नई पीढ़ी की फिल्में और हम
डॉ. नीरज भारद्वाज
आज का समाज जितनी तेजी से बदल रहा है। इसकी
कल्पना शायद ही किसी न की होगी। मानव मूल्यों के विघटन के इस दौर में हर एक चीज
बिकाऊ नजर आने लगी। हमारी हंसी -मजाक, रोना आदि सभी बाजार की गिरफ्त में आ गए हैं।
व्यक्ति भी एक व्यापार बन गया है। बच्चा पैदा करने के कितने पैसे लगेंगे या लेगी।
बच्चा पालने के कितने पैसे। किराए पर कोख लेना नया फंडा शुरु हुआ है। फिगर खराब न
हो तो पति किसी दूसरी औरत के साथ संबंध बनाकर उससे बच्चा पैदा कर सकता है, पति-पत्नि
दोनों खुश है। यह सभी ड्रामा पढकर देखकर बहुत अजीब सा लगता है। शादी की तो मानों
जरुरत ही नहीं रही है। लोग कहते हैं सोच बदलों, क्या ऐसी सोच के साथ समाज में रहना
होगा। संबंध किसी ओर के साथ बनाओं रहों किसी ओर के साथ, बच्चा किसी से पैदा करो,
लालन-पालन करे कोई ओर। शुद्ध विचारों का तो इस आधुनिक समाज ने दिवाला ही निकाल
दिया है। रोमांस शुद्ध देशी हो गया है, प्यार के बीच केवल चद्दर रह गई है। चोली और
सैक्सी गीतों का जमाना ही पुराना हो गया है। इस सारी सामाजिक प्रक्रिया को बदलने
में फिल्मों की भूमिका सबसे महत्वपूर्ण रही है। देश दुनिया घुमने के बाद अब बहुत
सी फिल्में केलव नग्नता ही परोसती है और
कहते हैं समय की यही मांग है।
एक समय था जब फिल्में लोगों का आदर्श होती थी।
लेकिन धीरे-धीरे समय की मांग और बदलते सामाजिक परिवेश के चलते फिल्में भी अपने मूल
से हटकर केवल और केवल पैसे कमाने का एक साधन बन गई है। आज फिल्म के सुपर हिट होने
का कारण दर्शक नहीं, बल्कि करोडों रुपया का बिजनेस है। पुरानी पीढी के लोगों से
बात करने पर पता चलता है कि कैसे फिल्में खुलती चली गई और जुम्मन दृश्य से आज हॉट
सीन तथा उससे भी आगे बढ गई है। पुरानी फिल्मों में यदि किसी जुम्मन दृश्य को
दिखाना होता था तो फूलों को मिलाकर संदेश दे दिया जाता था। लेकिन वर्तमान में तो
नायक-नायिका दुकान से कॉडम खरीदने उट-पटांक डॉयलाग करते दिखाई दे जाते हैं, साथ ही
कुछ दृश्य तो हद ही पार कर गए हैं। किसी से बात करें तो कहते हैं कि इसमें बुराई
ही क्या है लोगों को नई जानकारी मिल रही है। आज फिल्म रिलीज करने से पहले यह बात कहनी
पडती है कि यह फिल्म परिवार के देखने के लायक है और इस फिल्म में हॉट सीन की भरमार
है। जबकि पुरानी फिल्मों को इतना कुछ संदेश नहीं देना पडता था। विचार करे और जाने
तो यही सभी कुछ आधुनिकता है तो फिर आने वाला समय कैसा होगा इसकी कल्पना करके
साहित्यिक मन उदास होता चला जाता है।€
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