शुक्रवार, 18 अक्तूबर 2013

रहस्यवाद


रहस्यवाद रहस्यवाद अपने में बहुत ही व्यापक विषय है। जहां तक हम बात करें हिंदी काव्यधारा की तो उसमें रहस्यवाद अपनी अलग ही पहचान रखता है। रहस्यवाद वह भावनात्मक अभिव्यक्ति है, जिसमें कोई साधक या ये कहें की कोई रचनाकर उस अलौकिक, परम, अव्यक्त सत्ता से अपने प्रेम को प्रकट करता है और साथ ही उस अलौकिक तत्व में डूब जाना चाहता है| वास्तव में व्यक्ति जब इस परम आनंद की अनुभूति करता है| तो उसको वाह्य जगत में व्यक्त करने में उसे कठिनाइयों का सामना करना पडता है, क्योंकि लौकिक भाषा ,वस्तुएं उस आनंद को व्यक्त नहीं कर सकती, जो उसने पाया है। इसलिए कवि, रचनाकार या अन्य कोई भी साधक उस पारलौकिक आनंद को व्यक्त करने के लिए प्रतीकों का सहारा लेता है, जो एक साधारण जन के लिए रहस्य बन जाते है| रहस्य का अर्थ है -"ऐसा तत्त्व जिसे जानने का प्रयास करके भी अभी तक निश्चित रूप से कोई जान नहीं सका। ऐसा तत्त्व है परमात्मा। काव्य में उस परमात्म-तत्त्व को जानने की, जानकर पाने की और मिलने पर उसी में मिलकर खो जाने की प्रवृत्ति का नाम है-रहस्यवाद।" हिंदी काव्य और उसमें आए रहस्यवाद के विषय में विचारकों ने अपने अलग-अलग मत दिए हैं, जो इस प्रकार हैं- आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के मतानुसार -जहाँ कवि उस अनन्त और अज्ञात प्रियतम को आलम्बन बनाकर अत्यन्त चित्रामयी भाषा में प्रेम की अनेक प्रकार से व्यंजना करता है, उसे रहस्यवाद कहते हैं। इसी बात को स्पष्ट करते हुए डॉ० श्याम सुन्दर दास ने लिखा है कि -चिन्तन के क्षेत्र का ब्रह्मवाद कविता के क्षेत्र में जाकर कल्पना और भावुकता का आधार पाकर रहस्यवाद का रूप पकड़ता है। छायावाद के प्रमुख आधार स्तंभ जयशंकर प्रसाद के मतानुसार- रहस्यवाद में अपरोक्ष अनुभूति, समरसता तथा प्राकृतिक सौन्दर्य के द्वारा अहं का इदं से समन्वय करने का सुन्दर प्रयत्न है। आधुनिक युग की मीरा कही जाने वाली रहस्यवादी कवयित्री महादेव वर्मा ने, अपनी सीमा को असीम तत्त्व में खो देने को रहस्यवाद कहा है। डॉ० रामकुमार वर्मा लिखते हैं कि -रहस्यवाद जीवात्मा की उस अन्तर्हित प्रवृत्ति का प्रकाशन है, जिसमें वह दिव्य और अलौकिक शक्ति से अपना शान्त और निश्छल सम्बन्ध जोड़ना चाहती है और यह सम्बन्ध यहाँ तक बढ़ जाता है कि दोनों में कुछ भी अन्तर नहीं रह जाता। वास्तव में रहस्यवाद काव्य की वह मार्मिक भावभिव्यक्ति हैं, जिसमें एक भावुक कवि अव्यक्त, अगोचर एवं अज्ञात सत्ता के प्रति अपने प्रेमोद्गार प्रकट करता है। हिंदी साहित्य में रहस्यवाद पर प्रकाश डाले या रहस्यवाद के विषय में चर्चा करे तो हम पाते हैं कि यह परंपरा मध्य काल से शुरु हुई, निर्गुण काव्यधारा के संत कबीर के यहाँ, तो प्रेममार्गी काव्यधारा या सूफी काव्यधारा में जायसी के यहाँ रहस्यवाद का प्रयोग हुआ है। विचार करें तो ये दोनों ही परम सत्ता से जुड़ना चाहते हैं और उसमे लीन होना चाहते हैं, कबीर योग के माध्यम से तो जायसी प्रेम के माध्यम से , विद्वानों की माने तो कबीर का रहस्यवाद अंतर्मुखी व साधनात्मक रहस्यवाद है और जायसी का रहस्यवाद बहिर्मुखी व भावनात्मक है। ऐसा नहीं है कि इन दो ही कवियों ने