शुक्रवार, 18 अक्तूबर 2013

यथार्थवाद


यथार्थवाद हिंदी साहित्य में यथार्थवाद अंग्रेजी के रियलिजम के अनुवाद के रुप में प्रयुक्त हुआ है। यथार्थ का अर्थ है यथा+ अर्थ यानी जैसा है वैसा अर्थ। हिंदी साहित्य में यथार्थवाद बीसवीं शती के तीसरे दशक के आसपास से पाई जाने वाली एक विचारधारा थी। भारतीय विचारकों ने यथार्थवाद के विषय में अपने अलग-अलग मत प्रकट किए हैं। जयशंकर प्रसाद यथार्थवाद को, जीवन के दुःख और अभावों, का उल्लेख मानते हैं, आचार्य नंददुलारे वाजपेयी यथार्थवाद का संबंध प्रत्यक्ष वस्तु जगत से जोडते हैं, शिवदान सिंह चौहान इसे निर्विकल्प रुप से जीवन की वास्तविकता का प्रतिबंब, स्वीकार करते हैं तथा प्रेमचंद यथार्थ को चरित्रगत दुर्बलताओं, क्रूरताओं और विषमताओं का नग्न चित्र मानते हैं। प्रेमचंद एक यथार्थवादी लेखक रहे हैं सहजता के भीतर गहन लेखन मंतव्य जो उनके उपन्यास और कहानियों की सबसे बड़ी विशेषताओं में से एक है| यथार्थवाद का अर्थ है लोगों तथा उनकी जीवन स्थितियों का ऐसा सच्चा चित्रण जिस पर रंग-रोगन न लगाया गया हो। दूसरे शब्दों में कहें तो यथार्थवादी साहित्य मानव जीवन की स्थिति का जीता जागता चित्रण है, जिसमें कोई लाग-लपेट नहीं है, बल्कि जो देखा या भोगा गया है वही लिखा गया है। सही मायनों में इसके मूल में कुछ सामाजिक परिवर्तन और उनका हाथ था। जो परिवर्तन हुआ उसके मूलकारण थे राष्ट्रीय स्वाधीनता संग्राम, कम्यूनिस्ट आन्दोलन, वैज्ञानिक क्षेत्र में वैश्विक स्तर पर हुए विस्फोट, विश्व साहित्य में हुए परिवर्तनों का परिचय और आर्य समाज आदि सामाजिक आन्दोलनों का होना। यथार्थवादी लेखकों ने समाज के निम्नवर्ग के लोगों के दुखद जीवन का चित्रण किया है। उनके उपन्यासों और कहानियों के नायक थे गरीव किसान, भिखमँगे, भंगी, रिक्शा चालक मज़दूर, भारवाही श्रमिक और दलित । इसके पहले हिंदी कहानी और उपन्यास साहित्य में ऐसे उपेक्षित वर्ग को कोई स्थान नहीं दिया गया था। यथार्थवादी लेखकों ने साहित्य को एक नई राह और नई रोशनी देकर समाज को सजग किया, साथ ही लोगों का ध्यान भी इस ओर आकर्षित किया।

