भारतेन्दु हरिश्चन्द्र (९ सितंबर १८५०-७ जनवरी १८८५)
आधुनिक हिंदी साहित्य के पितामह कहे जाते हैं। वे हिन्दी में आधुनिकता के पहले रचनाकार थे।
इनका मूल नाम 'हरिश्चन्द्र' था, 'भारतेन्दु' उनकी उपाधि थी।
हिंदी में नाटकों का प्रारंभ भारतेन्दु हरिश्चंद्र से माना जाता है।
भारतेन्दु के नाटक लिखने की शुरुआत बंगला के विद्यासुंदर (१८६७) नाटक के अनुवाद से होती है।
यद्यपि नाटक उनके पहले भी लिखे जाते रहे किंतु नियमित रूप से खड़ीबोली में अनेक नाटक लिखकर भारतेन्दु ने ही हिंदी नाटक की नींव को सुदृढ़ बनाया
उन्होंने 'हरिश्चंद्र पत्रिका', 'कविवचन सुधा' और 'बाल विबोधिनी' पत्रिकाओं का संपादन भी किया।
भारतेन्दु के पूर्वज अंग्रेज भक्त थे, उनकी ही कृपा से धनवान हुए।
पिता गोपीचन्द्र उपनामगिरिधर दास की मृत्यु इनकी दस वर्ष की उम्र में हो गई। माता की पाँच वर्ष की आयु में हुई। इस तरह माता-पिता के सुख से भारतेन्दु वंचित हो गए। विमाता ने खूब सताया।
बनारस में उन दिनों अंग्रेजी पढ़े-लिखे और प्रसिद्ध लेखक - राजा शिवप्रसाद सितारे हिन्द थे, भारतेन्दु शिष्य भाव से उनके यहाँ जाते।
उन्हीं से अंग्रेजी शिक्षा सीखी। भारतेन्दु ने स्वाध्याय से संस्कृत, मराठी, बंगला, गुजराती, पंजाबी, उर्दूभाषाएँ सीख लीं।
उनको काव्य-प्रतिभा अपने पिता से विरासत के रूप में मिली थी। उन्होंने पांच वर्ष की अवस्था में ही निम्नलिखित दोहा बनाकर अपने पिता को सुनाया और सुकवि होने का आशीर्वाद प्राप्त किया- लै ब्योढ़ा ठाढ़े भए श्री अनिरुद्ध सुजान। वाणासुर की सेन को हनन लगे भगवान॥
आचार्य रामचंद्र शुक्ल के अनुसार "भारतेन्दु ने अपनी सर्वतोमुखी प्रतिभा के बल से एक ओर तो वे पद्माकर, द्विजदेव की परंपरा में दिखाई पड़ते थे, तो दूसरी ओर बंग देश "
पंद्रह वर्ष की अवस्था से ही भारतेंदु ने साहित्य सेवा प्रारंभ कर दी थी।
अठारह वर्ष की अवस्था में उन्होंने कविवचनसुधा नामक पत्रिका निकाली जिसमें उस समय के बड़े-बड़े विद्वानों की रचनाएं छपती थीं।
वे बीस वर्ष की अवस्था मे ऑनरेरी मैजिस्ट्रेट बनाए गए और आधुनिक हिन्दी साहित्य के जनक के रूप मे प्रतिष्ठित हुए। उ न्होंने १८६८ में 'कविवचनसुधा', १८७3 'हरिश्चन्द्र मैगजीन' और 1874 में स्त्री शिक्षा के लिए 'बाल बोधिनी' नामक पत्रिकाएँ निकालीं। वैष्णव भक्ति के प्रचार के लिए उन्होने 'तदीय समाज` की स्थापना की थी।
उनकी लोकप्रियता से प्रभावित होकर काशी के विद्वानों ने १८८० मे उन्हें 'भारतेंदु` की उपाधि प्रदान की।
भारतेंदु जी कृष्ण के भक्त थे और पुष्टि मार्ग के मानने वाले थे। उनको कविता में सच्ची भक्ति भावना के दर्शन होते हैं। वे कामना करते हैं - बोल्यों करै नूपुर स्त्रीननि के निकट सदा पद तल मांहि मन मेरी बिहरयौ करै। मौलिक नाटक
• वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति (1873, प्रहसन)
• सत्य हरिश्चन्द्र (1875) यह भारतेन्दु जी की सर्वोत्कृष्ट रचना कही जाती है। देभीश्वर का चण्ड कौशिक तथा रामचन्द्र का सत्य हरिश्चन्द्र और इस सत्य हरिश्चन्द्र तीनों का ही मूल आधार एक ही पौराणिक कथा है। पर सभी रचनाएँ एक दूसरे से स्वतंत्र है।
• प्रेमजोगनी (1875, प्रथम अंक में केवल चार अंक या गर्भांक, नाटिका)
• श्री चंद्रावली (1876, नाटिका)
• विषस्य विषमौषधम् (1876, भाण)
• भारत दुर्दशा (1880, ब्रजरत्नदास के अनुसार 1876, नाट्य रासक), यह भारत के प्राचीन गौरव और वर्तमान के दैन्य तथा दुरावस्था चित्रण है। नाटक में प्रयुक्त भारत, निर्लज्जता, आशा, सत्यानाश, रोग, आलस्य, अन्धकार आदि को पात्रों के माध्यम से दिखाया गया है।
• नीलदेवी (1881, प्रहसन)। यह एक ऐतिहासिक नाटक है इसमें क्षत्रिय राजा सूर्यदेव को धोखे से कैद कर मार डाला गया। नीलदेवी अपने पति के वध का बदला मुगल सरदार अब्दुल शरीफ को मारकर लेती है।
• अंधेर नगरी (1881) यह छः अंकों का प्रहसन रूपक है, इसमें किसी राज्य के अव्यवस्थित शासन प्रबन्ध का व्यंग्य चित्र है। इसमें महन्त अपने दो शिष्य नारायणदास और गोवर्धनदास है। गोवर्धनदास गुरू की इच्छा के विरूद्ध अंधेर नगरी में रह जाता है।
• सती प्रताप (1883, केवल चार अंक, गीतिरूपक)
अनूदित नाट्य रचनाएँ
• विद्यासुन्दर (1868, ‘संस्कृत चौरपंचासिका’ का बँगला संस्करण)
• पाखण्ड विडम्वना (कृष्ण मिश्रिकृत ‘प्रबोधचंद्रोदय’ का तृतीय अंक)
• धनंजय विजय (1873, कांचन कवि कृत संस्कृत नाटक के तीसरे अंक का अनुवाद)
• कर्पूर मंजरी (1875, सट्टक, कांचन कवि कृत संस्कृत नाटक का अनुवाद) • भारत जननी (1877, नाट्यगीत) • मुद्रा राक्षस (1878, विशाखदत्त के संस्कृत नाटक का अनुवाद) • दुर्लभ बंधु (1880, शेक्सपियर के ‘मर्चेंट आप वेनिस’ का अनुवाद) • भारतेन्दु ने काशी में नाटक मंडली स्थापना की और स्वयं भी उसमें अभिनय किया करते थे। निबंध संग्रह • भारतेन्दु ग्रन्थावली (तीसरा खंड) में संकलित है। "नाटक शीर्षक प्रसिद्ध निबंध (१८८५) ग्रंथावली के दूसरे खंड के परिशिष्ट में नाटकों के साथ दिया गया काव्यकृतियां • भक्तसर्वस्व, • प्रेममालिका (१८७१), • प्रेम माधुरी (१८७५), • प्रेम-तरंग (१८७७), • उत्तरार्द्ध भक्तमाल (१८७६-७७), • प्रेम-प्रलाप (१८७७), • होली (१८७९), • मधुमुकुल (१८८१), • राग-संग्रह (१८८०), • वर्षा-विनोद (१८८०), • विनय प्रेम पचासा (१८८१), • फूलों का गुच्छा (१८८२), • प्रेम फुलवारी (१८८३) • कृष्णचरित्र (१८८३) • दानलीला • तन्मय लीला • नये ज़माने की मुकरी • सुमनांजलि • बन्दर सभा (हास्य व्यंग) बकरी विलाप (हास्य व्यंग)
पंडित बालकृष्ण भट्ट (3 जून 1844- २० जुलाई 1914) हिन्दी के सफल पत्रकार, नाटककार और निबंधकार थे। उन्हें आज की गद्य प्रधान कविता का जनक माना जा सकता है।
पं॰ बालकृष्ण भट्ट ने हिंदी गद्य साहित्य में वही काम किया जो अंग्रेजी गद्य साहित्य में एडीसन और स्टील ने किया पंडित बाल कृष्ण भट्ट के पिता का नाम पं॰ वेणी प्रसाद था। संस्कृत के अतिरिक्त उन्हें हिंदी, अंग्रेज़ी, उर्दू, फारसी भाषाओं का भी अच्छा ज्ञान था। भारतेंदु जी से प्रभावित होकर उन्होंने हिंदी-साहित्य सेवा का व्रत ले लिया। भट्ट जी ने हिन्दी प्रदीप नामक मासिक पत्र निकाला। इस पत्र के वे स्वयं संपादक थे। उन्होंने इस इस पत्र के द्वारा निरंतर ३२ वर्ष तक हिंदी की सेवा की। काशी नागरी प्रचारिणी सभा द्वारा आयोजित हिंदी शब्दसागर के संपादन में भी उन्होंने बाबू श्याम सुंदर दास तथा शुक्ल जी के साथ कार्य किया। संवत् 1933 में प्रयाग में हिन्दी वर्द्धिनी नामक सभा की स्थापना की। उसकी ओर से एक हिन्दी मासिक पत्र का प्रकाशन भी किया, जिसका नाम था "हिन्दी प्रदीप"। अत्यन्त व्यस्त समय होते हुए भी उन्होंने "सौ अजान एक सुजान", "रेल का विकट खेल", "नूतन ब्रह्मचारी", "बाल विवाह" तथा "भाग्य की परख" आदि छोटी-मोटी दस-बारह पुस्तकें लिखीं। वैसे आपने निबंधों के अतिरिक्त कुछ नाटक, कहानियाँ और उपन्यास भी लिखे हैं। • निबंध संग्रह साहित्य सुमन और भट्ट निबंधावली।
• उपन्यास नूतन ब्रह्मचारी तथा सौ अजान एक सुजान।
• नूतन ब्रह्मचारी शीर्षक लघु उपन्यास में इन्होंने दो विरोधी प्रकार के चरित्रों का आमना-सामना किया है। विनायक उपन्यास का केंद्रीय चरित्र है। विनायक का सामना डाकुओं के सरदार से होता है जो घर को सुनसान समझकर लूटने आया है। विनायक इस सरदार का स्वागत करता है क्योंकि पिताजी समझाकर गए थे कि उनकी अनुपस्थिति में घर पर कोई आमंत्रित बंधु-जन आए तो वह उनका सत्कार करे। इससे सरदार का हृदय परिवर्तन होता है। सात्विकता की विजय ही उपन्यास का मूल मंत्र है।
