शनिवार, 18 मई 2019

मन्नू भंडारी की कहानियों की समीक्षा


                                     त्रिशंकु

त्रिशंकु कहानी में माँ और बेटी के संबंधो, शिक्षा, प्रेम, उदारता, कठोरता, नई-पुरानी सोच, बदलते मानव मूल्यों, रिश्तों की समझ, पारिवारिक जिम्मेदारी, स्त्री विमर्श और अंतःद्वंद्व की कहानी है। कहानी में बेटी (तनु) अपने पड़ोस में रहने आये लड़के शेखर से प्रेम की कहानी है। माँ पहले तो तनु के द्वारा ही शेखर को घर पर चाय के लिए स्वयं बुलवाती है। पुरानी रूढियों को तोड़ती नज़र आती है। लेकिन जब तनु और शेखर दोनों करीब आने लगते हैं, तो माँ उनके रिश्ते को स्वीकरा नहीं करना चाहती है और कहती है- 'बड़े हो जाओ तो प्रेम भी करना और शादी भी। मैं तो वैसे भी तुम्हारे लिए लड़का ढूँढने वाली नहीं हूँ।' कहानी के अंत में तनु कहती है- 'इन ममी से लड़ा भी कैसे जाए, जो एक पल नाना होकर जीती है तो एक पल ममी होकर।'
कहानी अपने व्यापक कलेवर में संबंधो की दुनिया को दिखाती है। स्त्री विमर्श या ये कहें कि स्त्री के कई रूपों का लेखिका ने वर्णन किया है- माँ, बेटी, पत्नी, गृहणी, प्रेमिक, आदर्श पड़ोसी आदि का। प्रमुख दो पात्रो यानि माँ और बेटी के माध्यम से स्त्री चित्रण किया गया है। कहानी को प्रेम कहानी, माँ-बेटी के रिश्ते की कहानी, मध्यवर्गीय समाज की कहानी आदि कहा जा सकता है। कहानी ने सभी बिंदुओं को छुआ है, मूल रूप से कहानी दो पीढियों के बीच समाज के द्वंद्व को प्रकट करती है।
मैं हार गई

       मैं हार गई कहानी लेखिका के विचारों का द्वंद्व है। यह बिना नायक-नायिका के सीधे विचारात्मक पहलु को लेकर लिखी गई है। इसे कहानी कहना या विबंध कहना विचारकों की सोच और अभिव्यक्ति का तरीका है। इसमें लेखिका अपनी कलम से दो नायकों के चरित्र को खड़ा करती है और उसमें रंग भरती है। पहले प्रकार के चरित्र में वह निर्धन वर्ग के नायक को खड़ा करना चाहती है। जो राष्ट्र में क्रान्ति ला सके और राजनीति में परिवर्तन ला सके। जनता की सभी बातों को ठीक से समझ सके और उसे पूरा करने का प्रयास करे। लेकिन वह नायक अपने ही घर की व्यवस्था में फंसकर रह जाता है, तो राष्ट्र को क्या चलायेगा। इसी बात को लेखिका ने उकेरा है और कहती है- 'जानते हो, मैं तुम्हारी स्रष्ठा हूँ, तुम्हारी विधाता।' लेकिन नायक पर उसका कोई प्रभाव नहीं पड़ता और वह बीमार बहन का इलाज कराने के लिए शहर गया, लोगों से कर्ज माँगा, मिन्नते की, अंत मं चोरी करने लगा। यही नायक का अंत भी है।
       दूसरे पक्ष में लेखिका ऐसे नायक को खड़ा करती है जो उच्च घरे का समृद्ध समुदाय का, सर्व सुविधा भोगी, धनवान वर्ग में पला-बड़ा। लेकिन वह भी आदर्शों पर खरा नहीं तरा उसके अंदर शराब, जुआ, औरतखोर, वेश्यागामी न जाने कितने ही अवगुण निकल आए। उसे भी लेखिका कहती है-'जानते हो, मैं तुम्हारी स्रष्ठा हूँ, तुम्हारी विधाता।' लेकिन नायक पर कोई फर्क नहीं पड़ता है। नायक कहता है- 'यह उम्र दुनिया की रंगीनी और घर की अमीरी! बिना लुत्फ उठाए यों ही जवानी क्यों बर्बाद की जाए

       अंत में लेखिका लिखती है- 'मैं हार गई, बुरी तरह हार गई।' कहानी अपने छोटे से कलेवर में देश की भ्रष्ट राजनीति, भ्रष्टाचार,  बेरोजगारी, गरीबी, स्वास्थ्य आदि सभी मुद्दों पर एक साथ व्यंग्य करती चलती है। कहानी में निम्न और उच्च वर्ग के मानव मूल्यों को लेखिका ने दो नायकों के माध्यम से हमारे सामने रखा है। वहीं नवीन और प्राचीन मूल्यों के बीच की टकराहट को भी दिखाया गया है। लेखिका परिवर्तन चाहती है, लेकिन समाज का कोई भी वर्ग बदलाव तो चाहता है पर अपनी कुर्बानी नहीं देना चाहता। यह कहानी वहीं उलझ कर रह जाती है।

मजबूरी

मजबूरी पारिवारीक कहानी है, जिसमें माँ, बेटा, सास, बहू, पोता आदि के अंदर की कसमकस है। कहानी के केन्द्र में बेटू नाम का पात्र रहता है, जो अपनी दादी के पास रहता है। गाँव में अकेली रह रही माँ का इकलौता बेटा रामेश्वर अपनी पत्नी रमा और दो बेटों ( जिसमें बड़े का नाम बेटू है) के साथ मुंबई शहर में नौकरी करता है और वहीं पर रहता है। लेकिन वह कभी-कभी माँ से मिलने अपने गाँव आ जाता है। माँ अपने अकेलेपन को दूर करने के लिए अपने बड़े पोते बेटू को अपने पास रखना चाहती है, आखिरकार रमा और रामेश्वर बेटू को गाँव में माँ के पास छोड़ भी देते हैं पर परिणाम इसके विरूद्ध होता है। बेटू गाँव के आवारा बच्चे के साथ खेलता है, पढ़ने-लिखने में उसका मन नहीं लगता है, वह हर समय घर से बाहर रहता है। वह पढ़ने की बजाए खेलता रहता है। वह अब सामान्य से परे दिखाई देता है। दो वर्ष बाद रमा ने बेटू को देखा तो वह बेटू को वापस अपने साथ ले जाने का निर्णय लेती है और ले भी जाती है।
कहानी अपने छोटे से कलेवर में पलायनवाद को दिखाती है, कैसे रोजी रोटी कमाने के लिए ग्रामीण लोग शहरों की ओर जा रहे हैं। इससे गाँव तो खाली हो ही रहे हैं, बल्ति शहरों पर भी अत्याधिक मानव बोझ बढ़ रहा है। दूसरा इससे गाँव में अकेले रह रहे बूजुर्गो (वृद्धों) को समस्या आती है। सास बहू जब अलग-अलग रह रही तो उनके बीच तालमेल नहीं बन पता है कहानी का एक पक्ष यह भी है। कहानी में माँ-बेटे के प्यार को दिखाया गया है, जो दो पीढ़ियों के माध्यम से हमारे सामने आता है। कहानी बच्चों के लालन-पालन को भी दिखाती है। कहानी में जीवन मूल्यों को दिखाया गया है। कहानी त्याग, समर्पण और बदलते मानव मूल्यों को दिखाती है।