रहस्यवाद


रहस्यवाद रहस्यवाद अपने में बहुत ही व्यापक विषय है। जहां तक हम बात करें हिंदी काव्यधारा की तो उसमें रहस्यवाद अपनी अलग ही पहचान रखता है। रहस्यवाद वह भावनात्मक अभिव्यक्ति है, जिसमें कोई साधक या ये कहें की कोई रचनाकर उस अलौकिक, परम, अव्यक्त सत्ता से अपने प्रेम को प्रकट करता है और साथ ही उस अलौकिक तत्व में डूब जाना चाहता है| वास्तव में व्यक्ति जब इस परम आनंद की अनुभूति करता है| तो उसको वाह्य जगत में व्यक्त करने में उसे कठिनाइयों का सामना करना पडता है, क्योंकि लौकिक भाषा ,वस्तुएं उस आनंद को व्यक्त नहीं कर सकती, जो उसने पाया है। इसलिए कवि, रचनाकार या अन्य कोई भी साधक उस पारलौकिक आनंद को व्यक्त करने के लिए प्रतीकों का सहारा लेता है, जो एक साधारण जन के लिए रहस्य बन जाते है| रहस्य का अर्थ है -"ऐसा तत्त्व जिसे जानने का प्रयास करके भी अभी तक निश्चित रूप से कोई जान नहीं सका। ऐसा तत्त्व है परमात्मा। काव्य में उस परमात्म-तत्त्व को जानने की, जानकर पाने की और मिलने पर उसी में मिलकर खो जाने की प्रवृत्ति का नाम है-रहस्यवाद।" हिंदी काव्य और उसमें आए रहस्यवाद के विषय में विचारकों ने अपने अलग-अलग मत दिए हैं, जो इस प्रकार हैं- आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के मतानुसार -जहाँ कवि उस अनन्त और अज्ञात प्रियतम को आलम्बन बनाकर अत्यन्त चित्रामयी भाषा में प्रेम की अनेक प्रकार से व्यंजना करता है, उसे रहस्यवाद कहते हैं। इसी बात को स्पष्ट करते हुए डॉ० श्याम सुन्दर दास ने लिखा है कि -चिन्तन के क्षेत्र का ब्रह्मवाद कविता के क्षेत्र में जाकर कल्पना और भावुकता का आधार पाकर रहस्यवाद का रूप पकड़ता है। छायावाद के प्रमुख आधार स्तंभ जयशंकर प्रसाद के मतानुसार- रहस्यवाद में अपरोक्ष अनुभूति, समरसता तथा प्राकृतिक सौन्दर्य के द्वारा अहं का इदं से समन्वय करने का सुन्दर प्रयत्न है। आधुनिक युग की मीरा कही जाने वाली रहस्यवादी कवयित्री महादेव वर्मा ने, अपनी सीमा को असीम तत्त्व में खो देने को रहस्यवाद कहा है। डॉ० रामकुमार वर्मा लिखते हैं कि -रहस्यवाद जीवात्मा की उस अन्तर्हित प्रवृत्ति का प्रकाशन है, जिसमें वह दिव्य और अलौकिक शक्ति से अपना शान्त और निश्छल सम्बन्ध जोड़ना चाहती है और यह सम्बन्ध यहाँ तक बढ़ जाता है कि दोनों में कुछ भी अन्तर नहीं रह जाता। वास्तव में रहस्यवाद काव्य की वह मार्मिक भावभिव्यक्ति हैं, जिसमें एक भावुक कवि अव्यक्त, अगोचर एवं अज्ञात सत्ता के प्रति अपने प्रेमोद्गार प्रकट करता है। हिंदी साहित्य में रहस्यवाद पर प्रकाश डाले या रहस्यवाद के विषय में चर्चा करे तो हम पाते हैं कि यह परंपरा मध्य काल से शुरु हुई, निर्गुण काव्यधारा के संत कबीर के यहाँ, तो प्रेममार्गी काव्यधारा या सूफी काव्यधारा में जायसी के यहाँ रहस्यवाद का प्रयोग हुआ है। विचार करें तो ये दोनों ही परम सत्ता से जुड़ना चाहते हैं और उसमे लीन होना चाहते हैं, कबीर योग के माध्यम से तो जायसी प्रेम के माध्यम से , विद्वानों की माने तो कबीर का रहस्यवाद अंतर्मुखी व साधनात्मक रहस्यवाद है और जायसी का रहस्यवाद बहिर्मुखी व भावनात्मक है। ऐसा नहीं है कि इन दो ही