त्रिशंकु
त्रिशंकु कहानी में माँ और बेटी के संबंधो,
शिक्षा, प्रेम, उदारता, कठोरता, नई-पुरानी सोच, बदलते मानव मूल्यों, रिश्तों की
समझ, पारिवारिक जिम्मेदारी, स्त्री विमर्श और अंतःद्वंद्व की कहानी है। कहानी में
बेटी (तनु) अपने पड़ोस में रहने आये लड़के शेखर से प्रेम की कहानी है। माँ पहले तो
तनु के द्वारा ही शेखर को घर पर चाय के लिए स्वयं बुलवाती है। पुरानी रूढियों को
तोड़ती नज़र आती है। लेकिन जब तनु और शेखर दोनों करीब आने लगते हैं, तो माँ उनके
रिश्ते को स्वीकरा नहीं करना चाहती है और कहती है- 'बड़े हो जाओ तो प्रेम भी करना और शादी भी। मैं तो
वैसे भी तुम्हारे लिए लड़का ढूँढने वाली नहीं हूँ।' कहानी के अंत में तनु कहती है- 'इन ममी से लड़ा भी कैसे जाए, जो एक पल
नाना होकर जीती है तो एक पल ममी होकर।'
कहानी अपने व्यापक कलेवर में संबंधो की
दुनिया को दिखाती है। स्त्री विमर्श या ये कहें कि स्त्री के कई रूपों का लेखिका
ने वर्णन किया है- माँ, बेटी, पत्नी, गृहणी, प्रेमिक, आदर्श पड़ोसी आदि का। प्रमुख
दो पात्रो यानि माँ और बेटी के माध्यम से स्त्री चित्रण किया गया है। कहानी को
प्रेम कहानी, माँ-बेटी के रिश्ते की कहानी, मध्यवर्गीय समाज की कहानी आदि कहा जा
सकता है। कहानी ने सभी बिंदुओं को छुआ है, मूल रूप से कहानी दो पीढियों के बीच
समाज के द्वंद्व को प्रकट करती है।
मैं हार गई
मैं हार गई कहानी लेखिका
के विचारों का द्वंद्व है। यह बिना नायक-नायिका के सीधे विचारात्मक पहलु को लेकर
लिखी गई है। इसे कहानी कहना या विबंध कहना विचारकों की सोच और अभिव्यक्ति का तरीका
है। इसमें लेखिका अपनी कलम से दो नायकों के चरित्र को खड़ा करती है और उसमें रंग
भरती है। पहले प्रकार के चरित्र में वह निर्धन वर्ग के नायक को खड़ा करना चाहती
है। जो राष्ट्र में क्रान्ति ला सके और राजनीति में परिवर्तन ला सके। जनता की सभी
बातों को ठीक से समझ सके और उसे पूरा करने का प्रयास करे। लेकिन वह नायक अपने ही
घर की व्यवस्था में फंसकर रह जाता है, तो राष्ट्र को क्या चलायेगा। इसी बात को
लेखिका ने उकेरा है और कहती है- 'जानते हो, मैं तुम्हारी स्रष्ठा हूँ,
तुम्हारी विधाता।' लेकिन नायक पर उसका कोई प्रभाव नहीं पड़ता और वह बीमार बहन का इलाज
कराने के लिए शहर गया, लोगों से कर्ज माँगा, मिन्नते की, अंत मं चोरी करने लगा।
यही नायक का अंत भी है।
दूसरे पक्ष में लेखिका
ऐसे नायक को खड़ा करती है जो उच्च घरे का समृद्ध समुदाय का, सर्व सुविधा भोगी,
धनवान वर्ग में पला-बड़ा। लेकिन वह भी आदर्शों पर खरा नहीं तरा उसके अंदर शराब,
जुआ, औरतखोर, वेश्यागामी न जाने कितने ही अवगुण निकल आए। उसे भी लेखिका कहती है-'जानते हो, मैं तुम्हारी स्रष्ठा हूँ,