                                     कमरे कमरा और कमरे

       यह लेखिका की आत्मकथा शैली में लिखी कही कही जा सकती है। इसमें नीलू जो घर पर पूरा काम सँभालती है और उसे व्यवस्थित करती रहती है। घर में पाँच कमरे थे उन सभी का काम वही करती है। नूलू ने एम.ए. प्रथम श्रेणी से पास किया और विश्वविद्यालय में दूसरा स्थान प्राप्त किया। इस का जश्न घर पर ही हुआ। अब पीएच.डी.(शोध) कार्य के लिए तथा नौकरी के लिए दिल्ली आना पड़ा। अब कॉलेज में नौकरी मिली तो उसका जीवन पाँच कमरों की बजाए एक कमरे में सीमित रह गया। पीएच.डी.(शोध) पूरी कर नीलू ने अपने माता-पिता का सपना साकार किया।
       कहानी नारी शिक्षा, उसके पारिवारीक जीवन, स्वतंत्र सोच, आगे बढ़ने की सार्थकता आदि कितने ही छोटे बड़े उद्देश्यों के साथ आगे बढ़ती है। कहानी के केन्द्र में मध्यवर्गीय परिवार की व्यवस्था और उसमें लड़कियों के जीवन पर प्रकाश डालती है। कहानी शोध और उसकी महत्ता को दिखाती है। कहानी पिता-पुत्री के बीच प्रेम, विश्वास, त्याग, समर्पण और सामाजिक सरोकार को उजागर करती दिखाई देती है।

अकेली
अकेली कहानी में एक ऐसी नारी सोमा बुआ का वर्णन है, जिसके पुत्र की मृत्यु के पश्चात उसका पति हरिद्वार में रहने लगता है। साल में केवल एक महीने वह घर आता है। बुआ अकेली रहती है और पड़ोस के लोगों के सहारे अपना जीवन यापन करती है। जबकि उसके पति को उनका किसी के घर आना-जाना पसंद नहीं है।
कहानी में भारतीय समाज के पड़ोस क्लचर तथा उसकी व्यवस्था को दिखाया गाय है। बुआ आस-पड़ोस में सभी के घऱ शादी में, जन्मदिन आदि कार्यक्रमों में जाती है और लोग उसका आदर सत्कार भी करते हैं। कहानी रिश्ते नातों और हमारे समाज में जीवन की व्यवस्था को उजागर भी करते हैं। लेकिन व्यवस्था इससे अलग भी है अपने ही लोग बुआ को नहीं बुलाते हैं जबकि वह पूरी व्यवस्था के साथ सामान सजाये रखती है। पैसा घर पर न होने के बावजूद वह अपने गहनों को बेचकर रिश्ते निभाने का काम करती है लेकिन अपने ही रिश्तेदार उसे नहीं निभा पाते हैं।
कहानी टूटते मानव-मूल्यों, वृद्ध समस्या, स्त्री विमर्श, सामाजिक व्यवस्था, वृद्ध स्नेह, पड़ोस क्लचर आदि कितने ही बिन्दुओं को अपने में समेटे हुए है।

सोमा बुआ बुढ़िया परित्यक्ता और अकेली है। बुढ़िया सोमा बुआ पिछले बीस वर्षों से अकेली रहती हैं। उनका इकलौता जवान बेटा हरखु समय से पहले ही चल बसा। उनके पति पुत्र वियोग का सदमा सह न सके तथा घर छोड़ कर तीर्थवासी हो गये। सोमा बुआ के सन्यासी पति साल में एक महीना घर आते हैं। बुआ को अपना जीवन पड़ोस वालों के भरोसे ही काटना पड़ता है। दूसरों के घर के सुख-दुख के सभी कार्यक्रमों में वह दम टूटने तक यों काम करती हैं, मानो वह अपने ही घर में काम कर रही हो। जब बुआ के पति घर पर होते हैं तब बुआ का अन्य घरों में सक्रिय बना रहना बंद हो जाता है। तब उनकी जीभ ही सक्रिय हो उठती है। पड़ोसन राधा के समक्ष बुआ मन का गुबार निकालती है राधा के यह पूछने पर कि सन्यासी महाराज क्यों बिगड़ पड़े? बुआ बोल पड़ती है कि उनका औरों के घर आना जाना उनके पति को नहीं सुहाता। पति का स्नेहहीन व्यवहार तथा बुआ के पास पड़ोस से बिन बुलाये निभाए जाने वाले व्यवहारों पर पति द्वारा लगाया जाने वाला अंकुश उन्हें कष्ट देता है। पति से होने वाली कहा सुनी पर बुआ रोने लगती है। वे राधा से कहती हैं कि, “ये तो हरिद्वार रहते हैं, मुझे तो सबसे निभानी पड़ती है। मेरा अपना हरखू होता और उसके घर काम होता तो क्या मैं बुलावे के भरोसे बैठी रहती। मेरे लिए जैसा हरखू वैसा किशोरीलाल। आज हरखू नहीं है इसी से दूसरे को देख देखकर मन भरमाती रहती हूं।दरअसल सोमा बुआ अपने अकेलेपन को दूर करने के लिए सबसे जुड़ना चाहती है इसलिए बिन बुलाये ही सबके घर जाकर काम में जुट जाती हैं। जैसे- अमरक के बिखरे हुए कल रह-रहकर धूप में चमक जाते हैं ठीक वैसे ही जैसे किसी को भी गली में घुसता देख बुआ का चेहरा चमक उठता है। मन के बहलने प्रसंगों को वह तलाश थी रहती है। कहीं थोड़ी देर के लिए दिल बहल जाता है तो कहीं फिर से गहरी चोट मिल जाती है।


जिन दिनों उनके पति आये हुए होते है उसी समय सोमा बुआ के दूर के रिश्ते में किसी का ब्याह पड़ जाता है। बुआ की आदत को जानते हुए उनके पति साफ निर्देश देते हैं कि जब तक उनके घर से न्योता न आये सोम बुआ वहाँ नहीं जाएँगी। उनकी विधवा ननद उनके जख्मों पर नमक छिड़कते हुए झूठ ही कहती है कि निमंत्रण की लिस्ट में बुआ का भी नाम है बुआ न्योते का इंतजार करती है साथ ही मन में न्योते की प्रसन्नता लिए ब्याह में भेंट देने के जुगाड़ में भी लग जाती है वे लोग पैसे वाले हैं साथ ही दूर के रिश्तेदार भी। यूँ तो सामाजिक बंधन बनाना मर्दों का काम है, किन्तु सोमाबुआ मर्द वाली होकर भी बेमर्द की है इसलिए व्याह में भेट देने के लिए अपने मरे हुए बेटे की एकमात्र निशानी सोने की अँगूठीबेचवाकर पड़ोसन राधा से चांदी की सिंदूरदानी तथा साड़ी- ब्लाउज का इंतजाम करवाती हैं। अपने हाथों में लाल-हरी चूड़ियां पहन कर पहन कर जाने वाली साड़ी को पीले रंग मांड कर बुआ पाँच बजे के मुहूर्त के निमंत्रण का इंतजार करने लगती है। सात बज जाते हैं किन्तु निमत्रण न आने पर वह दु:खी हो जाती है। इतनी तैयारियों के साथ पल पल निमंत्रण के इंतजार के बाद बुआ को विश्वास ही नहीं होता कि सात कैसे बज सकते है जबकि मुहूर्त पांच बजे का था।सोम बुआ को व्याह का बुलावा नहीं आया था। ऐसे ही उन्हें किसी के घर से बुलावा नहीं आता फिर भी बुआ बन बुलाये ही चली जाती।
सयानी बुआ

