छायावाद (1920-1936)
'द्विवेदी युग' के पश्चात हिन्दी साहित्य में कविता की जो धारा प्रवाहित हुई, वह छायावादी कविता के नाम से प्रसिद्ध हुई।
'छायावाद' की कालावधि सन 1917 (1920) से 1936 तक मानी गई है। वस्तुत: इस कालावधि में 'छायावाद' इतनी प्रमुख प्रवृत्ति रही है कि सभी कवि इससे प्रभावित हुए और इसके नाम पर ही इस युग को 'छायावादी युग' कहा जाने लगा था।
हिन्दी की कुछ पत्रिकाओं- 'श्रीशारदा' और 'सरस्वती' में क्रमश: सन 1920 और 1921 में मुकुटधर पांडेय और सुशील द्वारा दो लेख 'हिन्दी में छायावाद' शीर्षक से प्रकाशित हुए थे।
'छायावाद' शब्द का सबसे पहले प्रयोग मुकुटधर पाण्डेय ने किया।
यह भी ध्यान रहे कि पांडेय जी ने इसका प्रयोग व्यंग्यात्मक रूप में छायावादी काव्य की अस्पष्टता (छाया) के लिये किया था। किंतु आगे चलकर वही नाम स्वीकृत हो गया।
मुकुटधर पांडेय की सूक्ष्म दृष्टि ने ‘छायावाद’ की मूल भावना ‘आत्मनिष्ठ अंतर्दृष्टि’ को पहचान लिया था। जब उन्होंने कहा कि "चित्र दृश्य वस्तु की आत्मा का ही उतारा जाता है," तो छायावाद की मौलिक विशेषता की ओर संकेत किया।
छायावादी कवियों की कल्पनाप्रियता पर प्रकाश डालते हुए मुकुटधर जी कहते हैं- "उनकी कविता देवी की आँखें सदैव ऊपर की ही ओर उठी रहती हैं; मर्त्यलोक से उसका बहुत कम संबंध रहता है; वह बुद्धि और ज्ञान की सामर्थ्य-सीमा को अतिक्रम करके मन-प्राण के अतीत लोक में ही विचरण करती रहती है।"
जयशंकर प्रसाद, सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला',सुमित्रानंदन पंत और महादेवी वर्मा इस युग के चार प्रमुख स्तंभ थे।
'द्विवेदी युग' में हिन्दी कविता कोरी उपदेश मात्र बन गई थी। उसमें समाज सुधार की चर्चा व्यापक रूप से की जाती थी और कुछ आख्यानों का वर्णन किया जाता था।
प्रकृति के माध्यम से जब मानव-भावनाओं का चित्रण होने लगा, तभी 'छायावाद' का जन्म हुआ और कविता 'इतिवृत्तात्मकता' को छोड़कर कल्पना लोक में विचरण करने लगी।
हिन्दी कविता के क्षेत्र में प्रथम महायुद्ध (1914-1918 ई.) के आसपास एक विशेष काव्य धारा का प्रवर्तन हुआ, जिसे 'छायावाद' की संज्ञा दी गई है।
जहाँ तक 'छाया' और 'वाद' का सम्बन्ध है, छायावाद काव्य के स्वरूप या उसके लक्षणों से इनका कोई मेल नहीं है।
आचार्य रामचंद्र शुक्ल का विश्वास था कि बंगला में आध्यात्मिक प्रतीकवादी रचनाओं को 'छायावाद' कहा जाता था। अत: हिन्दी में भी इस प्रकार की कविताओं का नाम 'छायावाद' चल पड़ा,
किंतु हजारीप्रसाद द्विवेदी ने इस मान्यता का खंडन करते हुए कहा है कि- "बंगला में छायावाद नाम कभी चला ही नहीं"।
अज्ञेय के अनुसार 'छायावाद' भारतीय रोमांटिकवाद था। उदार, सुन्दर प्रकृति के प्रति आश्चर्य इसमें था, पर भाग्यवादी पात्र इसमें नहीं थे। रोमांटिकवाद का सबल ईश्वरवादी सारतत्व इसमें अन्तर्निहित था। प्रारम्भिक रोमांटिकवाद और भारतीय दर्शन के संश्लेषण का मिश्रण था 'छायावाद'।
छायावादी कवियों ने इस विशेषण को बड़े प्रेम से स्वीकार किया है। एक ओर जयशंकर प्रसाद लिखते हैं- "मोती के भीतर छाया और तरलता होती है, वैसे ही कांति की तरलता अंग में लावण्य कही जाती है। छाया भारतीय दृष्टि से अनुभूति की भंगिमा पर निर्भर करती है। ध्वन्यात्मकता, लाक्षणिकता, सौन्दर्यमय प्रतीक विधान तथा उपचार वक्रता के साथ अनुभूति की विवृत्ति छायावाद की विशेषताएं हैं। अपने भीतर से पानी की तरह आन्तर स्पर्श करके भाव समर्पण करने वाली अभिव्यक्ति छाया कांतिमय होती है।"
