अन्वेषी : डॉ. कमल किशोर गोयनका
यूरोप (पोलैंड) में वार्सा यूनिवर्सिटी में
आई.सी.सी.आर. की चेयर हिंदी पद की नियुक्ति होने पर मुझे खुशी हुई, यह बात सामान्य
है। विशेष बात यह हुई कि मेरी भारतीयता, राष्ट्रीयता और भारतीय संस्कृति की
आश्वस्ति को चार चाँद लग गए। खेद होने लगा कि भारत में हम राष्ट्रीय चेतना के
संवाहकों को प्रश्न चिन्हित करके क्या दिखाना चाहते हैं। सूर्य के प्रकाश को ग्रहण
कुछ समय के लिए ढक सकता है, हमेशा के लिए नहीं। यूरोप, अमेरिका, कनाड़ा, फीजी,
मॉरीशस आदि देशों में प्रेमचंद के पर्याय माने-जाने वाले मेरे अग्रज, मेरे
अध्यापक, मेरे गुरूवर डॉ. कमल किशोर गोयनका का नाम सभी वे लोग जिनका प्रत्यक्ष एवं
अप्रत्यक्ष रूप से हिंदी से संबंध है, श्रद्धाभाव से लेते हैं। प्रवासी
साहित्यकारों के मन में ऐसी प्रेम गंगा किसी के प्रति ऐसे ही कल-कल करती हुई
प्रवाहित नहीं होती है। प्रोफ़ेसर पुष्पिता अवस्थी जो नीदरलैंड में हिंदी यूनीवर्सल
फाउण्डेशन की डायरेक्टर हैं, हिंदी साहित्य में एक अमूल्य निधि है। वे डॉ. कमल
किशोर गोयनका में प्रेमचंद की परछाई देखती हैं। प्रेमचंद की गांधीवादी विचारधारा
ने उन्हें राष्ट्र-सेवक के चरित्र की पहचान दी हैं।
डेनमार्क की मशहूर
कहानीकार अर्चना पैन्यूली का मानना है कि डॉ. कमल किशोर गोयनका की साधना को देखकर
मैंने कथा-साहित्य की ओर लेखनी चलाई। उनके अद्भुत मानवीय-गुणों की सहजता और सरलता
एक बार मिलने पर फिर मिलने को बेचैन करती है। अमेरिका में रची-बसी अंजना संधीर
कहती हैं कि, 'डॉ. कमल
किशोर गोयनका जी ने मेरी कश्मीर पर लिखी कविताओं और कहानियों पर उत्साहवर्धन
शुभाशीष भेजी। उन्होंने प्रेमचंद जी के बारे में अनूठी जानकारियों से सबको विस्मित
कर दिया।'
ऐसे साधक, कर्मयोगी,
भारतीयता का परचम लहराने वाले गुरूवर का जाकिर हुसैन महाविद्यालय, दिल्ली
विश्वविद्यालय में नियुक्त होना और वहीं से सेवानिवृत्त हो जाना मुझे ही नहीं
अपितु मुझे जैसे असंख्य लोगों को खटकता रहा। उस समय के तीन विद्वान डॉ. कमल किशोर
गोयनका, डॉ. कृष्णदत्त पालीवाल और डॉ. लक्ष्मीनारायण भारद्वाज जिनकी तूती बोला
करती थी। एक बार मिलने पर फिर मिलकर सुनने को मन बेताब रहता था। केवल डॉ.
