सोमवार, 29 जुलाई 2019

हिंसा नहीं साथ चाहिए


हिंसा नहीं साथ चाहिए
डॉ. नीरज भारद्वाज

धर्म, आस्था, राजनैतिक हानि-लाभ, साम्प्रदायिकता आदि के नाम पर यह देश कब तक ऐसे दंगों को सहता रहेगा। यह सवाल बार-बार जहन में उठता है और दब जाता है। आखिर यह हिंसा कब रुकेगी। कितने ही साहित्यकार और मेरे लेखक मित्र ऐसे विषयों पर लिख चुके हैं। लेकिन लोगों की समझ पता नहीं किस दिशा की ओर है। एक बार विभाजन का तांडव देख चुके देशवासी क्या फिर ऐसा ही करने जा रहे हैं। ऐसी हिंसाओं में कितनी ही माताओं के लाल, कितनी ही सुगानों के सुहाग और कितनी ही बहनों के भाई जाने अनजाने भगवान को प्यारे हो जाते हैं। क्या देशवासियों को कोई फर्क नहीं पडता। यदि हिंसा, हत्या और जोर-जबरदस्ती किसी भी चीज का समाधान होता तो आज पूरे विश्व में जंगल राज होता। लेकिन जिस तरीके से भारतीय जनता अपना आपा खोकर ऐसी हिंसाओं को जन्म देती है तो यह बडे ही शर्म की बात है। यदि देश का कोई भी शहीद स्वतंत्रता सैनानी जीवित होता और हमारे इस दंगे आचरण को देखता तो वह अपने किये हुए पर जरुर पछताता, क्योंकि उसने ऐसा सोचा भी नहीं होगा।
     उत्तर प्रदेश में हुई हिंसा देश के लिए शर्मसार कर देने वाली घटना है। सभी राजनैतिक दल हिंसा को देख रहे हैं, मरते लोगों पर राजनीति कर रहे हैं। यह समय देशवासियों को समझाने उन्हें एकजुट रहने के लिए कहने का है। एक तरफ तो देश सीरिया के हमले को गलत बता रहा है, वहीं दूसरी ओर अपने ही देश में, जो हो रहा है क्या यह सीरिया से कम है। रुपये का दिवाला निकल चुका है, राजनीति ठंडे बस्ते में पडी है, राजनेता मौके की तलाश में है, जनता मर रही है, ब्यान बाजी जारी है। एक ओर संदेश आने वाला है, जांच कमेटी बैठा दी गई है, लोग शांति बनाए रखे।
     पत्रकारिता और पत्रकार लोगों को समझाने और उन्हें सही खबर दिखाने का प्रयास करती है। लेकिन पत्रकारों पर जानलेना हमला करके उन्हें भी नहीं छोडा जा रहा है। हिंसा में हमारा एक पत्रकार साथी सत्य से अवगत कराता-कराता दुनिया ही छोड गया। इसका जिम्मेदार कौन है। ऐसे हाल को देख शहीद देशभक्त गणेश शंकर विद्यार्थी जी याद आ गए।
     यदि समय रहते सभी कुछ ठीक नहीं हुआ और धर्म या आस्था के नाम पर ऐसे ही दंगे होते रहे, तो वह दिन दूर नहीं कि हम अपनी आने वाली पीढी के लिए केवल और केवल हिंसा ही छोड जायेगें। हमारा देशवासियों से एक ही निवेदन है कि वह ऐसी हिंसाओं को रोके और यदि कहीं सूत्रों से पता चलता भी है, तो उसे रोकने का प्रयास करें। सच्चे अर्थों में यही देशभक्ति है। मित्रों माला का हर एक मोती अपना स्थान रखता है और माला में से एक मोती निकल जाए तो उसकी भरपाई कोई नहीं कर सकता है।   



