शनिवार, 7 दिसंबर 2019

आठ प्रहर


आठ प्रहर
सूर्य और तारों से रहित दिन-रात की संधि को तत्वदर्शी मुनियों ने संध्याकाल माना है। हिन्दू धर्म में समय की बहुत ही वृहत्तर धारणा है। आमतौर पर वर्तमान में सेकंड, मिनट, घंटे, दिन-रात, माह, वर्ष, दशक और शताब्दी तक की ही प्रचलित धारणा है, लेकिन हिन्दू धर्म में एक अणु,  तृसरेणु, त्रुटि, वेध, लावा, निमेष, क्षण, काष्‍ठा, लघु, दंड, मुहूर्त, प्रहर या याम, दिवस, पक्ष, माह, ऋतु, अयन, वर्ष (वर्ष के पांच भेद- संवत्सर, परिवत्सर, इद्वत्सर, अनुवत्सर, युगवत्सर), दिव्य वर्ष, युग, महायुग, मन्वंतर, कल्प, अंत में दो कल्प मिलाकर ब्रह्मा का एक दिन और रात, तक की वृहत्तर समय पद्धति निर्धारित है। हिन्दू धर्म अनुसार सभी लोकों का समय अलग अलग है। हम यहां जानकारी दे रहे हैं प्रहर की। 

आठ प्रहर हिन्दू धर्मानुसार दिन-रात मिलाकर 24 घंटे में आठ प्रहर होते हैं। औसतन एक प्रहर तीन घंटे या साढ़े सात घटी का होता है जिसमें दो मुहूर्त होते हैं। एक प्रहर एक घटी 24 मिनट की होती है। दिन के चार और रात के चार मिलाकर कुल आठ प्रहर। इसी के आधार पर भारतीय शास्त्रीय संगीत में प्रत्येक राग के गाने का समय निश्चित है। प्रत्येक राग प्रहर अनुसार निर्मित है।

संध्यावंदन : संध्यावंदन मुख्‍यत: दो प्रकार के प्रहर में की जाती है:- पूर्वान्ह और उषा काल। संध्या उसे कहते हैं जहां दिन और रात का मिलन होता हो। संध्यकाल में ही प्रार्थना या पूजा-आरती की जाती है ,यही नियम है। दिन और रात के 12 से 4 बजे के बीच प्रार्थना या आरती वर्जित मानी गई है।

आठ प्रहर के नाम : दिन के चार प्रहर- 1.पूर्वान्ह, 2.मध्यान्ह, 3.अपरान्ह और 4.सायंकाल। रात के चार प्रहर- 5.प्रदोष, 6.निशिथ, 7.त्रियामा एवं 8.उषा।

आठ प्रहर : एक प्रहर तीन घंटे का होता है। सूर्योदय के समय दिन का पहला प्रहर प्रारंभ होता है जिसे पूर्वान्ह कहा जाता है। दिन का दूसरा प्रहर जब सूरज सिर पर आ जाता है तब तक रहता है जिसे मध्याह्न कहते हैं।

इसके बाद अपरान्ह (दोपहर बाद) का समय शुरू होता है, जो लगभग 4 बजे तक चलता है। 4 बजे बाद दिन अस्त तक सायंकाल चलता है। फिर क्रमश: प्रदोष, निशिथ एवं उषा काल। सायंकाल के बाद ही प्रार्थना करना चाहिए।

अष्टयाम : वैष्णव मन्दिरों में आठ प्रहर की सेवा-पूजा का विधान 'अष्टयाम' कहा जाता है। वल्लभ सम्प्रदाय में मंगला, श्रृंगार, ग्वाल, राजभोग, उत्थापन, भोग, संध्या-आरती तथा शयन के नाम से ये कीर्तन-सेवाएं हैं। अष्टयाम हिन्दी का अपना विशिष्ट काव्य-रूप जो रीतिकाल में विशेष विकसित हुआ। इसमें कथा-प्रबन्ध नहीं होता परंतु कृष्ण या नायक की दिन-रात की चर्या-विधि का सरस वर्णन होता है। यह नियम मध्यकाल में विकसित हुआ जिसका शास्त्र से कोई संबंध नहीं।