• नूतन ब्रह्मचारी का आरंभिक प्रकाशन हिंदी प्रदीप के अंकों में क्रमशः हुआ था। • मौलिक नाटक दमयंती, स्वयंवर, बाल-विवाह, चंद्रसेन, रेल का विकट खेल, आदि। • अनुवाद भट्ट जी ने बंगला तथा संस्कृत के नाटकों के अनुवाद भी किए जिनमें वेणीसंहार, मृच्छकटिक, पद्मावती आदि प्रमुख हैं। कहावतों और मुहावरों का प्रयोग भी उन्होंने सुंदर ढंग से किया है। भट्ट जी ने जहाँ आँख, कान, नाक, बातचीत जैसे साधारण विषयों पर लेख लिखे हैं, वहाँ आत्मनिर्भरता, चारु चरित्र जैसे गंभीर विषयों पर भी लेखनी चलाई है। साहित्यिक और सामाजिक विषय भी भट्ट जी से अछूते नहीं बचे। 'चंद्रोदय' उनके साहित्यिक निबंधों में से है। समाज की कुरीतियों को दूर करने के लिए उन्होंने सामाजिक निबंधों की रचना की। भट्ट जी के निबंधों में सुरुचि-संपन्नता, कल्पना, बहुवर्णन शीलता के साथ-साथ हास्य व्यंग्य के भी दर्शन होते हैं। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने भट्ट की तुलना एडीसन से की है। हिन्दी प्रदीप के पृष्ठों में ही व्यावहारिक समीक्षा का जन्म होता है। भट्ट ने 1886 में प्रदीप में लाला श्रीनिवासदास के नाटक संयोगिता स्वयंबर की सच्ची समालोचना प्रकाशित की।
लाला श्रीनिवास दास
लाला श्रीनिवास दास भारतेंदु युग के प्रसिद्ध नाटकार थे। नाटक लेखन में वे भारतेंदु के समकक्ष माने जाते हैं। वे मथुरा के निवासी थे और हिंदी, उर्दू, संस्कृत, फारसी और अंग्रेजी के अच्छे ज्ञाता थे। उनके नाटकों में शामिल हैं, प्रह्लाद चरित्र, तप्ता संवरण, रणधीर-प्रेम मोहिनी, और संयोगिता स्वयंवर। हिंदी का पहला उपन्यास होने का गौरव लाला श्रीनिवासदास द्वारा लिखा गया और 25 नवंबर 1885 को प्रकाशित परीक्षा गुरु नामक उपन्यास को प्राप्त है। लाला श्रीनिवास कुशल महाजन और व्यापारी थे। अपने उपन्यास में उन्होंने मदनमोहन नामक एक रईस के पतन और फिर सुधार की कहानी सुनाई है। मदनमोहन एक समृद्ध वैश्व परिवार में पैदा होता है, पर बचपन में अच्छी शिक्षा और उचित मार्गदर्शन न मिलने के कारण और युवावस्था में गलत संगति में पड़कर अपनी सारी दौलत खो बैठता है। न ही उसे आदमी की ही परख है। वह अपने सच्चे हितैषी ब्रजकिशोर को अपने से दूर करके चुन्नीलाल, शंभूदयाल, बैजनाथ और पुरुषोत्तम दास जैसे कपटी, लालची, मौका परस्त, खुशामदी "दोस्तों" से अपने आपको घिरा रखता है। बहुत जल्द इनकी गलत सलाहों के चक्कर में मदनमोहन भारी कर्ज में भी डूब जाता है और कर्ज समय पर अदा न कर पाने से उसे अल्प समय के लिए कारावास भी हो जाता है। इस कठिन स्थिति में उसका सच्चा मित्र ब्रजकिशोर, जो एक वकील है, उसकी मदद करता है, और उसकी खोई हुई संपत्ति उसे वापस दिलाता है। इतना ही नहीं, मदनमोहन को सही उपदेश देकर उसे अपनी गलतियों का एहसास भी कराता है। उपन्यास 41 छोटे-छोटे प्रकरणों में विभक्त है। कथा तेजी से आगे बढ़ती है और अंत तक रोचकता बनी रहती है। पूरा उपन्यास नीतिपरक और उपदेशात्मक है। उसमें जगह-जगह इंग्लैंड और यूनान के इतिहास से दृष्टांत दिए गए हैं। ये दृष्टांत मुख्यतः ब्रजकिशोर के कथनों में आते हैं। इनसे उपन्यास के ये स्थल आजकल के पाठकों को बोझिल लगते हैं। उपन्यास में बीच-बीच में संस्कृत, हिंदी, फारसी के ग्रंथों के ढेर सारे उद्धरण भी ब्रज भाषा में काव्यानुवाद के रूप में दिए गए हैं। हर प्रकरण के प्रारंभ में भी ऐसा एक उद्धरण है। उन दिनों काव्य और गद्य की भाषा अलग-अलग थी। काव्य के लिए ब्रज भाषा का प्रयोग होता था और गद्य के लिए खड़ी बोली का। लेखक ने इसी परिपाटी का अनुसरण करते हुए उपन्यास के काव्यांशों के लिए ब्रज भाषा चुना है।
बदीनारायण चौधरी उपाध्याय "प्रेमधन" हिन्दी साहित्यकार थे। वे भारतेंदु मंडल के उज्वलतम नक्षत्र थे। "प्रेमधन" जी पं॰ गुरुचरणलाल उपाध्याय के ज्येष्ठ पुत्र थे। गुरुचरणलाल उपाध्याय, कर्मनिष्ठ तथा विद्यानुरागी ब्राह्मण थे। इनका जन्म भाद्र कृष्ण षष्ठी, संवत् 1912 को दात्तापुर नामक ग्राम में हुआ था। इनकी माता ने मीरजापुर में हिंदी अक्षरों का ज्ञान कराया। संवत् 1928 में कलकत्ते से अस्वस्थ होकर आए और लंबी बीमारी में फँस गए। इसी बीमारी के दौरान में आपकी पं॰ इंद्र नारायण सांगलू से मैत्री हुई। सांगलू जी शायरी करते थे। इस संगत से नज़्मों और गजलों की ओर रुचि हुई। उर्दू फारसी का आपको गहरा ज्ञान था ही। इन रचनाओं के लिए "अब्र" (तखल्लुस) उपनाम रखकर गजल, नज्म और शेरों की रचना करने लगे। सांगलू के माध्यम से आपकी भारतेंदु बाबू, हरिश्चंद्र से मैत्री का सूत्रपात हुआ। धीरे धीरे यह मैत्री इतनी प्रगाढ़ हुई कि भारतेंदु जी के रंग में प्रेमघन जी पूर्णतया पग गए, यहाँ तक कि रचनाशक्ति, जीवनपद्धति और वेशभूषा से भी भारतेंदु जीवन अपना लिया। वि. सं. 1930 में प्रेमधन जी ने "सद्धर्म सभा" तथा 1931 वि. सं. "रसिक समाज" की मीरजापुर में स्थापना की। संवत् 1933 वि. में "कवि-वचन-सुधा" प्रकाशित हुई जिसमें इनकी कृतियों का प्रकाशन होता। उसका स्मरण चौधरी जी की मीरजापुर की कोठी का धूलिधूसरित नृत्यकक्ष आज भी कराता है। अपने प्रकाशनों की सुविधा के लिए इसी कोठी में आनंदकादंबिनी मुद्रणालय खोला गया। संवत् 1938 में "आनंदकादंबिनी" नामक मासिक पत्रिका की प्रथम माला प्रकाशित हुई। संवत् 1949 में नागरी नीरद नामक साप्ताहिक का संपादन और प्रकाशन आरंभ किया। प्रे मधन जी के साथ आचार्य रामचंद्र शुक्ल का पारिवारिक-सा संबंध था। शुक्ल जी शहर के रमईपट्टी मुहल्ले में रहते थे और लंडन मिशन स्कूल में ड्राइंग मास्टर थे। आनंद कादंबिनी प्रेस में छपाई भी देख लेते थे। 68 वर्ष की अवस्था में फाल्गुन शुक्ल 14, संवत् 1978 को आपकी इहलीला समाप्त हो गई। कथोपकथन शैली का आपके "दिल्ली दरबर में मित्रमंडली के यार में देहलवी उर्दू का फारसी शब्दों से संयुक्त चुस्त मुहावरेदार भाषा का अच्छा नमूना है। रामचंद्र शुक्ल- प्रेमघन की गद्य शैली की समीक्षा से यह स्पष्ट हो जाता है कि खड़ी बोली गद्य के वे प्रथम आचार्य थे। समालोच्य पुस्तक के विषयों का अच्छी तरह विवेचन करके उसके विस्तृत निरूपण की चाल उन्होंने चलाई। उन्होंने कई नाटक लिखे हैं जिनमें "भारत सौभाग्य" 1888 में कांग्रेस महाधिवेशन के अवसर पर खेले जाने के लिए लिखा गया था। वे ब्रजभाषा को कविता की भाषा मानते थ। प्रेमघन ने जिस प्रकार खड़ी बोली का परिमार्जन किया उनके काव्य से स्पष्ट है। "बेसुरी तान" शीर्षक लेख में आपने भारतेंदु की आलोचना करने में भी चूक न की। प्रेमघन कृतियों का संकलन उनके पौत्र दिनेशनारायण उपाध्याय ने किया है जिसका "प्रेमघन सर्वस्व" नाम से हिंदी साहित्य सम्मेलन ने दो भागों में प्रकाशन किया है। प्रेमघन हिंदी साहित्य सम्मेलन के तृतीय कलकत्ता अधिवेशन के सभापति (सं. 1912) मनोनीत हुए थे। कृतियाँ- (1) भारत सौभाग्य (2) प्रयाग रामागमन, संगीत सुधासरोवर, भारत भाग्योदय काव्य। गद्य पद्य के अलावा आपने लोकगीतात्मक कजली, होली, चैता आदि की रचना भी की है जो ठेठ भावप्रवण मीरजापुरी भाषा के अच्छे नमूने हैं और संभवत: आज तक बेजोड़ भी। कजली कादंबिनी में कजलियों का संग्रह है।