रविवार, 14 जुलाई 2019

प्रेमचंद और हिन्दी सिनेमा


प्रेमचंद और हिन्दी सिनेमा

प्रेमचंद ने अपनी लेखनी से समाज सेवा का काम किया। अपने 56 वर्षीय जीवन मे उन्होंने हिन्दी उपन्यास तथा कहानी को एक नया रुप दिया, जिससे समाज को गति प्राप्त हुई। प्रेमचंद बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। साहित्य की दुनिया में देखे तो हिन्दी उपन्यास और कहानी उनके बिना अधूरे हैं। पत्रकारिता की बात करें तो वह अपने दौर के समाचारपत्रो से भी जुडे रहे, हंस उनकी ही निकाली हुई पत्रिका थी। सिनेमा की बाद करें तो प्रेमचंद हिन्दी सिनेमा के लिए लगभग डेढ़ वर्ष ही काम कर पाये। प्रेमचंद जब मुम्बई गए तो उस समय फिल्म एक नई क्रांति के प्रभाव में थी। फिल्म निर्माता उनकी अद्भुत प्रतिभा को ध्यान मे रखते हुये उनसे कहानियाँ लिखवाकर ज्यादा से ज्यादा लाभ उठाना चाहते थे। प्रेमचंद अपने अंदर के लेखक को जानते थे और गाँधी जी से प्रभावित व्यक्तित्व रखते थे। प्रेमचंद पैसे के लिए नहीं समाज के लिए काम करना चाहता थे। विचार करें तो फिल्मों में ऐसा नहीं हो रहा था। वह जल्द ही फिल्म उद्योग से जुडे लोगों के विचारों को जान गए और उन्होंने फिल्मों से वापसी कर ली। ऐसा नहीं है कि फिल्म उद्योग से वापस लोट आने के बाद प्रेमचंद के साहित्य या कहानियों पर कोई फिल्म नहीं बनी। बल्कि उनके निधन के बाद भी समय-समय पर उनकी चर्चित कहानियों पर फिल्में तथा दूरदर्शन पर प्रसारित होने वाले धारावाहिक भी बनते रहे हैं।
जहाँ तक साहित्य समाज के दर्पण का काम करता है, ठीक वैसे ही सिनेमा भी लोगों के रहन-सहन, खान-पान,रीति-रिवाज, संस्कृति आदि को रूपहले पर्दे पर दिखाने का काम करता है। प्रेमचंद ने भारत के जन-जीवन को निकट से देखा और उनकी समस्याओं में पैठकर उन्हें पूरी गंभीरता और र्इमानदारी से अपने साहित्य में उतारा है। उनकी दृष्टि मुख्यत: भारत के ग्रामीण और निर्धन वर्ग पर रही। समझा जाए तो उसी के संघर्षपूर्ण जीवन का यथातथ्य अंकन उन्होंने अपने साहित्य में किया है। उन्होनें समाज-हित का व्यापक आधार प्रदान किया। प्रेमचंद ने मनोरंजन की दृष्टि से लिखे जा रहे सस्ते साहित्य की अपेक्षा ग्रामीण जीवन के अधिक निकट होने के कारण उनकी समस्याओं को ही मुख्य रूप से उभारा। कुछ समय तक मुम्बर्इ में रहने के कारण वे महानगर की विषमताओं और जटिलताओं को भी पहचान गये थे। उन्होंने यह भी अनुभव किया कि महानगरों में पैदा हो रही नई सभ्यता और पूँजीवाद के विकास के परिणामस्वरूप नगरों का प्रसार तो होगा ही साथ ही गाँव लुप्त होते जायेंगे। इस सिथति से उत्पन्न होने वाली समस्याओं का चित्रण उनके कथा साहित्य में देखने को मिलता है। ग्रामीण जीवन के विभिन्न पहलुओं का अंकन उनकी कहानियों में विशेष रूप से देखा जा सकता है।
       किसी भी भाषा में परिवर्तन होना स्वाभाविक क्रिया है, यह समय, स्थिति, प्रयोग आदि के आधार पर होते रहते हैं। विद्वानों ने भाषा का असली रुप मौखिक माना है। भाषा के मौखिक रुप के साथ उसके लिखित रुप पर भी विद्वानों ने अपने विचार प्रकट किए हैं। किसी भी भाषा को लंबे समय तक जीवित रखने के लिए उसका लिखित रुप ही कारगर सिद्ध होता है और भाषा के इस लिखित रुप के लिए व्याकरण तथा लिपि का सहयोग लिया जाता है। भाषा के शुद्ध रुप से लेखन के लिए उसके व्याकरण के बारे में जानना आवश्यक है। व्याकरण ही भाषा के शुद्ध रुप से लिखने के नियम बताता हुआ चलता है और भाषा में होने वाली त्रुटियों के बारे में बताता तथा समझाता है। स्वतंत्रता के पश्चात भारतीय भाषाओं, विशेषकर हिन्दी प्रयोग क्षेत्रों का विस्तार हुआ है। अब हिन्दी केवल सर्जनात्मक साहित्य तक सीमित न रहकर अन्य क्षेत्रों की विशिष्ट प्रयुक्ति के रूप में विकसित होने लगी है। ज्ञान-विज्ञान के विभिन्न आयामों के विकास के कारण हिन्दी क्षेत्रों का भी विकास हुआ है। इतना ही नहीं सिनेमा ने भी भाषा में नए-नए प्रयोगों को जन्म दिया है। इस अध्याय में सिनेमा और भाषा का अन्तरसम्बन्ध, भाषा का स्वरूप, सामाजिक सम्प्रेषण व्यवस्था, प्रयुक्ति की संकल्पना, प्रयुक्ति और शैली को लेकर लिखा गया है। इसमें हिन्दी भाषा का विकास और प्रेमचन्द के साहित्य पर बनी फिल्मों में हिन्दी का प्रयोग तथा महत्तव को प्रमुख आधार बनाकर लिखा गया है।