सयानी बुआ अपने छोटे से कलेवर में गृहणी की अनुशासन प्रियता और घर में चीजों को व्यवस्थित रूप से रखने तथा उनके सदुपयोग को लेकर लिखी गई कहानी है। कहानी में बुआ रिश्तों से ज्यादा चीजों को तवज्जो देती हैं और उसके इस बरताव के कारण घर में तनाब का माहौल बना रहता है।
       बुआ की बेटी अन्नू बीमार है, जिसे ठीक होने के लिए डॉक्टर के अनुसार पहाडो पर रहना होगा। वहाँ रहने की सभी हिदायतें दी गई, लेकिन एक दिन बुआ के पास पत्र आता है कि तुम्हारे द्वारा दिए गए 50रू वारे से के दो प्याले दूट गए पर अन्नू अच्छी है। कहानी के अंत तक आते-आते बुआ वस्तुओं से अधिक अब रिश्तों से बंधना चाहती है। यही कहानी में दिखाया गया है।
       कहानी में रिश्तों की दुनिया, एक गृहणी की अनुशासन प्रियता, माँ-बेटी के संबंधों का सच तथा एक महिला के बहुत से रूपों को दिखाया गया है। इतना ही नहीं कहानी में आधुनिक परिवारों की व्यवस्था को भी दिखाया गया है। पति के कहानी में गौण पात्र के रूप में दिखाया गया है। कहानी के केंद्र में सयानी बुआ और उसकी बेटी अन्नू ही रहती है।

अलगाव

यह कहानी अपने छोटे से कलेवर में ग्रामीण पृष्ठभूमि को लेकर आगे बढ़ती है। महिला चिंतन से दूर इस कहानी में जातिगत भेदभाव, राजनैतिक भ्रष्टाचार, पुलिस का लापरवाही, ग्रामीण समाज का चित्रण, अनपढ़ गाँव वाले और आपसी लड़ाई-भगड़े को दिखाती नज़र आती है। इतना ही नहीं कहानी में उच्च वर्ग और निम्न वर्ग के बीच का संघर्ष होने के साथ-साथ अधिकार के लिए लड़ता मरता इंसान दिखाया गया है।
       कहानी की शुरूआत  कहानी के नायक बिसेसर की मौत के साथ होती है। कहानी  में बिसेसर को 28 वर्ष का पढ़ा लिखा लड़का दिखाया गया है। जिसकी दो संतान हैं, एक बड़ी बिटिया और एक बेटा (सिधेसर) जो आठवीं कक्षा में पढ़ता है। गाँव में ही स्कूल खोलकर बच्चों को पढ़ाता है। लेकिन इस देश में राजनैतिक भ्रटाचार के चलते दलित और गरीब को पढ़ाना भी एक अपराध हो। जिसके चलते बिसेसर को चार साल की सजा होती है और अब जेल से छूटकर आया तो देखा गाँव के हरिजन टोले की तीन झोपड़ियों में आग लगा दी गई थी। लोग जिंदी ही जल गए थे। क्योंकि सवा महीने बाद मध्यावधि चुनाव थे। हरिजन टोले पर हुए अत्याचार को ही न्याय दिलाने के लिए बिसेसर लड़ाई लड़ रहा था। इसी कारण उसकी हत्या हुई और लोग हत्या के पीछे जोगेसर साहू का नाम बताते हैं। पूरी न्यायिक जाँच होती है। पुलिस आती है, लेकिकन ढाक के वही तीन पात और अंत में बिसेसर की हत्या नहीं जहर खाकर आत्महत्या बता दी गई।
       आलोचना-
       कहानी में बिसेसर 28 वर्ष का दिखाया गया है। बड़ी बिटिया है और लड़का आठवीं में पढ़ता है, माना जाए तो क्या बिसेसर 13 या 14 वर्ष का पिता बन गया था। यह बात ठीक नहीं है, लेखिका इस पक्ष पर ध्यान नहीं दे पाई। इतना ही नहीं स्वतंत्रता के बाद बाल विवाह करना अपराध है और लेखिका इसे जाने-अनजाने उद्घाटित कर रही है। दूसरा कहानी में जोगेसर साहू पर बिसेसर की हत्या करने का शक है, लेकिन कहानी में जोगेसर साहू पर प्रकाश ही नहीं डाला गया है। कहानी की भाषा से राज्य या प्रांत का पता नहीं चलता कि घटना कहाँ की स्थिति को लेकर लिखी गई है।

दो कलाकार

दो कलाकार दो सहेलियों की कहानी है, जो 6 वर्ष तक एक साथ हॉस्टल में रहती हैं। अरूणा (रूनी) और चित्रा की मित्रता हॉस्टल में प्रसिद्ध है। अरूणा का स्वभाव गरीबों की मदद करना, उन्हें पढ़ाना उनके लिए नए-नए विचारों से सोचना दिखाया गया है। वहीं दूसरी ओर चित्रा बड़े घराने की इकलौती बेटी है उसे चित्रकारी करना पसंद है, यही उसका जनून भी है।
हॉस्टल से निकलने से पहले के क्षण को लेखिका ने बड़े ही मार्मिक तरीके से दिखाया है, चित्रा को घर जाना है, हॉस्टल के बाहर खड़ी है। लेकिन चित्रा मरी भिखारिन और उसके शरीर से चिपकर रोते दो बच्चों की तस्वीर बनाती है। इसी तस्वीर से वह देश-विदेश में लोकप्रियता भी प्राप्त करती है। विदेश में रहती है, जब स्वदेश लौटती है तो अरूणा से अपनी चित्र प्रदर्शनी में मिलती है। अरूणा के साथ दो बच्चों को देख हैरान होती है और उससे सभी कुछ जानना चाहती है। अरूणा बताती है और उस भिखारिन के फोटो पर अँगुली रखकर कहती है, ये ही वे दोनों बच्चे हैं। चित्रा के शब्द शायद उसके विचारों में ही खो गए। यही कहानी का अंत है।

कहानी में मित्रता, संवेदनशीलता, मानव सेवा, महत्वाकांक्षा, ऊँचा उठने की होड़, बदलते मानव मूल्य, उच्च वर्ग और निम्न वर्ग का भेद, बदलती सोच को दिखाया गया है। कहानी का सबसे संवेदनशील संवाद- कागज पर इन निर्जीव चित्रों को बनाने की बाजए दो-चार की जिंदगी क्यों नहीं बना देती? तेरे पास सामर्थ्य है, साधन हैं। 