दूसरी ओर महादेवी वर्मा भी प्रसाद के स्वर में स्वर मिलाती हुई कहती हैं- "सृष्टि के बाह्याकार पर इतना लिखा जा चुका था कि मनुष्य का हृदय अभिव्यक्ति के लिए रो उठा। स्वछंद छंद में चित्रित उन मानव अनुभूतियों का नाम छाया उपयुक्त ही था और मुझे तो आज भी उपयुक्त लगता है।"
1917 से महात्मा गांधी का प्रभाव भारतीय राजनीति में बढ़ने लगा था।
'चौरीचौरा कांड' के हिंसक प्रभाव को ध्यान में रखकर गांधी जी ने असहयोग आंदोलन को 1922 में स्थगित कर दिया। इससे भारत के कुछ बुद्धिजीवियों में गहरी निराशा और उदासी छा गई थी।
1920 के आसपास सूर्यकांत त्रिपाठी निराला ने लिखा- "मनुष्यों की मुक्ति की तरह कविता की भी मुक्ति होती है। मनुष्यों की मुक्ति कर्मों के बन्धन से छुटकारा पाना है और कविता की मुक्ति छंदों के शासन से अलग हो जाना है।"
भारतीय राजनीति में 'गांधी युग' और हिन्दी साहित्य में 'छायावादी युग' एक ही काल की उपज है।
'छायावाद' का केवल पहला अर्थात मूल अर्थ लेकर तो हिन्दी काव्य क्षेत्र में चलने वाली महादेवी वर्मा ही हैं।
जयशंकर प्रसाद, सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला', सुमित्रानंदन पंत और महादेवी वर्मा इस युग के चार प्रमुख स्तंभ हैं।
रामकुमार वर्मा, माखनलाल चतुर्वेदी, हरिवंशराय बच्चन और रामधारी सिंह दिनकर को भी 'छायावाद' ने प्रभावित किया। किंतु रामकुमार वर्मा आगे चलकर नाटककार के रूप में प्रसिद्ध हुए, माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रवादी धारा की ओर रहे, बच्चन ने प्रेम के राग को मुखर किया और दिनकर जी ने विद्रोह की आग को आवाज़ दी।
जयशंकर प्रसाद, सुमित्रानन्दन पन्त और सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' इत्यादि और सब कवि प्रतीक पद्धति या चित्रभाषा शैली की दृष्टि से ही छायावादी कहलाए। छायावादी युग के प्रमुख कवि थे।
आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने 'छायावाद' को स्पष्ट करते हुए लिखा है कि- "छायावाद शब्द का प्रयोग दो अर्थों में समझना चाहिए। एक तो 'रहस्यवाद' के अर्थ में, जहाँ उसका संबंध काव्य-वस्तु से होता है अर्थात् जहाँ कवि उस अनंत और अज्ञात प्रियतम को को आलम्बन बनाकर अत्यंत चित्रमयी भाषा में प्रेम की अनेक प्रकार से व्यंजना करता है। 'छायावाद' शब्द का दूसरा प्रयोग काव्य शैली या पद्धति-विशेष के व्यापक अर्थ में है।... 'छायावाद' एक शैली विशेष है, जो लाक्षणिक प्रयोगों, अप्रस्तुत विधानों और अमूर्त उपमानों को लेकर चलती है।" दूसरे अर्थ में उन्होंने 'छायावाद' को चित्र-भाषा-शैली कहा है।
महादेवी वर्मा ने 'छायावाद' का मूल सर्वात्मवाद दर्शन में माना है। उन्होंने लिखा है कि- "छायावाद का कवि धर्म के अध्यात्म से अधिक दर्शन के ब्रह्म का ऋणी है, जो मूर्त और अमूर्त विश्व को मिलाकर पूर्णता पाता है। अन्यत्र वे लिखती हैं कि- "छायावाद प्रकृति के बीच जीवन का उद्-गीथ है"।
डॉ. रामकुमार वर्मा ने 'छायावाद' और 'रहस्यवाद' में कोई अंतर नहीं माना है। 'छायावाद' के विषय में उनके शब्द हैं- "आत्मा और परमात्मा का गुप्त वाग्विलास रहस्यवाद है और वही छायावाद है। एक अन्य स्थल पर वे लिखते हैं- "छायावाद या रहस्यवाद जीवात्मा की उस अंतर्निहित प्रवृत्ति का प्रकाशन है, जिसमें वह दिव्य और अलौकिक सत्ता से अपना शांत और निश्चल संबंध जोड़ना चाहती है और यह संबंध इतना बढ़ जाता है कि दोनों में कुछ अंतर ही नहीं रह जाता है। परमात्मा की छाया आत्मा पर पड़ने लगती है और आत्मा की छाया परमात्मा पर। यही छायावाद है।"