मार्क ट्वेन




मार्क ट्वेन
मार्क ट्वेन  का जन्म 30 नवंबर, 1835 (1835-1910)  को शमूएल लैंगहोर्न हुआ। वह मिसिसिपी नदी पर छोटे बंदरगाह के जीवन की लय के आदी बन गए। नदी ने उन्हें आकर्षित कर दिया और, 22 वर्ष की उम्र में, उन्होंने एक मिसिसिपी स्टीमबोट पर पायलट के रूप में प्रशिक्षित करने के लिए एक प्रिंट शॉप में काम छोड़ दिया।
मार्क ट्वेन एक उन्नीसवीं सदी के अमेरिकी लेखक थे, स्वभाव से विनोदी थे, जो उनकी लघु कथाओं और उपन्यासों में क्षेत्रीयवाद के उपयोग के लिए प्रसिद्ध था। ट्वेन की पहली साहित्यिक सफलता 1865 में हुई जब कई अखबारों और पत्रिकाओं ने अपनी लघु कथा "कालावरस काउंटी के मनाए गए ''मेंढक मेंढक" को प्रकाशित किया, एक विनोदी उपन्यास, जो लंबे समय तक चलने वाली कहानीकारों के साथ सौदा करता है और एक बेईमान प्रतिद्वंद्वी ने एक मेंढक दौड़ को धांधली। क्षेत्रीय बोलियों के प्रमुख उपयोग के साथ-साथ कहानी के सांसारिक विषय ने गंभीर लेखन के स्वीकृत सम्मेलनों से प्रस्थान किया।
ट्वेन की लोकप्रियता और सार्वजनिक प्रतिष्ठा उनके 1869 के उपन्यास निरंकुश विदेशों के साथ बढ़ गईं , जिसमें एक अमेरिकी पर्यटक हर्षित रूप से पूरे यूरोप में यात्रा करने वाले अपने अनुभवों को याद करते हैं। ट्वेन की स्पष्ट अमेरिकी आवाज और बोलचाल के उपयोग का अक्सर इस्तेमाल होता है, हालांकि अपने सभी कार्यों में मौजूद नहीं, उनकी सबसे प्रसिद्ध पहचान बन गईं इन विशेषताओं में दो कामों पर हावी है जो आज भी सबसे प्रसिद्ध हैं: टॉम सॉयर के एडवेंचर्स और हुकलेबरी फिन के एडवेंचर्स 
ट्वेन की विशिष्ट शैली आमतौर पर व्यंग्य और सामाजिक नैतिकता में आती है, जो दोनों टॉम सॉयर और हुकलेबरी फिन  में मौजूद हैं। उपन्यास 1800 के दशक के दौरान छोटे शहर अमेरिका में आम लोगों और भाषा पर भरोसा करते हैं कहानियों में भी एक पूर्व बोकोलिक अमेरिका और बचपन की आनंदमय स्वतंत्रता के लिए एक निश्चित पुरानी यादें प्रदान की जाती हैं। आम तौर पर उनके कार्यों का सबसे शक्तिशाली माना जाता हैहुकलेबरी फिन  अपनी विषयगत गहराई से अमेरिकी गुलामी और इसकी विरासत की नैतिक अन्वेषण से निकला है। हालांकि कई लोग मानते हैं कि उपन्यास संस्था और इसके पूर्वाग्रहों की आलोचना करते हैं, दूसरों का तर्क है कि यह कई प्रकार के रूढ़िवादी और आक्रामक उपधाराओं के माध्यम से जातिवाद को बनाए रखता है। इसके प्रकाशन में कुछ प्रकाशकों और विद्यालयों ने अपने अनुमान के मुकाबले मोटे और अनैतिक विषय के लिए प्रतिबंध लगा दिया है
हालांकि ट्वेन का अपना दर्शन स्पष्ट रूप से जटिल था और इसे एक पुस्तक के विषय में कम नहीं किया जा सकता है, इसमें कोई संदेह नहीं है कि उनकी सोच ने अमेरिकी साहित्य पर अपनी छाप छोड़ी है। लेखक अर्नेस्ट हेमिंगवे ने यह भी दावा किया कि "सभी आधुनिक अमेरिकी साहित्य एक किताब मार्क ट्वेन द्वारा हुकलेबरी फिन नाम से आता है"। उनकी किताबें, उनके क्षेत्रवाद और हास्य के साथ, उन्नीसवीं सदी के यथार्थवादी साहित्य के लिए एक स्वागत योग्य अतिरिक्त थे। ट्वेन का उपन्यास इनोसेंट एबरोड 1869 में प्रकाश में आया। इनके साहित्य की एक विशेषता यह भी है कि यह कल्पना शून्य लिखते थे। अपने पात्रों के साथ न्याय करने के लिए जैसा पात्र होता था वैसा ही व्यावहार यह दैनिक जीवन में पहले करके देखते थे।