केलॉग



केलॉग
सैमुएल केलॉग का जन्म 06 सितंबर, 1839 में, संयुक्त राष्ट्र अमेरिका के न्यूयार्क के लाँग आइलैण्ड में क्योकू नामक स्थान में एक गिरजा-भवन (परोहिताश्रम) में हुआ। उनके पिता का नाम पादरी सैमुएल तथा माता का नाम मेरी पी हेनरी था। बचपन में शारीरिक रूप से कमजोर होने के कारण उन्हें विद्यालय नहीं भेजा गया और शिक्षा दिक्षा घर पर ही हुई, माँ ही उनकी प्रथम गुरू रही वही उन्हें सिखाती थी। बाद में लॉग आइलैण्ड के विलियम्स कॉलेज से उन्होंने मैट्रिक पास किया और कॉलेज में भरती हो गया।
       कॉलेज में भी स्वास्थ्य बिगड जाने कारण कॉलेज फिर से छोड़ना पड़ा लेकिन वह घर पर अध्ययन करते रहे। दो वर्ष बाद स्वास्थ्य लाभ हो जाने पर उन्होंने प्रिंसटन नामक कॉलेज में प्रवेश लिया और तीन वर्ष के कठिन अध्ययन के बाद उसी कॉलेज से बी.ए. की परीक्षा उच्च श्रेणी में पास की साथ ही कक्षा में प्रथम भी रहे। इसके बाद वे प्रिंसटन सेमिनरी में भर्ती हो गये और वही उन्होंने पादरी की दीक्षा प्राप्त की। सन् 1864 के अमेरिकन प्रेसबिटेरियन मिशन के पादरी अभिषिक्त हुए। उसी वर्ष के मई महीने में मेरी अन्टोनिएट नामक महिला से उनका
विवाह सम्पन्न हुआ। विवाह के बाद केलॉग और उनकी पत्नी दोनों ही भारत आ गये। 1864 के दिसंबर महीने में बोस्टन से एक माल-जहाज पर दोनों ने यात्रा आरंभ की। उनकी गणना के अनुसार करीब तीन महीने में उनका जहाज भारत पहुँचा था। केलॉग ईसाई धर्म के प्रचार के लिए भारत में आए थे। उनका बहुत सा समय प्रयाग में बीता था।
केलॉग की पुस्तक का नाम था ए ग्रामर आफ द हिन्दी लैंग्वेज, इसका पहला संस्करण 1874 में प्रकाशित हुआ था। केलॉग ने अपने प्रथम संस्करण के समय लल्लूलाल के प्रेमसागर के उदाहरण लिए, लेकिन दूसरे संस्करण में राजा लक्ष्मण सिंह द्वारा प्रस्तुत अभिज्ञान शाकुंतलम् की सहायता ली। केलॉग जिस समय हिन्दी व्याकरण लिख रहे थे, यूरोप के कुछ विद्वान भारत में बोली जानेवाली आर्य-परिवार की भाषाओं का अध्ययन कर चुके थे। केलॉग ने अपने समकालीन तथा पूर्ववर्ती विद्वानों को पढ़ा, जो इस प्रकार हैं-बीम्स, हार्नली, पिनकाट, प्लेट्स और ग्रियर्सन आदि। इतना ही नहीं अपनी पुस्तक हिंदी व्याकरण में इनकी चर्चा भी हुई है। केलॉग के अनुसार- 'परिनिष्ठित हिंदी का टकसालीपन प्रवाह और सामर्थ्य का मूल स्रोत बोलियाँ ही है। बोलियों से संबंध-विच्छेद करके स्तरीय हिंदी जीवन शक्ति से वंचित हो जाएगी।' (हिन्दी व्याकरण, केलॉग, अनुवाद- डॉ. श्रीराम शर्मा, हिन्दी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग, पृष्ठ- 10-11)
केलॉग ने अपने व्याकरण में जो जानकारी दी है, उसके आधार पर कहा जा सकता है कि ये बोलियाँ सभी बातों में बहुत साम्य रखती हैं। केलॉग के अनुसार यह भी सत्य है कि हिन्दुओं के घरों में कहीं भी उर्दू का प्रयोग नहीं होता। इतना ही नहीं केलॉग ने तुलसीदास के रामचरित मानस में प्रयुक्त भाषा पर लेखक ने विशेष ध्यान दिया। कबीर और सूर की रचनाओं से भी उन्होंने लाभ उठाया।  (हिन्दी व्याकरण, केलॉग, अनुवाद- डॉ. श्रीराम शर्मा, हिन्दी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग, पृष्ठ- 10-11)


शुक्रवार, 17 मई 2019

IGNOU MA Hindi कहानियों की समीक्षा


ठाकुर का कुआँ (प्रेमचंद)
सन् 1932 में प्रकाश में आई प्रेमचंद की कहानी 'ठाकुर का कुआँ' अपने छोटे से कलेवर में बड़ी बात कहती नजर आती है। कहानी ग्रामीण परिवेश मं उबरे जात-पात और ऊँच-नीच के बीच भेद को उजागर करती है। कहानी में दलित जोखू और उसकी पत्नी गंगी मुख्य पात्र है। दलित जोखू दूषित पानी पीने को मजबूर है। जबकि पत्नी उसे वह पानी नहीं पीने देती और हट करके ठाकुर के कुएँ से पानी लेने जाती है। डरी हुई गंगी जैसे ही कुएँ से पानी निकालने लगती है और पानी का घड़ा भरकर कुएँ के ऊपर तक आ जाता है तो ठाकुर का दरवाजा खुलता है जिससे गंगी के हाथ से रस्सी छूट जाती है और घड़ा फूट जाता है। घड़ा गिरते ही वह वहाँ ले दौड़ी घर को आती है तथा जोखू को दूषित पानी पीते देख उसे रोक नहीं पाती है।
दलित विमर्श को लेकर प्रेमचंद की कहानी 1930 में प्रकाशित सद्गति भी है। इनके आलावा भी हिंदी में दलित विमर्श को लेकर बहुत सारी कहानियाँ प्रकाश में आई हैं ओम प्रकाश बाल्मीकि की काहनी अम्मा, यह अंत नहीं, खानाबदोश। ज्ञानरंजन की कहानी मनु आदि।
 प्रेमचंद ग्रामीण परिवेश पर कहानी लिखने वाले रचनाकार रहे हैं उनका मूल उद्देश्य ग्रामिणों की समस्याओं को सभी के सामने लाना रहा है। कहानी में बहुत से बिंदुओं पर विचार किया गया है, जो इस प्रकार है-
1.       जातिगत भेदभाव।
2.       निम्न वर्ग और उच्च वर्ग का भेद।
3.       समाज में असमानता को दिखाना।
4.       कृषक या मजदूर की दशा।
5.       आर्थिक विपन्नता।
6.       जमींदारी प्रथा।

