मात्रिक छंद सममात्रिक छंद अर्द्ध सममात्रिक छंद विषम मात्रिक
छंद
चौपाई
इसमें चार चरण होते हैं। प्रत्येक चरण सोलह मात्राएँ होती हैं तथा चरण के अंत में लघु मात्रा वाला वर्ण नहीं आता।
दो चरण मिलकर एक अर्द्धाली बनते हैं। ये दोनों चरण प्रायः एक ही पंक्ति में लिखे जाते हैं। पहले दूसरे चरण की तथा तीसरे चौथे चरण की तुक परस्पर मिलती है।
उदाहरण
तात जनक तनया यह सोई। धनुष जग्य जेहि कारन होई। पूजन गौरि सखीं लै आईं।
करत प्रकासु फिरत फुलवाईं।
नयन जो देखा कवँल भा, निरमल नीर सरीर । हँसत जो देखा हंस भा, दसन-जोति नग हीर ॥ (पद्मावत)
उमा राम बिषइक अस मोहा। नभ तम धूम धूरि जिमि सोहा।।
बिनु सतसंग बिबेक न होई। राम कृपा बिनु सुलभ न सोई।।
तात राम नहिं नर भूपाला । भुवनेस्वर कालहु कर काला ॥
रोला
यह चार पंक्तियों में लिखा जाने वाला एक सममात्रिक छंद है।
इसकी प्रत्येक पंक्ति में 11, 13 की यति के क्रम में 24 मात्राएँ होती है।
पहली-दूसरी तथा तीसरी चौथी पंक्तियों की तुक परस्पर मिलती है।
उदाहरण
बाधाओं से नहीं तनिक भी जो घबराये। मृत्यु-पंथ पर बढ़े अधर पर हास बिछाये।
मृत्युभूमि के लिए जिन्होंने प्राण लुटाये।
हरिगीतिका
यह चार पंक्तियों में लिखा जाने वाला सममात्रिक छंद है।
इसकी प्रत्येक पंक्ति में 16 तथा 12 मात्राओं की यति के क्रम से 28 मात्राएँ होती हैं।
पंक्ति के अंत में तुक साम्य होता है।
उदाहरण
ऊधौ, तुम हौ अति बड़भागी।
अपरस रहत सनेह तगा तैं, नाहिन मन अनुरागी।
पुरइनि पात रहत जल भीतर, ता रस देह न दागी।
ज्यौं जल माहँ तेल की गागरि, बूँद न ताकौं लागी।
प्रीति-नदी मैं पाउँ न बोरयौ, दृष्टि न रूप परागी।
सूरदास अबला हम भोरी, गुर चाँटी ज्यौं पागी।।
पद्दडिया
इसमें 16 मात्राएँ होती है। इसके अंत में जगण (ISI) होगा।
यह ओजपूर्ण तथा वीर रस के लिए प्रयुक्त होता है।
उदा.-
स्वच्छ रज तल अन्तर्गत मूल, उड़ती नभ में निर्मल धूल।
स्वर्ण मक्शी जाती सुध भूल, श्वेत पुष्पों के पास न शूल।
दोहा
• यह दो पंक्तियों में लिखा जाने वाला एक सममात्रिक छंद है।
इसका विषम (प्रथम-तृतीय) चरणों में 13-13 तथा सम (दूसरे-चौथे) चरणो में 11-11 मात्राएँ होती है।
• उदाहरण-
जप माला छापा तिलक, सरै न एकौ काम। मन काँचै नाचै वृथा, साँचे राचै राम।।
दुख में सुमरिन सब करे, सुख मे करे न कोय । जो सुख मे सुमरिन करे, दुख काहे को होय ॥ 1 ॥
सोरठा
यह अर्ध सममात्रिक छंद है, जो दो पंक्तियों में लिखा जाता है।
इसके पहले व तीसरे (विषम) चरणों में 11-11 मात्राएँ तथा दूसरे व चौथे (सम) चरणों में 13-13 मात्राएँ होती है।
उदाहरण-
लिख कर लोहित लेख, डूब गया है दिन अहा! व्योम-सिंधु सखि देख, तारक बुदबुद दे रहा!!
ओछे को सतसंग, रहिमन तजहु अँगार ज्यों। तातो जारै अंग, सीरो पै कारो पै कारो लगै।।
बंदौ गुरू पद कंज, कृपा सिंधु नर रूप हरि। महा मोह तम पुंज, जासु बचन रविकर निकर।।
बरवै
इसमें पहले और तीसरे चरण में 12 मात्राएँ और दूसरे तथा चौथे चरण में 7 मात्राएँ होती है।
उदा.-
अवधि शिला का उर पर, था गुरु भार। तिल तिल काट रही थी, दृगजल धार।। (मैथिलीशरण गुप्त)
सुख दुख में जो सम हो, ज्ञान विधान, केवल वही जगत में, सन्त सुजान।।
छप्पय
इसके पहले चार चरणों में रोला (11+13) तथा दो में उल्लाला (15+13) का योग होता है। पाँचवें छठे चरणों में 26 से 28 मात्राएँ हो सकती हैं।
पृथ्वीराज रासो में इसी छंद का प्रयोग किया गया है।
उदा.-
नीलांबर परिधान, हरित पट पर सुन्दर हैं
सूर्य चंद्र युग मुकुट, मेखला रत्नाकर हैं
नदियाँ प्रेम प्रवाह, फूल तारे मंडन हैं,
बन्दी जन खग वृन्द, शेष फन सिंहासन है।
करते अभिषेक पर्याद हैं, बलिहारी इस वेश की।
हे मातृभूमि तू सत्य ही, सगुण मूर्ति सर्वेश की।
कुण्डलिया
इसकी पहली दो पंक्तियाँ दोहा छन्द की तथा अन्तिम चार पंक्तियाँ रोला छन्द की होती है।
उदा.-
दौलत पाय, न कीजिए, सपने हूँ अभिमान। चंचल जल दिन चारि को, ठाँउ न रहत निदान।। ठाँउ न रहत निदान, जियत जग में जस लीजै। मीठे वचन सुनाय, विनय सब ही की कीजै।। कह गिरिधर कविराय, अरे यह सब घट तौलत। पाहुन निसि दिन चारि, रहत सब ही के दौलत।।
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