सच्चे जन नायक हैं नरेंद्र मोदी


शुक्रवार, 15 नवंबर 2019

दाम्पत्य जीवन का जवाब : कोई और सवाल (जय वर्मा) सात कदम कहानी-संग्रह



दाम्पत्य जीवन का जवाब : कोई और सवाल
डॉ. नीरज भारद्वाज
कहानी व्यक्ति की कल्पना, उत्सुकता एवं जिज्ञासा के विस्तार के लिए होती है। कहानी हमारे मस्तिष्क में शब्द भंडार, कल्पनाशीलता और सृजनात्मकता का विकास करती है। विचार करें तो कहानियाँ पढ़ने से हमें अन्य लोगों के अनुभवों में प्रवेश करने का मौका मिलता है। इससे हमें कौन, कहाँ और कैसे लिखता है? आदि कितने ही प्रश्नों को जानने का मौका मिलता है। हीलिंग द माइंड थ्रू द पावन ऑफ स्टोरी में डॉ. लुइस मेहल मेडरोना कहती हैं- 'कहानियों के जरिए दिमाग बाहरी दुनिया का नक्शा तैयार करता है। बार-बार एक ही तरह की कहानी से दिमाग उसी नक्शे के अनुसार प्रतिक्रिया देने लगता है।' कहानी शब्दजाल नहीं, बल्कि कहानीकार का जीवन-दर्शन कराता है। कहानी विधा में समय के साथ परिवर्तन हुआ है और होता रहेगा, क्योंकि परिवर्तन प्रकृति का नियम है। कहानियों के विषय समाज, देशभक्ति, लोकसेवा, प्रेम, जासूसी आदि कितने ही रहे हैं। हर एक कहानीकार इन विषयों को अपने हिसाब से दिखाता और समझाता है।
हमारे केंद्र में प्रवासी साहित्यकार जय वर्मा और उनका कहानी-संग्रह सात कदम है। यहाँ केवल उनकी एक कहानी कोई और सवाल पर चर्चा हो रही है। जय वर्मा ने अपनी कहानियों में भारतीय और पाश्चात्य दोनों ही संस्कृतियों का मेल बढ़े ही सुंदर ढंग से किया है। एक सफल साहित्यकार अपनी लेखनी से ही बताता है कि उसके अंदर कितनी प्रतिभा है, साथ ही उनके पात्र हर एक दृश्य को उजागर कर देते हैं। कहानी-संग्रह के आरंभ में ही लेखिका लिखती हैं कि- 'कहानीकार की भूमिका यही है कि वह अपने अंदाज़ से विश्वास के साथ उन अनुभूतियों को एक कलेवर दे, उन्हें जीवंत करे।' कहानीकार ने अपनी कहानियों में इस बात का हर समय ख्याल रखा है। कहानी अपने कलेवर के साथ-साथ पात्रों की संजिदगी से भी जीवित होती है, क्योंकि पात्र ही तो पाठक के मानसपटल पर अपनी छाप छोड़ता है, जो युगों-योगों तक पाठक के अंदर समाज में जीवित रहता है। पात्रों का संवाद ही तो सार्थकता को गढ़ता है। लेखिका लिखती हैं कि- 'मेरी कहानियों के किरदार भी कभी त्रस्त होकर भटकते हैं तो कभी जटिल समस्याओं से पार पाकर अपना अभीष्ट भी प्राप्त करते हैं। विविधता से भरे संसार में इससे छुटकारा भी तो नहीं।' ऐसा ही पात्र कोई और सवाल कहानी का डोरीन है। डोरीन नारी पात्र होने के साथ-साथ कहानी की मुख्य पात्र है। पूरी कहानी डोरीन के साथ चलती है। कहानी का पहली पंक्ति- 'आज डोरीन ने आजादी की साँस ली!' और कहानी का समापन भी डोरीन के घर छोड़न से होता है- 'इस समय वह अपने बच्चों, समाज या किसी अंज़ाम के बारे में नहीं सोच रही थी, बस नये जीवन की तलाश में तेज़ गति से आगे बढ़ती जा रही थी।' (पेज-29)