कुत्ते की पूँछ (यशपाल)
कुत्ते की पूँछ 1951 में प्रकाशित यशपाल की कहानी है। यशपाल के साहित्य में हर वर्ग को देखा जा सकता है, यहाँ कुत्ते की पूँछ कहानी के माध्यम से लेखक बालश्रम और बाल मनोविज्ञान दोनों को ही दिखाना चाहता है। साथ ही वह मध्यवर्गीय परिवार की स्थिति को भी उजागर करता है। हरीश (हरूआ) जिसे कढ़ाई में सोता हुआ देखकर श्रीमान और श्रीमती जी के दिल में उसे स्वतंत्र कराने की सोची और पैसे देकर अपने घर पर अपने बच्चे बिशू के साथ रखते हैं। लेकिन हरूआ कहाँ बदलने वाला था। उसकी हरकत वैसी की वैसी ही रही और अंत में लेखक लिखता है कि 'मनुष्यता का चसका किसी को लग जाने पर उसे जानवर बनाये रखना भी सम्भव नहीं।'
बालमन को लेकर हिंदी साहित्य में और भी कहानियाँ लिखी गई हैं, जिनमें प्रेमचंद की ईदगाह, रामलीला, गुल्ली डंडा। रांघेय राघव की गूंगे। जयशंकर प्रसाद की कहानी छोटा जादूगर। सियाराम शरण गुप्त की काकी।  रवीन्द्रनाथ टैगोर की काबुली वाला आदि।
       कहानी के महत्त्वपूर्ण बिन्दू इस प्रकार हैः-
1.       बालश्रम और बालमन
2.       करूणा और उदारता
3.       मध्यवर्गीय स्वार्थ
4.       संवेदनशीलता और हृद्य परिवर्तन
5.       शोषित पीडित मनुष्य की चेतना
6.       संघर्ष और समाज




भोलाराम का जीव (हरिशंकर परसाई)
भोलाराम का जीव नामक कहानी भारत के हर उस दफ्तर के कर्मचारी की है, जो रिश्वत न देने के कारण कागजों में ही फँस कर रह जाता है। कहानी अपने छोटे से कलेवर में कर्मचारियों की समस्या, पारिवारिक समस्या, रिश्वतखोरी, भ्रष्टतंत्र, मध्यमवर्ग का जीवन और सामाजिक धरातल को दिखाती नज़र आती है। कहानी में भोलाराम नाम के एक ऐसे व्यक्ति की कथा है, जो मृत्यु के बाद यमदूत की पर्याप्त सावधानी के बावजूद यमराज के दरबार में नहीं पहुँच पाता। धर्मराज, चित्रगुप्त और यमदूतµसभी इस नयी समस्या से परेशान हैं क्योंकि ऐसा पहले कभी नहीं हुआ था। इस नयी स्थिति पर सोच-विचार करते हुए वे अनुमान लगाते हैं कि आजकल पृथ्वीलोक में भ्रष्टाचार और राजनैतिक दाव-पेंचों का बोलबाला है, कहीं भोलाराम की आत्मा भी तो इन दाव-पेंचों की शिकार नहीं हो गयी। परंतु यह अनुमान निराधार प्रतीत होता है क्योंकि वह किसी प्रभावशाली व्यक्ति की आत्मा नहीं थी, वह तो एक अतिसामान्य नागरिक की आत्मा थी जिससे किसी का भी स्वार्थ सिद्ध नहीं हो सकता था।

कहानी में नारद जी का भी प्रवेश होता है, वे भोलाराम नामक जीव की विचित्र समस्या के समाधान हेतु  धर्मराज से उसकी जाँच-पड़ताल का दायित्व लेते हैं और भोलाराम का नाम-पता पूछकर उसकी खोज में पृथ्वी लोक पर आ जाते हैं। सबसे पहले वे भोलाराम के घर पहुँचते हैं, उन्हें सबसे पहले किसी ऐसे स्रोत का पता लगाना था,  जिसके प्रति भोलाराम का मोह हो और उसकी आत्मा वहीं अटक गयी हो। बातचीत से उन्हें मोह का कारण तो ज्ञान नहीं हुआ बस यही पता लग पाया कि सरकारी दफ्तर से रिटायर होने के पाँच वर्ष बाद भी उनकी पेंशन नहीं मिल सकी। उसे पाने के लिए वे निरंतर प्रयत्न करते रहे लेकिन कुछ हासिल न हो सका। नियमित आय और अन्य कोई काम ने होने के कारण अब भूखों मरने की नौबत आ गयी। भोलाराम की पत्नी नारद जी से आग्रह करती है कि वे ही उसकी पेंशन के लिए प्रयत्न करें जिससे कि उसके परिवार का लालन पालन हो सके। नारद जी सरकारी दफ्तर में जाते हैं, जहाँ कि भोलाराम की पेंशन की फाइल रुकी पड़ी थी। दफ्तर के कर्मचारियों से पता चला कि भोलाराम की अर्जियों पर इसलिए निर्णय नहीं लिया जा सका था कि उन पर वजन नहीं रखा गया था अर्थात् रिश्वत नहीं दी गई थी, जिसके चलते वे अर्जियाँ हवा में उड़ गयीं। दफ्तर में इतने सारे पेपरवेट रखे होने के बावजूद वजन न रखने के कारण भोलाराम की अर्जियाँ उड़ने की बात नारद जी की समझ में नहीं आयी। वे बड़े साहब से मिलते हैं और बात को जानने की कोशिश करते हैं। वे संकेतों से नारद जी को पेपरवेट का अभिप्राय समझाने का प्रयत्न करते हैं और अंत में नारद जी की वीणा को ही वज़न की भाँति रखने की बात कहते हैं। नारद जी के सहमत होते ही बड़े साहब भोलाराम की फाइल मँगाते हैं। भोलाराम का जीव उसी फाइल में है। अपना नाम सुनकर वह समझता है कि शायद उसकी पेंशन के आदेश लेकर डाकिया आ गया है। नारद जी उसे समझाते हैं कि वे उसे स्वर्ग ले जाने के लिए आए हैं। परंतु भोलाराम के जीव के लिए स्वर्ग का कोई आकर्षण नहीं क्योंकि उसका मन तो अपने पेंशन के कागज़ों में ही अटका है, अतः वह नारद जी के साथ जाने से इन्कार कर देता है। कहानी पाठक के मन में भ्रष्टतंत्र और सरकारी कामों के चक्र में बार-बार दफ्तर के चक्र काट कर थक जाने वाले व्यक्ति की कहानी है। सच मानों तो सरकार की योजनाओं का व्यक्ति को जो लाभ मिलना चाहिए, उसे नहीं मिल पाता है। अधिकारी अपनी लाभप्रदत्ता के कारण कामों को अटकायें रहते हैं। इस कहानी में यही दिखाया गया है। 