कृष्णदत्त पालीवाल अंतिम समय में विभाग में प्रोफ़ेसर बन सके। ऐसे समय में निराशा
से ग्रस्त न होकर दुगने उत्साह से कर्मरत होना विरले महानुभावों के लक्षण होते
हैं। गोयनका जी अपनी लेखनी और श्रम साधना से प्रोफ़ेसर के पद को एक तरफ करते हुए
सृजन-कर्म में जुट गए। आज उनका नाम किसी परिचय का मोहताज नहीं है, अपने क्षेत्र,
अपने देश और विश्व में अपनी, भारतीयता का ध्वजा फेरा रहे हैं। गोयनका जी को गांधी
और प्रेमचंद की परछाई कहना अतिश्योक्ति न होगा। लोग जिस तरह से गांधी को केवल अपने
हित में प्रयोग करते हैं, अवसर निकल जाने पर भूल जाते हैं। अधिकतर आलोचकों ने जहाँ
खाया वहीं छेद किया है। एक वस्तुनिष्ठ दृष्टि ना होने के कारण कई साहित्यकार, तो
कई विद्वान हाशिए पर चले गए। 31 वर्ष के अपने अध्यापन अनुभव में केवल एक ही नाम
उभर कर आता है, जिसने अपनी विचारधार को, अपनी कर्मभूमि को, अपनी अन्वेषण दृष्टि को
धूमिल नहीं होने दिया। आज भी शोधार्थी के रूप में सजग, कलम और डायरी लिए 80 वर्ष
की लगभग आयु में कार्यरत दिखलाई पड़ते हैं। अध्यापकीय सहजता और सरलता से सम्पन्न
जिज्ञासुओं को शांत ही नहीं करते हैं, अपितु आगे बढ़ने के लिए प्रेरित भी करते
हैं।
मैंने उन्हें कभी किसी
की निंदा करते हुए नहीं देखा, अपितु बहुत सामान्य भाव से 'मेरे भाग्य में नहीं कोई क्या करे।' यह कहकर अगले पल अपने कार्य में जुड़ जाने वाले
गोयनका जी का जीवन गंगा-सागर कैसे बना, यह विचारणीय बात है। लगभग आधी शताब्दी या
यह कहें प्रेमचंद की रचनाओं पर विश्व में एक मात्र गोयनका जी ही हैं, जिन्होंने
प्रेमचंद के साहित्य को राजनीति के गलियारों में भटकने से बचाया। उनके नित्य शोध
उनकी रचनाओं में किसानों-मजदूरों, गांधी विचारधारा, स्वाधीनता और भारतीय
संघर्ष-गाथा के अमरत्व को दिखाकर, भारतीय-दर्शन की अजेय-गाथा को गौरवान्वित किया
है। भारतीय-दर्शन मृत्यु को भी उत्सव मानकर जीता है। झुकना, तिल-तिल कर मरना
रंगभूमि के सूरदास को पसंद नहीं, सूरदास क्या गोयनका जी का जीवन इसका प्रत्यक्ष
प्रमाण है। अपने ऊपर गाल-बजाऊँ आलोचकों को उनकी लेखनी एवं अकाट्य तर्को ने बड़ी
शालीनता से जवाब दिया है। स्वयं को सर्वश्रेष्ठ आलोचक मानने वालो को भी बगले
झाँकनी पड़ गई। शर्म की बात यह है, जिन्होंने केवल गाल बजाए वे आक्षेप लगाते हैं,
उन जैसा कर्म करके कुछ बोलते तो अच्छा भी लगता। प्रेमचंद विश्वकोश की दुनिया भर
में चर्चा हुई, भारत में कुछ हिंदी मठाधीशों को अपने मूर्ख को समर्थन देने और
दूसरे पंथ के विद्वान् को विद्वान् न समझने की भयंकर बीमारी रही है। उनके मुख से
एक वाक्य प्रशस्ति का नहीं निकला।
गोयनका जी ने प्रेमचंद और गांधी को पढ़ा ही नहीं,
अपने जीवन में उतारा है। यही उनके जीवन की सबसे बड़ी शक्ति बनी हैं। गांधी जिस तरह
से अपने आलोचकों से भी बड़ी विनम्रता से बात करते थे, उसी प्रकार गोयनका जी प्रबल
से प्रबल आलोचक को विनम्रता से बात करते हैं। वे अपना विरोधी किसी को मानते ही
नहीं है, आप अपने मन में चाहें कैसी भी धारणा बनाए रखें। उन्हें कोई फर्क नहीं
पड़ता है। उन्हें कोई सेठ कहे, तो कोई प्रेमचंद की दुकान चलाने वाला, तो कोई गऊछाप
हिंदूवादी आदि आदि व्यंग्यों से अपनी विद्वता प्रकट करते रहे। परंतु सौम्य,
मृदुभाषी, शांत प्रिय गोयनका जी ने सभी का उत्तर लेखनी से ही दिया। जो मित्र
साथ छोड़ गए वह गोयनका जी का भला ही कर गए। इमरजेंसी के समय जेल भी गए, परंतु जेल