रहस्यवाद पर अपनी लेखनी चलाई, बल्कि अन्य कवियों ने भी इसे अपनाया है। मध्यकाल से चली यह परंपरा आधुनिक काल तक चलती रही है। कुछ विचारकों का मानना है कि आधुनिक रहस्यवाद पश्चिमी धारा से प्रभावित है। जबकि प्राचीन रहस्यवाद में बौद्धिक चेतना की प्रधानता है। आधुनिक रहस्यवाद में प्रेम-संबंध तथा प्रणय निवेदन को प्रमुख स्थान दिया गया है तो प्राचीन रहस्यवाद में धार्मिक अनुभूति एवं साधना का प्राधान्य है। आधुनिक रहस्यवाद धार्मिक साधना का फल न होकर मुख्यत: कल्पना पर आधारित है। विचार करें तो हम पाते हैं कि आधुनिक काल में छायावाद में रहस्यवाद सबसे अधिक दिखाई पड़ता है। लेकिन आधुनिक काल में रहस्यवाद मध्यकाल के काव्य की तरह उस अमूर्त, अलौकिक या परम सत्ता से जुड़ने की चाहत के कारण नहीं उत्पन्न हुआ अपितु यह लौकिक प्रेम में आ रही बाधाओं की वजह से उत्पन्न हुआ है। महादेवी वर्मा के काव्य में रहस्यवाद की पर्याप्तता है और महादेवी तथा महाप्राण निराला में आध्यात्मिक प्रेम का मार्मिक अंकन मिलता है। आधुनिक काल में एक ओर छायावाद का विकास हुआ वहीं दूसरी ओर रहस्यवाद और हालावाद का प्रादुर्भाव हुआ। विचार करें तो हम पाते हैं कि आधुनिक रहस्यवाद छायावादी काव्य-चेतना का ही विकास है और इसी में यह सबसे अधिक दिखाई भी पडता है। यहां प्रकृति के माध्यम से मात्र सौंदर्य-बोध तक सीमित रहने वाली और साथ ही प्रकृति के माध्यम से प्रत्यक्ष जीवन का चित्रण करने वाली धारा छायावाद कहलाई; पर जहां प्रकृति के प्रति औत्सुक्य एवं रहस्यमयता का भाव भी जाग्रत हो गया वहां यह रहस्यवाद में परिवर्तित हो गई। जहां वैयक्तिकता का भाव प्रबल हो गया,वहां यह धारा हालावाद के रूप में सर्वथा अलग हो गई। इस दृष्टि से हम पाते हैं कि छायावाद में प्रकृति पर मानव जीवन का आरोप है और यह प्रकृति प्रेम तक ही सीमित रहता है, किंतु रहस्यवाद में प्रकृति के माध्यम से उस अज्ञात-अनंत शक्ति के साथ संबंध स्थापित करने का प्रयत्न होता है, जो दूसरे शब्दों में य़ों भी कह सकते हैं कि "छायावाद में प्रकृति अथवा परमात्मा के सहज ही प्राप्य नहीं है। इस तथ्य को प्रति कुतूहल रहता है, पर जब यह कुतूहल आसक्ति का रूप धारण कर लेता है,तब वहां से रहस्यवाद की सीमा प्रारंभ हो जाती है।" नामवर सिंह कहते हैं कि, ‘‘स्वाभाविक हे कि कुतूहल उत्पन्न करनेवाले उस रहस्यात्मक तत्व का स्वरुप जिज्ञासु के मन का ही प्रक्षेपण हो। भाववादी व्यक्ति प्रायः बाह्य-जगत् में भी अपने ही आंतरिक जगत् की छाया देखता है, यहां तक कि भाववादी कभी-कभी बाह्य जगत् को अपने ही मनोजगत् की अभिव्यक्ति अथवा उसका प्रसार मानता है।’’ इस दृष्टि से हम पाते हैं कि छायावादी काव्य और उस काल में आए कवि कहीं न कहीं रहस्यवाद से अवश्य जुडे हैं। चाहे विचारक उसे प्रत्यक्ष माने या अप्रत्यक्ष या उसकी आलोचना करे। विषय के अंत में हम इतना ही कह सकते है कि रहस्यवाद के अंतर्गत एक कवि उस अज्ञात एवं असीम सत्ता से अत्यन्त घनिष्ठ सम्बन्ध स्थापित करता हुआ उसके प्रति अपना प्रेमोद्गार व्यक्त करता है, जिसमें सुख-दुःख, आनन्द-विषाद, संयोग-वियोग, रोना-हंसना आदि सभी कुछ मिले रहते हैं। €

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