पुरस्कार (जयशंकर प्रसाद)
प्रसाद की कहानियों में देशप्रेम, ऐतिहासिकता और मानव संघर्ष आदि का वर्णन हमें दिखाई देता है। पुरस्कार कहानी प्रेम और मुक्ति चेतना का विकास करके लिखी गई कहानी है। कहानी की शुरआत कोशल के प्रसिद्ध परम्परागत उत्सव से होती है, जिसमें राजा किसी भी कृषक की जमीन को बोने के लिए चुनता है और उसे उपहार स्वरूप स्वर्ण मुद्रा देता है। इस वर्ष  मधूलिका की जमीन ली जाती है। मधूलिका वीर सेनापति सिंहमित्र की कन्या होती है। राजा बड़ा खुश होता है क्योंकि सिंहमित्र ने मगध के साथ युद्ध में विजय दिलाई थी। लेकिन मधूलिका राजा का उपहार लेना स्वीकार नहीं करती और अपनी भूमि पर काम करना चाहती है। इन सभी बातों को दूर खड़ा कोशल का राजकुमार अरूण देख रहा था। मधूलिका को दूसरी जगह भूमि दे दी जाती है और वहीं पर अपना गुजर बसर करती है। इसी दौरान उसका परिचय अरूण से होता है, वह नहीं जानती यह युवक कौन है और किस उद्देश्य से मेरे पास आया है।
अरूण राजा से मधूलिका की जमीन वापस दिलाने की बात भी कहता है। दोनों ही युवा है मधूलिका अरूण के बीच प्रेम हो जाता है। लेकिन दोनों ही मर्यादा में रहते हैं। मधूलिका को धीरे-धीरे अरूण की वास्तविकता का पता चल जाता है कि वह मगध पर आक्रमण कर उसे अपना गुलाम बनाना चाहता है और अपनी हार का बदला लेना चाहता है। मधूलिका भी वीर स्वर्गीय सिंहमित्र की कन्या थी। उसने प्रेम से बड़ा देशप्रेम सोचा और अरूण को सेना के हाथों पकड़वा देती है। अरूण को प्राण दंड़ दिया जाता है। वीर कन्या मधूलिका की बड़ी जय जयकार होती है। राजा ने पुरस्कार देने के बारे में पूछा तो मधूलिका ने कहा- मुझे कुछ न चाहिए। अरूण हँस पड़ा। राजा ने कहा- नहीं मैं तुझे अवश्य दूंगा। माँग ले। मधूलिका कहती है- तो मुझे भी प्राण दण्ड मिल। -कहती वह बन्दी अरूण के पास जा खड़ी होती हुई।
1.       देशप्रेम
2.       ऐतिहासिकता
3.       मानव संघर्ष
4.       मुक्ति चेतना
5.       सच्चा प्रेम (अधूरा प्रेम)
6.       नारी जीवन




                                 त्रिशंकु (मन्नू भंडारी)

त्रिशंकु कहानी में माँ और बेटी के संबंधो, शिक्षा, प्रेम, उदारता, कठोरता, नई-पुरानी सोच, बदलते मानव मूल्यों, रिश्तों की समझ, पारिवारिक जिम्मेदारी, स्त्री विमर्श और अंतःद्वंद्व की कहानी है। कहानी में बेटी (तनु) अपने पड़ोस में रहने आये लड़के शेखर से प्रेम की कहानी है। माँ पहले तो तनु के द्वारा ही शेखर को घर पर चाय के लिए स्वयं बुलवाती है। पुरानी रूढियों को तोड़ती नज़र आती है। लेकिन जब तनु और शेखर दोनों करीब आने लगते हैं, तो माँ उनके रिश्ते को स्वीकरा नहीं करना चाहती है और कहती है- 'बड़े हो जाओ तो प्रेम भी करना और शादी भी। मैं तो वैसे भी तुम्हारे लिए लड़का ढूँढने वाली नहीं हूँ।' कहानी के अंत में तनु कहती है- 'इन ममी से लड़ा भी कैसे जाए, जो एक पल नाना होकर जीती है तो एक पल ममी होकर।'
कहानी अपने व्यापक कलेवर में संबंधो की दुनिया को दिखाती है। स्त्री विमर्श या ये कहें कि स्त्री के कई रूपों का लेखिका ने वर्णन किया है- माँ, बेटी, पत्नी, गृहणी, प्रेमिक, आदर्श पड़ोसी आदि का। प्रमुख दो पात्रो यानि माँ और बेटी के माध्यम से स्त्री चित्रण किया गया है। कहानी को प्रेम कहानी, माँ-बेटी के रिश्ते की कहानी, मध्यवर्गीय समाज की कहानी आदि कहा जा सकता है। कहानी ने सभी बिंदुओं को छुआ है, मूल रूप से कहानी दो पीढियों के बीच समाज के द्वंद्व को प्रकट करती है।




