बुधवार, 27 अप्रैल 2016

प्रगतिवाद

प्रगतिवाद  जिस प्रकार द्विवेदी युग की इतिवृत्तात्मकता,उपदेशात्मकता और स्थूलता के प्रति विद्रोह में छायावाद का जन्म हुआ,उसी प्रकार छायावाद की सूक्ष्मता,कल्पनात्मकता, व्यक्तिवादिता और समाज-विमुखता की प्रतिक्रिया में एक नई साहित्यिक काव्य धारा का जन्म हुआ।  इस धारा ने कविता को कल्पना-लोक से निकाल कर जीवन के वास्तविक धरातल पर खड़ा करने का प्रयत्न किया। जीवन का यथार्थ और वस्तुवादी दृष्टिकोण इस कविता का आधार बना।  मनुष्य की वास्तविक समस्याओं का चित्रण इस काव्य-धारा का विषय बना।  अर्थ की दृष्टि से प्रगतिवाद के दो अर्थ हैं- एक व्यापक और दूसरा सीमित या सांप्रदायिक।  प्रगतिशील (वाद) व्यापक और उदार अर्थ में प्रयुक्त होता है। जिसके अनुसार आदिकाल से लेकर अब तक समस्त साहित्य परम्परा प्रगतिशील है।  सीमित अर्थ में यह साहित्य प्रचारात्मक है जो मार्क्सवाद का साहित्यिक मोर्चा है जिसमें पिछले सम्पूर्ण साहित्य को सामंतवादी और प्रतिक्रियावादी कह कर नकार दिया गया।  छायावाद ने जहां काव्य में ही स्थान बनाया वहां प्रगतिवाद ने साहित्य की अन्य विधाओं यथा उपन्यास, कहानी, आलोचना आदि के क्षेत्र में भी जगह बनाई।  काव्य में अपने रूढ़ अर्थ में प्रगतिवाद 1937 से 1943 तक शिखर पर रहा उसके बाद काव्य ने प्रयोगवाद, नई कविता जैसी नई धाराओं को विकसित किया।  यह धारा साहित्य में 'प्रगतिवाद' के नाम से प्रतिष्ठित हुई।  'प्रगति' का सामान्य अर्थ है- 'आगे बढ़ना' और 'वाद' का अर्थ है-'सिद्धांत'।  इस प्रकार प्रगतिवाद का सामान्य अर्थ है 'आगे बढ़ने का सिद्धांत'।  लेकिन प्रगतिवाद में इस आगे बढ़ने का एक विशेष ढंग है, विशेष दिशा है जो उसे विशिष्ट परिभाषा देता है।  इस अर्थ में 'प्राचीन से नवीन की ओर', 'आदर्श से यथार्थ की ओर','पूंजीवाद से समाजवाद' की ओर,'रूढ़ियों से स्वच्छंद जीवन की ओर','उच्चवर्ग से निम्नवर्ग की ओर' तथा 'शांति से क्रांति की ओर' बढ़ना ही प्रगतिवाद है।  हिंदी साहित्य में प्रगतिवाद विशेष अर्थ में रूढ़ हो चुका है। जिसके अनुसार प्रगतिवाद को मार्क्सवाद का साहित्यिक रूप कहा जाता है।  जो विचारधारा राजनीति में साम्यवाद है, दर्शन में द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद है, वही साहित्य में प्रगतिवाद है। इसी प्रगतिवाद को 'समाजवादी यथार्थवाद' (सोशेलिस्ट रियलिज्म) भी कहते हैं।  उन दिनों यूरोप में मार्क्सवाद का प्रभाव निरंतर बढ़ रहा था। 1919 में रूस में क्रांति हुई। जारशाही का अंत हुआ और मार्क्सवाद से प्रेरित बोल्शेविक पार्टी की सत्ता स्थापित हुई और साम्यवादी विचारधारा ने जोर पकड़ा। जिसने साहित्य में भी एक नवीन दृष्टिकोण को जन्म दिया। लोगों को यह समानतावादी/समतावादी विचार खूब जंच रहा था।  सन् 1930 में भारतीय कम्यूनिस्ट पार्टी का जन्म हुआ और 1934 में कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी का।  धीरे-धीरे राजनीति में वामपंथी शक्तियों का जोर बढ़ा।  कांग्रेस में गांधी के अहिंसात्मक सिद्धांत को न मानने वाले लोगों की संख्या बढ़ रही थी। मजदूरों के आंदोलन हो रहे थे।  इस प्रकार तत्कालीन परिस्थितियां वैचारिक उग्रता और समाजोन्मुखता को बढ़ावा दे रही थी। साहित्यकार समाज की ज्वलंत समस्याओं से जूझ रहे थे।  सन् 1935 में ई.एम.फार्स्टर के सभापतित्व में 'प्रोग्रेसिव राइटर्स एसोशियन' नामक अंतरराष्ट्रीय संस्था का पहला अधिवेशन पेरिस में हुआ।  सन् 1936 में डॉ.मुल्कराज आनंद और सज्जाद जहीर के प्रयत्नों से इस संस्था की एक शाखा भारत में खुली और प्रेमचंद की अध्यक्षता में लखनऊ में उसका प्रथम अधिवेशन हुआ।  तभी से 'प्रोग्रेसिव लिटरेचर' के लिए हिंदी में 'प्रगतिशील साहित्य' का प्रचलन शुरु हुआ।  कालांतर में यही प्रगतिवाद हो गया।  1938 में हुए भारतीय प्रगतिशील लेखक संघ के अध्यक्ष रवीन्द्रनाथ ठाकुर बने।  प्रेमचंद, रवीन्द्रनाथ ठाकुर, जोश इलाहाबादी जैसे अग्रणी लेखकों और कवियों ने इस आंदोलन का स्वागत किया। पंत, निराला. दिनकर, नवीन ने इसमें सक्रिय योगदान दिया।  प्रगतिवादी कवियों में नरेन्द्र शर्मा (जिसने पंत के साथ रूपाभ का संपादन किया) शिवमंगल सिंह सुमन, केदारनाथ अग्रवाल, नागार्जुन, रांगेय राघव, अंचल, त्रिलोचन और तरूण कवियों में गिराजा कुमार माथुर, नेमिचन्द्र जैन, भारत भूषण अग्रवाल, गजानन माधव मुक्तिबोध, डॉ. रामविलास शर्मा।  पंत ने रूपाभ के संपादकीय में लिखा है- इस युग की वास्तविकात ने जैसे उग्र रूप धारण कर लिया है इससे प्राचीन विश्वासों से प्रतिष्ठित हमारे भाव और कल्पना के मूल हिल गये हैं।

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