तुम्हारी विधाता।' लेकिन नायक पर कोई फर्क नहीं पड़ता है। नायक कहता है- 'यह उम्र दुनिया की रंगीनी और घर की अमीरी! बिना लुत्फ उठाए यों ही जवानी क्यों
बर्बाद की जाएॽ
अंत में लेखिका लिखती
है- 'मैं हार
गई, बुरी तरह हार गई।' कहानी अपने छोटे से कलेवर में देश की भ्रष्ट राजनीति,
भ्रष्टाचार, बेरोजगारी, गरीबी, स्वास्थ्य
आदि सभी मुद्दों पर एक साथ व्यंग्य करती चलती है। कहानी में निम्न और उच्च वर्ग के
मानव मूल्यों को लेखिका ने दो नायकों के माध्यम से हमारे सामने रखा है। वहीं नवीन
और प्राचीन मूल्यों के बीच की टकराहट को भी दिखाया गया है। लेखिका परिवर्तन चाहती
है, लेकिन समाज का कोई भी वर्ग बदलाव तो चाहता है पर अपनी कुर्बानी नहीं देना
चाहता। यह कहानी वहीं उलझ कर रह जाती है।
मजबूरी
मजबूरी पारिवारीक कहानी है, जिसमें माँ,
बेटा, सास, बहू, पोता आदि के अंदर की कसमकस है। कहानी के केन्द्र में बेटू नाम का
पात्र रहता है, जो अपनी दादी के पास रहता है। गाँव में अकेली रह रही माँ का इकलौता
बेटा रामेश्वर अपनी पत्नी रमा और दो बेटों ( जिसमें बड़े का नाम बेटू है) के साथ
मुंबई शहर में नौकरी करता है और वहीं पर रहता है। लेकिन वह कभी-कभी माँ से मिलने
अपने गाँव आ जाता है। माँ अपने अकेलेपन को दूर करने के लिए अपने बड़े पोते बेटू को
अपने पास रखना चाहती है, आखिरकार रमा और रामेश्वर बेटू को गाँव में माँ के पास
छोड़ भी देते हैं पर परिणाम इसके विरूद्ध होता है। बेटू गाँव के आवारा बच्चे के
साथ खेलता है, पढ़ने-लिखने में उसका मन नहीं लगता है, वह हर समय घर से बाहर रहता
है। वह पढ़ने की बजाए खेलता रहता है। वह अब सामान्य से परे दिखाई देता है। दो वर्ष
बाद रमा ने बेटू को देखा तो वह बेटू को वापस अपने साथ ले जाने का निर्णय लेती है
और ले भी जाती है।
कहानी अपने छोटे से कलेवर में पलायनवाद को
दिखाती है, कैसे रोजी रोटी कमाने के लिए ग्रामीण लोग शहरों की ओर जा रहे हैं। इससे
गाँव तो खाली हो ही रहे हैं, बल्ति शहरों पर भी अत्याधिक मानव बोझ बढ़ रहा है।
दूसरा इससे गाँव में अकेले रह रहे बूजुर्गो (वृद्धों) को समस्या आती है। सास बहू
जब अलग-अलग रह रही तो उनके बीच तालमेल नहीं बन पता है कहानी का एक पक्ष यह भी है।
कहानी में माँ-बेटे के प्यार को दिखाया गया है, जो दो पीढ़ियों के माध्यम से हमारे
सामने आता है। कहानी बच्चों के लालन-पालन को भी दिखाती है। कहानी में जीवन मूल्यों
को दिखाया गया है। कहानी त्याग, समर्पण और बदलते मानव मूल्यों को दिखाती है।
कमरे कमरा और कमरे
यह लेखिका की
आत्मकथा शैली में लिखी कही कही जा सकती है। इसमें नीलू जो घर पर पूरा काम सँभालती
है और उसे व्यवस्थित करती रहती है। घर में पाँच कमरे थे उन सभी का काम वही करती
है। नूलू ने एम.ए. प्रथम श्रेणी से पास किया और विश्वविद्यालय में दूसरा स्थान
प्राप्त किया। इस का जश्न घर पर ही हुआ। अब पीएच.डी.(शोध) कार्य के लिए तथा नौकरी
