संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश
आज हिन्दी
भाषा के जिस रूप को हम जानते है, उसका
प्राथमिक स्तर ऐसा नहीं था। आरंभ से हम विचार करें तो हिंदी आधुनिक आर्य भाषाओं
में से एक है। आर्य भाषा का प्राचीनतम रूप वैदिक संस्कृत रहा, जो उस समय के साहित्य की भाषा थी। वैदिक भाषा में वेद, संहिता, उपनिषदों-वेदांत आदि का सृजन हुआ है। वैदिक भाषा के साथ-साथ ही
बोलचाल की भाषा संस्कृत थी, जिसे लौकिक संस्कृत भी कहा जाता
है। दूसरे शब्दों में कहें तो प्राचीन भारतीय आर्यभाषा में संस्कृत के दो रूप मिलते हैं :
वैदिक और लौकिक। वैदिक संस्कृत का सर्वोतम स्वरुप ऋग्वेद की साहित्यिक भाषा में
मिलता है। वैदिक भाषा के धीरे-धीरे परिवर्तित होने के कारण उसमें जनभाषा के लक्षण
निरंतर आते गए। परिणामस्वरूप लौकिक संस्कृत का जन्म हुआ। विद्वानों ने सामान्य रूप
से भारतीय भाषा के विकास क्रम को तीन भागों में विभाजित किया है-
(1) प्राचीन भारतीय भाषा
(१५०० ई० पूर्व से ५०० ई० पूर्व तक)
(2) मध्यकालीन भारतीय
भाषा (५०० ई० पूर्व से १००० ई० तक)
(3) आधुनिक भारतीय भाषा
(१००० ई० से अब तक)
जब हम प्राचीन
भारतीय भाषा की बात करते हैं तो उसमें सबसे पहले संस्कृत भाषा का नाम लिया जाता
है। संस्कृत भारतीय आर्यभाषाओँ के विकास की प्रथम और सबसे महत्वपूर्ण भाषा है। इसे
देववाणी या देवभाषा के नाम से भी जाना जाता है। संस्कृत का विकास उत्तरी भारत में बोली जाने वाली
वैदिककालीन भाषाओं से माना जाता है। ऐसा माना जाता है कि ८ वी.शताब्दी ई.पू. में
इसका प्रयोग साहित्य में होने लगा था। संस्कृत भाषा में ही रामायण तथा महाभारत
जैसे ग्रन्थों की रचना हुई। बाल्मीकि, व्यास,
कालिदास, अश्वघोष, माघ,
भवभूति, मम्मट, दंडी आदि
संस्कृत के महान् विचारक माने जाते हैं। संस्कृत का साहित्य विश्व के समृद्ध
साहित्य में से एक है। डॉ हजारी प्रसाद
द्विवेदी लिखते हैं कि, "हिमालय के सेतुबंध तक, सारे भारतवर्ष के धर्म,
दर्शन, विज्ञान, चिकित्सा
आदि विषयों की भाषा कुछ १०० वर्षों पहले तक एक ही रही है. यह भाषा संस्कृत थी.
भारवर्ष का जो कुछ शेष और रक्षा योग्य है वो यह भाषा की
भण्डार में संचित किया गया है। इसके लक्षाणिक ग्रंथों के पठन, पाठन और चिंतन में
भारतवर्ष के हजारों पुश्त तक के करोंडो सर्वोतम मस्तिस्क दिन रात लगे रहे हैं और
आज भी लगे हुए हैं। मैं नहीं जानता की संसार के किसी देश में, इतने काल तक, इतनी दूर तक व्याप्त इतने उत्तम
मस्तिस्क में विचरण करने वाली कोई भाषा है या नहीं, शायद
नहीं."