शुक्रवार, 12 जुलाई 2019

मनु कहानी की समीक्षा (लेखक-हृयदेश)



मनु कहानी की समीक्षा

हृदयेश द्वारा रचित मनु कहानी भारतीय जातिगत व्यवस्था पर प्रहार करती नज़र आती है। कहानी अपने सामाजिक परिवेश में समाज को एकजुट होकर रहने का संदेश देती दिखाई देती है और साथ ही समाज में हर एक व्यक्ति तथा उसका काम सभी के लिए आवश्यक है को दिखाती है। कहानी के आधार पर विचार करें तो रचनाकार साफ से बताते हैं कि समाज में स्वर्ण और निम्न जाति कुछ नहीं है सभी का काम अपने-अपने ढंग से महत्त्वपूर्ण है और समाज सभी के सहयोग से चलता है। कहानी में ब्राह्मण और भंगी के बीच की लड़ाई दिखाकर रचनाकार इस बात को सीधे से स्पष्ट भी कर देता है।
कहानी में पंडित सत्यनारायण झिंगरन प्रसिद्ध ज्योतिषरत्न पं. कृपानारायण झिंगरन के पुत्र हैं यही कहानी के नायक कहे या प्रमुख पात्र भी हैं। पं. सत्यनारायण की सात संतान हैं जिसमें छः पुत्री और एक पुत्र भिरगू अर्थात् भृगुनारायण है। भिरगू पिता की यजमानी प्रथा से अलग रहकर कानपुर में एक कपड़ा मिल में नौकरी करता है और अपनी पत्नी तथा छोटी बहन के साथ रहता है। पं. सत्यनारायण की पत्नी भी अपने पति द्वार किए गए  यजमानी के काम से खुश नहीं है क्योंकि समय के साथ यजमानों के तेवर बदल गए हैं वह अब पंडित जी को ज्यादा तवज्जों नहीं देते और यजमानी में पैसा भी नहीं है घर का खर्च भी मुश्किल से चल पाता है। पं. सत्यनारायण का घर भी यजमानी में ही मिला था जब लाला देवकीनंदन को रायबहादुरी का खिताब मिला था तो उन्होंने अपना घुडसाल सत्यनारायण के पिता को दान में दे दिया था। लेकिन समय के साथ सभी कुछ बदल गया है यजमानी चल नहीं रही है कहानी में यही दिखाया गया है। सत्यनारायण जिस भी गली से निकलते हैं तो सोचते चले जाते हैं कि यहाँ मैंने गृह-प्रवेश कराया था, यहाँ मैंने बच्चे का नामकरण किया था आदि पर अब सभी कुछ सामान्य नहीं रहा।
सत्यनारायण कुछ समय कानपुर में अपने बेटे के घर भी जाते हैं लेकिन टिक नहीं पाते वापिस गाँव में आ जाते हैं। एक दिन पं. सत्यनारायण के घर के बाहर कुत्ता मरा होता है वह कुत्ते को उठवाने के लिए मोहना भंगी के घर जाता है जो उसके घर के सामने ही रहता है। मोहना मुन्ना भंगी की बेटी का पति है। जिस समय पंडित कुत्ता उठवाने की बात कहने गए उस समय मोहना के कुछ मित्र किसी काम के लिए बातें कर रहे थे लेकिन पंडित जी का तकाजा रूक नहीं पा रहा था सो इसी बात को लेकर दोनों के बीच जुबानी जंग चल निकली और मोहना ने कुत्ते को नहीं उठाया। इस घटना से पंडित सत्यनारायण को बड़ा आघात लगा और वह मर जाना चाहते हैं।
कहानी अपने व्यापक कलेवर में समाज के सभी अंगों के कार्य और उनके योगदान को दिखाती है साथ ही बताती है कि किसी को भी वर्ग को काम के आधार पर छोटा या बड़ा नहीं समझना चाहिए क्योंकि काम तो सभी करते हैं और राष्ट्र के विकास में सभी का योगदान महत्त्वपूर्ण है। कहानी पाठक के दिल और दिमाग दोनों को छू लेती है और समाज में एकता के साथ रहने का संदेश देती है। कहानी की संवाद योजना पात्रानुसार दिखाने का प्रयास किया है। जहाँ तक कहानी की भाषा की बात है वह पाठक की समझ के अनुसार है साथ ही कहानीकार ने संवाद के साथ तीखे शब्दों में गाली-गलोच का भी प्रयोग किया है।