के लिए दिल्ली आना पड़ा। अब कॉलेज में नौकरी मिली तो उसका जीवन पाँच कमरों की बजाए
एक कमरे में सीमित रह गया। पीएच.डी.(शोध) पूरी कर नीलू ने अपने माता-पिता का सपना
साकार किया।
कहानी
नारी शिक्षा, उसके पारिवारीक जीवन, स्वतंत्र सोच, आगे बढ़ने की सार्थकता आदि कितने
ही छोटे बड़े उद्देश्यों के साथ आगे बढ़ती है। कहानी के केन्द्र में मध्यवर्गीय
परिवार की व्यवस्था और उसमें लड़कियों के जीवन पर प्रकाश डालती है। कहानी शोध और
उसकी महत्ता को दिखाती है। कहानी पिता-पुत्री के बीच प्रेम, विश्वास, त्याग,
समर्पण और सामाजिक सरोकार को उजागर करती दिखाई देती है।
अकेली
अकेली कहानी में एक ऐसी नारी सोमा बुआ का
वर्णन है, जिसके पुत्र की मृत्यु के पश्चात उसका पति हरिद्वार में रहने लगता है।
साल में केवल एक महीने वह घर आता है। बुआ अकेली रहती है और पड़ोस के लोगों के
सहारे अपना जीवन यापन करती है। जबकि उसके पति को उनका किसी के घर आना-जाना पसंद
नहीं है।
कहानी में भारतीय समाज के पड़ोस क्लचर तथा
उसकी व्यवस्था को दिखाया गाय है। बुआ आस-पड़ोस में सभी के घऱ शादी में, जन्मदिन
आदि कार्यक्रमों में जाती है और लोग उसका आदर सत्कार भी करते हैं। कहानी रिश्ते
नातों और हमारे समाज में जीवन की व्यवस्था को उजागर भी करते हैं। लेकिन व्यवस्था
इससे अलग भी है अपने ही लोग बुआ को नहीं बुलाते हैं जबकि वह पूरी व्यवस्था के साथ
सामान सजाये रखती है। पैसा घर पर न होने के बावजूद वह अपने गहनों को बेचकर रिश्ते
निभाने का काम करती है लेकिन अपने ही रिश्तेदार उसे नहीं निभा पाते हैं।
कहानी टूटते मानव-मूल्यों, वृद्ध समस्या,
स्त्री विमर्श, सामाजिक व्यवस्था, वृद्ध स्नेह, पड़ोस क्लचर आदि कितने ही बिन्दुओं
को अपने में समेटे हुए है।
सोमा बुआ बुढ़िया परित्यक्ता और अकेली है। बुढ़िया सोमा बुआ
पिछले बीस वर्षों से अकेली रहती हैं। उनका इकलौता जवान बेटा हरखु समय से पहले ही
चल बसा। उनके पति पुत्र वियोग का सदमा सह न सके तथा घर छोड़ कर तीर्थवासी हो गये।
सोमा बुआ के सन्यासी पति साल में एक महीना घर आते हैं। बुआ को अपना जीवन पड़ोस
वालों के भरोसे ही काटना पड़ता है। दूसरों के घर के सुख-दुख के सभी कार्यक्रमों
में वह दम टूटने तक यों काम करती हैं, मानो वह अपने ही घर
में काम कर रही हो। जब बुआ के पति घर पर होते हैं तब बुआ का अन्य घरों में सक्रिय
बना रहना बंद हो जाता है। तब उनकी जीभ ही सक्रिय हो उठती है। पड़ोसन राधा के समक्ष
बुआ मन का गुबार निकालती है राधा के यह पूछने पर कि सन्यासी महाराज क्यों बिगड़
पड़े? बुआ बोल पड़ती है कि उनका औरों के घर आना
जाना उनके पति को नहीं सुहाता। पति का स्नेहहीन व्यवहार तथा बुआ के पास पड़ोस से
बिन बुलाये निभाए जाने वाले व्यवहारों पर पति द्वारा लगाया जाने वाला अंकुश उन्हें