नायिका प्रधान इस कहानी में कहानीकार ने एक साथ बहुत सारे बिंदुओं पर प्रकाश डाला है, मूल रूप से नारी को लेकर। समाज चाहे देशी हो या विदेशी समस्याएँ सभी जगह एक जैसी हैं। कहानी में नारी-त्रासदी, नारी-मुक्ति, नारी-शोषण, नारी-चरित्र, नारी की गरिमा, नारी का आत्मसम्मान आदि हैं। कहानी के आरंभ में ही डोरीन जब अपनी माँ से पीटर जॉनसन के साथ सिविल मेरिज करने की बात करती है तो माँ का इराद तो शादी के विरूध था, लेकिन संतान के आगे उसकी एक नहीं चली, 'अपने निर्णय पर पुनः विचार करना, बिना पढ़ाई पूरी किये शादी का फैसला उचित नहीं है।' (पेज-22) इतना ही नहीं कहानी में दाम्पत्य जीवन का रंग अर्थात् पति-पत्नी के बीच मधुर और कटू दोनों ही रिश्तों को दिखाया गया है। इतना ही नहीं कहानी में पारिवारिक और आर्थिक स्थिति को भी उजागर किया गया है। मधुर संबंधों की बात करें तो, 'शादी के बाद पीटर और डोरीन का दाम्पत्य जीवन प्रसन्नता और प्रेम के साथ तेज़ी से बीतने लाग। एक बेटा डेविड तथा दो बेटियों को डोरीन ने जन्म दिया। बेटियों के नाम लूसी तथा एना रखे।' (पेज-23) जहाँ तक परिवार में अलगाव और भय की बात है, उसे भी लेखिका ने दिखाया है, 'पीटर से वह भयभीत रहती...मॉम हमें डैडी से डर लगता है, अब वे हमें पहले जैसा प्यार नहीं करते।' (पेज-27) जहाँ तक आर्थिक स्थिति की बात है डोरीन अपने पति के काम में हाथ बटाती थी, 'छोटे से फार्म पर मुर्गियों के अंडे इक्ट्ठे करके अपने पति की सफेद रंग की चारों तरफ से जंग लगी मिनी वैन में बाज़ार में बेचने के लिए रख देती।' (पेज-23) इतना ही नहीं बच्चे भी होश संभालते ही काम में लग जाते हैं। 'डेविड ने चार्नवुड पार्क में ग्रीनकीपर के साथ माली का काम करना आरंभ कर दिया..... दोनों बेटियाँ लूसी एवं एना दिन में पढ़ाई करती थीं और शाम के समय दोनों बुल-हैड नाम के एक पब में काम करतीं।' (पेज-27) डोरीन घर बचाने का हर संभव प्रयास करती है। लेकिन पति पीटर के व्यवहार से तंग आकर वह घर छोड़ने का निश्चय कर लेती है। वह किसी भी कीमत पर अपना आत्मसम्मान नहीं खोना चाहती है।
विचार करें तो कहानी अपने छोटे से कलेवर में पारिवारिक पृष्ठभूमि के साथ खड़ी होती है, जहाँ प्यार, परिवार, सुख, एक दूसरे का हाथ बटाना आदि दिखाया गया। लेकिन धीरे-धीरे कहानी अलगाव की ओर चली जाती है और जिसका अंत डोरीन के घर छोड़ने पर होता है। कहानी में आत्मसम्मान, पति-पत्नी का द्वंद्व, आर्थिक तंगी, पारिवारिक घुटन, पुरूष की बेरूखी, नारी का संघर्ष, चेतना, श्रम, प्रेम, अलगाव, विद्रोह सभी कुछ तो उभरकर आ गया है। इन सभी बातों से अलग कहानीकार का प्रकृति प्रेम भी कहानी में देखने को मिलता है, जब जहाँ मौका मिला वह प्रकृति की ओर हो लेती हैं, 'चार्नवुड लेस्टरशायर की छोटी-छोटी पहाड़ियों के बीच में बसा एक रमणीक और आकर्षक गाँव है।' (पेज-21) ऐसे कई उदाहरण कहानी में हमें मिल जाते हैं। कहानी की भाषा सहज और सरल रही है, जो पाठक को अपने से बाँधे रखती है। कहानी नए मानव मूल्यों के साथ उभरी है और वह विश्व फलक पर अपना अलग ही स्थान रखती है। अभी के लिए इतना ही, आगे फिर कभी, कोई और सवाल हमसे न पूछे।

