प्रेमचंद और हिन्दी सिनेमा
प्रेमचंद ने अपनी लेखनी से समाज सेवा का काम किया। अपने 56 वर्षीय जीवन मे उन्होंने हिन्दी उपन्यास तथा कहानी को एक नया रुप दिया,
जिससे समाज को गति प्राप्त हुई। प्रेमचंद बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। साहित्य की
दुनिया में देखे तो हिन्दी उपन्यास और कहानी उनके बिना अधूरे हैं। पत्रकारिता की
बात करें तो वह अपने दौर के समाचारपत्रो से भी जुडे रहे, हंस उनकी ही निकाली हुई
पत्रिका थी। सिनेमा की बाद करें तो प्रेमचंद हिन्दी सिनेमा के लिए लगभग डेढ़ वर्ष
ही काम कर पाये। प्रेमचंद जब मुम्बई गए तो उस समय फिल्म एक नई क्रांति के प्रभाव
में थी। फिल्म निर्माता उनकी अद्भुत प्रतिभा को ध्यान मे रखते हुये उनसे कहानियाँ
लिखवाकर ज्यादा से ज्यादा लाभ उठाना चाहते थे। प्रेमचंद अपने अंदर के लेखक को
जानते थे और गाँधी जी से प्रभावित व्यक्तित्व रखते थे। प्रेमचंद पैसे के लिए नहीं
समाज के लिए काम करना चाहता थे। विचार करें तो फिल्मों में ऐसा नहीं हो रहा था। वह
जल्द ही फिल्म उद्योग से जुडे लोगों के विचारों को जान गए और उन्होंने फिल्मों से
वापसी कर ली। ऐसा नहीं है कि फिल्म उद्योग से वापस लोट आने के बाद प्रेमचंद के
साहित्य या कहानियों पर कोई फिल्म नहीं बनी। बल्कि उनके निधन के बाद भी समय-समय पर
उनकी चर्चित कहानियों पर फिल्में तथा दूरदर्शन पर प्रसारित होने वाले धारावाहिक भी
बनते रहे हैं।
जहाँ तक साहित्य
समाज के दर्पण का काम करता है, ठीक वैसे ही सिनेमा भी लोगों के रहन-सहन, खान-पान,रीति-रिवाज,
संस्कृति आदि को रूपहले पर्दे पर दिखाने का काम करता है। प्रेमचंद ने भारत के
जन-जीवन को निकट से देखा और उनकी समस्याओं में पैठकर उन्हें पूरी गंभीरता और
र्इमानदारी से अपने साहित्य में उतारा है। उनकी दृष्टि मुख्यत: भारत के ग्रामीण और
निर्धन वर्ग पर रही। समझा जाए तो उसी के संघर्षपूर्ण जीवन का यथातथ्य अंकन
उन्होंने अपने साहित्य में किया है। उन्होनें समाज-हित का व्यापक आधार प्रदान किया।
प्रेमचंद ने मनोरंजन की दृष्टि से लिखे जा रहे सस्ते साहित्य की अपेक्षा ग्रामीण
जीवन के अधिक निकट होने के कारण उनकी समस्याओं को ही मुख्य रूप से उभारा। कुछ समय
तक मुम्बर्इ में रहने के कारण वे महानगर की विषमताओं और जटिलताओं को भी पहचान गये
थे। उन्होंने यह भी अनुभव किया कि महानगरों में पैदा हो रही नई सभ्यता और पूँजीवाद
के विकास के परिणामस्वरूप नगरों का प्रसार तो होगा ही साथ ही गाँव लुप्त होते
जायेंगे। इस सिथति से उत्पन्न होने वाली समस्याओं का चित्रण उनके कथा साहित्य में
देखने को मिलता है। ग्रामीण जीवन के विभिन्न पहलुओं का अंकन उनकी कहानियों में
विशेष रूप से देखा जा सकता है।
किसी भी भाषा में परिवर्तन होना स्वाभाविक क्रिया
है, यह समय, स्थिति, प्रयोग आदि के आधार पर होते रहते हैं। विद्वानों ने भाषा का
असली रुप मौखिक माना है। भाषा के मौखिक रुप के साथ उसके लिखित रुप पर भी विद्वानों
ने अपने विचार प्रकट किए हैं। किसी भी भाषा को लंबे समय तक जीवित रखने के लिए उसका
लिखित रुप ही कारगर सिद्ध होता है और भाषा के इस लिखित रुप के लिए व्याकरण तथा
लिपि का सहयोग लिया जाता है। भाषा के शुद्ध रुप से लेखन के लिए उसके व्याकरण के
बारे में जानना आवश्यक है। व्याकरण ही भाषा के शुद्ध रुप से लिखने के नियम बताता
हुआ चलता है और भाषा में होने वाली त्रुटियों के बारे में बताता तथा समझाता है।
स्वतंत्रता के पश्चात भारतीय भाषाओं, विशेषकर हिन्दी प्रयोग क्षेत्रों का विस्तार
हुआ है। अब हिन्दी केवल सर्जनात्मक साहित्य तक सीमित न रहकर अन्य क्षेत्रों की
विशिष्ट प्रयुक्ति के रूप में विकसित होने लगी है। ज्ञान-विज्ञान के विभिन्न
आयामों के विकास के कारण हिन्दी क्षेत्रों का भी विकास हुआ है। इतना ही नहीं
सिनेमा ने भी भाषा में नए-नए प्रयोगों को जन्म दिया है। इस अध्याय में सिनेमा और भाषा का अन्तरसम्बन्ध, भाषा का
स्वरूप, सामाजिक सम्प्रेषण व्यवस्था, प्रयुक्ति की संकल्पना, प्रयुक्ति और शैली को
लेकर लिखा गया है। इसमें हिन्दी भाषा का विकास और प्रेमचन्द के साहित्य पर बनी
फिल्मों में हिन्दी का प्रयोग तथा महत्तव को प्रमुख आधार बनाकर लिखा गया है।
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