आचार्य नंददुलारे वाजपेयी का मंतव्य है- "मानव अथवा प्रकृति के सूक्ष्म किंतु व्यक्त सौंदर्य में आध्यात्मिक छाया का भान मेरे विचार से 'छायावाद' की एक सर्वमान्य व्याख्या हो सकती है। 'छायावाद' की व्यक्तिगत विशेषता दो रूपों में दीख पड़ती है- एक सूक्ष्म और काल्पनिक अनुभूति के प्रकाश में और दूसरी लाक्षणिक और प्रतीकात्मक शब्दों के प्रयोग में। और इस आधार पर तो यह कहा ही जा सकता है कि 'छायावाद' आधुनिक हिन्दी-कविता की वह शैली है, जिसमें सूक्ष्म और काल्पनिक सहानुभूति को लाक्षणिक एवं प्रतीकात्मक ढ़ंग पर प्रकाशित करते हैं।"
शांतिप्रिय द्विवेदी ने 'छायावाद' और 'रहस्यवाद' में गहरा संबंध स्थापित करते हुए कहा है- "जिस प्रकार 'मैटर ऑफ़ फैक्ट' (इतिवृत्तात्मक) के आगे की चीज छायावाद है, उसी प्रकार छायावाद के आगे की चीज रहस्यवाद है।"
गंगाप्रसाद पांडेय ने 'छायावाद' पर इस प्रकार से प्रकाश डाला है- "छायावाद नाम से ही उसकी छायात्मकता स्पष्ट है। विश्व की किसी वस्तु में एक अज्ञात सप्राण छाया की झांकी पाना अथवा उसका आरोप करना ही 'छायावाद' है। जिस प्रकार छाया स्थूल वस्तुवाद के आगे की चीज है, उसी प्रकार रहस्यवाद 'छायावाद' के आगे की चीज है।"
जयशंकर प्रसाद ने 'छायावाद' को अपने ढ़ग से परिभाषित करते हुए कहा है- "कविता के क्षेत्र में पौराणिक युग की किसी घटना अथवा देश-विदेश की सुंदरी के बाह्य वर्णन से भिन्न जब वेदना के आधार पर स्वानुभूतिमयी अभिव्यक्ति होने लगी, तब हिन्दी में उसे 'छायावाद' के नाम से अभिहित किया गया।"
डॉ. देवराज छायावाद को आधुनिक पौराणिक धार्मिक चेतना के विरुद्ध आधुनिक लौकिक चेतना का विद्रोह स्वीकार करते हैं।
डॉ. नगेन्द्र 'छायावाद' को स्थूल के प्रति सूक्ष्म का विद्रोह मानते हैं और साथ ही यह भी स्वीकार करते हैं कि- "छायावाद एक विशेष प्रकार की भाव-पद्धति है। जीवन के प्रति एक विशेष प्रकार का भावात्मक दृष्टिकोण है। उन्होंने इसकी मूल प्रवृत्ति के विषय में लिखा है कि वास्तव पर अंतर्मुखी दृष्टि डालते हुए, उसको वायवी अथवा अतीन्द्रीय रूप देने की प्रवृत्ति ही मूल वृत्ति है। उनके विचार से, युग की उदबुद्ध चेतना ने बाह्य अभिव्यक्ति से निराश होकर जो आत्मबद्ध अंतर्मुखी साधना आरंभ की वह काव्य में 'छायावाद' के रूप में अभिव्यक्त हुई। वे 'छायावाद' को अतृप्त वासना और मानसिक कुंठाओं का परिणाम स्वीकार करते हैं।
डॉ. नामवर सिंह ने अपनी पुस्तक "छायावाद" में विश्वसनीय तौर पर दिखाया कि 'छायावाद' वस्तुत: कई काव्य प्रवृत्तियों का सामूहिक नाम है और वह उस "राष्ट्रीय जागरण की काव्यात्मक अभिव्यक्ति" है, जो एक ओर पुरानी रुढ़ियों से मुक्ति पाना चाहता था और दूसरी ओर विदेशी पराधीनता से।
'छायावाद' स्वच्छंदतावाद (रोमांटिसिज्म) के काफ़ी समीप है। 'छायावाद' और 'रहस्यवाद' एक हैं।
आचार्य रामचंद्र शुक्ल संवत् १९१७ के आसपास मैथिलीशरण गुप्त, मुकुटधर पांडेय आदि कवि खड़ीबोली काव्य को अधिक कल्पनामय, चित्रमय और अंतर्भाव व्यंजक रूप-रंग देने में प्रवृत्त हुए यह स्वच्छन्द और नूतन पद्धति अपना रास्ता निकाल रही थी कि रवीन्द्रनाथ की रहस्यात्मक कविताओं की धूम हुई। और कई कवि एक साथ रहस्यवाद और प्रतीकवाद अथवा चित्रभाषावाद को ही एकांत धैर्य बनकर चल पड़े। चित्रभाषा या अभिव्यंजन पद्धति पर ही जब लक्ष्य टिक गया तब उसके प्रदर्शन के लिए लौकिक या अलौकिक प्रेम का क्षेत्र ही बाकी समझा गया। इस बँधे हुए क्षेत्र के भीतर चलनेवाले काव्य ने छायावाद नाम ग्रहण किया। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी द्वितीय महायुद्ध के समाप्त होते सारे देश में नई चेतना की लहर दौड़ गई। सन् १९२९ में महात्मा गांधी के नेतृत्व में भारतवर्ष विदेशी गुलामी को झाड़-फेंकने के लिए कटिबद्ध हो गया। इसे सिर्फ राजनीति तक ही सीमित नहीं समझना चाहिये। यह संपूर्ण देश का आत्म स्वरूप समझने का प्रयत्न था और अपनी गलतियों को सुधार कर संसार की समृद्ध जातियों की प्रति- द्वंद्विता में अग्रसर होने का संकल्प था। संक्षेप में, यह एक महान सांस्कृतिक आंदोलन था। चित्तगत उन्मुखता इस कविता का प्रधान उद्गम थी और बदलते हुए मानो के प्रति दृढ आस्था इसका प्रधान सम्बल। इस श्रेणी के कवि ग्राहिकाशक्ति से बहुत अधिक संपन्न थे और सामाजिक विषमता और असामंजस्यों के प्रति अत्यधिक सजग थे। शैली की दृष्टि से भी ये पहले के कवियों से एकदम भिन्न थे। इनकी रचना मुख्यतः विषयि प्रधान थी। सन् 1920 की खड़ीबोली कविता में विषयवस्तु की प्रधानता बनी हुई थी। परंतु इसके बाद की कविता में कवि के अपने राग-विराग की प्रधानता हो गई। विषय अपने आप में कैसा है ? यह मुख्य बात नहीं थी। बल्कि मुख्य बात यह रह गई थी कि विषयी (कवि) के चित्त के राग-विराग से अनुरंजित होने के बाद विषय कैसा दीखता है ? परिणाम विषय इसमें गौण हो गया और कवि प्रमुख’ नंददुलारे वाजपेयी ̕प्रकृति के सूक्ष्म किन्तु व्यक्त सौंदर्य में आध्यात्मिक छाया का भान मेरे विचार से छायावाद की एक सर्वमान्य व्याख्या होनी चाहिए।’
इसे व्यक्त सौंदर्य में आध्यात्मिक छाया का भान कहा है। डॉ॰ नगेन्द्र
1920 के आसपास, युग की उद्बुद्ध चेतना ने बाह्य अभिव्यक्ति से निराश होकर, जो आत्मबद्ध अंतर्मुखी साधना आरंभ की, वह काव्य में छायावाद के रूप में अभिव्यक्त हुई’
स्थूल के विरूद्ध सूक्ष्म का विद्रोह। डॉ॰ नामवर सिंह ‘छायावाद शब्द का अर्थ चाहे जो हो, परंतु व्यावहारिक दृष्टि से यह प्रसाद, निराला, पंत, महादेवी की उन समस्त कविताओं का द्योतक है, जो १९१८ से ३६ ई. के बीच लिखी गईं।’ वे आगे लिखते हैं- ‘छायावाद उस राष्ट्रीय जागरण की काव्यात्मक अभिव्यक्ति है जो एक ओर पुरानी रूढि़यों से मुक्ति चाहता था और दूसरी ओर विदेशी पराधीनता से।’ जयशंकर प्रसाद ‘काव्य के क्षेत्र में पौराणिक युग की किसी घटना अथवा देश-विदेश की सुंदरी के बाह्य वर्णन से भिन्न जब वेदना के आधार पर स्वानुभूतिमयी अभिव्यक्ति होने लगी तब हिंदी में उसे छायावाद नाम से अभिहित किया गया।’ प्रसाद जी अंत में कहते हैं- छायावादी कविता भारतीय दृष्टि से अनुभूति और अभिव्यक्ति की भंगिमा पर अधिक निर्भर करती है। ध्वन्यात्मकता, लाक्षणिकता, सौंदर्य, प्रकृति-विधान तथा उपचार वक्रता के साथ स्वानुभूति की विवृत्ति छायावाद की विशेषताएँ हैं।’ सुमित्रानंदन पंत छायावाद को पाश्चात्य साहित्य के रोमांटिसिज्म से प्रभावित मानते हैं। महादेवी वर्मा वे छायावाद का मूल दर्शन सर्वात्मवाद को मानती हैं और प्रकृति को उसका साधन। उनके छायावाद ने मनुष्य के ह्रृदय और प्रकृति के उस संबंध में प्राण डाल दिए जो प्राचीन काल से बिम्ब-प्रतिबिम्ब के रूप में चला आ रहा था और जिसके कारण मनुष्य को प्रकृति अपने दुख में उदास और सुख में पुलकित जान पड़ती थी’इस प्रकार महादेवी के अनुसार छायावाद की कविता हमारा प्रकृति के साथ रागात्मक संबंध स्थापित कराके हमारे ह्रृदय में व्यापक भावानुभूति उत्पन्न करती है और हम समस्त विश्व के उपकरणों से एकात्म भाव संबंध जोड़ लेते हैं। वे रहस्यवाद को छायावाद का दूसरा सोपान मानती हैं।
1. 'छायावाद' एक शैली विशेष है।
2. प्रकृति में छायावाद मानव जीवन का प्रतिबिम्ब देखता है अर्थात् प्रकृति का मानवीकरण करता है।
3. यह एक दार्शनिक अनुभूति है।
4. छायावाद एक भावात्मक दृष्टिकोण है।
5. प्रकृति में छायावाद आध्यात्मिक सौन्दर्य का दर्शन करता है।
6. गति तत्त्व की छायावाद में प्रमुखता है।
7. छायावाद में प्रकृति का चित्रण होता है।