कष्ट देता है। पति से होने वाली कहा सुनी पर बुआ रोने लगती है। वे राधा से कहती
हैं कि, “ये तो हरिद्वार रहते हैं, मुझे तो सबसे निभानी पड़ती है। मेरा
अपना हरखू होता और उसके घर काम होता तो क्या मैं बुलावे के भरोसे बैठी रहती। मेरे
लिए जैसा हरखू वैसा किशोरीलाल। आज हरखू नहीं है इसी से दूसरे को देख देखकर मन
भरमाती रहती हूं।“ दरअसल सोमा बुआ अपने अकेलेपन को दूर
करने के लिए सबसे जुड़ना चाहती है इसलिए बिन बुलाये ही सबके घर जाकर काम में जुट
जाती हैं। जैसे- “अमरक के बिखरे हुए कल रह-रहकर धूप में
चमक जाते हैं ठीक वैसे ही जैसे किसी को भी गली में घुसता देख बुआ का चेहरा चमक
उठता है। मन के बहलने प्रसंगों को वह तलाश थी रहती है। कहीं थोड़ी देर के लिए दिल
बहल जाता है तो कहीं फिर से गहरी चोट मिल जाती है।
जिन दिनों उनके पति आये हुए होते है उसी समय सोमा बुआ के दूर के रिश्ते में किसी का ब्याह पड़ जाता है। बुआ की आदत को जानते हुए उनके पति साफ निर्देश देते हैं कि जब तक उनके घर से न्योता न आये सोम बुआ वहाँ नहीं जाएँगी। उनकी विधवा ननद उनके जख्मों पर नमक छिड़कते हुए झूठ ही कहती है कि निमंत्रण की लिस्ट में बुआ का भी नाम है बुआ न्योते का इंतजार करती है साथ ही मन में न्योते की प्रसन्नता लिए ब्याह में भेंट देने के जुगाड़ में भी लग जाती है वे लोग पैसे वाले हैं साथ ही दूर के रिश्तेदार भी। यूँ तो सामाजिक बंधन बनाना मर्दों का काम है, किन्तु सोमाबुआ मर्द वाली होकर भी बेमर्द की है इसलिए व्याह में भेट देने के लिए अपने मरे हुए बेटे की एकमात्र निशानी ‘सोने की अँगूठी’ बेचवाकर पड़ोसन राधा से चांदी की सिंदूरदानी तथा साड़ी- ब्लाउज का इंतजाम करवाती हैं। अपने हाथों में लाल-हरी चूड़ियां पहन कर पहन कर जाने वाली साड़ी को पीले रंग मांड कर बुआ पाँच बजे के मुहूर्त के निमंत्रण का इंतजार करने लगती है। सात बज जाते हैं किन्तु निमत्रण न आने पर वह दु:खी हो जाती है। इतनी तैयारियों के साथ पल पल निमंत्रण के इंतजार के बाद बुआ को विश्वास ही नहीं होता कि सात कैसे बज सकते है जबकि मुहूर्त पांच बजे का था।” सोम बुआ को व्याह का बुलावा नहीं आया था। ऐसे ही उन्हें किसी के घर से बुलावा नहीं आता फिर भी बुआ बन बुलाये ही चली जाती।
जिन दिनों उनके पति आये हुए होते है उसी समय सोमा बुआ के दूर के रिश्ते में किसी का ब्याह पड़ जाता है। बुआ की आदत को जानते हुए उनके पति साफ निर्देश देते हैं कि जब तक उनके घर से न्योता न आये सोम बुआ वहाँ नहीं जाएँगी। उनकी विधवा ननद उनके जख्मों पर नमक छिड़कते हुए झूठ ही कहती है कि निमंत्रण की लिस्ट में बुआ का भी नाम है बुआ न्योते का इंतजार करती है साथ ही मन में न्योते की प्रसन्नता लिए ब्याह में भेंट देने के जुगाड़ में भी लग