प्रतापनारायण मिश्र (सितंबर, 1856 - जुलाई, 1894) मिश्र जी उन्नाव जिले के अंतर्गत बैजे गाँव निवासी, कात्यायन गोत्रीय, कान्यकुब्ज ब्राहृमण पं॰ संकटादीन के पुत्र थे। बड़े होने पर वह पिता के साथ कानपुर में रहने लगे और अक्षरारंभ के पश्चात् उनसे ही ज्योतिष पढ़ने लगे। पिता की मृत्यु के पश्चात् 18-19 वर्ष की अवस्था में उन्होंने स्कूली शिक्षा से अपना पिंड छुड़ा लिया। वह हिंदी, उर्दू और बँगला तो अच्छी जानते ही थे, फारसी, अँगरेजी और संस्कृत में भी उनकी अच्छी गति थी। भारतेंन्दु मंडल के प्रमुख लेखक, कवि और पत्रकार थे। भारतेंदु पर उनकी अनन्य श्रद्धा थी, वह अपने को उनका शिष्य कहते तथा देवता की भाँति उनका स्मरण करते थे। भारतेंदु जैसी रचनाशैली, विषयवस्तु और भाषागत विशेषताओं के कारण मिश्र जी "प्रतिभारतेंदु" अथवा "द्वितीयचंद्र" कहे जाने लगे थे। मिश्र जी छात्रावस्था से ही "कविवचनसुधा" के गद्य-पद्य-मय लेखों का नियमित पाठ करते थे जिससे हिंदी के प्रति उनका अनुराग उत्पन्न हुआ। 1882 के आसपास "प्रेमपुष्पावली" प्रकाशित हुआ और भारतेंदु जी ने उसकी प्रशंसा की तो उनका उत्साह बहुत बढ़ गया। 15 मार्च 1883 को, ठीक होली के दिन, अपने कई मित्रों के सहयोग से मिश्र जी ने "ब्राहृमण" नामक मासिक पत्र निकाला। यह अपने रूप रंग में ही नहीं, विषय और भाषाशैली की दृष्टि से भी भारतेंदु युग का विलक्षण पत्र था। दो-तीन बार तो इसके बंद होने तक की नौबत आ गई थी। किंतु रामदीन सिंह आदि की सहायता से यह येन-केन प्रकारेण संपादक के जीवनकाल तक निकलता रहा। उनकी मृत्यु के बाद भी रामदीन सिंह के संपादकत्व में कई वर्षो तक निकला, परंतु पहले जैसा आकर्षण वे उसमें न ला सके। 1889 में मिश्र जी 25 रू. मासिक पर "हिंदीस्थान" के सहायक संपादक रहे। उन दिनों पं॰ मदनमोहन मालवीय "हिंदीस्थान" संपादक थे। यहाँ बालमुकुंद गुप्त ने मिश्र जी से हिंदी सीखी। मालवीय जी के हटने पर मिश्र जी अपनी स्वच्छंद प्रवृत्ति के कारण वहाँ न टिक सके। कालाकाँकर से लौटने के बाद वह प्राय: रुग्ण रहने लगे। फिर भी समाजिक, राजनीतिक, धार्मिक कार्यो में पूर्ववत् रुचि लेते और "ब्राह्मण" के लिये लेख आदि प्रस्तुत करते रहे। 1891 में उन्होंने कानपुर में "रसिक समाज" की स्थापना की। कानपुर की कई नाट्य सभाओं और गोरक्षिणी समितियों की स्थापना उन्हीं के प्रयत्नों से हुई थी। आचार्य शुक्ल ने इनकी तुलना अंग्रेजी गद्य लेखक स्टील से की है। मिश्र जी ने नाटकों में अभिनय भी किया, एक बार स्त्री पात्र की भूमिका में उतरने के लिए पिता के पास जाकर उनके जीवित रहने परी ही अपनी मूँछे मुंडवाने की अनुमति माँगी। कानपुर और नाटक शीर्षक से टिप्पणी लिखते हुए अपने नगर में हुए नाटकों के अभिनय का परिचय इन्होंने दिया है। मिश्र जी ने बँगला के प्रख्यात उपन्यासकार बंकिम चटर्जी की कई कथा-कृतियों का अनुवाद किया। 1892 के अंत में वह गंभीर रूप से बीमार पड़े और लगातार डेढ़ वर्षो तक बीमार ही रहे। अंत में 38 वर्ष की अवस्था में 6 जुलाई 1894 को दस बजे रात में भारतेंदुमंडल के इस नक्षत्र का अवसान हो गया। मिश्र जी की मुख्य कृतियाँ निम्नांकित हैं : (क) नाटक: भारत दुर्दशा, गोसंकट, कलिकौतुक, कलिप्रभाव, हठी हम्मीर, जुआरी खुआरी। सांगीत शाकुंतल (अनुवाद)। (ख) मौलिक गद्य कृतियाँ : चरिताष्टक, पंचामृत, सुचाल शिक्षा, बोधोदय, शैव सर्वस्व। (ग) अनूदित गद्य कृतियाँ: नीतिरत्नावली, कथामाला, सेनवंश का इतिहास, सूबे बंगाल का भूगोल, वर्णपरिचय, शिशुविज्ञान, राजसिंह, इदिरा, राधारानी, युगलांगुलीय। (घ) कविता : प्रेमपुष्पावली, मन की लहर, ब्रैडला स्वागत, दंगल खंड, कानपुर महात्म्य, श्रृंगारविलास, लोकोक्तिशतक, दीवो बरहमन (उर्दू)।
ठाकुर जगमोहन सिंह (४ अगस्त १८५७ - ) हिन्दी के भारतेन्दुयुगीन कवि, आलोचक और उपन्यासकार थे। उन्होंने सन् 1880 से 1882 तक धमतरी में और सन् 1882 से 1887 तकशिवरीनारायण में तहसीलदार और मजिस्ट्रेट के रूप में कार्य किया। छत्तीसगढ़ के बिखरे साहित्यकारों को जगन्मोहन मंडल बनाकर एक सूत्र में पिरोया और उन्हें लेखन की सही दिशा भी दी। जगन्मोहन मंडल काशी के भारतेन्दु मंडल की तर्ज में बनी एक साहित्यिक संस्था थी। हिंदी के अतिरिक्त संस्कृत और अंग्रेजी साहित्य की उन्हें अच्छी जानकारी थी। ठाकुर साहब मूलत: कवि ही थे। उन्होंने अपनी रचनाओं द्वारा नई और पुरानी दोनों प्रकार की काव्यप्रवृत्तियों का पोषण किया। शिक्षा के लिए काशी आने पर उनका परिचय भारतेंदु और उनकी मंडली से हुआ। बनारस के क्वींस कालेज में अध्ययन के दौरान वे भारतेंदु हरिश्चंद्र के सम्पर्क में आए तथा यह सम्पर्क प्रगाढ़ मैत्री में बदल गया जो की जीवन पर्यन्त बनी रही। इन्हें 'श्यामा' नाम की स्त्री से प्रेम हो गया। शिवरीनारायण में रहते हुए इन्होने श्यामा को केंद्र में रख कर अनेक रचनाओं का सृजन किया जिनमे हिंदी का अत्यंत भौतिक एवं दुर्लभ उपन्यास श्याम-स्वप्न प्रमुख है। श्याम-स्वप्न को भावप्रधान उपन्यास की संज्ञा दी जा सकती है। आद्योपांत शैली वर्णानात्मक है। इसमें चरित्रचित्रण पर ध्यान न देकर प्रकृति और प्रेममय जीवन का ही चित्र अंकित किया गया है। कवि की शृंगारी रचनाओं की भावभूमि पर्याप्त सरस और हृदयस्पर्शी होती है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल का कहना था कि "प्राचीन संस्कृत साहित्य" के अभ्यास और विंध्याटवी के रमणीय प्रदेश में निवास के कारण विविध भावमयी प्रकृति के रूपमाधुर्य की जैसी सच्ची परख जैसी सच्ची अनुभूति इनमें थी वैसी उस काल के किसी हिंदी कवि या लेखक में नहीं पाई जाती। उनके तीन काव्यसंग्रह प्रकाशित हैं : (1) "प्रेम-संपत्ति-लता" (सं. 1942 वि.), (2) "श्यामालता", और (3) "श्यामासरोजिनी" (सं. 1943)। इसके अतिरिक्त इन्होंने कालिदास के "मेघदूत" का बड़ा ही ललित अनुवाद भी ब्रजभाषा के कबित्त सवैयों में किया है।
अंबिकादत्त व्यास (1848-1900) इन्होंने कवित्त सवैया की प्रचलित शैली में ब्रजभाषा में रचना की।
भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के समकालीन हिन्दी सेवियों में पंडित अंबिकादत्त व्यास बहुत प्रसिद्ध लेखक और कवि हैं। • बिहारी बिहार (1898 ई.) • पावस पचास, • ललिता (नाटिका)1884 ई. • गोसंकट (1887 ई.) • आश्चर्य वृतान्त 1893 ई. • गद्य काव्य मीमांसा 1897 ई
राधाचरण गोस्वावमी (२५ फरवरी १८५९ 1859 - १२ दिसम्बर १९२५ )
गोस्वामी जी के पिता गल्लू जी महाराज अर्थात् गुणमंजरी दास जी (1827 ई.-1890 ई.) एक भक्त कवि थे। मासिक पत्र ‘भारतेन्दु’ (वैशाख शुक्ल 15 विक्रम संवत् 1940 तदनुसार 22 मई 1883 ई.) में उन्होंने ‘पश्चिमोत्तर और अवध में आत्मशासन’ शीर्षक से सम्पादकीय अग्रलेख लिखा था। उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में बनारस, इलाहाबाद, पटना, कलकत्ता और वृन्दावन नवजागरण के पाँच प्रमुख केन्द्र थे। वृन्दावन केन्द्र के एकमात्र सार्वकालिक प्रतिनिधि राधाचरण गोस्वामी ही थे। गोस्वामी जी देशवासियों की सहायता से देशभाषा हिन्दी की उन्नति करना चाहते थे। देशभाषा की उन्नति के लिए सामूहिक प्रयास की आवश्यकता है। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि 1882 ई. में देशभाषा की उन्नति के लिए अलीगढ़ में भाषावर्धिनी सभा को अपना सक्रिय समर्थन प्रदान करते हुए कहा था, ‘...यदि हमारे देशवासियों की सहायता मिले, तो इस सभा से भी हमारी देशभाषा की उन्नति होगी।’ गोस्वामी जी सामाजिक रूढ़ियों के उग्र किन्तु अहिंसक विरोधी थे। वे जो कहते थे, उस पर आचरण भी करते थे। अपने आचरण के द्वारा वे गलत सामाजिक परमपराओं का शान्तिपूर्ण विरोध करते थे। • पण्डित राधाचरण 1885 ई. में वृन्दावन नगरपालिका के सदस्य पहली बार निर्वाचित हुए थे। • पंजाब केसरी लाला लाजपत राय का आगमन दो बार वृन्दावन में हुआ था। दोनों बार गोस्वामी जी ने उनका शानदार स्वागत किया था। • ब्रज माधव गौड़ीय सम्प्रदाय के श्रेष्ठ आचार्य होने के बावजूद उनकी बग्घी के घोड़ों के स्थान पर स्वयं उनकी बग्घी खींचकर उन्होंने भारत के राष्ट्रनेताओं के प्रति अपनी उदात्त भावना का सार्वजनिक परिचय दिया था। • तत्कालीन महान क्रान्तिकारियों में उनके प्रति आस्था और विश्वास था और उनसे उनके हार्दिक सम्बन्ध भी थे। उदाहरणार्थ, 22 नवम्बर 1911 ई. को महान क्रान्तिकारी रास बिहारी बोस और योगेश चक्रवर्ती उनसे मिलने उनके घर पर आए थे और उनका प्रेमपूर्ण स्वागत उन्होंने किया था। उक्त अवसर पर गोस्वामीजी की दोनों आँखें प्रेम के भावावेश के कारण अश्रुपूर्ण हो गई थीं। • गोस्वामी जी कांग्रेस के आजीवन सदस्य और प्रमुख कार्यकर्ता थे। 1888 ई. से 1894 तक वे मथुरा की कांग्रेस समिति के सचिव थे। • उन्होंने अपनी आत्मकथा में स्वयं कहा है ‘‘देशोन्नति, नेशनल कांग्रेस, समाज संशोधन, स्त्री स्वतन्त्रता यह सब मेरी प्राणप्रिय वस्तुएँ हैं।’’ • गोस्वामी जी में प्रखर राजनीतिक चेतना थी। वे तत्कालीन प्रमुख राजनीतिक विषयों पर अपने समय की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में अखिल भारतीय स्तर पर लेखादि लिखते रहते थे। • उन्होंने ‘सारसुधानिधि’, विक्रम संवत् 1937, वैशाख 29 चन्द्रवार 10 मई 1880 (भाग 2 अंक 5) में प्राप्त ‘स्तंभ’ के अन्तर्गत ‘काबुल का अचिन्त्य भाव’ शीर्षक लेख लिखा था। • गोस्वामी जी के सतत प्रयत्न से मथुरा वृन्दावन रेल का संचालन हुआ। • वृन्दावन के राधारमण मन्दिर में अढ़ाई वर्षों के अन्तराल में 17 दिनों की सेवा करने का अधिकार उन्हें प्राप्त था। अपने निधन के चार दिन पूर्व तक श्रीराधारमण जी की मंगला आरती प्रातः चार बजे वे स्वयं करते थे। • गोस्वामीजी के जीवन दर्शन का मूल संदेश धर्म, जाति, वर्ग और साहित्य की विविधता में एकता का समन्वय था। उन्हंप संकीर्ण और कुंठित भावनाएँ स्पर्श नहीं करती थीं। • डाक और रेल के टिकटों में भी नागरी लिपि का प्रवेश होना चाहिए था, इसके लिये उन्होंने विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में लेख लिखे थे। कलकत्ता से प्रकाशित हिन्दी साप्ताहिक पत्र ‘सारसुधानिधि’, 12 सितम्बर 1881 ई. में उन्होंने कहा था-रेल की टिकटों में नागरी नहीं लिखी जाती है जिससे नागरी का प्रचार नहीं हो पाता। क्या रेलवे अध्यक्षों को नागरी से शत्रुता है या हमारे देशवासी नागरी जानते ही नहीं। • इससे पूर्व उन्होंने ‘सारसुधानिधि’ 7 अगस्त 1881 ई. को यह सवाल उठाया था कि आर्य राजाओं ने अपनी रियासतों में फारसी सिक्का क्यों जारी रखा है? स्वजातीयाभिमान का प्रश्न था। • गोस्वामी जी सर्वधर्म समभाव के सिद्धान्त के प्रतीक थे। श्रीराधारमण जी के अनन्य उपासक और ब्राह्म माध्व गौड़ीय सम्प्रदाय के मुख्य आचार्य होने के बावजूद उनमें किसी भी धर्म अथवा धार्मिक सम्प्रदाय के प्रति दुराव अथवा दुराग्रह नहीं था। अपने जीवन चरित के नौवें पृष्ठ पर उन्होंने स्वयं लिखा है- • ‘‘मैं एक कट्टर वैष्णव हिन्दू हूँ। अन्य धर्म अथवा समाज के लोगों से विरोध करना उचित नहीं समझता। बहुत से आर्यसमाजी, ब्रह्म समाजी, मुसलमान, ईसाई मेरे सच्चे मित्र हैं और बहुधा इनके समाजों में जाता हूँ।’’ • गोस्वामी राधाचरण के साहित्यिक जीवन का उल्लेखनीय आरम्भ 1877 ई. में हुआ। • इस वर्ष उनकी पुस्तक ‘शिक्षामृत’ का प्रकाशन हुआ। यह उनकी प्रथम पुस्तकाकार रचना है। • तत्पश्चात् मौलिक और अनूदित सब मिलाकर पचहत्तर पुस्तकों की रचना उन्होंने की। • इनके अतिरिक्त उनकी प्रायः तीन सौ से ज्यादा विभिन्न कोटियों की रचनाएँ तत्कालीन पत्र-पत्रिकाओं में फैली हुई हैं जिनका संकलन अब तक नहीं किया जा सका। • उन्होंने राधाकृष्ण की लीलाओं, प्रकृति-सौन्दर्य और ब्रज संस्कृति के विभिन्न पक्षों पर काव्य-रचना की। कविता में उनका उपनाम ‘मंजु’ था। • गोस्वामी राधाचरण ने समस्या प्रधान मौलिक उपन्यास लिखे। ‘बाल विधवा’ (1883-84 ई.), ‘सर्वनाश’ (1883-84 ई.), ‘अलकचन्द’ (अपूर्ण 1884-85 ई.) ‘विधवा विपत्ति’ (1888 ई.) ‘जावित्र’ (1888 ई.) आदि। • वे हिन्दी में प्रथम समस्यामूलक उपन्यासकार थे, प्रेमचन्द नहीं। ‘वीरबाला’ उनका ऐतिहासिक उपन्यास है। इसकी रचना 1883-84 ई. में उन्होंने की थी। • हिन्दी में ऐतिहासिक उपन्यास का आरम्भ उन्होंने ही किया। ऐतिहासिक उपन्यास ‘दीप निर्वाण’ (1878-80 ई.) और सामाजिक उपन्यास ‘विरजा’ (1878 ई.) उनके द्वारा अनूदित उपन्यास है। • लघु उपन्यासों को वे ‘नवन्यास’ कहते थे। ‘कल्पलता’ (1884-85 ई.) और ‘सौदामिनी’ (1890-91 ई.) उनके मौलिक सामाजिक नवन्यास हैं। • प्रेमचन्द के पूर्व ही गोस्वामी जी ने समस्यामूलक उपन्यास लिखकर हिन्दी में नई धारा का प्रवर्त्तन किया। • गोस्वामी जी के नाटकों और प्रहसनों में उनकी सुधारवादी चेतना ही सर्वप्रमुख है। • ‘बूढ़े मुँह मुँहासे लोग देखें तमाशे’ नामक प्रहसन में हिन्दू और मुसलमान किसान एक साथ जमींदार के प्रति सम्मिलित विद्रोह करते हैं और अपनी समस्याओं का निराकरण करते हैं। किसानों की समस्याओं में धर्म का विभेद नहीं होता। • उनका व्यंग्य लेखन भी उत्कृष्ट कोटि का है। उदाहरणार्थ, मासिक पत्र ‘हिन्दी प्रदीप’ आषाढ़ शुक्ल 15 विक्रम संवत् 1939 तदनुसार 1 जुलाई 1882 ई. (जिल्द 5 संख्या 11) में पृष्ठ संख्या 9 पर गोस्वामी जी द्वारा विरचित ‘एक नए कोष की नकल’ का प्रकाशन हुआ था जिसमें व्यंग्य की प्रचुरता है। उक्त ‘नकल’ के कतिपय अंश अधोलिखित है- • मधुर भाषा। अँग्रेजी। • शरीफों की जबान। • उर्दू या राजा शिव प्रसाद जिसे कहैं। • जंगली लोगों की भाषा। • संस्कृत-हिन्दी परम कर्तव्य। • खुशामद खुशामद॥ • अकर्तव्य। देश का हित, भारतवासियों की भलाई॥ • उक्त व्यंग्य में उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध की भारतीय मानसिकता का दिग्दर्शन होता है। • गोस्वामी जी एक श्रेष्ठ समालोचक भी थे। उनकी प्रतिज्ञा थी ‘‘किसी पुस्तक की समालोचना लिखो तो सत्य-सत्य लिखो।’’ • निबन्ध लेखन के क्षेत्र में उनका उल्लेखनीय योगदान रहा है। उनके निबन्धों का वर्ण्य विषय अत्यन्त व्यापक था। उन्होंने ऐतिहासिक, धार्मिक, सामाजिक, साहित्यिक, शिक्षा और यात्रा सम्बन्धी लेख लिखे। तत्कालीन विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में उनके बहुसंख्यक लेख बिखरे हुए हैं जिनका संकलन अब तक नहीं किया जा सका। • गोस्वामी जी का कथन था कि ‘‘यदि खड़ी बोली में कविता की चेष्टा की जाए तो खड़ी बोली के स्थान पर थोड़े दिनों में उर्दू की कविता का प्रचार हो जाएगा।’’ (हिन्दोस्तान,11 अप्रैल 1888 ई.) • गोस्वामी जी द्वारा सम्पादित मासिक पत्र ‘भारतेन्दु’ का पुनर्प्रकाशन 1 अक्टूबर 1890. ई. से हुआ था। • ‘भारतेन्दु’ 1 अक्टूबर 1890 ई. (पुस्तक 5 अंक 1) में पृष्ठ संख्या 2 पर ‘भारतेन्दु का प्रेमालाप’ शीर्षक सम्पादकीय में सम्पादक राधाचरण गोस्वामी ने कहा था ‘‘भाषा कविता पर बड़ी विपत्ति आने वाली है। कुछ महाशय खड़ी हिन्दी का मुहम्मदी झण्डा लेकर खड़े हो गए हैं और कविता देवी का गला घोंटकर अकाल वध करना चाहते हैं जिससे कवि नाम ही उड़ जाए...’’ अर्थात् खड़ी बोली कविता का विरोध करने के लिए उन्होंने ‘भारतेन्दु’ का पुनर्प्रकाशन किया था। किन्तु यह पत्र अपने पुनर्प्रकाशन के बावजूद अल्पजीवी ही सिद्ध हुआ। पण्डित श्रीधर पाठक खड़ी बोली गद्य के समर्थक थे। गोस्वामी जी और पाठक जी में खड़ी बोली पद्य आन्दोलन के दौर में इसी बात पर मनोमालिन्य भी हुआ। 4 जनवरी 1905 ई. को खत्री जी का निधन हो गया था। सरस्वती और अन्य पत्रिकाओं में खड़ी बोली कविताओं का प्रकाशन शुरू हो गया था। • 18 मई 1906 को गोस्वामी जी को लिखित अपने एक व्यक्तिगत पत्र में पण्डित श्रीधर पाठक ने कहा था- ‘‘पुराने प्रेमियों को भूल जाना गुनाह में दाखिल है।’’ पाठक जी की ओर से पारस्परिक मनोमालिन्य दूर करने की यह सार्थक चेष्टा थी। गोस्वामी जी ने अपने जीवनकाल में ही मैथिलीशरण गुप्त और छायावाद का उत्कर्ष देखा। उनका खड़ी बोली पद्य के प्रति विरोध दूर हो गया था। जनवरी 1910 ई. से 1920 ई. तक वृन्दावन से उन्होंने धार्मिक मासिक पत्र 'श्रीकृष्ण चैतन्य चन्द्रिका' का सम्पादन-प्रकाशन किया था। उक्त मासिक पत्र के प्रथमांक (जनवरी 1910 ई.) में स्वयं ‘श्री विष्णुप्रिया का विलाप’ शीर्षक कविता खड़ी बोली पद्य में लिखी थी। • गोस्वामी जी साहित्यकार ही नहीं, पत्रकार भी थे। उन्होंने वृन्दावन से भारतेन्दु मासिक पत्र का सम्पादन-प्रकाशन किया था जिसका प्रथमांक चैत्रा शुक्ल 15, विक्रम संवत् 1940 तदनुसार 22 अप्रैल 1883 ई. को प्रकाशित हुआ। इसका प्रकाशन 3 वर्ष 5 माह तक हुआ। किन्तु व्यय अधिक होने से इसे बन्द कर देना पड़ा। 