8. छायावाद स्थूल के प्रति सूक्ष्म का विद्रोह है।
'छायावाद' की कालावधि सन 1917 (1920) से 1936 तक मानी गई है। वस्तुत: इस कालावधि में 'छायावाद' इतनी प्रमुख प्रवृत्ति रही है कि सभी कवि इससे प्रभावित हुए और इसके नाम पर ही इस युग को 'छायावादी युग' कहा जाने लगा था।
हिन्दी की कुछ पत्रिकाओं- 'श्रीशारदा' और 'सरस्वती' में क्रमश: सन 1920 और 1921 में मुकुटधर पांडेय और सुशील द्वारा दो लेख 'हिन्दी में छायावाद' शीर्षक से प्रकाशित हुए थे।
'छायावाद' शब्द का सबसे पहले प्रयोग मुकुटधर पाण्डेय ने किया।
यह भी ध्यान रहे कि पांडेय जी ने इसका प्रयोग व्यंग्यात्मक रूप में छायावादी काव्य की अस्पष्टता (छाया) के लिये किया था। किंतु आगे चलकर वही नाम स्वीकृत हो गया।
मुकुटधर पांडेय की सूक्ष्म दृष्टि ने ‘छायावाद’ की मूल भावना ‘आत्मनिष्ठ अंतर्दृष्टि’ को पहचान लिया था। जब उन्होंने कहा कि "चित्र दृश्य वस्तु की आत्मा का ही उतारा जाता है," तो छायावाद की मौलिक विशेषता की ओर संकेत किया।
छायावादी कवियों की कल्पनाप्रियता पर प्रकाश डालते हुए मुकुटधर जी कहते हैं- "उनकी कविता देवी की आँखें सदैव ऊपर की ही ओर उठी रहती हैं; मर्त्यलोक से उसका बहुत कम संबंध रहता है; वह बुद्धि और ज्ञान की सामर्थ्य-सीमा को अतिक्रम करके मन-प्राण के अतीत लोक में ही विचरण करती रहती है।"
जयशंकर प्रसाद, सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला',सुमित्रानंदन पंत और महादेवी वर्मा इस युग के चार प्रमुख स्तंभ थे।
'द्विवेदी युग' में हिन्दी कविता कोरी उपदेश मात्र बन गई थी। उसमें समाज सुधार की चर्चा व्यापक रूप से की जाती थी और कुछ आख्यानों का वर्णन किया जाता था।
प्रकृति के माध्यम से जब मानव-भावनाओं का चित्रण होने लगा, तभी 'छायावाद' का जन्म हुआ और कविता 'इतिवृत्तात्मकता' को छोड़कर कल्पना लोक में विचरण करने लगी।
हिन्दी कविता के क्षेत्र में प्रथम महायुद्ध (1914-1918 ई.) के आसपास एक विशेष काव्य धारा का प्रवर्तन हुआ, जिसे 'छायावाद' की संज्ञा दी गई है।
जहाँ तक 'छाया' और 'वाद' का सम्बन्ध है, छायावाद काव्य के स्वरूप या उसके लक्षणों से इनका कोई मेल नहीं है।
आचार्य रामचंद्र शुक्ल का विश्वास था कि बंगला में आध्यात्मिक प्रतीकवादी रचनाओं को 'छायावाद' कहा जाता था। अत: हिन्दी में भी इस प्रकार की कविताओं का नाम 'छायावाद' चल पड़ा,
किंतु हजारीप्रसाद द्विवेदी ने इस मान्यता का खंडन करते हुए कहा है कि- "बंगला में छायावाद नाम कभी चला ही नहीं"।
अज्ञेय के अनुसार 'छायावाद' भारतीय रोमांटिकवाद था। उदार, सुन्दर प्रकृति के प्रति आश्चर्य इसमें था, पर भाग्यवादी पात्र इसमें नहीं थे। रोमांटिकवाद का सबल ईश्वरवादी सारतत्व इसमें अन्तर्निहित था। प्रारम्भिक रोमांटिकवाद और भारतीय दर्शन के संश्लेषण का मिश्रण था 'छायावाद'।
छायावादी कवियों ने इस विशेषण को बड़े प्रेम से स्वीकार किया है। एक ओर जयशंकर प्रसाद लिखते हैं- "मोती के भीतर छाया और तरलता होती है, वैसे ही कांति की तरलता अंग में लावण्य कही जाती है। छाया भारतीय दृष्टि से अनुभूति की भंगिमा पर निर्भर करती है। ध्वन्यात्मकता, लाक्षणिकता, सौन्दर्यमय प्रतीक विधान तथा उपचार वक्रता के साथ अनुभूति की विवृत्ति छायावाद की विशेषताएं हैं। अपने भीतर से पानी की तरह आन्तर स्पर्श करके भाव समर्पण करने वाली अभिव्यक्ति छाया कांतिमय होती है।"
दूसरी ओर महादेवी वर्मा भी प्रसाद के स्वर में स्वर मिलाती हुई कहती हैं- "सृष्टि के बाह्याकार पर इतना लिखा जा चुका था कि मनुष्य का हृदय अभिव्यक्ति के लिए रो उठा। स्वछंद छंद में चित्रित उन मानव अनुभूतियों का नाम छाया उपयुक्त ही था और मुझे तो आज भी उपयुक्त लगता है।"