जाती है वे लोग पैसे वाले हैं साथ ही दूर के रिश्तेदार भी। यूँ तो सामाजिक बंधन बनाना मर्दों का काम है, किन्तु सोमाबुआ मर्द वाली होकर भी बेमर्द की है इसलिए व्याह में भेट देने के लिए अपने मरे हुए बेटे की एकमात्र निशानी ‘सोने की अँगूठी’ बेचवाकर पड़ोसन राधा से चांदी की सिंदूरदानी तथा साड़ी- ब्लाउज का इंतजाम करवाती हैं। अपने हाथों में लाल-हरी चूड़ियां पहन कर पहन कर जाने वाली साड़ी को पीले रंग मांड कर बुआ पाँच बजे के मुहूर्त के निमंत्रण का इंतजार करने लगती है। सात बज जाते हैं किन्तु निमत्रण न आने पर वह दु:खी हो जाती है। इतनी तैयारियों के साथ पल पल निमंत्रण के इंतजार के बाद बुआ को विश्वास ही नहीं होता कि सात कैसे बज सकते है जबकि मुहूर्त पांच बजे का था।” सोम बुआ को व्याह का बुलावा नहीं आया था। ऐसे ही उन्हें किसी के घर से बुलावा नहीं आता फिर भी बुआ बन बुलाये ही चली जाती।
सयानी बुआ
सयानी बुआ अपने छोटे से कलेवर में गृहणी
की अनुशासन प्रियता और घर में चीजों को व्यवस्थित रूप से रखने तथा उनके सदुपयोग को
लेकर लिखी गई कहानी है। कहानी में बुआ रिश्तों से ज्यादा चीजों को तवज्जो देती हैं
और उसके इस बरताव के कारण घर में तनाब का माहौल बना रहता है।
बुआ
की बेटी अन्नू बीमार है, जिसे ठीक होने के लिए डॉक्टर के अनुसार पहाडो पर रहना
होगा। वहाँ रहने की सभी हिदायतें दी गई, लेकिन एक दिन बुआ के पास पत्र आता है कि
तुम्हारे द्वारा दिए गए 50रू वारे से के दो प्याले दूट गए पर अन्नू अच्छी है।
कहानी के अंत तक आते-आते बुआ वस्तुओं से अधिक अब रिश्तों से बंधना चाहती है। यही
कहानी में दिखाया गया है।
कहानी
में रिश्तों की दुनिया, एक गृहणी की अनुशासन प्रियता, माँ-बेटी के संबंधों का सच
तथा एक महिला के बहुत से रूपों को दिखाया गया है। इतना ही नहीं कहानी में आधुनिक
परिवारों की व्यवस्था को भी दिखाया गया है। पति के कहानी में गौण पात्र के रूप में
दिखाया गया है। कहानी के केंद्र में सयानी बुआ और उसकी बेटी अन्नू ही रहती है।
अलगाव
यह कहानी अपने छोटे से कलेवर में ग्रामीण
पृष्ठभूमि को लेकर आगे बढ़ती है। महिला चिंतन से दूर इस कहानी में जातिगत भेदभाव,
राजनैतिक भ्रष्टाचार, पुलिस का लापरवाही, ग्रामीण समाज का चित्रण, अनपढ़ गाँव वाले
और आपसी लड़ाई-भगड़े को दिखाती नज़र आती है। इतना ही नहीं कहानी में उच्च वर्ग और
निम्न वर्ग के बीच का संघर्ष होने के साथ-साथ अधिकार के लिए लड़ता मरता इंसान
दिखाया गया है।
कहानी
की शुरूआत कहानी के नायक बिसेसर की मौत के
साथ होती है। कहानी में बिसेसर को 28 वर्ष
का पढ़ा लिखा लड़का दिखाया गया है। जिसकी दो संतान हैं, एक बड़ी बिटिया और एक बेटा
(सिधेसर) जो आठवीं कक्षा में पढ़ता है। गाँव में ही स्कूल खोलकर बच्चों को पढ़ाता
