है, जिसे लोग फुलमत के पाप का परिणाम
मानकर उसे और उसके बच्चे को नदी में फेंककर बलि देना चाहते हैं, जिससे नदी में आई बाढ़ समाप्त हो सके। कहानी में गाँव के लोगों का विश्वास है कि कर्मनाशा नदी
की बाढ़ किसी मनुष्य की बलि लिए बिना नहीं घटती। गाँव के सभी पंच निर्णय करते हैं
कि फुलमत एक विधवा लड़की है, उसके बावजूद उसने नवजात शिशु को जन्म दिया है, जो एक बहुत बड़ा
पाप है। इसलिए इसे और इसके बच्चे को कर्मनाशा के दारुण में फेंककर बाढ़ से पूरे
गाँव को बचाया जा सकता है। समय
की स्थिति को देखते हुए और फुलमत तथा उसके बच्चे की बलि का विरोध करते हुए भैरो पांडे
उसे अपनी कुलवधू के रूप में स्वीकार करके गाँव वालों का मुँह बंद कर देते हैं।
नैतिकता, वंश की मर्यादा, पुराने संस्कारों और मानवतावादी नवीन जीवन-दृष्टि के बीच
गहन विचारों का चित्रण करते हुए लेखक ने निष्कर्ष रूप में नया दृष्टिकोण दिया है।
कहानी अपने कलेवर में एक साथ कई विचारों को पाठक के सामने सफलता पूर्वक चलती है। कहानी
में लेखक का उद्देश्य सफल रहा है।
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