1910 ई. से 1920 ई. तक वृन्दावन से ही 'श्रीकृष्ण चैतन्य चन्द्रिका' नामक धार्मिक मासिक पत्रिका का सम्पादन-प्रकाशन उन्होंने किया था। गोस्वामी राधाचरण जी ने ‘मेरा संक्षिप्त जीवन परिचय’ (1895 ई.) शीर्षक अपनी संक्षिप्त आत्मकथा में लिखा था- • ‘लिखने के समय किसी ग्रन्थ की छाया लेकर लिखना मुझे पसन्द नहीं। जो कुछ अपने मन का विचार हो वही लिखता हूँ। • पण्डित बालकृष्ण भट्ट और हिन्दी प्रदीप ने पण्डित राधाचरण गोस्वामी को हिन्दी के साढ़े तीन लेखकों में से एक माना था। हिन्दी प्रदीप जनवरी-फरवरी मार्च 1894 ई. (जिल्द 17 संख्या 5, 6 और 7) ने कहा था कि हिन्दी के साढ़े तीन सुलेखक थे- बाबू हरिश्चन्द्र अर्थात् भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, ब्राह्मण मासिक पत्र के सम्पादक प्रतापनारायण मिश्र और राधाचरण गोस्वामी, आधा पीयूष प्रवाह सम्पादक अम्बिकादत्त व्यास। • इस कथन से गोस्वामी जी की महत्ता का अनुमान लगाया जा सकता है। देशोपकार उनके सम्पूर्ण लेखन का मूलमन्त्र था। विचारों की उग्रता और प्रगतिशीलता में वे अपने युग के अन्य सभी लेखकों से बहुत आगे थे। वे एक क्रान्तिदर्शी साहित्यकार थे, प्रखर राष्ट्र-चिन्तक, साहित्य और समय की धारा को नया मोड़ देनेवाले युगद्रष्टा कथाकार भी। स्वाधीन चेतना, आत्मनिर्भरता, साहस, निर्भयता और आत्माभिमान उनके विशेष गुण थे। वे वस्तुतः भारतभक्त और हिन्दी साहित्य के एक गौरव स्तम्भ ही थे
आधुनिक हिंदी साहित्य के पितामह कहे जाते हैं। वे हिन्दी में आधुनिकता के पहले रचनाकार थे।
इनका मूल नाम 'हरिश्चन्द्र' था, 'भारतेन्दु' उनकी उपाधि थी।
हिंदी में नाटकों का प्रारंभ भारतेन्दु हरिश्चंद्र से माना जाता है।
भारतेन्दु के नाटक लिखने की शुरुआत बंगला के विद्यासुंदर (१८६७) नाटक के अनुवाद से होती है।
यद्यपि नाटक उनके पहले भी लिखे जाते रहे किंतु नियमित रूप से खड़ीबोली में अनेक नाटक लिखकर भारतेन्दु ने ही हिंदी नाटक की नींव को सुदृढ़ बनाया
उन्होंने 'हरिश्चंद्र पत्रिका', 'कविवचन सुधा' और 'बाल विबोधिनी' पत्रिकाओं का संपादन भी किया।
भारतेन्दु के पूर्वज अंग्रेज भक्त थे, उनकी ही कृपा से धनवान हुए।
पिता गोपीचन्द्र उपनामगिरिधर दास की मृत्यु इनकी दस वर्ष की उम्र में हो गई। माता की पाँच वर्ष की आयु में हुई। इस तरह माता-पिता के सुख से भारतेन्दु वंचित हो गए। विमाता ने खूब सताया।
बनारस में उन दिनों अंग्रेजी पढ़े-लिखे और प्रसिद्ध लेखक - राजा शिवप्रसाद सितारे हिन्द थे, भारतेन्दु शिष्य भाव से उनके यहाँ जाते।
उन्हीं से अंग्रेजी शिक्षा सीखी। भारतेन्दु ने स्वाध्याय से संस्कृत, मराठी, बंगला, गुजराती, पंजाबी, उर्दूभाषाएँ सीख लीं।
उनको काव्य-प्रतिभा अपने पिता से विरासत के रूप में मिली थी। उन्होंने पांच वर्ष की अवस्था में ही निम्नलिखित दोहा बनाकर अपने पिता को सुनाया और सुकवि होने का आशीर्वाद प्राप्त किया- लै ब्योढ़ा ठाढ़े भए श्री अनिरुद्ध सुजान। वाणासुर की सेन को हनन लगे भगवान॥
आचार्य रामचंद्र शुक्ल के अनुसार "भारतेन्दु ने अपनी सर्वतोमुखी प्रतिभा के बल से एक ओर तो वे पद्माकर, द्विजदेव की परंपरा में दिखाई पड़ते थे, तो दूसरी ओर बंग देश "
पंद्रह वर्ष की अवस्था से ही भारतेंदु ने साहित्य सेवा प्रारंभ कर दी थी।
अठारह वर्ष की अवस्था में उन्होंने कविवचनसुधा नामक पत्रिका निकाली जिसमें उस समय के बड़े-बड़े विद्वानों की रचनाएं छपती थीं।
वे बीस वर्ष की अवस्था मे ऑनरेरी मैजिस्ट्रेट बनाए गए और आधुनिक हिन्दी साहित्य के जनक के रूप मे प्रतिष्ठित हुए। उ न्होंने १८६८ में 'कविवचनसुधा', १८७3 'हरिश्चन्द्र मैगजीन' और 1874 में स्त्री शिक्षा के लिए 'बाल बोधिनी' नामक पत्रिकाएँ निकालीं। वैष्णव भक्ति के प्रचार के लिए उन्होने 'तदीय समाज` की स्थापना की थी।
उनकी लोकप्रियता से प्रभावित होकर काशी के विद्वानों ने १८८० मे उन्हें 'भारतेंदु` की उपाधि प्रदान की।
भारतेंदु जी कृष्ण के भक्त थे और पुष्टि मार्ग के मानने वाले थे। उनको कविता में सच्ची भक्ति भावना के दर्शन होते हैं। वे कामना करते हैं - बोल्यों करै नूपुर स्त्रीननि के निकट सदा पद तल मांहि मन मेरी बिहरयौ करै। मौलिक नाटक
• वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति (1873, प्रहसन)
• सत्य हरिश्चन्द्र (1875) यह भारतेन्दु जी की सर्वोत्कृष्ट रचना कही जाती है। देभीश्वर का चण्ड कौशिक तथा रामचन्द्र का सत्य हरिश्चन्द्र और इस सत्य हरिश्चन्द्र तीनों का ही मूल आधार एक ही पौराणिक कथा है। पर सभी रचनाएँ एक दूसरे से स्वतंत्र है।
• प्रेमजोगनी (1875, प्रथम अंक में केवल चार अंक या गर्भांक, नाटिका)
• श्री चंद्रावली (1876, नाटिका)
• विषस्य विषमौषधम् (1876, भाण)
• भारत दुर्दशा (1880, ब्रजरत्नदास के अनुसार 1876, नाट्य रासक), यह भारत के प्राचीन गौरव और वर्तमान के दैन्य तथा दुरावस्था चित्रण है। नाटक में प्रयुक्त भारत, निर्लज्जता, आशा, सत्यानाश, रोग, आलस्य, अन्धकार आदि को पात्रों के माध्यम से दिखाया गया है।
• नीलदेवी (1881, प्रहसन)। यह एक ऐतिहासिक नाटक है इसमें क्षत्रिय राजा सूर्यदेव को धोखे से कैद कर मार डाला गया। नीलदेवी अपने पति के वध का बदला मुगल सरदार अब्दुल शरीफ को मारकर लेती है।
• अंधेर नगरी (1881) यह छः अंकों का प्रहसन रूपक है, इसमें किसी राज्य के अव्यवस्थित शासन प्रबन्ध का व्यंग्य चित्र है। इसमें महन्त अपने दो शिष्य नारायणदास और गोवर्धनदास है। गोवर्धनदास गुरू की इच्छा के विरूद्ध अंधेर नगरी में रह जाता है।
• सती प्रताप (1883, केवल चार अंक, गीतिरूपक)
अनूदित नाट्य रचनाएँ
• विद्यासुन्दर (1868, ‘संस्कृत चौरपंचासिका’ का बँगला संस्करण)
• पाखण्ड विडम्वना (कृष्ण मिश्रिकृत ‘प्रबोधचंद्रोदय’ का तृतीय अंक)
• धनंजय विजय (1873, कांचन कवि कृत संस्कृत नाटक के तीसरे अंक का अनुवाद)
• कर्पूर मंजरी (1875, सट्टक, कांचन कवि कृत संस्कृत नाटक का अनुवाद) • भारत जननी (1877, नाट्यगीत) • मुद्रा राक्षस (1878, विशाखदत्त के संस्कृत नाटक का अनुवाद) • दुर्लभ बंधु (1880, शेक्सपियर के ‘मर्चेंट आप वेनिस’ का अनुवाद) • भारतेन्दु ने काशी में नाटक मंडली स्थापना की और स्वयं भी उसमें अभिनय किया करते थे। निबंध संग्रह • भारतेन्दु ग्रन्थावली (तीसरा खंड) में संकलित है। "नाटक शीर्षक प्रसिद्ध निबंध (१८८५) ग्रंथावली के दूसरे खंड के परिशिष्ट में नाटकों के साथ दिया गया काव्यकृतियां • भक्तसर्वस्व, • प्रेममालिका (१८७१), • प्रेम माधुरी (१८७५), • प्रेम-तरंग (१८७७), • उत्तरार्द्ध भक्तमाल (१८७६-७७), • प्रेम-प्रलाप (१८७७), • होली (१८७९), • मधुमुकुल (१८८१), • राग-संग्रह (१८८०), • वर्षा-विनोद (१८८०), • विनय प्रेम पचासा (१८८१), • फूलों का गुच्छा (१८८२), • प्रेम फुलवारी (१८८३) • कृष्णचरित्र (१८८३) • दानलीला • तन्मय लीला • नये ज़माने की मुकरी • सुमनांजलि • बन्दर सभा (हास्य व्यंग) बकरी विलाप (हास्य व्यंग)
पंडित बालकृष्ण भट्ट (3 जून 1844- २० जुलाई 1914) हिन्दी के सफल पत्रकार, नाटककार और निबंधकार थे। उन्हें आज की गद्य प्रधान कविता का जनक माना जा सकता है।
पं॰ बालकृष्ण भट्ट ने हिंदी गद्य साहित्य में वही काम किया जो अंग्रेजी गद्य साहित्य में एडीसन और स्टील ने किया पंडित बाल कृष्ण भट्ट के पिता का नाम पं॰ वेणी प्रसाद था। संस्कृत के अतिरिक्त उन्हें हिंदी, अंग्रेज़ी, उर्दू, फारसी भाषाओं का भी अच्छा ज्ञान था। भारतेंदु जी से प्रभावित होकर उन्होंने हिंदी-साहित्य सेवा का व्रत ले लिया। भट्ट जी ने हिन्दी प्रदीप नामक मासिक पत्र निकाला। इस पत्र के वे स्वयं संपादक थे। उन्होंने इस इस पत्र के द्वारा निरंतर ३२ वर्ष तक हिंदी की सेवा की। काशी नागरी प्रचारिणी सभा द्वारा आयोजित हिंदी शब्दसागर के संपादन में भी उन्होंने बाबू श्याम सुंदर दास तथा शुक्ल जी के साथ कार्य किया। संवत् 1933 में प्रयाग में हिन्दी वर्द्धिनी नामक सभा की स्थापना की। उसकी ओर से एक हिन्दी मासिक पत्र का प्रकाशन भी किया, जिसका नाम था "हिन्दी प्रदीप"। अत्यन्त व्यस्त समय होते हुए भी उन्होंने "सौ अजान एक सुजान", "रेल का विकट खेल", "नूतन ब्रह्मचारी", "बाल विवाह" तथा "भाग्य की परख" आदि छोटी-मोटी दस-बारह पुस्तकें लिखीं। वैसे आपने निबंधों के अतिरिक्त कुछ नाटक, कहानियाँ और उपन्यास भी लिखे हैं। • निबंध संग्रह साहित्य सुमन और भट्ट निबंधावली।
