गिलक्राइस्ट
जॉन बार्थविक गिलक्राइस्ट (जून 1759 – 1841) का जन्म एडिनबरा में हुआ था। उन्होंने एडिनबरा के
जार्ज हेरियट्स अस्पताल में चिकित्सा संबंधी शिक्षा ग्रहण की। चिकित्सीय शिक्षा
प्राप्त कर वे अप्रैल 1783 को ईस्ट इंडिया कंपनी में एक चिकित्सक के
रूप में कलकत्ता भारत आए। जहाँ 21 अक्टूबर सन् 1794 को सर्जन का पद दिया गया। तब तक शासन कार्य फारसी में होता था। जॉन गिलक्राइस्ट ने फारसी के स्थान पर शासनकार्य को
हिंदुस्तानी के माध्यम से चलाने की बात सोची। वे स्वयं अध्ययन करते रहे और दूसरों
को भी इस बात के लिए प्रेरणा देते रहे। गिलक्रिस्ट, ईस्ट इंडिया कम्पनी के कर्मचारी एवं भाषाविद थे। कलकत्ता के फोर्ट विलियम्स कॉलेज में
इन्होने हिंदुस्तानी भाषा की पुस्तकें तैयार कराने का कार्य किया।
1.
इंग्लिश-हिन्दुस्तानी डिक्शनरी, कलकत्ता (1787)
2.
हिन्दुस्तानी ग्रामर (1796)
गिलक्राइस्ट का महत्व इस दृष्टि से बहुत अधिक
है कि शिक्षा माध्यम के रूप में इन्होंने हिन्दी का महत्व पहचाना। माक्विस
बेलेज़ली ने अपने गर्वनर जनरल के कार्यकाल (1798-1805) में अंग्रेज प्रशासकों तथा कर्मचारियों को
प्रशिक्षित करने तथा उन्हें भारतीय भाषाओं से परिचित कराने के लिए कलकत्ता में 4 मई सन् 1800 ई0
को फोर्ट विलियम कॉलेज
की स्थापना की। सन् 1800
में कालेज के
हिन्दुस्तानी विभाग के अध्यक्ष के रूप में गिलक्राइस्ट को नियुक्त किया गया। आप
ईस्ट इंडिया कम्पनी में सहायक सर्जन नियुक्त होकर आए थे। उत्तरी भारत के कई
स्थानों में रहकर इन्होंने भारतीय भाषाओं का ज्ञान प्राप्त किया।
सन् 1800
में ही गिलक्राइस्ट के
सहायक के रूप में लल्लूलाल की नियुक्ति सर्टिफिकेट मुंशी के पद पर हुई।
गिलक्राइस्ट ने हिन्दी में पाठ्य पुस्तकें तैयार कराने की दिशा में प्रयास किया। जिस
समय फोर्ट विलियम कॉलेज की ओर से उर्दू और हिन्दी गद्य की पुस्तकें लिखने की
व्यवस्था हुई उसके पहले हिन्दी खड़ी बोली में गद्य की कई पुस्तकें लिखी जा चुकी
थीं। (हिंदी साहित्य का इतिहास, आचार्य रामचंद्र शुक्ल, पृष्ठ, 301)
1860 में
फोर्ट विलियम कॉलेज (कलकत्ता) के हिन्दी उर्दू अध्यापक जान गिलक्राइस्ट ने देशी
भाषा की गद्य पुस्तकें तैयार कराने की व्यवस्था की तब उन्होंने उर्दू और हिन्दी
दोनों के लिए अलग अलग प्रबंध किया। इसका मतलब यही है कि उन्होंने उर्दू से
स्वतंत्र हिन्दी खड़ी बोली का अस्तित्व भाषा के रूप में पाया। फोर्ट विलियम कॉलेज
के आश्रय में लल्लूलालजी गुजराती ने खड़ी बोली के गद्य में 'प्रेमसागर' और सदल
मिश्र ने 'नासिकेतोपाख्यान' लिखा।
अत: खड़ी बोली गद्य को एक साथ आगे बढ़ानेवाले चार महानुभाव हुए हैं , मुंशी
सदासुख लाल, सैयद
इंशाअल्ला खाँ, लल्लूलाल
और सदल मिश्र। ये चारों लेखक संवत् 1860 के आसपास हुए। (हिंदी साहित्य का
इतिहास, पृष्ठ,301)
गिलक्राइस्ट ने भारत में
बहुप्रयुक्त भाषा रूप को ‘खड़ी बोली' की संज्ञा से अभिहित
किया। ‘खड़ी बोली' को अपने भारत की खालिस
या खरी बोली माना है। गिलक्राइस्ट ने इसको ‘प्योर स्टर्लिंग' माना तथा अपने कोश में Sterling
का अर्थ किया है - Standard,
Genuine. इसी भाषा रूप में गिलक्राइस्ट ने लल्लूलाल को लिखने का निर्देश प्रदान
किया। लल्लूलाल ने अपने ग्रन्थ ‘प्रेमसागर' की भूमिका में लिखा
है:-‘‘
श्रीयुत गुनगाहक
गुनियन-सुखदायक जान गिलकिरिस्त महाशय की आज्ञा से सम्वत् 1860
(अर्थात्
सन् 1803)
में श्री लल्लू जी लाल
कवि ब्राह्मन गुजराती सहस्र अवदीच आगरे वाले ने जिसका सार ले, यामिनी भाषा छोड़, दिल्ली आगरे की खड़ी
बोली में कह, नाम ‘प्रेमसागर' धरा।'' संवत् 1860 में
कलकत्ता के फोर्टविलियम कॉलेज के अध्यापक जान गिलक्राइस्ट के आदेश से इन्होंने खड़ी
बोली गद्य में 'प्रेमसागर' लिखा
जिसमें भागवत दशमस्कंध की कथा वर्णन की गई है। (हिंदी साहित्य का इतिहास,
पृष्ठ,304)
हिन्दी भाषा और फ़ारसी लिपि का घालमेल फोर्ट विलियम कॉलेज (1800-54)
की देन थी। फोर्ट विलियम कॉलेज के हिन्दुस्तानी विभाग
के सर्वप्रथम अध्यक्ष जॉन गिलक्राइस्ट थे। उनके अनुसार हिन्दुस्तानी की तीन शैलियाँ थीं—दरबारी या फ़ारसी
शैली, हिन्दुस्तानी शैली, हिन्दवी शैली। गिलक्राइस्ट फ़ारसी शैली को दुरूह तथा हिन्दवी शैली को गँवारू मानते
थे। इसलिए उन्होंने हिन्दुस्तानी शैली को प्राथमिकता दी। उन्होंने हिन्दुस्तानी के जिस रूप को बढ़ावा दिया, उसका मूलाधार तो हिन्दी ही था, किन्तु उसमें अरबी–फ़ारसी शब्दों की बहुलता थी और वह फ़ारसी लिपि में लिखी जाती थी। गिलक्राइस्ट
ने हिन्दुस्तानी के नाम पर असल में उर्दू का ही प्रचार किया।
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