प्रेम की होली
प्रेम की होली कहानी होली पर्व के साथ-साथ भारतीय नारी के प्रेम और व्यवस्था को उजागर करती नज़र आती है। कहानी की मुख्य पात्र गंगी जो 17 वर्ष की है, जिसका बाल विवाह हुआ है और तीन साल पहले विधवा भी हो गई है। पिता के घर रहती है और कोई सहारा नहीं है। पिता मैकू महतो के पास रहकर पशुओं, खेत-खलियान और घर का काम करती है। भाई की शादी हो चुकी है। होली के दिन गरीब सिंह जो बुद्धु सिंह ठाकुर का लड़का है, उसकी भेंट गंगी से होती है। यहीं से दोनों के बीच आँखों-आँखों में प्यार शुरू होता है। लेकिन कहता कोई किसी से नहीं है।
       गरीब सिंह एक दिन मैकू महतो से मिला। महतो ने ठाकुर का हाल चाल जाना तथा बीमार दिखाई देने पर बीमारी के बारे में पूछ ही लिया। ठाकुर ने मैकू महतो को अपनी बीमारी के बारे में विस्तार से बताया। दिन बीतते गए और फिर होली आयी। ढोल, भंग और गान हुआ। लेकिन इस बार ठाकुर गरीब सिंह नहीं आया। जब गंगी शाम को छत पर चढ़कर देखा तो दूर चिता जल रही थी, गंगी इसे होलिका दहन समझ रही थी। लेकिन जब पता चलता है कि वह होलिका दहन नहीं, बल्कि गरीब सिंह की चिता जल रही थी, गंगी वहीं ठहर सी जाती है। कहानी का अंत दुखद दिखाकर कहानीकार ने समाज की कई बातों को आत्मसात करके कहने का मन बनाया है। कहानी के बिंदुओं की ओर ध्यान दें तो कई सारी बातें एक साथ उभरकर आती हैं।
1.       बाल विवाह
2.       जातिगत भेदभाव
3.       ग्रामीण जीवन की त्रासदी
4.       ऊँच नीच का भेदभाव
5.       विधवा पुनर्विवाह
6.       असफल प्रेम कहानी
बेटों बाली विधवा
सन् 1932 में प्रकाश में आयी यह कहानी प्रेमचंद के अंतिम दौर की कहानियों में है। यहाँ तक प्रेमचंद की कलम लोगों के दिलो-दिमाग में अपना अलग ही स्थान बना चुकी थी। फूलमती के पति पं. अयोध्यानाथ का निधन हो चुका था, उसके चार बेटे और एक बेटी थी- कामतानाथ, उमानाथ, दीनानाथ, सीतानाथ और बेटी कुमुद। जो शादी के लायक हो गई थी। कामतानाथ दफ्तर में पाँच रूपये पर नौकर था, उमानाथ डॉक्टरी पास कर चुका था, दीनानाथ बी.ए. में फैल होकर पत्रिकाओं में लेख लिखता था, सीतानाथ एम.ए. कर रहा था। पूरी कहानी में चारों भाई पिता की संपत्ति हथियाने और माँ के पास रखे जेवर लेने पर लगे हुए थे। सभी को अपना-अपना हिस्सा चाहिए था। लेकिन कुमुद की शादी के बारे में कोई भी नहीं सोच रहा था।
       कुमुद की शादी 40 वर्ष के एक अधेड़ उम्र के व्यक्ति दीनदयाल के साथ कर दी गई। शादी के बाद माँ कुमुद को खाली हाथ घर से न जाए इसीलिए कुछ पैसे देती है। लेकिन बेटी का हृदय बहुत विशाल है वह माँ को ही उस पैसे को वापस दे देती है।
       कहानी का अंत बड़ा ही दुखद है। माँ और बेटी को दुख देने के कारण कामतानाथ टाईफाईड से मर गया। दीनानाथ को छह महीने की सजा हुई। उमानाथ रिश्वत लेते पकड़ा गया और उसकी सनद छीन गई।
 आलोचना
इस कहानी में प्रेमचंद ने पहले ही पहरे में चारों भाइयों की शादी दिखाई है, जिसका संवाद इस प्रकार है- चारों बहुएँ एक-से-एक बढ़कर आज्ञाकारिणी। जबकि कहानी के मध्य में सीतानाथ के विवाह की बात होती है, जो इस प्रकार है- सीतानाथ सबसे छोटा था। सिर झुकाये भाइयों की स्वार्थ भरी बातें सुन-सुनकर कुछ कहने के लिए उतावला हो रहा था। अपना नाम सुनते ही बोला- मेरे विवाह की आप लोग चिन्ता न करें।
कहानी के बिंदुओं पर बात करें तो-
1.       वृद्ध समासाय
2.       पारिवारिक कलह (संघर्ष)
3.       अनमेल विवाह
4.       ग्रामीण जीवन
5.       रीति-रिवाज
6.       नैतिक मूल्यों को दृष्टिगत करना
घासवाली
घासवाली एक रोचक प्रेम कहानी है। प्रेम के अलग ही स्वरूप को दिखलाती यह कहानी पतिव्रता धर्म को निभाती भी दिखाई देती है। कहानी में मुलिया को दलित जाति का दिखाया गया है। मुलिया के सुंदर शरीर के साथ-साथ अच्छे व्यवहार को भी दिखाया गया है। मुलिया का पति महावीर नेक और सच्चा व्यक्ति, जो ताँगा चलाने का काम करता है। कहानी में लेखक ने दिखाने का प्रयास किया है कि निम्न जाति में सुंदरता और वहाँ भी गरीबी तो वह कैसे लोगों के लिए अभिशाप बन जाता है। लेकिन सुंदर मन हो तो सभी कुछ बदल जाता है। मुलिया का अपना कोई खेत नहीं है वह इधर-उधर से घास खोदती है और उसे बाज़ार में बेचने जाती है तो लोग उस पर बुरी नज़र रखते हैं। बुरी नज़र रखने वालों में ठाकुर चैनसिंह भी है, जो एक दिन मुलिया का हाथ पकड़ लेता है। मुलिया के व्यंग्य बाणों और समझदार संवाद को सुनकर ठाकुर का हृदय परिवर्तन हो जाता है।
       एक दिन मुलिया बाज़ार में घास बेचने गई थी और लोग उसके बारे में कुछ अच्छा तो कुछ बुरा कह रहे थे। यह बात चैनसिंह ने सुनी। घर जाकर चैनसिंह ने मुलिया के पति महावीर को बुलाता है और मुलिया को कभी बाज़ार घास न बैचने के लिए कहता है साथ ही साथ महावीर को अपने खेतों में काम करने के लिए भी कहता है। इतना ही नहीं रोजाना एक रूपया फ्री में घर से ले जाने के लिए कहता है, जो की घोड़े का कर्ज उतारने के लिए है। लेकिन यह बात मुलिया को पता न चले इसके लिए वह महावीर को कह देता है।
       एक दिन मुलिया चैनसिंह के पीछे-पीछे दौड़े आती है, यह वही जगह होती है जब पहली बार चैनसिंह ने मुलिया का हाथ पकड़ा था। मुलिया चैनसिंह को महावीर को कही सारी बात बता देती है। ठाकुर कहता है कि मैंने तो महावीर को यह सभी कुछ बताने के लिए नहीं कहा था, अब तुम्हें पता ही चल गया तो क्या। मुलिया सारी बात बताकर चली जाती है। चैनसिंह उसे दूर से निहारता रहता है।
कहानी के महत्वपूर्ण तथ्य
1.       नारी चित्रण
2.       व्यक्तित्व का बदलता स्वरूप
3.       ग्रामीण जीवन (ऋण या कर्ज समस्या)
4.       प्रेम में विश्वास
5.       सामाजिक चित्रण
जुलूस
जुलूस देश-भक्ति से प्रेरित कहानी है। इसमें लेखक ने स्वतंत्रता से पूर्व की अंग्रेजों द्वारा भारतीयों के आंदोलनों के दबाए जाने की कहानी है। साथ ही साथ हृदय परिवर्तन की भी कहानी है, क्योंकि अंग्रेजी फौज या सेना में भारतीय लोग ही रहते थे, सिर्फ अधिकारी अंग्रेज होते थे। ऐसे ही बीरबल सिंह जो दरोगा के पद पर है और अपने घोड़े पर बैठकर जुलूस को रोकने जाते हैं। अपने फर्ज और ईमान के आगे वह अपनी ड्यूटी करते हैं। लेकिन इब्राहिम के सिर पर दारोगा का बेटन लगने से उसकी मौत हो गई। जन आक्रोश शांत हुआ कितने ही लोग घायल हुए। दारोगा बीरबल सिंह का अंग्रेजों की नज़र में नाम हुआ। लेकिन अपने ही लोगों से हार गए। पत्नी मिट्ठन बाई ने बीरबल सिंह के इस काम की आलोचना की और उन्हें ऐसा न करने की बात कही।
       इब्राहिम की मौत ने बीरबल सिंह का हृदय परिवर्तन कर दिया। इब्राहिम के घर पर मिट्ठन शोक सभा में जाती हैं, जहाँ उसे अपने पति को भी आते देखा। बीरबल सिंह का यह हृदय परिवर्तन दिखाता है कि स्वतंत्रता सभी के हृदय में थी। पर फर्ज के हाथों कभी-कभी अपने ही लोगों पर हथियार चलाना पड़ता था।
कहानी के बिंदु-
1.       स्वतंत्रता आंदोलन की कहानी
2.       हृदय परिवर्तन
3.       सच्ची देश-भक्ति
4.       धर्म और जाति का मेल
5.       फर्ज, ईमान और आत्मीयता की कहानी