• उपन्यास नूतन ब्रह्मचारी तथा सौ अजान एक सुजान।
• नूतन ब्रह्मचारी शीर्षक लघु उपन्यास में इन्होंने दो विरोधी प्रकार के चरित्रों का आमना-सामना किया है। विनायक उपन्यास का केंद्रीय चरित्र है। विनायक का सामना डाकुओं के सरदार से होता है जो घर को सुनसान समझकर लूटने आया है। विनायक इस सरदार का स्वागत करता है क्योंकि पिताजी समझाकर गए थे कि उनकी अनुपस्थिति में घर पर कोई आमंत्रित बंधु-जन आए तो वह उनका सत्कार करे। इससे सरदार का हृदय परिवर्तन होता है। सात्विकता की विजय ही उपन्यास का मूल मंत्र है।
• नूतन ब्रह्मचारी का आरंभिक प्रकाशन हिंदी प्रदीप के अंकों में क्रमशः हुआ था। • मौलिक नाटक दमयंती, स्वयंवर, बाल-विवाह, चंद्रसेन, रेल का विकट खेल, आदि। • अनुवाद भट्ट जी ने बंगला तथा संस्कृत के नाटकों के अनुवाद भी किए जिनमें वेणीसंहार, मृच्छकटिक, पद्मावती आदि प्रमुख हैं। कहावतों और मुहावरों का प्रयोग भी उन्होंने सुंदर ढंग से किया है। भट्ट जी ने जहाँ आँख, कान, नाक, बातचीत जैसे साधारण विषयों पर लेख लिखे हैं, वहाँ आत्मनिर्भरता, चारु चरित्र जैसे गंभीर विषयों पर भी लेखनी चलाई है। साहित्यिक और सामाजिक विषय भी भट्ट जी से अछूते नहीं बचे। 'चंद्रोदय' उनके साहित्यिक निबंधों में से है। समाज की कुरीतियों को दूर करने के लिए उन्होंने सामाजिक निबंधों की रचना की। भट्ट जी के निबंधों में सुरुचि-संपन्नता, कल्पना, बहुवर्णन शीलता के साथ-साथ हास्य व्यंग्य के भी दर्शन होते हैं। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने भट्ट की तुलना एडीसन से की है। हिन्दी प्रदीप के पृष्ठों में ही व्यावहारिक समीक्षा का जन्म होता है। भट्ट ने 1886 में प्रदीप में लाला श्रीनिवासदास के नाटक संयोगिता स्वयंबर की सच्ची समालोचना प्रकाशित की।
लाला श्रीनिवास दास
लाला श्रीनिवास दास भारतेंदु युग के प्रसिद्ध नाटकार थे। नाटक लेखन में वे भारतेंदु के समकक्ष माने जाते हैं। वे मथुरा के निवासी थे और हिंदी, उर्दू, संस्कृत, फारसी और अंग्रेजी के अच्छे ज्ञाता थे। उनके नाटकों में शामिल हैं, प्रह्लाद चरित्र, तप्ता संवरण, रणधीर-प्रेम मोहिनी, और संयोगिता स्वयंवर। हिंदी का पहला उपन्यास होने का गौरव लाला श्रीनिवासदास द्वारा लिखा गया और 25 नवंबर 1885 को प्रकाशित परीक्षा गुरु नामक उपन्यास को प्राप्त है। लाला श्रीनिवास कुशल महाजन और व्यापारी थे। अपने उपन्यास में उन्होंने मदनमोहन नामक एक रईस के पतन और फिर सुधार की कहानी सुनाई है। मदनमोहन एक समृद्ध वैश्व परिवार में पैदा होता है, पर बचपन में अच्छी शिक्षा और उचित मार्गदर्शन न मिलने के कारण और युवावस्था में गलत संगति में पड़कर अपनी सारी दौलत खो बैठता है। न ही उसे आदमी की ही परख है। वह अपने सच्चे हितैषी ब्रजकिशोर को अपने से दूर करके चुन्नीलाल, शंभूदयाल, बैजनाथ और पुरुषोत्तम दास जैसे कपटी, लालची, मौका परस्त, खुशामदी "दोस्तों" से अपने आपको घिरा रखता है। बहुत जल्द इनकी गलत सलाहों के चक्कर में मदनमोहन भारी कर्ज में भी डूब जाता है और कर्ज समय पर अदा न कर पाने से उसे अल्प समय के लिए कारावास भी हो जाता है। इस कठिन स्थिति में उसका सच्चा मित्र ब्रजकिशोर, जो एक वकील है, उसकी मदद करता है, और उसकी खोई हुई संपत्ति उसे वापस दिलाता है। इतना ही नहीं, मदनमोहन को सही उपदेश देकर उसे अपनी गलतियों का एहसास भी कराता है। उपन्यास 41 छोटे-छोटे प्रकरणों में विभक्त है। कथा तेजी से आगे बढ़ती है और अंत तक रोचकता बनी रहती है। पूरा उपन्यास नीतिपरक और उपदेशात्मक है। उसमें जगह-जगह इंग्लैंड और यूनान के इतिहास से दृष्टांत दिए गए हैं। ये दृष्टांत मुख्यतः ब्रजकिशोर के कथनों में आते हैं। इनसे उपन्यास के ये स्थल आजकल के पाठकों को बोझिल लगते हैं। उपन्यास में बीच-बीच में संस्कृत, हिंदी, फारसी के ग्रंथों के ढेर सारे उद्धरण भी ब्रज भाषा में काव्यानुवाद के रूप में दिए गए हैं। हर प्रकरण के प्रारंभ में भी ऐसा एक उद्धरण है। उन दिनों काव्य और गद्य की भाषा अलग-अलग थी। काव्य के लिए ब्रज भाषा का प्रयोग होता था और गद्य के लिए खड़ी बोली का। लेखक ने इसी परिपाटी का अनुसरण करते हुए उपन्यास के काव्यांशों के लिए ब्रज भाषा चुना है।
बदीनारायण चौधरी उपाध्याय "प्रेमधन" हिन्दी साहित्यकार थे। वे भारतेंदु मंडल के उज्वलतम नक्षत्र थे। "प्रेमधन" जी पं॰ गुरुचरणलाल उपाध्याय के ज्येष्ठ पुत्र थे। गुरुचरणलाल उपाध्याय, कर्मनिष्ठ तथा विद्यानुरागी ब्राह्मण थे। इनका जन्म भाद्र कृष्ण षष्ठी, संवत् 1912 को दात्तापुर नामक ग्राम में हुआ था। इनकी माता ने मीरजापुर में हिंदी अक्षरों का ज्ञान कराया। संवत् 1928 में कलकत्ते से अस्वस्थ होकर आए और लंबी बीमारी में फँस गए। इसी बीमारी के दौरान में आपकी पं॰ इंद्र नारायण सांगलू से मैत्री हुई। सांगलू जी शायरी करते थे। इस संगत से नज़्मों और गजलों की ओर रुचि हुई। उर्दू फारसी का आपको गहरा ज्ञान था ही। इन रचनाओं के लिए "अब्र" (तखल्लुस) उपनाम रखकर गजल, नज्म और शेरों की रचना करने लगे। सांगलू के माध्यम से आपकी भारतेंदु बाबू, हरिश्चंद्र से मैत्री का सूत्रपात हुआ। धीरे धीरे यह मैत्री इतनी प्रगाढ़ हुई कि भारतेंदु जी के रंग में प्रेमघन जी पूर्णतया पग गए, यहाँ तक कि रचनाशक्ति, जीवनपद्धति और वेशभूषा से भी भारतेंदु जीवन अपना लिया। वि. सं. 1930 में प्रेमधन जी ने "सद्धर्म सभा" तथा 1931 वि. सं. "रसिक समाज" की मीरजापुर में स्थापना की। संवत् 1933 वि. में "कवि-वचन-सुधा" प्रकाशित हुई जिसमें इनकी कृतियों का प्रकाशन होता। उसका स्मरण चौधरी जी की मीरजापुर की कोठी का धूलिधूसरित नृत्यकक्ष आज भी कराता है। अपने प्रकाशनों की सुविधा के लिए इसी कोठी में आनंदकादंबिनी मुद्रणालय खोला गया। संवत् 1938 में "आनंदकादंबिनी" नामक मासिक पत्रिका की प्रथम माला प्रकाशित हुई। संवत् 1949 में नागरी नीरद नामक साप्ताहिक का संपादन और प्रकाशन आरंभ किया। प्रे मधन जी के साथ आचार्य रामचंद्र शुक्ल का पारिवारिक-सा संबंध था। शुक्ल जी शहर के रमईपट्टी मुहल्ले में रहते थे और लंडन मिशन स्कूल में ड्राइंग मास्टर थे। आनंद कादंबिनी प्रेस में छपाई भी देख लेते थे। 68 वर्ष की अवस्था में फाल्गुन शुक्ल 14, संवत् 1978 को आपकी इहलीला समाप्त हो गई। कथोपकथन शैली का आपके "दिल्ली दरबर में मित्रमंडली के यार में देहलवी उर्दू का फारसी शब्दों से संयुक्त चुस्त मुहावरेदार भाषा का अच्छा नमूना है। रामचंद्र शुक्ल- प्रेमघन की गद्य शैली की समीक्षा से यह स्पष्ट हो जाता है कि खड़ी बोली गद्य के वे प्रथम आचार्य थे। समालोच्य पुस्तक के विषयों का अच्छी तरह विवेचन करके उसके विस्तृत निरूपण की चाल उन्होंने चलाई। उन्होंने कई नाटक लिखे हैं जिनमें "भारत सौभाग्य" 1888 में कांग्रेस महाधिवेशन के अवसर पर खेले जाने के लिए लिखा गया था। वे ब्रजभाषा को कविता की भाषा मानते थ। प्रेमघन ने जिस प्रकार खड़ी बोली का परिमार्जन किया उनके काव्य से स्पष्ट है। "बेसुरी तान" शीर्षक लेख में आपने भारतेंदु की आलोचना करने में भी चूक न की। प्रेमघन कृतियों का संकलन उनके पौत्र दिनेशनारायण उपाध्याय ने किया है जिसका "प्रेमघन सर्वस्व" नाम से हिंदी साहित्य सम्मेलन ने दो भागों में प्रकाशन किया है। प्रेमघन हिंदी साहित्य सम्मेलन के तृतीय कलकत्ता अधिवेशन के सभापति (सं. 1912) मनोनीत हुए थे। कृतियाँ- (1) भारत सौभाग्य (2) प्रयाग रामागमन, संगीत सुधासरोवर, भारत भाग्योदय काव्य। गद्य पद्य के अलावा आपने लोकगीतात्मक कजली, होली, चैता आदि की रचना भी की है जो ठेठ भावप्रवण मीरजापुरी भाषा के अच्छे नमूने हैं और संभवत: आज तक बेजोड़ भी। कजली कादंबिनी में कजलियों का संग्रह है।