1917 से महात्मा गांधी का प्रभाव भारतीय राजनीति में बढ़ने लगा था।
'चौरीचौरा कांड' के हिंसक प्रभाव को ध्यान में रखकर गांधी जी ने असहयोग आंदोलन को 1922 में स्थगित कर दिया। इससे भारत के कुछ बुद्धिजीवियों में गहरी निराशा और उदासी छा गई थी।
1920 के आसपास सूर्यकांत त्रिपाठी निराला ने लिखा- "मनुष्यों की मुक्ति की तरह कविता की भी मुक्ति होती है। मनुष्यों की मुक्ति कर्मों के बन्धन से छुटकारा पाना है और कविता की मुक्ति छंदों के शासन से अलग हो जाना है।"
भारतीय राजनीति में 'गांधी युग' और हिन्दी साहित्य में 'छायावादी युग' एक ही काल की उपज है।
'छायावाद' का केवल पहला अर्थात मूल अर्थ लेकर तो हिन्दी काव्य क्षेत्र में चलने वाली महादेवी वर्मा ही हैं।
जयशंकर प्रसाद, सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला', सुमित्रानंदन पंत और महादेवी वर्मा इस युग के चार प्रमुख स्तंभ हैं।
रामकुमार वर्मा, माखनलाल चतुर्वेदी, हरिवंशराय बच्चन और रामधारी सिंह दिनकर को भी 'छायावाद' ने प्रभावित किया। किंतु रामकुमार वर्मा आगे चलकर नाटककार के रूप में प्रसिद्ध हुए, माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रवादी धारा की ओर रहे, बच्चन ने प्रेम के राग को मुखर किया और दिनकर जी ने विद्रोह की आग को आवाज़ दी।
जयशंकर प्रसाद, सुमित्रानन्दन पन्त और सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' इत्यादि और सब कवि प्रतीक पद्धति या चित्रभाषा शैली की दृष्टि से ही छायावादी कहलाए। छायावादी युग के प्रमुख कवि थे।
आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने 'छायावाद' को स्पष्ट करते हुए लिखा है कि- "छायावाद शब्द का प्रयोग दो अर्थों में समझना चाहिए। एक तो 'रहस्यवाद' के अर्थ में, जहाँ उसका संबंध काव्य-वस्तु से होता है अर्थात् जहाँ कवि उस अनंत और अज्ञात प्रियतम को को आलम्बन बनाकर अत्यंत चित्रमयी भाषा में प्रेम की अनेक प्रकार से व्यंजना करता है। 'छायावाद' शब्द का दूसरा प्रयोग काव्य शैली या पद्धति-विशेष के व्यापक अर्थ में है।... 'छायावाद' एक शैली विशेष है, जो लाक्षणिक प्रयोगों, अप्रस्तुत विधानों और अमूर्त उपमानों को लेकर चलती है।" दूसरे अर्थ में उन्होंने 'छायावाद' को चित्र-भाषा-शैली कहा है।
महादेवी वर्मा ने 'छायावाद' का मूल सर्वात्मवाद दर्शन में माना है। उन्होंने लिखा है कि- "छायावाद का कवि धर्म के अध्यात्म से अधिक दर्शन के ब्रह्म का ऋणी है, जो मूर्त और अमूर्त विश्व को मिलाकर पूर्णता पाता है। अन्यत्र वे लिखती हैं कि- "छायावाद प्रकृति के बीच जीवन का उद्-गीथ है"।
डॉ. रामकुमार वर्मा ने 'छायावाद' और 'रहस्यवाद' में कोई अंतर नहीं माना है। 'छायावाद' के विषय में उनके शब्द हैं- "आत्मा और परमात्मा का गुप्त वाग्विलास रहस्यवाद है और वही छायावाद है। एक अन्य स्थल पर वे लिखते हैं- "छायावाद या रहस्यवाद जीवात्मा की उस अंतर्निहित प्रवृत्ति का प्रकाशन है, जिसमें वह दिव्य और अलौकिक सत्ता से अपना शांत और निश्चल संबंध जोड़ना चाहती है और यह संबंध इतना बढ़ जाता है कि दोनों में कुछ अंतर ही नहीं रह जाता है। परमात्मा की छाया आत्मा पर पड़ने लगती है और आत्मा की छाया परमात्मा पर। यही छायावाद है।"
आचार्य नंददुलारे वाजपेयी का मंतव्य है- "मानव अथवा प्रकृति के सूक्ष्म किंतु व्यक्त सौंदर्य में आध्यात्मिक छाया का भान मेरे विचार से 'छायावाद' की एक सर्वमान्य व्याख्या हो सकती है। 'छायावाद' की व्यक्तिगत विशेषता दो रूपों में दीख पड़ती है- एक सूक्ष्म और काल्पनिक अनुभूति के प्रकाश में और दूसरी लाक्षणिक और प्रतीकात्मक शब्दों के प्रयोग में। और इस आधार पर तो यह कहा ही जा सकता है कि 'छायावाद' आधुनिक हिन्दी-कविता की वह शैली है, जिसमें सूक्ष्म और काल्पनिक सहानुभूति को लाक्षणिक एवं प्रतीकात्मक ढ़ंग पर प्रकाशित करते हैं।"