सोमवार, 12 अगस्त 2019

गहनतम भावाभिव्यक्ति है :`रेत का समंदर ‘


गहनतम भावाभिव्यक्ति है :`रेत का समंदर ‘ -डा. नीरज भारद्वाज

कविता कवि के अंतर्मन की अनुभूति होती है |काव्य में कवि भाव में नहीं बहते दिखते ,बल्कि अपने मन के राग-विराग या सौन्दर्य को शब्दों के माध्यम से कागज़ पर उकेरते नज़र आते हैं| काव्य संग्रह कवि के आत्ममंथन का संग्रह होता है जिसे उसने देखा, भोगा या फिर सुना है | काव्य में शब्दों का गुम्फन ही कवि के लेखन में चार चांद लगा देता है और उसके द्वारा कही गई बात सीधे श्रोता या पाठक तक पहूँच जाती है| शब्दों का सटीक प्रयोग करना एक कला है और उसके लिए कवि स्वतंत्र भी होता है |कबीरदास ने कहा है `भाषा को क्या देखना भाव चाहिए साँच ‘| कवि की व्यापक सोच और उसके व्यापक शब्द भंडार से ही काव्य संग्रह का जन्म होता है | महाकवि जयशंकर प्रसाद ने भी कहा है -`कविता करना अनंत पुण्यों का फल है ‘| इस परिप्रेक्ष्य में `रेत का समंदरडा. रमा द्विवेदी द्वारा रचित ऐसा ही काव्य -संग्रह है ,जिसमें कवयित्री ने अपने अंतर्मन के भावों और उद्गारों को उद्घाटित करके लिखा है | इसमें मानव जीवन के उन पहलुओं पर प्रकाश डालने का प्रयास किया गया है ,जिसकी तरफ कोई बिरला कवि ही हाथ बढ़ाता है| डा. रमा द्विवेदी आशावादी कवयित्री होने के नाते पूरे काव्य संग्रह में कही भी हताशा से भरी बातें कहती नहीं दिखतीं हैं | काव्य- संग्रह में प्रेम और विरह की कहीं -कहीं अनुभूति अवश्य है लेकिन उसका इतना प्रभाव नहीं है कि कवयित्री को विरह की वेणी माना जा सके | `रेत का समंदरकाव्य संग्रह के विषय में कबीरदास की ये पंक्तिया -`सार-सार को गहि रहे थोथा देई उडाय सटीक बैठती नज़र आती हैं |
डा. रमा द्विवेदी `रेत का समंदरकाव्य संग्रह में आधुनिक समाज में माया से लिप्त मनुष्य की दशा और दिशा दोनों को प्राचीन सन्दर्भो को सामने रखकर स्पष्ट किया है | यह सत्य है कि मृत्यु का आना स्वाभाविक है और व्यक्ति को हर पल इसे याद रखना चाहिए लेकिन माया के वश में व्यक्ति वह कर जाता है ,जो उसे नहीं करना चाहिए | `माया श्रंखला १ कविता में इन्होंने लिखा है -`माया के माया महल में / सत्य भी छुप जाते हैं /दुर्योधन की एक फिसलन / कुरुक्षेत्र भी रच जाते हैं| इस प्रकार यह कहें कि माया और मृत्यु विषयों पर इन्होंने गहराई से लिखा है तो कोई गलत न होगा |
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रेत का समंदर काव्य संग्रह में डा. रमा द्विवेदी ने मानव जीवन के दोनों पक्षों सुख और दुःख का संतुलित वर्णन किया है | जहां मानव सुख में मगन हो सब कुछ भूल जाता है ,वहीं मानव दुःख में विचलित जल्दी हो जाता है और अपना आपा खो बैठता है | मानव जीवन को चलाने वाले यह सुख और दुःख रूपी दोनों पक्ष मानव जीवन के विकास का कटु सत्य कहते दिखाई देते हैं | `हर गम को पचा लेते हैं, कविता की ये पंक्तियाँ `मेरी जो नाव है पतवार उसमें है ही नहीं / डूब जाने पे हमें खुद ही बचा लेते हैं ‘| यह एक भरोसे और आशा का प्रतीक दिखाई देती है |
