आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का
उपन्यास 'बाणभट्ट की
आत्मकथा' (1946) को पढ़
रहा था। द्विवेदी जी ने भारतीय संस्कृति, समाज, राजनीति, नारी की दशा और प्रेम का
जो वर्णन किया है वह देखते ही बनता है। उपन्यास को पढ़ते समय जयशंकर प्रसाद के
नाटक स्कन्दगुप्त (1928) की याद आ जाती है। कई दृष्टियों से उपन्यास और नाटक दोनों
में समानता भी दिखाई देती है।
1.
प्रथम दोनों में
त्रिकोणीय प्रेम कथा का प्रसंग है और प्रेम कामवासना से दूर त्याग की प्रतिमूर्ति
बना दिखाया है। उपन्यास में (बाणभट्ट, निपुणिका और भटिटनी) निपुणिका- हाय!
भट्ट, अभागिनी का अभिनय आज समाप्त हो गया। उसने प्रेम की दो दिशाओं को एकसूत्र कर
दिया!। नाटक में (स्कन्दगुप्त, देवसेना और विजया)
देवसेना- आह!
कहना ही पड़ा, स्कन्दगुप्त को छोड़कर न तो कोई दूसरा आया और न वह आएगा।
2.
दूसरा देश की
स्वतंत्रता के लिए आपस में जाति, धर्म की लड़ाई को छोड़ एकजुट होकर आगे आने का
आहवान है। उपन्यास में भैरवी- (धर्म के लिए प्राण देना किसी जाति का पेशा नहीं है,
वह मनुष्य मात्र का उत्तम लक्ष्य है) नाटक में स्कन्दगुप्त- (यदि कोई साथी न मिला
तो साम्राज्य के लिए नहीं, जन्मभूमि के उद्धार के लिए मैं अकेला युद्ध करूंगा।)
3.
तीसरा भाषा और शब्द
संरचना दोनों की समानता देखने को मिल जाती है। (म्लेच्छ शब्द का प्रयोग और संस्कृत
शब्दावली का प्रयोग)
4.
चौथा और सबसे
महत्वपूर्ण तत्व है कि रचनाकारों को ओजस्वी और राष्ट्र के प्रति युवाओं को जाग्रत
करने का संदेश देने वाला लिखने का संदेश छिपा है। उपन्यास में भैरवी-(राजा अंधा
है, प्रजा अंधी है और विद्वान अंधे हैं) नाटक में विजया-(सुना दो वह संगीत जिससे
पहाड़ हिल जाये और समुद्र कांपकर रह जाये)
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