प्रतापनारायण मिश्र (सितंबर, 1856 - जुलाई, 1894) मिश्र जी उन्नाव जिले के अंतर्गत बैजे गाँव निवासी, कात्यायन गोत्रीय, कान्यकुब्ज ब्राहृमण पं॰ संकटादीन के पुत्र थे। बड़े होने पर वह पिता के साथ कानपुर में रहने लगे और अक्षरारंभ के पश्चात् उनसे ही ज्योतिष पढ़ने लगे। पिता की मृत्यु के पश्चात् 18-19 वर्ष की अवस्था में उन्होंने स्कूली शिक्षा से अपना पिंड छुड़ा लिया। वह हिंदी, उर्दू और बँगला तो अच्छी जानते ही थे, फारसी, अँगरेजी और संस्कृत में भी उनकी अच्छी गति थी। भारतेंन्दु मंडल के प्रमुख लेखक, कवि और पत्रकार थे। भारतेंदु पर उनकी अनन्य श्रद्धा थी, वह अपने को उनका शिष्य कहते तथा देवता की भाँति उनका स्मरण करते थे। भारतेंदु जैसी रचनाशैली, विषयवस्तु और भाषागत विशेषताओं के कारण मिश्र जी "प्रतिभारतेंदु" अथवा "द्वितीयचंद्र" कहे जाने लगे थे। मिश्र जी छात्रावस्था से ही "कविवचनसुधा" के गद्य-पद्य-मय लेखों का नियमित पाठ करते थे जिससे हिंदी के प्रति उनका अनुराग उत्पन्न हुआ। 1882 के आसपास "प्रेमपुष्पावली" प्रकाशित हुआ और भारतेंदु जी ने उसकी प्रशंसा की तो उनका उत्साह बहुत बढ़ गया। 15 मार्च 1883 को, ठीक होली के दिन, अपने कई मित्रों के सहयोग से मिश्र जी ने "ब्राहृमण" नामक मासिक पत्र निकाला। यह अपने रूप रंग में ही नहीं, विषय और भाषाशैली की दृष्टि से भी भारतेंदु युग का विलक्षण पत्र था। दो-तीन बार तो इसके बंद होने तक की नौबत आ गई थी। किंतु रामदीन सिंह आदि की सहायता से यह येन-केन प्रकारेण संपादक के जीवनकाल तक निकलता रहा। उनकी मृत्यु के बाद भी रामदीन सिंह के संपादकत्व में कई वर्षो तक निकला, परंतु पहले जैसा आकर्षण वे उसमें न ला सके। 1889 में मिश्र जी 25 रू. मासिक पर "हिंदीस्थान" के सहायक संपादक रहे। उन दिनों पं॰ मदनमोहन मालवीय "हिंदीस्थान" संपादक थे। यहाँ बालमुकुंद गुप्त ने मिश्र जी से हिंदी सीखी। मालवीय जी के हटने पर मिश्र जी अपनी स्वच्छंद प्रवृत्ति के कारण वहाँ न टिक सके। कालाकाँकर से लौटने के बाद वह प्राय: रुग्ण रहने लगे। फिर भी समाजिक, राजनीतिक, धार्मिक कार्यो में पूर्ववत् रुचि लेते और "ब्राह्मण" के लिये लेख आदि प्रस्तुत करते रहे। 1891 में उन्होंने कानपुर में "रसिक समाज" की स्थापना की। कानपुर की कई नाट्य सभाओं और गोरक्षिणी समितियों की स्थापना उन्हीं के प्रयत्नों से हुई थी। आचार्य शुक्ल ने इनकी तुलना अंग्रेजी गद्य लेखक स्टील से की है। मिश्र जी ने नाटकों में अभिनय भी किया, एक बार स्त्री पात्र की भूमिका में उतरने के लिए पिता के पास जाकर उनके जीवित रहने परी ही अपनी मूँछे मुंडवाने की अनुमति माँगी। कानपुर और नाटक शीर्षक से टिप्पणी लिखते हुए अपने नगर में हुए नाटकों के अभिनय का परिचय इन्होंने दिया है। मिश्र जी ने बँगला के प्रख्यात उपन्यासकार बंकिम चटर्जी की कई कथा-कृतियों का अनुवाद किया। 1892 के अंत में वह गंभीर रूप से बीमार पड़े और लगातार डेढ़ वर्षो तक बीमार ही रहे। अंत में 38 वर्ष की अवस्था में 6 जुलाई 1894 को दस बजे रात में भारतेंदुमंडल के इस नक्षत्र का अवसान हो गया। मिश्र जी की मुख्य कृतियाँ निम्नांकित हैं : (क) नाटक: भारत दुर्दशा, गोसंकट, कलिकौतुक, कलिप्रभाव, हठी हम्मीर, जुआरी खुआरी। सांगीत शाकुंतल (अनुवाद)। (ख) मौलिक गद्य कृतियाँ : चरिताष्टक, पंचामृत, सुचाल शिक्षा, बोधोदय, शैव सर्वस्व। (ग) अनूदित गद्य कृतियाँ: नीतिरत्नावली, कथामाला, सेनवंश का इतिहास, सूबे बंगाल का भूगोल, वर्णपरिचय, शिशुविज्ञान, राजसिंह, इदिरा, राधारानी, युगलांगुलीय। (घ) कविता : प्रेमपुष्पावली, मन की लहर, ब्रैडला स्वागत, दंगल खंड, कानपुर महात्म्य, श्रृंगारविलास, लोकोक्तिशतक, दीवो बरहमन (उर्दू)।
ठाकुर जगमोहन सिंह (४ अगस्त १८५७ - ) हिन्दी के भारतेन्दुयुगीन कवि, आलोचक और उपन्यासकार थे। उन्होंने सन् 1880 से 1882 तक धमतरी में और सन् 1882 से 1887 तकशिवरीनारायण में तहसीलदार और मजिस्ट्रेट के रूप में कार्य किया। छत्तीसगढ़ के बिखरे साहित्यकारों को जगन्मोहन मंडल बनाकर एक सूत्र में पिरोया और उन्हें लेखन की सही दिशा भी दी। जगन्मोहन मंडल काशी के भारतेन्दु मंडल की तर्ज में बनी एक साहित्यिक संस्था थी। हिंदी के अतिरिक्त संस्कृत और अंग्रेजी साहित्य की उन्हें अच्छी जानकारी थी। ठाकुर साहब मूलत: कवि ही थे। उन्होंने अपनी रचनाओं द्वारा नई और पुरानी दोनों प्रकार की काव्यप्रवृत्तियों का पोषण किया। शिक्षा के लिए काशी आने पर उनका परिचय भारतेंदु और उनकी मंडली से हुआ। बनारस के क्वींस कालेज में अध्ययन के दौरान वे भारतेंदु हरिश्चंद्र के सम्पर्क में आए तथा यह सम्पर्क प्रगाढ़ मैत्री में बदल गया जो की जीवन पर्यन्त बनी रही। इन्हें 'श्यामा' नाम की स्त्री से प्रेम हो गया। शिवरीनारायण में रहते हुए इन्होने श्यामा को केंद्र में रख कर अनेक रचनाओं का सृजन किया जिनमे हिंदी का अत्यंत भौतिक एवं दुर्लभ उपन्यास श्याम-स्वप्न प्रमुख है। श्याम-स्वप्न को भावप्रधान उपन्यास की संज्ञा दी जा सकती है। आद्योपांत शैली वर्णानात्मक है। इसमें चरित्रचित्रण पर ध्यान न देकर प्रकृति और प्रेममय जीवन का ही चित्र अंकित किया गया है। कवि की शृंगारी रचनाओं की भावभूमि पर्याप्त सरस और हृदयस्पर्शी होती है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल का कहना था कि "प्राचीन संस्कृत साहित्य" के अभ्यास और विंध्याटवी के रमणीय प्रदेश में निवास के कारण विविध भावमयी प्रकृति के रूपमाधुर्य की जैसी सच्ची परख जैसी सच्ची अनुभूति इनमें थी वैसी उस काल के किसी हिंदी कवि या लेखक में नहीं पाई जाती। उनके तीन काव्यसंग्रह प्रकाशित हैं : (1) "प्रेम-संपत्ति-लता" (सं. 1942 वि.), (2) "श्यामालता", और (3) "श्यामासरोजिनी" (सं. 1943)। इसके अतिरिक्त इन्होंने कालिदास के "मेघदूत" का बड़ा ही ललित अनुवाद भी ब्रजभाषा के कबित्त सवैयों में किया है।
अंबिकादत्त व्यास (1848-1900) इन्होंने कवित्त सवैया की प्रचलित शैली में ब्रजभाषा में रचना की।
भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के समकालीन हिन्दी सेवियों में पंडित अंबिकादत्त व्यास बहुत प्रसिद्ध लेखक और कवि हैं। • बिहारी बिहार (1898 ई.) • पावस पचास, • ललिता (नाटिका)1884 ई. • गोसंकट (1887 ई.) • आश्चर्य वृतान्त 1893 ई. • गद्य काव्य मीमांसा 1897 ई
राधाचरण गोस्वावमी (२५ फरवरी १८५९ 1859 - १२ दिसम्बर १९२५ )