बलिदान
सन् 1918 में प्रकाश में आयी बलिदान कहानी कृषक जीवन उसकी त्रासदी, ऋण, लगान, मजदूरी, गरीबी, जमींदारी आदि के आत्याचार की कहानी है। कहानी में हरखू किसान के पास पाँच बीघा जमीन है और दो बैल। उसी में बोता खाता था। परिवार नहीं था, अकेला रहता था, अचानक ज्वर आया और उसी में चल बसा। गिरधारी और उसकी पत्नी सुभागी ने हरखू के क्रियाकर्म में और ब्राह्मणों के भोज में पैसा लगाया। जिससे वह ज्यादा ही कर्ज में डूब गया। हरखू के मरते ही जमीन पर हक गिरधारी का होना चाहिए था। लेकिन लाला ओंकारनाथ ने गिरधारी से हरखु की जमीन के लिए नजराना माँगा और आठ रूपये बीधे के हिसाब से जोतने को कहा। गिरधारी पहले ही कर्ज में था। अब वह यह पैसे कैसे देता।
       लाला ओंकारनाथ ने पैसे अधिक के लालच में जमीन कालिदीन, जो गाँव का मुखिया था उसे दे दी। एक दिन तुलसी बनिया गिरधारी के घर उधार के पैसे माँगने आया अब न जमीन न काम ऐसे में बैल बेचने के सिवाय कोई दूसरा रास्ता न था। गिरधारी ने बैल बेचकर कर्ज चुकता किया। लेकिन इस सदमें को वह सह न सका और दुनिया से चल बसा।
       गिरधारी का बड़ा बेटा ईंट के भट्टे पर काम करने लगा। सुभागी दूसरे गाँव में रहने लगी, क्योंकि मजदूर का बेटा और बहू हैं, जो उस समय बुरा माना जाता था। गिरधारी की आत्मा खेतों में मँडराती रहती है, कोई खेत में जाने की हिम्मत नहीं करता। खेत खाली पड़े हैं।
कहानी के बिंदु-
1.       कर्ज और ऋण की समस्या
2.       जमींदार का अत्याचार
3.       रीति-रिवाजों पर कुठाराघात
4.       कृषक जीवन
5.       गरीबी में घुटता-मरता इंसान
सुजान भगत
       सन् 1927 में प्रकाश में आयी कहानी सुनाज भगत पारिवारिक जिम्मेदारी, आत्मविश्वास, वृद्ध का सम्मान, रीति-रिवाज, सामाजिक जीवन आदि कितने ही विषयों को लेकर हमारे समाने खड़ी होती है। कहानी में सुजान महत्तो किसानी करता है और भगवत भजन में अपना जीवन बिताता है। बेटों की शादी हो गई, अब खेत में कम भजन में समय अधिक लगाना चाहता है, सुजान की पत्नी बुलाकी भी पति सेवा और द्वार पर आए किसी भक्त, साधु, संत को खाली हाथ न जाने देती थी। घर की व्यवस्थाएँ बदली तो काम बेटों-बहुओं के हाथ में चला गया था, जिससे हमेशा सुजान और बुलाकी को डर बना रहता था। एक दिन बड़े लड़के भोला ने माँ के द्वारा भिखारी को दाल दान करते हुए देख लिया और भड़क गया। मेहनत को ऐसी ही मत उड़ाओ वाक्य को सुनकर माँ जस की तस बनी रह गई।
       सुजान भगत ने दोबारा कमर कसी और सुबह जल्दी उठना शुरू किया, बैलों को लेकर खेत में जाना शुरू किया। दिन-रात मेहनत कर खेतों को सुधार दिया और खेत सोना उगलने लगे। हर बार से अब की बार दस मन अनाज ज्यादा हुआ। अनाज घर पर ही पहुँचा था  तभी द्वार पर भिक्षुक आया और सुजान भगत ने दिल खोलकर उसे जितना तुम उठा सकते हो उतना ले जाओ कहकर दान दिया। अब उसे कोई रोकने वाला नहीं था। सुजान भगत दान करने में पीछे न था। बेटा बैठा-बैठा देख रहा था। लेकिन कह कुछ नहीं सकता है, मेहनत रंग लाई थी, दान बढ़ाकर देता है, साधु-संतों का आशीर्वाद था, दया धर्म का मूल है और सेवा से बड़ा कोई धर्म नहीं है।
कहानी के बिंदु-
1.       कृषक जीवन
2.       पारिवारिक संघर्ष
3.       मानव की मेहनत
4.       वृद्ध सम्मान
5.       दान-पुण्य का महत्त्व


कर्मनाशा की हार  शिवप्रसाद सिंह
कर्मनाशा की हारकहानी शिवप्रसाद सिंह द्वारा रचित पुराने विचारों तथा अन्धविश्वासों को पूर्णतः नष्ट कर मानवतावादी दृष्टिकोण की स्थापना पर विशेष बल देती है। कहानी अपने अंचल में ग्रामीण रूढ़ियों और अन्धविश्वासों को लेकर चलती है। विचार करें तो यह एक चरित्रप्रधान कहानी है। इसमें भैरो पांडे के व्यक्तित्व के माध्यम से लेखक ने बदलते सामाजिक दृष्टिकोण को दिखाने का प्रयास किया है। भैरो पांडे का छोटा भाई कुलदीप अपने घर के नजदीक रहने वाली मल्लाह परिवार की विधवा फुलमत से प्रेम करने लगता है। दोनों प्रेम में इतने नजदीक आ जाते हैं कि वह समाज की सभी दीवारें तोड़ देते हैं और इसी का परिणाम होता है कि फुलमत गर्भधारण कर लेती है। बिना विवाह के गर्भ धारण करना भारतीय समाज में एक अपराध है।

फुलमत से प्रेम संबंध की जानकारी मिलने पर कुलदीप अपने बड़े भाई भैरो पांडे की डाँट से घबराकर घर छोड़कर भाग जाता है। इसी दौरान फुलमत एक बच्चे को जन्म देती है। विचार करें तो इस बच्चे का पिता तो कुलदीप ही है। लेकिन सामाजिक सरोकार के कारण इसे स्वीकार कौन करें। तभी कर्मनाशा नदी में बाढ़ आ जाती है, जिसे लोग फुलमत के पाप का परिणाम मानकर उसे और उसके बच्चे को नदी में फेंककर बलि देना चाहते हैं, जिससे नदी में आई बाढ़ समाप्त हो सके। कहानी में गाँव के लोगों का विश्वास है कि कर्मनाशा नदी की बाढ़ किसी मनुष्य की बलि लिए बिना नहीं घटती। गाँव के सभी पंच निर्णय करते हैं कि फुलमत एक विधवा लड़की है, उसके बावजूद उसने नवजात शिशु को जन्म दिया है, जो एक बहुत बड़ा पाप है। इसलिए इसे और इसके बच्चे को कर्मनाशा के दारुण में फेंककर बाढ़ से पूरे गाँव को बचाया जा सकता है। समय की स्थिति को देखते हुए और फुलमत तथा उसके बच्चे की बलि का विरोध करते हुए भैरो पांडे उसे अपनी कुलवधू के रूप में स्वीकार करके गाँव वालों का मुँह बंद कर देते हैं। नैतिकता, वंश की मर्यादा, पुराने संस्कारों और मानवतावादी नवीन जीवन-दृष्टि के बीच गहन विचारों का चित्रण करते हुए लेखक ने निष्कर्ष रूप में नया दृष्टिकोण दिया है। कहानी अपने कलेवर में एक साथ कई विचारों को पाठक के सामने सफलता पूर्वक चलती है। कहानी में लेखक का उद्देश्य सफल रहा है।