आदिकाल का नामकरण
ग्रियर्सन चारणकाल (युग)
मिश्रबंधु प्रारंभिक काल
रामचन्द्र शुकल वीरगाथा काल
राहुल सांकृत्यायन सिद्धसामंत काल
हजारी प्रसाद द्विवेदी आदिकाल
महावीर प्रसाद द्विवेदी बीजवपन काल
विश्वनाथ प्रसाद मिश्र वीरकाल
रमाशंकर शुक्ल रसाल आदिकाल
रामकुमार वर्मा संधिकाल एवं चारणकाल
आदिकाल का समय 8वीं सदी ग्रियर्सन, मिश्रबंधु, राहुल सांकृत्यायन, चंद्रधर शर्मा गुलेरी, रामकुमार वर्मा
9वीं सदी श्री जायसवाल
11वीं सदी आचार्य शुक्ल, श्याम सुंदर दास, हजारी प्रसाद द्विवेदी
रासो शब्द की व्युत्पत्ति रासो शब्द का ग्रहण सामान्यता दो रूपों में हुआ- 1. गेयमुक्त परंपरा 2. नृत्यगीत परक परंपरा।
आचार्य शुक्ल ने वीरगाथाओं का परिचय देते हुए कहा इस काल के अधिकांश कवि चारण थे।
गार्सा द तासी राजसूय
रामचन्द्र शुकल रसायण
हजारी प्रसाद द्विवेदी रासक
नंद दुलारे वाजपेयी रास
नरोत्तम स्वामी रसिक
रचना उल्लेख (12 ग्रंथ) अपभ्रंश भाषा समय रचना लेखक विशेषता
सं. 1350 विजयपाल रासो नल्हसिंह भाट इसमें विजयपाल सिंह और पंग राजा के युद्ध का वर्णन प्रामाणिकता संदिग्ध
सं. 1375 हम्मीर रासो शारंगधर प्रामाणिकता संदिग्ध
सं. 1460 कीर्तिलता विद्यापति अवहट्ट भाषा- मैथिल युक्त विकसित अपभ्रंश है।
सं. 1460 कीर्तिपताला विद्यापति देशी भाषा समय रचना लेखक विशेषता
सं. 1190 खुमान रासो दलपति विजय इसमें चितौड़ नरेश खुमाण के युद्धों का वर्णन है। वीरगाथा ग्रंथों में उपलब्ध प्रथम ग्रंथ है। कर्नल टाड ने इस पुस्तक की चर्चा विस्तार से की है। प्रामाणिकता संदिग्ध
सं. 1292 बीसलदेव रासो नरपति नाल्ह चरित काव्य, श्रृंगार प्रधान प्रेम काव्य माना, गेय मुक्तक इसमें विवाह उपरांत पति-पत्नी के संपर्क में प्रेम दिखाया।
सं. 1225 पृथ्वीराज रासो चन्दवरदाई डिंगल (राजस्थानी) वीररस के स्थान पर पिंगल (ब्रजभाषा) श्रृंगार रस के स्थान पर 69 सर्ग जिसे समय कहा शुक्ल- अप्रामाणिक, हजारी प्रसाद- अर्द्धप्रामाणिक शहाबुद्दीन गौरी ने चौहान को बंदी बनाया।
सं. 1225 जयचन्द्र प्रकाश भट्ट केदार
सं. 1230 परमाल रासो जगनिक परमर्दिदेव का दरबारी कवि था आल्हा और ऊदल वीरों की गाथा चार्ल्स इलियट ने आल्हा-ऊदल संबंधी गीतों का संग्रह आल्हा खंड में छपवाया।
सं. 1230 खुसरों की पहेलियाँ अमीर खुसरो (अब्दुल हसन) फ़ारसी और हिन्दी का गुंफन, निजामुद्दीन औलिया के शिष्य
सं. 1240 जयमयंक जस चंद्रिका मधुर कवि सं. 1460 विद्यापति पदावली विद्यापति मैथिलि भाषा में लिखी, इन्हें मैथिल कोकिल भी कहा जाता है। इनकी पदावली पर हाल कवि कृत गाहा सतसई और जयदेव द्वारा रचित गीत गोविंद का प्रभाव देखा जा सकता है।
सं. 1225 भट्ट केदार जयचंद प्रकाश संदेश रासक अब्दुर्रहमान खंडकाव्य, विरह काव्य, दोहा छंद का सुंदर प्रयोग
सं. 1241 भरतेशवर बाहुबलि रास शालिभद्र सूरि ढोला मारू रा दूहा एक लोक काव्य है, विरह गीत है।
आदिकालीन साहित्य
सिद्ध साहित्य, नाथ साहित्य, जैन साहित्य
सिद्ध साहित्य 8वीं सदी में सिद्धों की सत्ता बोद्ध धर्म के वज्रयान तत्व का प्रचार-प्रसार करने के लिए जो साहित्य लिखा गया।