शांतिप्रिय द्विवेदी ने 'छायावाद' और 'रहस्यवाद' में गहरा संबंध स्थापित करते हुए कहा है- "जिस प्रकार 'मैटर ऑफ़ फैक्ट' (इतिवृत्तात्मक) के आगे की चीज छायावाद है, उसी प्रकार छायावाद के आगे की चीज रहस्यवाद है।"
गंगाप्रसाद पांडेय ने 'छायावाद' पर इस प्रकार से प्रकाश डाला है- "छायावाद नाम से ही उसकी छायात्मकता स्पष्ट है। विश्व की किसी वस्तु में एक अज्ञात सप्राण छाया की झांकी पाना अथवा उसका आरोप करना ही 'छायावाद' है। जिस प्रकार छाया स्थूल वस्तुवाद के आगे की चीज है, उसी प्रकार रहस्यवाद 'छायावाद' के आगे की चीज है।"
जयशंकर प्रसाद ने 'छायावाद' को अपने ढ़ग से परिभाषित करते हुए कहा है- "कविता के क्षेत्र में पौराणिक युग की किसी घटना अथवा देश-विदेश की सुंदरी के बाह्य वर्णन से भिन्न जब वेदना के आधार पर स्वानुभूतिमयी अभिव्यक्ति होने लगी, तब हिन्दी में उसे 'छायावाद' के नाम से अभिहित किया गया।"
डॉ. देवराज छायावाद को आधुनिक पौराणिक धार्मिक चेतना के विरुद्ध आधुनिक लौकिक चेतना का विद्रोह स्वीकार करते हैं।
डॉ. नगेन्द्र 'छायावाद' को स्थूल के प्रति सूक्ष्म का विद्रोह मानते हैं और साथ ही यह भी स्वीकार करते हैं कि- "छायावाद एक विशेष प्रकार की भाव-पद्धति है। जीवन के प्रति एक विशेष प्रकार का भावात्मक दृष्टिकोण है। उन्होंने इसकी मूल प्रवृत्ति के विषय में लिखा है कि वास्तव पर अंतर्मुखी दृष्टि डालते हुए, उसको वायवी अथवा अतीन्द्रीय रूप देने की प्रवृत्ति ही मूल वृत्ति है। उनके विचार से, युग की उदबुद्ध चेतना ने बाह्य अभिव्यक्ति से निराश होकर जो आत्मबद्ध अंतर्मुखी साधना आरंभ की वह काव्य में 'छायावाद' के रूप में अभिव्यक्त हुई। वे 'छायावाद' को अतृप्त वासना और मानसिक कुंठाओं का परिणाम स्वीकार करते हैं।
डॉ. नामवर सिंह ने अपनी पुस्तक "छायावाद" में विश्वसनीय तौर पर दिखाया कि 'छायावाद' वस्तुत: कई काव्य प्रवृत्तियों का सामूहिक नाम है और वह उस "राष्ट्रीय जागरण की काव्यात्मक अभिव्यक्ति" है, जो एक ओर पुरानी रुढ़ियों से मुक्ति पाना चाहता था और दूसरी ओर विदेशी पराधीनता से।
'छायावाद' स्वच्छंदतावाद (रोमांटिसिज्म) के काफ़ी समीप है। 'छायावाद' और 'रहस्यवाद' एक हैं।
आचार्य रामचंद्र शुक्ल संवत् १९१७ के आसपास मैथिलीशरण गुप्त, मुकुटधर पांडेय आदि कवि खड़ीबोली काव्य को अधिक कल्पनामय, चित्रमय और अंतर्भाव व्यंजक रूप-रंग देने में प्रवृत्त हुए यह स्वच्छन्द और नूतन पद्धति अपना रास्ता निकाल रही थी कि रवीन्द्रनाथ की रहस्यात्मक कविताओं की धूम हुई। और कई कवि एक साथ रहस्यवाद और प्रतीकवाद अथवा चित्रभाषावाद को ही एकांत धैर्य बनकर चल पड़े। चित्रभाषा या अभिव्यंजन पद्धति पर ही जब लक्ष्य टिक गया तब उसके प्रदर्शन के लिए लौकिक या अलौकिक प्रेम का क्षेत्र ही बाकी समझा गया। इस बँधे हुए क्षेत्र के भीतर चलनेवाले काव्य ने छायावाद नाम ग्रहण किया। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी द्वितीय महायुद्ध के समाप्त होते सारे देश में नई चेतना की लहर दौड़ गई। सन् १९२९ में महात्मा गांधी के नेतृत्व में भारतवर्ष विदेशी गुलामी को झाड़-फेंकने के लिए कटिबद्ध हो गया। इसे सिर्फ राजनीति तक ही सीमित नहीं समझना चाहिये। यह संपूर्ण देश का आत्म स्वरूप समझने का प्रयत्न था और अपनी गलतियों को सुधार कर संसार की समृद्ध जातियों की प्रति- द्वंद्विता में अग्रसर होने का संकल्प था। संक्षेप में, यह एक महान सांस्कृतिक आंदोलन था। चित्तगत उन्मुखता इस कविता का प्रधान उद्गम थी और बदलते हुए मानो के प्रति दृढ आस्था इसका प्रधान सम्बल। इस श्रेणी के कवि ग्राहिकाशक्ति से बहुत अधिक संपन्न थे और सामाजिक विषमता और असामंजस्यों के प्रति अत्यधिक सजग थे। शैली की दृष्टि से भी ये पहले के कवियों से एकदम भिन्न थे। इनकी रचना मुख्यतः विषयि प्रधान थी। सन् 1920 की खड़ीबोली कविता में विषयवस्तु की प्रधानता बनी हुई थी। परंतु इसके बाद की कविता में कवि के अपने राग-विराग की प्रधानता हो गई। विषय अपने आप में कैसा है ? यह मुख्य बात नहीं थी। बल्कि मुख्य बात यह रह गई थी कि विषयी (कवि) के चित्त के राग-विराग से अनुरंजित होने के बाद विषय कैसा दीखता है ? परिणाम विषय इसमें गौण हो गया और कवि प्रमुख’ नंददुलारे वाजपेयी ̕प्रकृति के सूक्ष्म किन्तु व्यक्त सौंदर्य में आध्यात्मिक छाया का भान मेरे विचार से छायावाद की एक सर्वमान्य व्याख्या होनी चाहिए।’
इसे व्यक्त सौंदर्य में आध्यात्मिक छाया का भान कहा है। डॉ॰ नगेन्द्र
1920 के आसपास, युग की उद्बुद्ध चेतना ने बाह्य अभिव्यक्ति से निराश होकर, जो आत्मबद्ध अंतर्मुखी साधना आरंभ की, वह काव्य में छायावाद के रूप में अभिव्यक्त हुई’
स्थूल के विरूद्ध सूक्ष्म का विद्रोह। डॉ॰ नामवर सिंह ‘छायावाद शब्द का अर्थ चाहे जो हो, परंतु व्यावहारिक दृष्टि से यह प्रसाद, निराला, पंत, महादेवी की उन समस्त कविताओं का द्योतक है, जो १९१८ से ३६ ई. के बीच लिखी गईं।’ वे आगे लिखते हैं- ‘छायावाद उस राष्ट्रीय जागरण की काव्यात्मक अभिव्यक्ति है जो एक ओर पुरानी रूढि़यों से मुक्ति चाहता था और दूसरी ओर विदेशी पराधीनता से।’ जयशंकर प्रसाद ‘काव्य के क्षेत्र में पौराणिक युग की किसी घटना अथवा देश-विदेश की सुंदरी के बाह्य वर्णन से भिन्न जब वेदना के आधार पर स्वानुभूतिमयी अभिव्यक्ति होने लगी तब हिंदी में उसे छायावाद नाम से अभिहित किया गया।’ प्रसाद जी अंत में कहते हैं- छायावादी कविता भारतीय दृष्टि से अनुभूति और अभिव्यक्ति की भंगिमा पर अधिक निर्भर करती है। ध्वन्यात्मकता, लाक्षणिकता, सौंदर्य, प्रकृति-विधान तथा उपचार वक्रता के साथ स्वानुभूति की विवृत्ति छायावाद की विशेषताएँ हैं।’ सुमित्रानंदन पंत छायावाद को पाश्चात्य साहित्य के रोमांटिसिज्म से प्रभावित मानते हैं। महादेवी वर्मा वे छायावाद का मूल दर्शन सर्वात्मवाद को मानती हैं और प्रकृति को उसका साधन। उनके छायावाद ने मनुष्य के ह्रृदय और प्रकृति के उस संबंध में प्राण डाल दिए जो प्राचीन काल से बिम्ब-प्रतिबिम्ब के रूप में चला आ रहा था और जिसके कारण मनुष्य को प्रकृति अपने दुख में उदास और सुख में पुलकित जान पड़ती थी’इस प्रकार महादेवी के अनुसार छायावाद की कविता हमारा प्रकृति के साथ रागात्मक संबंध स्थापित कराके हमारे ह्रृदय में व्यापक भावानुभूति उत्पन्न करती है और हम समस्त विश्व के उपकरणों से एकात्म भाव संबंध जोड़ लेते हैं। वे रहस्यवाद को छायावाद का दूसरा सोपान मानती हैं।
1. 'छायावाद' एक शैली विशेष है।
2. प्रकृति में छायावाद मानव जीवन का प्रतिबिम्ब देखता है अर्थात् प्रकृति का मानवीकरण करता है।
3. यह एक दार्शनिक अनुभूति है।
4. छायावाद एक भावात्मक दृष्टिकोण है।
5. प्रकृति में छायावाद आध्यात्मिक सौन्दर्य का दर्शन करता है।
6. गति तत्त्व की छायावाद में प्रमुखता है।
7. छायावाद में प्रकृति का चित्रण होता है।
8. छायावाद स्थूल के प्रति सूक्ष्म का विद्रोह है।
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