यथार्थवाद
हिंदी साहित्य में यथार्थवाद अंग्रेजी के रियलिजम के अनुवाद के रुप में प्रयुक्त हुआ है। यथार्थ का अर्थ है यथा+ अर्थ यानी जैसा है वैसा अर्थ। हिंदी साहित्य में यथार्थवाद बीसवीं शती के तीसरे दशक के आसपास से पाई जाने वाली एक विचारधारा थी। भारतीय विचारकों ने यथार्थवाद के विषय में अपने अलग-अलग मत प्रकट किए हैं। जयशंकर प्रसाद यथार्थवाद को, जीवन के दुःख और अभावों, का उल्लेख मानते हैं, आचार्य नंददुलारे वाजपेयी यथार्थवाद का संबंध प्रत्यक्ष वस्तु जगत से जोडते हैं, शिवदान सिंह चौहान इसे निर्विकल्प रुप से जीवन की वास्तविकता का प्रतिबंब, स्वीकार करते हैं तथा प्रेमचंद यथार्थ को चरित्रगत दुर्बलताओं, क्रूरताओं और विषमताओं का नग्न चित्र मानते हैं। प्रेमचंद एक यथार्थवादी लेखक रहे हैं सहजता के भीतर गहन लेखन मंतव्य जो उनके उपन्यास और कहानियों की सबसे बड़ी विशेषताओं में से एक है|
यथार्थवाद का अर्थ है लोगों तथा उनकी जीवन स्थितियों का ऐसा सच्चा चित्रण जिस पर रंग-रोगन न लगाया गया हो। दूसरे शब्दों में कहें तो यथार्थवादी साहित्य मानव जीवन की स्थिति का जीता जागता चित्रण है, जिसमें कोई लाग-लपेट नहीं है, बल्कि जो देखा या भोगा गया है वही लिखा गया है। सही मायनों में इसके मूल में कुछ सामाजिक परिवर्तन और उनका हाथ था। जो परिवर्तन हुआ उसके मूलकारण थे राष्ट्रीय स्वाधीनता संग्राम, कम्यूनिस्ट आन्दोलन, वैज्ञानिक क्षेत्र में वैश्विक स्तर पर हुए विस्फोट, विश्व साहित्य में हुए परिवर्तनों का परिचय और आर्य समाज आदि सामाजिक आन्दोलनों का होना। यथार्थवादी लेखकों ने समाज के निम्नवर्ग के लोगों के दुखद जीवन का चित्रण किया है। उनके उपन्यासों और कहानियों के नायक थे गरीव किसान, भिखमँगे, भंगी, रिक्शा चालक मज़दूर, भारवाही श्रमिक और दलित । इसके पहले हिंदी कहानी और उपन्यास साहित्य में ऐसे उपेक्षित वर्ग को कोई स्थान नहीं दिया गया था। यथार्थवादी लेखकों ने साहित्य को एक नई राह और नई रोशनी देकर समाज को सजग किया, साथ ही लोगों का ध्यान भी इस ओर आकर्षित किया।
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