संस्कृत भाषा के विकास के बाद के काल को
हिंदी भाषा का मध्यकालीन युग कहा गया। संस्कृत कालीन
आधारभूत बोलचाल की भाषा परिवर्तित होते-होते समयानार काफ़ी बदल गई, जिसे 'पाली' कहा गया। पाली का अर्थ है "पाठ"। वास्तव में बौद्ध धर्म का साहित्य पाली
में ही लिखा हुआ है। महात्मा बुद्ध के
समय में पाली लोक भाषा थी और उन्होंने पाली के द्वारा ही अपने उपदेशों का
प्रचार-प्रसार किया। संभवत: यह भाषा ईसा की प्रथम ईसवी तक रही। मध्य कालीन (५०० ई० पूर्व से १००० इ० तक
) भारतीय आर्यभाषाओँ के विकास क्रम को तीन भागों में सामान्य रूप से रखते हैं: पाली
युग ; प्राकृत युग और अपभ्रंश
युग। इसके बाद से ही हिंदी युग का आरंभ हुआ।
पहली ईसवी
तक आते-आते पाली भाषा और परिवर्तित हुई, तब इसे 'प्राकृत' की संज्ञा दी
गई। इसका काल 100 ई. से 600 ई. तक माना जाता है। प्राकृत का अर्थ है
"सहज"और यह बहुत से आधुनिक हिंदी उपभाषाओं की मूल भाषा है, जैसे कुछ लोग
अर्धमागधी, शौरसेनी, इत्यादि भाषाओँ की जनक प्राकृत को ही मानते हैं। जैन धर्म का साहित्य
प्राकृत में रचित है। प्राचीन भारत में यह आम नागरिक की भाषा थी और संस्कृत अति
विशिष्ट लोगों की भाषा थी।
अपभ्रंश का अर्थ है "दूषित"
अर्थात् जो शुद्ध ना हो। अपभ्रंश शब्द का प्रयोग दो अर्थों में किया जाता है –साभ्रष्ट-बिगडा
हुआ रुप तथा विकसित रुप। अपभ्रंष नाम सर्वप्रथम वलभी के राजा धारसेन द्वितीय के
शिलालेख में मिलता है। जिसमें उसने अपने पिता ग्रहसेन को संस्कृत, प्राकृत और
अपभ्रंश तीनों भाषाओं का कवि कहा है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल के मतानुसार, इस
प्रकार अपभ्रंश या प्राकृत भाषा की हिंदी में रचना होने का पता हमें विक्रम की
सातवीं शताब्दी में मिलता है, उस काल की रचना के नमूने बौद्धों की वज्रयान शाखा के
सिद्दों की कृतियों के बीच मिलते हैं।
यह भाषा ही आधुनिक
हिंदी भाषा के मूल में है। विचार किया जाए तो अपभ्रंश की भाषा रूप में यद्यपि अलग
सत्ता है, किन्तु, वो संस्कृत, पाली और प्राकृत की अपेक्षा हिंदी के
व्याकरणिक ढांचे और शब्द भंडार के बहुत निकट है। अपभ्रंश में रचित अधिकांश साहित्य
उच्च कोटि का है। इसको प्राकृत का विकसित रुप कहना अधिक समीचीन है। आचार्य शुक्ल
के अनुसार, जब तक भाषा बोलचाल में थी, तब तक वह भाषा या देवभाषा ही कहलाती रही, जब
वह भी साहित्य की भाषा हो गई तब उसके लिए अपभ्रंश शब्द का व्यवहार होने लगा। अपभ्रंश
को इसीलिए 'पुरानी हिंदी' भी कहा जाता
है। इस प्रकार अपभ्रंश को मध्यकालीन और आधुनिक कालीन भाषाओँ के बीच के कड़ी माना
गया है।
जहां तक अपभ्रंश के
भेदों की बात है विचारको ने इसके अलग-अलग भेद के है। नमि साधु के अनुसार इसके तीन
भेद हैं- उपनागर, आभीर और ग्राम्य। मार्कण्डेय जी ने इसके तीन भेद माने हैं- नागर,
उपनागर और ब्राचड। डॉ याकोबी के मतानुसार इसके चार भेद हैं- पूर्वी, पश्चिमी,
दक्षिणी और उत्तरी। डॉ तगारे ने अपभ्रंश के तीन भेद माने हैं- दक्षिणी, पश्चिमी और
पूर्वी। डॉ नामवर सिंह ने इसके केवल दो ही भेद माने हैं- पश्चिमी और पूर्वी।
डॉ भोलानाथ तिवारी ने अपभ्रंश के निम्नलिखित सात भेद माने हैं और
उससे निर्गत आधुनिक भाषाओं को इस प्रकार
दिखाया है-
अपभ्रंश उससे
निकलने वाली आधुनिक भाषाएं
1.
शौरसेनी पश्चिमी हिंदी, राजस्थानी,
गुजराती।
2.
पैशाची लहंदा, पंजाबी (इस पर शौरसेनी
अपभ्रंश का प्रभाव है)
3.
ब्राचड़ सिंधी
4.
खस पहाडी
5.
महाराष्ट्री मराठी
6.
अर्द्ध मागधी पूर्वी हिंदी
7.
मागधी बिहारी, बंगाली, उडिया,
असमिया।
विचार करे और देखे
तो हम पाते हैं कि अधिकांश भाषा वैज्ञानिकों तथा विचारकों ने खस और ब्राचड़ के नाम
को नहीं माना है तथा ना ही इनके नाम लिए हैं। उन्होनें केवल पांच भेद ही माने हैं।
वास्तव में अपभ्रंश से ही हिन्दी भाषा का जन्म हुआ। आधुनिक
आर्य भाषाओं में, जिनमे
हिन्दी भी है, का जन्म 1000 ई.के आस पास
ही हुआ था, किंतु उसमे साहित्य रचना का कार्य 1150 या इसके बाद आरंभ हुआ। अनुमानत:
तेरहवीं शताब्दी में हिन्दी भाषा में साहित्य रचना का कार्य प्रारम्भ हुआ, यही कारण है कि हजारी प्रसाद द्विवेदी जी हिन्दी को ग्राम्य अपभ्रंशों का
रूप मानते है। इस दृष्टि से भाषा
बहता नीर की बात सही साबित होती है और हम पाते है कि कैसे एक भाषा अपना स्वरुप
बदलती हुई आगे बढती चली जाती है। वह समय के साथ लोगों के विचारों को राशनी देने का
काम करती है तो साहित्य को भी बढाती हुई चलती है।