के कई महीनों के वास ने उनकी विचारधारा को डिगने नहीं दिया। उनका कर्मयोगी सा आचरण
एवं क्रिया विधान ही उन्हें आज भारत ही नहीं विश्व में प्रेमचंद के साथ ही नहीं
अन्य कई प्रवासी साहित्यकारों की अन्वेषण दृष्टि के साथ ख्याति दिला रहा है। उनकी
पारखी दृष्टि प्रेमचंद तक ही नहीं अभिमन्यु अनत, हरिवंशराय बच्चन, हजारी प्रसाद
द्विवेदी और राष्ट्रपिता गांधी की पत्रकारिता तक गई है। उन्होंने जिस पर नज़र डाली
उसे स्थापित ही नहीं किया
अपितु उनके बारे में शोध के कई आयामों को उजागर किया है। प्रेमचंद पर लगभग 23 और अन्य साहित्यकारों पर लगभग इतनी ही पुस्तकें लिखने वाले आधुनिक युग के अकेले एकमात्र लेखक गोयनका जी की श्रम साधना को दर्शाता है। प्रवासी साहित्यकारों को मुख्यधारा से जोड़ने का श्रेय भी इन्हें ही है।
अपितु उनके बारे में शोध के कई आयामों को उजागर किया है। प्रेमचंद पर लगभग 23 और अन्य साहित्यकारों पर लगभग इतनी ही पुस्तकें लिखने वाले आधुनिक युग के अकेले एकमात्र लेखक गोयनका जी की श्रम साधना को दर्शाता है। प्रवासी साहित्यकारों को मुख्यधारा से जोड़ने का श्रेय भी इन्हें ही है।
गोयनका जी की प्रसिद्धि
का कारण उनकी शोध-परक दृष्टि को माना जाता है। हिंदी साहित्य का शोध मात्र उपाधि
तक ही रह जाता है, लेकिन उपाधि उपरान्त निरन्तर नयी दृष्टि से तर्क संगत, प्रमाण
युक्त, क्रमानुसार विवेचना करने वाले लेखक गिनती के होते हैं। उनमें कमल किशोर
गोयनका जी हैं। प्रेमचंद के पुत्रों ने भी अपने पिता पर इस प्रकार की साधना नहीं
की होगी जिस प्रकार गोयनका जी ने की है। कारण स्पष्ट है भारतीयता, राष्ट्रप्रेम,
गांधीवादी विचारधारा को आत्मसात करते हुए जीवन-जीना। अपने मूल्यों से समझौता न
करना जीवन मंगल हो ऐसी कामना से कार्यरत होना। अभी भी उनका कार्य पूरा नहीं हुआ
है, वे कौन सी नई परियोजना प्रेमचंद के बारे में या अन्य प्रवासी साहित्यकार के
बारे में ले आएं।
गोयनका जी एक पत्रकार के
रूप में उभर कर आए हैं। तमाम साहित्यकारों ने उनके पत्र-व्यवहार की प्रशंसा की है।
वे हमेशा पत्र का उत्तर देते हैं और पत्रों को संभाल कर रखते हैं। उनकी पत्रकारिता
के क्षेत्र में 'गांधी : पत्रकारिता के
प्रतिमान' पुस्तक
विश्व में चर्चित हुई है। वे लिखते हैं, 'यह पुस्तक मेरे दूसरे अमेरिका प्रवास,
अप्रैल-सितंबर 2006 में लिखी गई थी। यहाँ सम्पूर्ण गांधी वाङमय 98 खंड में से
हजारों पृष्ठ फोटो कॉपी कराकर ले गया था और मैनहटन, न्यूयार्क की पब्लिक लाइब्रेरी
में बैठकर इसकी रचना हुई।' इस पुस्तक पर गोयनका जी ने अपनी
राष्ट्रीय-दृष्टि को उजागर किया है। वे गांधी जी को भारतीय स्वाधीनता आंदोलन में
राष्ट्रपिता से अलग एक पत्रकार के रूप में स्थापित करते हैं। गांधी जी का पत्रकार
रूप केवल अंग्रेजी भाषा में न होकर हिंदी, गुजराती और अन्य भारतीय भाषाओं में रहा
है। गांधी जी के पत्रकार रूप से प्रभावित पंजाबी, मराठी, तमिल, गुजराती भाषाओं में
पत्रकारिता ने भारत को जोड़ने का कार्य किया। गांधी जी का प्रवास भी मात्र भ्रमण
हेतु नहीं रहा। उन्होंने वहाँ भी पैनी दृष्टि से जो देखा उसका तर्क संगत ब्यौरा
दिया है। गोयनका जी यह भी बताते हैं कि गांधी जी की पत्रकारिता ने जो प्रतिमान
स्थापित किए हैं वे भारतीय परिवेश, भारतीयता और संघर्ष-गाथा के जीते-जागते बिंब
हैं। यही कारण है कि वे पत्रकार की पूरी आचार-संहिता को दर्शाते हैं। आज के समय
