बुधवार, 21 अगस्त 2013

भाषाः अर्थ और परिभाषा


भाषाः अर्थ और परिभाषा

     भाषा की मूलभूत इकाई ध्वनि है। इसके संयोजन से भाषा का निर्माण होता है, और व्यक्ति अपने अनुभवों की अभिव्यक्ति करता है। ध्वनियों के संयोजन से शब्द का निर्माण, और शब्दों की व्यवस्था से वाक्य का निर्माण होता है। वाक्य ही भाषा को आस्तित्व प्रदान करते हैं।

ध्वनि             शब्द           वाक्य           भाषा

इस प्रकार भाषा शब्दों का संयोजित रूप है, जो किसी व्यक्ति समाज या राष्ट्र के संस्कारों से निधरित होती है और समाज में परस्पर विचार-विर्मश का एक सशक्त साध्न बनती है। भाषा के द्वारा ही समाज, समूह अथवा राष्ट्र की सभी सांस्कृतिक, सामाजिक और धर्मिक व्यवस्था स्पष्ट होती चली जाती हैं।

मनुष्य अपने भावों विचारों एवं अनुभूतियों को भली-भांति केवल ध्वनि संकेतों के माध्यम से ही अभिव्यक्त करता है। संकेतों को अशाब्दिक भाषा और ध्वनि संकेतों को शाब्दिक भाषा कहते हैं। भाषा के माध्यम से ही एक व्यक्ति अपने विचार, कल्पना व चिंतन को एक दूसरे तक पहुंचाता है। ‘भाषा’ शब्द की व्युत्पत्ति संस्कृत की ‘भाष्’ धतु से माना जाती है, जिसका शाब्दिक अर्थ है - व्यक्त वाणी या बोलना। भाषा के कारण ही मनुष्य इस जीवन जगत में सर्वश्रेष्ठ प्राणी है। भाषा ही हर एक व्यक्ति तथा देश की पहचान होती है और उस देश की सभ्यता, संस्कति और संस्कार उनकी भाषा में प्रतिबिंबित होते हैं। डाॅ बाबूराम सक्सेना ने बडे़ ही सरल शब्दों में भाषा शब्द के अभिप्राय को स्पष्ट करते हुए लिखा है, भाषा शब्द का प्रयोग कभी व्यापक अर्थ में होता है तो कभी संकुचित। विचार किया जाए तो भाषा जिस सांस्कतिक विरासत में पफलती-पफूलती है वह उस विरासत को पीढ़ी-दर-पीढ़ी पहुंचाने का कार्य भी करती है। भाषा का उद्गम ही मनुष्य वेफ विकास का सूचक है। भाषा का विकास समयानुसार होता रहा है और युगीन स्थितियों से संचालित होकर भाषा निरंतर नया और सरल रूप धारण करती रही है।



भारतीय विद्वानों के अनुसार भाषा की परिभाषाः



महर्षि पतांजलि के मतानुसार, व्यक्ता वाचि वर्णों येषां ते इमे व्यक्तवाचः कहने का भाव है कि वर्णों में व्यक्त होने वाली वाणी ही भाषा है।

भर्तृहरि वेफ अनुसार, भाषा यथार्थ को गढ़ती है ;यानी पहले से ही मौजूद किसी यथार्थ को महज उद्घाटित भर नहीं करतीद्ध

आचार्य दंडी वेफ अनुसार,  फ्यह सृष्टि अंध्कार में डूब गई होती, यदि भाषा रूपी प्रकाश का अभ्युदय न हुआ होता ।,

कामता प्रसाद गुरू के अनुसार, भाषा वह साध्न है जिसके दवारा मनुष्य अपने विचार दूसरों पर भली-भांति प्रकट कर सकता है और दूसरों के विचार आप स्पष्टतया समझ सकता है।

भोलानाथ तिवारी के अनुसार, भाषा उच्चारण-अवयवों से उच्चारित स्वेच्छाचारी ध्वनि प्रतीकों की वह अवस्था है जिसके दवारा एक समाज के लोग आपस में भावों और विचारों का आदान-प्रदान करते हैं।

बाबूराम सक्सेना के अनुसार, भाषा से तात्पर्य, विचारों एवं भावों का व्यक्तिकरण प्रमुख रूप से श्रोत, ग्राहय ध्वनि चिह्नों से प्रमाणित होता है। 

सुमित्रानंदन पंत के अनुसार, भाषा संसार का नादमय चित्रा है, ध्वनिमय स्वरूप है, यह विश्व की  हृदयतंत्राी की झंकार है, जिनके स्वर में अभिव्यक्ति होती है।



पाश्चात्य विद्वानों के अनुसार भाषा की परिभाषाः



मैक्स मूलर के अनुसार, भाषा और कुछ नहीं, केवल मानव की चतुर बुदध् िदवारा आविष्कृत एक ऐसा उपाय है, जिसकी सहायता से हम अपने विचार सुगमता और तत्परता से प्रकट कर सकते हैं।

प्लेटो के अनुसार, विचार आत्मा की मूक या ध्वनि-हीन बातचीत है, पर वही जब ध्वनि के रूप में होठों दवारा प्रकट होती है, तो उसे भाषा कहते हैं।

पियाजे वेफ अनुसार, भाषा अन्य संज्ञानात्मक तंत्रों की भांति परिवेश वेफ साथ अंतःक्रिया वेफ माध्यम से ही विकसित होती है।

क्रोंच के अनुसार, भाषा अभिव्यक्ति की दृष्टि से उच्चरित एवं सीमित ध्वनियों का संगठन है।

चाॅम्स्की वेफ अनुसार, भाषिक क्षमता जन्मजात ही होती है, वरना भाषिक व्यवस्था को सीखने की प्रक्रिया संभव ही नहीं हो सकती। वे मानते हैं कि, भाषा सीखे जाने वेफ काम में, वैज्ञानिक पड़ताल भी साथ-साथ चलती रहती है।

व्योगोत्स्की वेफ अनुसार, बच्चे की भाषा समाज वेफ साथ संपर्क का ही परिणाम है, साथ ही बच्चा अपनी भाषा वेफ विकास वेफ दौरान दो तरह की बोली बोलता हैः पहली आत्मवेफंद्रित और दूसरी सामाजिक।

स्वीट के अनुसार, ध्वन्यात्मक शब्दों के दवारा विचारों को प्रकट करना ही भाषा है।



     भारतीय और पाश्चात्य विद्वानों की भाषा की परिभाषाओं को जानने के बाद कहा जा सकता है कि भाषा वाक-प्रतिकों की एक व्यवस्था है। वाक-प्रतिक अनेक प्रकार के होने के कारण भाषा भी अनेक प्रकार की होती है। दूसरे शब्दों में कहें तो भाषा ध्वनि संकेतों का प्रयोग होता है, जो रूढ़ एवं परंपरागत होते हैं। 

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