कवि प्रकृति से कैसे दूर रह सकता है ? सही मायनों में तो प्रकृति इनकी सहचर होती है| बदलता ऋतुचक्र कवि या कवयित्री के मस्तिष्क में भी विचारों को बदलता दिखाई पड़ता है |गर्मी में जहां व्यक्ति के मन में आग लगती दिखाई देती है अर्थात वह असहनीय लगती है ,तो कवयित्री के भाव भी वैसे ही दिखाई पड़ते हैं | डा. रमा द्विवेदी भी ऋतुचक्र के साथ भाव बदलती दिखाई पड़ती हैं | `गर्मी की ऋतू ऐसी कविता की ये पंक्तियाँ इनके भाव को स्पष्ट करती नज़र आती हैं -`तन जलता /मन बहुत मचलता /दिन निकले कैसे /शुष्क नदी में/मीन तड़पती /बिन पानी जैसे /ताल -तलैया सूख गए हैं /पोखर सब सिमटे ‘| बसंत ऋतू जहां नव -पल्लव और चारो तरफ हरियाली .हर्ष उल्लास लाती है ,तो कवयित्री उसे भी भाव में भर कर `आया बसंत झूम के कविता में लिखती हैं `आया बसंत झूम के ,आया बसंत /अमवा की डाल बैठ कोयल/ कूकती है झूम के/आया बसंत झूम के ,आया बसंत ‘| इसके अलावा कवयित्री प्रकृति को क्रूर कहने से भी नहीं चूकती है `प्रकृति भी कितनी क्रूर है ‘? कविता की ये पंक्तियाँ `सूरज कहीं दुबक गया /और वक़्त भी सहम गया /रात भी ठिठुर गई /प्रकृति भी कितनी क्रूर है ‘? वास्तव में प्रकृति रूपी शक्ति सर्व व्यवहारों की जननी है | प्रकृति को अपना अस्तित्व बनाए रखने के लिए हर ऋतू को बराबर समय देना होता है |इससे वो कभी सुखद तो कभी दुखद लगती है |
यह शाश्वत सत्य है कि जितने व्यक्ति उतने विचार | हर व्यक्ति अपने ज्ञान ,चिंतन ,मनन और सृजन के आधार पर अपने भावों को प्रस्तुत करता है | यह भी सत्य है कि हर व्यक्ति प्रेमी व विरही भी होता है ,लेकिन उसकी स्मरण शक्ति ठीक हो| | कुछ अपने प्रेम व विरह को शब्दों में गढ़कर हमारे सामने रख देते हैं तो कुछ अपने अंदर ही अन्दर रख लेते हैं | कवयित्री डा. रमा द्विवेदी भी प्रेम और विरह दोनों पक्षों से अछूती नहीं रही हैं | इन्होंने दोनों विषयों पर अपने मन के उद्गारों को उद्घाटित किया है | `प्यार का इश्तहार नहीं करते कविता की ये पंक्तियाँ उनके प्रेम को दर्शाती हैं |`ढाई आखर प्रेम को दिल में उतार लो /बस ताजमहल देख कर सरताज नहीं बनते |’ तो पीड़ा को विश्व का साम्राज्य दोकविता की पंक्तियाँ उनके विरह को उजागर करती नज़र आती है ,`जाओ हवाओं देश प्रिय के विरह के गीत गाओ तुम /जाओ घटाओं जाओ-जाओ विरहाग्नि न भड़काओ तुम |’ डा. रमा द्विवेदी के काव्य-संग्रह `रेत का समंदर में कोई भी पक्ष ऐसा नहीं लगता ,जिसे मानव ह्रदय से अलग किया जा सके अर्थात मानव ह्रदय से छूट गया हो | कवयित्री ने अपने इस काव्य -संग्रह में भाषा की सटीकता और शब्दों का ज्यों गुम्फन किया ,वह बहुत ही सराहनीय है |