कवियों ने रहस्यवाद पर अपनी लेखनी चलाई, बल्कि अन्य कवियों ने भी इसे अपनाया है। मध्यकाल से चली यह परंपरा आधुनिक काल तक चलती रही है। कुछ विचारकों का मानना है कि आधुनिक रहस्यवाद पश्चिमी धारा से प्रभावित है। जबकि प्राचीन रहस्यवाद में बौद्धिक चेतना की प्रधानता है। आधुनिक रहस्यवाद में प्रेम-संबंध तथा प्रणय निवेदन को प्रमुख स्थान दिया गया है तो प्राचीन रहस्यवाद में धार्मिक अनुभूति एवं साधना का प्राधान्य है। आधुनिक रहस्यवाद धार्मिक साधना का फल न होकर मुख्यत: कल्पना पर आधारित है। विचार करें तो हम पाते हैं कि आधुनिक काल में छायावाद में रहस्यवाद सबसे अधिक दिखाई पड़ता है। लेकिन आधुनिक काल में रहस्यवाद मध्यकाल के काव्य की तरह उस अमूर्त, अलौकिक या परम सत्ता से जुड़ने की चाहत के कारण नहीं उत्पन्न हुआ अपितु यह लौकिक प्रेम में आ रही बाधाओं की वजह से उत्पन्न हुआ है। महादेवी वर्मा के काव्य में रहस्यवाद की पर्याप्तता है और महादेवी तथा महाप्राण निराला में आध्यात्मिक प्रेम का मार्मिक अंकन मिलता है। आधुनिक काल में एक ओर छायावाद का विकास हुआ वहीं दूसरी ओर रहस्यवाद और हालावाद का प्रादुर्भाव हुआ। विचार करें तो हम पाते हैं कि आधुनिक रहस्यवाद छायावादी काव्य-चेतना का ही विकास है और इसी में यह सबसे अधिक दिखाई भी पडता है। यहां प्रकृति के माध्यम से मात्र सौंदर्य-बोध तक सीमित रहने वाली और साथ ही प्रकृति के माध्यम से प्रत्यक्ष जीवन का चित्रण करने वाली धारा छायावाद कहलाई; पर जहां प्रकृति के प्रति औत्सुक्य एवं रहस्यमयता का भाव भी जाग्रत हो गया वहां यह रहस्यवाद में परिवर्तित हो गई। जहां वैयक्तिकता का भाव प्रबल हो गया,वहां यह धारा हालावाद के रूप में सर्वथा अलग हो गई। इस दृष्टि से हम पाते हैं कि छायावाद में प्रकृति पर मानव जीवन का आरोप है और यह प्रकृति प्रेम तक ही सीमित रहता है, किंतु रहस्यवाद में प्रकृति के माध्यम से उस अज्ञात-अनंत शक्ति के साथ संबंध स्थापित करने का प्रयत्न होता है, जो दूसरे शब्दों में य़ों भी कह सकते हैं कि "छायावाद में प्रकृति अथवा परमात्मा के सहज ही प्राप्य नहीं है। इस तथ्य को प्रति कुतूहल रहता है, पर जब यह कुतूहल आसक्ति का रूप धारण कर लेता है,तब वहां से रहस्यवाद की सीमा प्रारंभ हो जाती है।" नामवर सिंह कहते हैं कि, ‘‘स्वाभाविक हे कि कुतूहल उत्पन्न करनेवाले उस रहस्यात्मक तत्व का स्वरुप जिज्ञासु के मन का ही प्रक्षेपण हो। भाववादी व्यक्ति प्रायः बाह्य-जगत् में भी अपने ही आंतरिक जगत् की छाया देखता है, यहां तक कि भाववादी कभी-कभी बाह्य जगत् को अपने ही मनोजगत् की अभिव्यक्ति अथवा उसका प्रसार मानता है।’’ इस दृष्टि से हम पाते हैं कि छायावादी काव्य और उस काल में आए कवि कहीं न कहीं रहस्यवाद से अवश्य जुडे हैं। चाहे विचारक उसे प्रत्यक्ष माने या अप्रत्यक्ष या उसकी आलोचना करे। विषय के अंत में हम इतना ही कह सकते है कि रहस्यवाद के अंतर्गत एक कवि उस अज्ञात एवं असीम सत्ता से अत्यन्त घनिष्ठ सम्बन्ध स्थापित करता हुआ उसके प्रति अपना प्रेमोद्गार व्यक्त करता है, जिसमें सुख-दुःख, आनन्द-विषाद, संयोग-वियोग, रोना-हंसना आदि सभी कुछ मिले रहते हैं। €