राहुल सांकृत्यायन ने 84 सिद्धों के नामों का उल्लेख किया है।
राहुल सांकृत्यायन ने पुस्तक हिन्दा काव्य धारा में बौद्ध तथा नाथसिद्ध और जैनियों की अनेक रचनाओं का संकलन किया।
रा. सं. ने पुरानी हिंदी और अपभ्रंस को एक ही कहा।
प्रत्येक सिद्ध के नाम के पीछे 'पा' शब्द जुड़ा है।
सरहपा-827 (दोहाकोश), शबरपा ( चर्यापद) प्रमुख है।
इन्होंने संधा भाषा शैली में रचनाएँ की है।
सिद्धों की रचनाएँ चर्यागीति और दोहा-कोश नामों से पुकारी जाता है।
इसी भाषा-शैली का उपयोग नाथों ने भी किया।
कबीर आदि निर्गुण संतों की इसी भाषा शैली को उलटबाँसी कहा जाता है।
धर्मवीर भारती ने सिद्ध साहित्य में उपलब्ध होने वाली अश्लीलता पर आध्यात्मिकता का आरोप करना चाहा है।
राहुल सांकृत्यायन और हजारी प्रसाद द्विवेदी ने गोरखनाथ का समय 10वीं शताब्दी मानते हैं।
शुक्ल ने पृथ्वीराज चौहान के समय का बताया है।
नाथ साम्प्रदाय वज्रयान की परम्परा में शैवमत की क्रोड में पला।
84 सिद्धों की तरह नव नाथ भी प्रसिद्ध हैं।
इस परंपरा के प्रत्येक जोगी के नाम के अंत में नाथ शब्द जुड़ा।
नाथ पंथ में गोरखनाथ शिव के रूप माने जाते हैं।
गोरखनाथ ने पतंजलि के योग को लेकर हठयोग का प्रवर्तन किया।
ब्रह्मचर्य का आग्रह किया।
गोरखनाथ मत्स्येंद्रनाथ या मछंदरनाथ के शिष्य थे।
इनका सिद्धांत है- जोई-जोई पिंडे सोई ब्रह्मांडे अर्थात् जो शरीर में है, वही ब्रह्मांड में है।
8वीं-13वीं शताब्दी तक जैन मत के प्रभाव से काव्य गुजरात और दक्षिण में रचा गया।
महावीर स्वामी ने अपने धर्म का प्रचार लोक कथा के माध्यम से किया
जैन मत का काव्य अपभ्रंश में लिखा गया।
स्वयंभू (8वीं शती) की रचनाएँ- पउम चरिउ (पद्म चरित) इसमें राम कथा को आधार बनाया गया है।, इसमें 5 कांड है, बालकांड को विद्याघर कहा, अरण्यकांड और किष्कंधा कांड को नहीं लिया गया।
डॉ. रामकुमार वर्मा ने इन्हें अपभ्रंश का प्रथम कवि और हिंदी साहित्य का आदि कवि कहा।
अरिष्टनेमी चरित (टिठजेमी चरिउ) में कृष्ण कथा को आधार बनाया।
स्वयंभू छन्दम की रचना की।
स्वयंभू को अपभ्रंश का बाल्मीकी माना जाता है।
पुष्पदंत (10वीं शती) उपनाम अभिमान मेरु भी है।
इन्होंने महापुराण की रचना की
इनकी वृति कृष्ण काव्य में अधिक रही।
धनपाल –भविसयत (10वीं सती)- इसे सुय पंचमी भी कहा जाता है।, इसमें श्रृंगार, वीर, शांत रस की प्रधानता। जोइन्द्र- परमात्मा प्रकाश, योगसार
रामसिंह – पाहुड दोहा (222 दोहे), पाहुड का एक अर्थ अधिकार।
अन्य रचनाकार- विनयचन्द्र सूरि, हरिभद्र, आदिकालीन साहित्य की प्रवृत्तियाँ (विशेषताएँ) 1. परंपरा तथा नूतनता का समावेश 2. विविधरूपी साहित्य रचना 3. परवर्ती साहित्य तथा साहित्यकारों की आधार भूमि 4. युद्धों का सजीव वर्णन 5. आश्रयदातोओं की प्रशस्ति 6. श्रृंगार रस का चित्रण 7. वीर रस का चित्रण 8. सामान्य जन की उपेक्षा 9. प्रकृति चित्रण 10. संदिग्ध तथा अप्रामाणिक रचनाएँ 11. भाषा-अभिव्यक्ति शैलियाँ