है। लेकिन इस देश में राजनैतिक भ्रटाचार के चलते दलित और गरीब को पढ़ाना भी एक
अपराध हो। जिसके चलते बिसेसर को चार साल की सजा होती है और अब जेल से छूटकर आया तो
देखा गाँव के हरिजन टोले की तीन झोपड़ियों में आग लगा दी गई थी। लोग जिंदी ही जल
गए थे। क्योंकि सवा महीने बाद मध्यावधि चुनाव थे। हरिजन टोले पर हुए अत्याचार को
ही न्याय दिलाने के लिए बिसेसर लड़ाई लड़ रहा था। इसी कारण उसकी हत्या हुई और लोग
हत्या के पीछे जोगेसर साहू का नाम बताते हैं। पूरी न्यायिक जाँच होती है। पुलिस
आती है, लेकिकन ढाक के वही तीन पात और अंत में बिसेसर की हत्या नहीं जहर खाकर
आत्महत्या बता दी गई।
आलोचना-
कहानी में बिसेसर 28
वर्ष का दिखाया गया है। बड़ी बिटिया है और लड़का आठवीं में पढ़ता है, माना जाए तो
क्या बिसेसर 13 या 14 वर्ष का पिता बन गया था। यह बात ठीक नहीं है, लेखिका इस पक्ष
पर ध्यान नहीं दे पाई। इतना ही नहीं स्वतंत्रता के बाद बाल विवाह करना अपराध है और
लेखिका इसे जाने-अनजाने उद्घाटित कर रही है। दूसरा कहानी में जोगेसर साहू पर
बिसेसर की हत्या करने का शक है, लेकिन कहानी में जोगेसर साहू पर प्रकाश ही नहीं
डाला गया है। कहानी की भाषा से राज्य या प्रांत का पता नहीं चलता कि घटना कहाँ की
स्थिति को लेकर लिखी गई है।
दो कलाकार
दो कलाकार दो सहेलियों की कहानी है, जो 6
वर्ष तक एक साथ हॉस्टल में रहती हैं। अरूणा (रूनी) और चित्रा की मित्रता हॉस्टल
में प्रसिद्ध है। अरूणा का स्वभाव गरीबों की मदद करना, उन्हें पढ़ाना उनके लिए
नए-नए विचारों से सोचना दिखाया गया है। वहीं दूसरी ओर चित्रा बड़े घराने की इकलौती
बेटी है उसे चित्रकारी करना पसंद है, यही उसका जनून भी है।
हॉस्टल से निकलने से पहले के क्षण को
लेखिका ने बड़े ही मार्मिक तरीके से दिखाया है, चित्रा को घर जाना है, हॉस्टल के
बाहर खड़ी है। लेकिन चित्रा मरी भिखारिन और उसके शरीर से चिपकर रोते दो बच्चों की
तस्वीर बनाती है। इसी तस्वीर से वह देश-विदेश में लोकप्रियता भी प्राप्त करती है।
विदेश में रहती है, जब स्वदेश लौटती है तो अरूणा से अपनी चित्र प्रदर्शनी में
मिलती है। अरूणा के साथ दो बच्चों को देख हैरान होती है और उससे सभी कुछ जानना
चाहती है। अरूणा बताती है और उस भिखारिन के फोटो पर अँगुली रखकर कहती है, ये ही वे
दोनों बच्चे हैं। चित्रा के शब्द शायद उसके विचारों में ही खो गए। यही कहानी का
अंत है।
कहानी में मित्रता, संवेदनशीलता, मानव
सेवा, महत्वाकांक्षा, ऊँचा उठने की होड़, बदलते मानव मूल्य, उच्च वर्ग और निम्न
वर्ग का भेद, बदलती सोच को दिखाया गया है। कहानी का सबसे संवेदनशील संवाद- कागज पर
इन निर्जीव चित्रों को बनाने की बाजए दो-चार की जिंदगी क्यों नहीं बना देती?
तेरे पास सामर्थ्य
है, साधन हैं।
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