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रेत का समंदरकाव्य-संग्रह की विशेषता में केवल कवयित्री की आंतरिक अनुभूति और शब्द चयन ही नहीं है ,बल्कि सुविख्यात भाषाविज्ञानी और आलोचक प्रो. कृष्ण कुमार गोस्वामी का काव्य -संग्रह के प्रारम्भ में ही ` संवेदनाओं की चितेरी रमा द्विवेदी में लिखा उनका आशीर्वचन और काव्य-संग्रह के प्रति उनकी प्रतिक्रया तथा भाव बहुत महत्वपूर्ण है | प्रो. गोस्वामी लिखते हैं कि `संवेदनाओं की चितेरी डा. रमा द्विवेदी हैं ,जिन्होंने अपने आस-पास की संवेदनाओं को सींचा है ,उकेरा है और उन्हें गहनतम बनाया है | उन्होंने अपनी कविताओं में जीवन के अनदेखे ,अनजाने और अनचीन्हे सत्य को उजागर करने का प्रयास किया है |’ डा. गोस्वामी ने इनके भाषा और लेखन विषय को दृष्टिगत करते हुए लिखा है कि `रमा जी ने अपने लघु बिम्बों और कम शब्दों में जीवन के विभिन्न पहलुओ को पिरोने का सफल प्रयास किया है | वास्तव में यथार्थ जीवन को अपने गीतों में नया संसार दिया है|’ डा. गोस्वामी जी के काव्य-संग्रह के प्रति निकले ये शब्द काव्य-संग्रह की लोकप्रियता और सार्थकता को स्पष्ट करते नज़र आते हैं ,`विश्वास है रमा जी भविष्य में भी अपने काव्य सृजन से हम पाठकों के साथ संवाद करती रहेंगी और अपने शब्दों से नए-नए बिम्ब और चित्र बना कर हमें जहां जीवन के विभिन्न अनछुए पक्षों से परिचित कराएंगी ,वह हमें आनंद भी प्रदान करेगी |’ डा. गोस्वामी जी की कलम से निकले ये शब्द उनकी आलोचना दृष्टि को भी दर्शाते हैं|
काव्य संग्रह के प्रारम्भ में अमेरिका से प्रवासी भारतीय एवं गीतकार श्री राकेश खंडेलवाल द्वारा लिखा `गुनगुनाते ख्याल भी डा. रमा द्विवेदी के काव्य-संग्रह `रेत का समंदर की एक बहुत बड़ी उपलब्धि है | एक गीतकार जब अपनी पैनी नजरो से काव्य की पंक्तियाँ पढ़ता एवं देखता है तो वह काव्य के प्रति अपनी वाणी को विराम नहीं देता ,बल्कि उसके प्रति कुछ खट्टे -मीठे शब्दों का चयन अवश्य करता है | श्री खंडेलवाल जी लिखते हैं कि `रमा जी अपनी विलक्षण प्रतिभा से भावनाओं को नया आयाम देती रहती हैं | उनकी कविताओं में जहां एक नएपन की खुशी दृष्टिगत होती है ,वही कल्पना और अभिव्यक्ति का अनोखा समिश्रण भी देखने को मिलता है |’ इतना ही नहीं रमा जी के काव्य की विशेषता के विषय में वे लिखते हैं कि `उनकी गज़लों में विद्वतजनो को बहर ,रदीफ़ और काफिया की त्रुटियाँ भले ही दिखाई दे परन्तु भावनाओं की उनमें कहीं भी कमी नहीं है|’
अंत में यही कहा जा सकता है कि डा. रमा द्विवेदी का काव्य -संग्रह `रेत का समंदर अपने आप में एक पूर्ण काव्य-संग्रह है | इसमें मानव ह्रदय की जिज्ञासाओं के साथ -साथ प्रकृति , माया ,मृत्यु सभी जीवन सत्य को उजागर करनेवाली कविताओं की रचना की गई है | रमा जी के काव्य की एक विशेषता यह भी है कि वह गीत ,मुक्तक,हाइकु ,क्षणिकाएं ,कविताओं के साथ-साथ ग़ज़ल विधा में भी अपनी लेखनी चलाती हैं अत:आज की काव्य परम्परा में रमा जी का विशिष्ट स्थान माना जा सकता है