रविवार, 13 अक्तूबर 2013

संस्कृति और संस्कार


मेरे देश महान् ऐसे ही नहीं है, उसमें सभी के लिए कुछ न कुछ अवश्य है। यही वो देश है जिसमें नदी को (गंगा) माता कहा जाता है, पौधे को (तुलसी) माता कहा जाता है, पशु को (गाऊ) माता कहा जाता है, देश को (भारत) माता कहा जाता है आदि। इतना ही नहीं इन सभी की प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रुप से पूजा भी की जाती है और कहा जाता है कि दया धर्म का मूल है। ऐसे कितने ही उदाहरण हमें मिल जाएंगे, जो हमारी सांस्कृतिक एकता की महानता को बताते हैं और हमें विश्व में महान् बनाने का कार्य करते हैं। मेरे देश में पडोस क्लचर और राष्ट्रीय-सांस्कृतिक एकता का एक प्रमाण यह भी रहा है कि नवरात्रों के दिनों में लोग अपने घरों में मिट्टी से छोटे-छोटे सितारे बनाकर उन्हें रंग में रंगकर सांझा माई की प्रतिमा को बनाते और उसे सजाते तथा रोज सांय उसकी आस-पडोस की लडकियों द्वारा इक्टठे होकर पूजा करना होता। यह कार्य सरल सा लगता है। लेकिन इस कार्य को करने से पहले सभी का एकमत होना और बिना किसी डर-भय के हमारी बहन बेटी का अपने पडोस में जाना और उनके घर पर पूजा करना यह बात अपने आप में स्पष्ट करती है कि हमारी संस्कृति और हमारी सोच कितनी महान् है। लेकिन वर्तमान संदर्भ में सभी कुछ धूमिल हो गया है न तो कोई ऐसे पूजा करता है और आज की पीढीं को तो शायद ये सभी बातें पता भी है के नहीं। इतना ही नहीं कृषि प्रधान देश होने के चलते नवरात्रों में ही लोग अपने घर में मां दुर्गा के सामने जों को एक छोटे से बरतन में उगा कर देख लेते थे कि अब मौसम गेहूं की खेती के लायक हो गया है कि नहीं। यह छोटी-छोटी बातें सुनने में आपको अजीब लगेगी। लेकिन यही सत्य है हमारी संस्कृति का। इतना ही नहीं यह सभी कुछ केवल किस्से कहानियों की चीज रह गई हैं। एक सच्चा साहित्यकार अपने समाज की सभी बातों को अपने कथा साहित्य में जरुर उजागर करता है। लेकिन वर्तमान में साहित्य भी नए सीरे से लिखा जा रहा है और क्लचर भी दिनों दिन बदलता जा रहा है। उन कहानियों में अवैध संबंध, लिव-इन-रिलेश्नशिप, बिना शादी के बच्चा, एक पुरुष या नारी के कितने ही अलग-अलग से संबंध बनाना, ऑफिस क्लचर आदि घटनाओं को हमारे सामने उजागर किया जा रहा है। क्या हमारी संस्कृति इतनी कमजोर है, जो इन लोगों के आगे घुटने टेकने पर मजबूर है। हमें सोचना होगा और लोगों को तथा आने वाली नई पीढीं को बताना होगा कि हम कैसे समाज में रहे हैं और निकट भविष्य में भी हम ऐसा ही समाज बनाने कि कोशिश कर रहे हैं। आपको इस काम में जी-जान एक करना होगा तभी संस्कृति और संस्कारों को बचाया जा सकता है। महान् बनने और बनाने के लिए अपने अंदर परहित की भावना को पैदा करना होता है, जो हमारे पूर्वजों ने हमें दी है। यही हमारी संस्कृति और संस्कार हैं।