में जिसका महत्त्व और भी बढ़ जाता है। गांधी की प्रासंगिकता आज और भी बढ़ गई है।
जबकि पूरा देश ही नहीं विश्व भी शांति और विश्व मंगल की कामना कर रहा है। यह
पुस्तक गांधी जी की सम्पूर्ण दृष्टि को उजागर करती है। गांधी जी के साथ-साथ गोयनका
जी की उदारवादी, मानववादी, राष्ट्रवादी दृष्टि को भी दर्शाती है।
प्रेमचंद को अनेक
दृष्टियों से पढ़ा जाता है। संयोग से मैंने उनकी कहानियों को कालक्रम के नज़रिए से
पढ़ा। प्रत्येक कहानी को पढ़ते ही उसके ऊपर अपनी टिप्पणी डाली। मैंने एक पाठक के
नज़रिए से जो श्रेष्ठ रचनाएँ हो सकती हैं, उनका संकलन तैयार कर दिया। संयोग से यह
संकलन भाग एक से दस तक विभाजित होकर पाठक के सामने आया है। जिस कालक्रम के नज़रिए
को मैंने अध्ययन का आधार बनाया है, वह अंतरराष्ट्रीय ख्यति प्राप्त डॉ. कमल किशोर
गोयनका की पुस्तक 'प्रेमचंद
की कहानियों का कालक्रमानुसार अध्ययन' है। प्रत्येक कहानी को कालक्रमानुसार रखते हुए
उस कहानी के कालक्रम और परिवेश के साथ कहानीकार की बदलती नई संवेदना और शिल्प को
दिखाया गया।
गोयनका जी प्रेमचंद को
वाल्मीकि, व्यास, कबीर, तुलसीदास, भारतेंदु हरिश्चंद्र, महावीर प्रसाद द्विवेदी की
परंपरा के कहानीकार मानते हैं और स्वाधीन भारत में भारतीयता की परिभाषा एवं उसकी
प्रवृत्तियों को खोजने का काम प्रमुखतः आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी, अज्ञेय,
विद्यानिवास मिश्र, निर्मल वर्मा, शैलेश मटियानी, रामस्वरूप चतुर्वेदी, नंद किशोर
आचार्य, धर्मपाल मैनी को मानते हैं। लाल फीताशाही वाले तो भारतीयता को
विभिन्न-विभिन्न विशेषणों से शोभित करते हुए, भारतीयता को भूल-भुलैया बना देते
हैं। प्रेमचंद का साहित्य अगर आज मुख्यधारा से जुड़कर जीवित बचा है तो उसका श्रेय
गोयनका जी को ही जाता है।
व्यास सम्मान से
सम्मानित डॉ. कमल किशोर गोयनका जी का मित्र, पंडित जी का संबोधन और चश्मे से
झाँकती आत्मीयता से परिपूर्ण आँखें हृदय को गद् गद् कर देती हैं। मैं चाहे कितना
गुरू मानूँ, लेकिन वे मुझे छोटे भाई और मित्र के रूप में ही स्नेह करते हैं। कई
बार त्रसित-दुखित होकर मैं उनके पास गया। उनके मित्रवत् व्यवहार की संजीवनी ने
मुझे लक्ष्मण मूर्च्छा से जीवित ही कर दिया। आज भी हम मित्र जब सोचते हैं, तो काँप
उठते हैं, अगर हम उनका सुझाव ना मानते तो आज जीवन में कुछ और ही होते। जिस तरह से
उन्होंने प्रेमचंद को कहानी सम्राट, हिंदी की राष्ट्रीय संस्कृति धारा का पहला
कहानीकार कहा है, उसी तरह वह समकालीन साहित्यकारों, प्रवासी साहित्यकारों को भी
स्थापित करते चलते हैं, साथ ही साथ अनुजों को भी विशेषणों से सुशोभित करके कार्यरत
होने की प्ररेणा देते हैं।
हमारी पीढ़ी का यह
सौभाग्य है कि ऐसे कर्मठ, समालोचक वस्तुनिष्ठ दृष्टि रखने वाले एक प्रख्यात
अध्यापक, अन्वेषण कर्ता से हम आसानी से मिल सकते हैं। अपनी जिज्ञासाएँ शांत कर
सकते हैं, उनसे बहुत सीख सकते हैं। वे अपने आप में अपने सानी हैं, उन जैसा कोई
दूसरा नहीं है। प्रेम, आस्था, सादा-जीवन, उच्च विचार, जियो और जीने दो के समर्थक
सबके शुभ चिंतक से संपर्क होना मेरे लिए अति गौरव की बात है। उन्हें शत्-शत् नमन
करते हुए शब्दों को विराम।
डॉ. सुधांशु कुमार शुक्ला
आई.सी.सी.आर.
चेयर हिंदी,
वार्सा यूनिवर्सिटी,
वार्सा पोलैंड
+48579125129
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