गोस्वामी जी के पिता गल्लू जी महाराज अर्थात् गुणमंजरी दास जी (1827 ई.-1890 ई.) एक भक्त कवि थे। मासिक पत्र ‘भारतेन्दु’ (वैशाख शुक्ल 15 विक्रम संवत् 1940 तदनुसार 22 मई 1883 ई.) में उन्होंने ‘पश्चिमोत्तर और अवध में आत्मशासन’ शीर्षक से सम्पादकीय अग्रलेख लिखा था। उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में बनारस, इलाहाबाद, पटना, कलकत्ता और वृन्दावन नवजागरण के पाँच प्रमुख केन्द्र थे। वृन्दावन केन्द्र के एकमात्र सार्वकालिक प्रतिनिधि राधाचरण गोस्वामी ही थे। गोस्वामी जी देशवासियों की सहायता से देशभाषा हिन्दी की उन्नति करना चाहते थे। देशभाषा की उन्नति के लिए सामूहिक प्रयास की आवश्यकता है। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि 1882 ई. में देशभाषा की उन्नति के लिए अलीगढ़ में भाषावर्धिनी सभा को अपना सक्रिय समर्थन प्रदान करते हुए कहा था, ‘...यदि हमारे देशवासियों की सहायता मिले, तो इस सभा से भी हमारी देशभाषा की उन्नति होगी।’ गोस्वामी जी सामाजिक रूढ़ियों के उग्र किन्तु अहिंसक विरोधी थे। वे जो कहते थे, उस पर आचरण भी करते थे। अपने आचरण के द्वारा वे गलत सामाजिक परमपराओं का शान्तिपूर्ण विरोध करते थे। • पण्डित राधाचरण 1885 ई. में वृन्दावन नगरपालिका के सदस्य पहली बार निर्वाचित हुए थे। • पंजाब केसरी लाला लाजपत राय का आगमन दो बार वृन्दावन में हुआ था। दोनों बार गोस्वामी जी ने उनका शानदार स्वागत किया था। • ब्रज माधव गौड़ीय सम्प्रदाय के श्रेष्ठ आचार्य होने के बावजूद उनकी बग्घी के घोड़ों के स्थान पर स्वयं उनकी बग्घी खींचकर उन्होंने भारत के राष्ट्रनेताओं के प्रति अपनी उदात्त भावना का सार्वजनिक परिचय दिया था। • तत्कालीन महान क्रान्तिकारियों में उनके प्रति आस्था और विश्वास था और उनसे उनके हार्दिक सम्बन्ध भी थे। उदाहरणार्थ, 22 नवम्बर 1911 ई. को महान क्रान्तिकारी रास बिहारी बोस और योगेश चक्रवर्ती उनसे मिलने उनके घर पर आए थे और उनका प्रेमपूर्ण स्वागत उन्होंने किया था। उक्त अवसर पर गोस्वामीजी की दोनों आँखें प्रेम के भावावेश के कारण अश्रुपूर्ण हो गई थीं। • गोस्वामी जी कांग्रेस के आजीवन सदस्य और प्रमुख कार्यकर्ता थे। 1888 ई. से 1894 तक वे मथुरा की कांग्रेस समिति के सचिव थे। • उन्होंने अपनी आत्मकथा में स्वयं कहा है ‘‘देशोन्नति, नेशनल कांग्रेस, समाज संशोधन, स्त्री स्वतन्त्रता यह सब मेरी प्राणप्रिय वस्तुएँ हैं।’’ • गोस्वामी जी में प्रखर राजनीतिक चेतना थी। वे तत्कालीन प्रमुख राजनीतिक विषयों पर अपने समय की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में अखिल भारतीय स्तर पर लेखादि लिखते रहते थे। • उन्होंने ‘सारसुधानिधि’, विक्रम संवत् 1937, वैशाख 29 चन्द्रवार 10 मई 1880 (भाग 2 अंक 5) में प्राप्त ‘स्तंभ’ के अन्तर्गत ‘काबुल का अचिन्त्य भाव’ शीर्षक लेख लिखा था। • गोस्वामी जी के सतत प्रयत्न से मथुरा वृन्दावन रेल का संचालन हुआ। • वृन्दावन के राधारमण मन्दिर में अढ़ाई वर्षों के अन्तराल में 17 दिनों की सेवा करने का अधिकार उन्हें प्राप्त था। अपने निधन के चार दिन पूर्व तक श्रीराधारमण जी की मंगला आरती प्रातः चार बजे वे स्वयं करते थे। • गोस्वामीजी के जीवन दर्शन का मूल संदेश धर्म, जाति, वर्ग और साहित्य की विविधता में एकता का समन्वय था। उन्हंप संकीर्ण और कुंठित भावनाएँ स्पर्श नहीं करती थीं। • डाक और रेल के टिकटों में भी नागरी लिपि का प्रवेश होना चाहिए था, इसके लिये उन्होंने विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में लेख लिखे थे। कलकत्ता से प्रकाशित हिन्दी साप्ताहिक पत्र ‘सारसुधानिधि’, 12 सितम्बर 1881 ई. में उन्होंने कहा था-रेल की टिकटों में नागरी नहीं लिखी जाती है जिससे नागरी का प्रचार नहीं हो पाता। क्या रेलवे अध्यक्षों को नागरी से शत्रुता है या हमारे देशवासी नागरी जानते ही नहीं। • इससे पूर्व उन्होंने ‘सारसुधानिधि’ 7 अगस्त 1881 ई. को यह सवाल उठाया था कि आर्य राजाओं ने अपनी रियासतों में फारसी सिक्का क्यों जारी रखा है? स्वजातीयाभिमान का प्रश्न था। • गोस्वामी जी सर्वधर्म समभाव के सिद्धान्त के प्रतीक थे। श्रीराधारमण जी के अनन्य उपासक और ब्राह्म माध्व गौड़ीय सम्प्रदाय के मुख्य आचार्य होने के बावजूद उनमें किसी भी धर्म अथवा धार्मिक सम्प्रदाय के प्रति दुराव अथवा दुराग्रह नहीं था। अपने जीवन चरित के नौवें पृष्ठ पर उन्होंने स्वयं लिखा है- • ‘‘मैं एक कट्टर वैष्णव हिन्दू हूँ। अन्य धर्म अथवा समाज के लोगों से विरोध करना उचित नहीं समझता। बहुत से आर्यसमाजी, ब्रह्म समाजी, मुसलमान, ईसाई मेरे सच्चे मित्र हैं और बहुधा इनके समाजों में जाता हूँ।’’ • गोस्वामी राधाचरण के साहित्यिक जीवन का उल्लेखनीय आरम्भ 1877 ई. में हुआ। • इस वर्ष उनकी पुस्तक ‘शिक्षामृत’ का प्रकाशन हुआ। यह उनकी प्रथम पुस्तकाकार रचना है। • तत्पश्चात् मौलिक और अनूदित सब मिलाकर पचहत्तर पुस्तकों की रचना उन्होंने की। • इनके अतिरिक्त उनकी प्रायः तीन सौ से ज्यादा विभिन्न कोटियों की रचनाएँ तत्कालीन पत्र-पत्रिकाओं में फैली हुई हैं जिनका संकलन अब तक नहीं किया जा सका। • उन्होंने राधाकृष्ण की लीलाओं, प्रकृति-सौन्दर्य और ब्रज संस्कृति के विभिन्न पक्षों पर काव्य-रचना की। कविता में उनका उपनाम ‘मंजु’ था। • गोस्वामी राधाचरण ने समस्या प्रधान मौलिक उपन्यास लिखे। ‘बाल विधवा’ (1883-84 ई.), ‘सर्वनाश’ (1883-84 ई.), ‘अलकचन्द’ (अपूर्ण 1884-85 ई.) ‘विधवा विपत्ति’ (1888 ई.) ‘जावित्र’ (1888 ई.) आदि। • वे हिन्दी में प्रथम समस्यामूलक उपन्यासकार थे, प्रेमचन्द नहीं। ‘वीरबाला’ उनका ऐतिहासिक उपन्यास है। इसकी रचना 1883-84 ई. में उन्होंने की थी। • हिन्दी में ऐतिहासिक उपन्यास का आरम्भ उन्होंने ही किया। ऐतिहासिक उपन्यास ‘दीप निर्वाण’ (1878-80 ई.) और सामाजिक उपन्यास ‘विरजा’ (1878 ई.) उनके द्वारा अनूदित उपन्यास है। • लघु उपन्यासों को वे ‘नवन्यास’ कहते थे। ‘कल्पलता’ (1884-85 ई.) और ‘सौदामिनी’ (1890-91 ई.) उनके मौलिक सामाजिक नवन्यास हैं। • प्रेमचन्द के पूर्व ही गोस्वामी जी ने समस्यामूलक उपन्यास लिखकर हिन्दी में नई धारा का प्रवर्त्तन किया। • गोस्वामी जी के नाटकों और प्रहसनों में उनकी सुधारवादी चेतना ही सर्वप्रमुख है। • ‘बूढ़े मुँह मुँहासे लोग देखें तमाशे’ नामक प्रहसन में हिन्दू और मुसलमान किसान एक साथ जमींदार के प्रति सम्मिलित विद्रोह करते हैं और अपनी समस्याओं का निराकरण करते हैं। किसानों की समस्याओं में धर्म का विभेद नहीं होता। • उनका व्यंग्य लेखन भी उत्कृष्ट कोटि का है। उदाहरणार्थ, मासिक पत्र ‘हिन्दी प्रदीप’ आषाढ़ शुक्ल 15 विक्रम संवत् 1939 तदनुसार 1 जुलाई 1882 ई. (जिल्द 5 संख्या 11) में पृष्ठ संख्या 9 पर गोस्वामी जी द्वारा विरचित ‘एक नए कोष की नकल’ का प्रकाशन हुआ था जिसमें व्यंग्य की प्रचुरता है। उक्त ‘नकल’ के कतिपय अंश अधोलिखित है- • मधुर भाषा। अँग्रेजी। • शरीफों की जबान। • उर्दू या राजा शिव प्रसाद जिसे कहैं। • जंगली लोगों की भाषा। • संस्कृत-हिन्दी परम कर्तव्य। • खुशामद खुशामद॥ • अकर्तव्य। देश का हित, भारतवासियों की भलाई॥ • उक्त व्यंग्य में उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध की भारतीय मानसिकता का दिग्दर्शन होता है। • गोस्वामी जी एक श्रेष्ठ समालोचक भी थे। उनकी प्रतिज्ञा थी ‘‘किसी पुस्तक की समालोचना लिखो तो सत्य-सत्य लिखो।’’ • निबन्ध लेखन के क्षेत्र में उनका उल्लेखनीय योगदान रहा है। उनके निबन्धों का वर्ण्य विषय अत्यन्त व्यापक था। उन्होंने ऐतिहासिक, धार्मिक, सामाजिक, साहित्यिक, शिक्षा और यात्रा सम्बन्धी लेख लिखे। तत्कालीन विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में उनके बहुसंख्यक लेख बिखरे हुए हैं जिनका संकलन अब तक नहीं किया जा सका। • गोस्वामी जी का कथन था कि ‘‘यदि खड़ी बोली में कविता की चेष्टा की जाए तो खड़ी बोली के स्थान पर थोड़े दिनों में उर्दू की कविता का प्रचार हो जाएगा।’’ (हिन्दोस्तान,11 अप्रैल 1888 ई.) • गोस्वामी जी द्वारा सम्पादित मासिक पत्र ‘भारतेन्दु’ का पुनर्प्रकाशन 1 अक्टूबर 1890. ई. से हुआ था। • ‘भारतेन्दु’ 1 अक्टूबर 1890 ई. (पुस्तक 5 अंक 1) में पृष्ठ संख्या 2 पर ‘भारतेन्दु का प्रेमालाप’ शीर्षक सम्पादकीय में सम्पादक राधाचरण गोस्वामी ने कहा था ‘‘भाषा कविता पर बड़ी विपत्ति आने वाली है। कुछ महाशय खड़ी हिन्दी का मुहम्मदी झण्डा लेकर खड़े हो गए हैं और कविता देवी का गला घोंटकर अकाल वध करना चाहते हैं जिससे कवि नाम ही उड़ जाए...’’ अर्थात् खड़ी बोली कविता का विरोध करने के लिए उन्होंने ‘भारतेन्दु’ का पुनर्प्रकाशन किया था। किन्तु यह पत्र अपने पुनर्प्रकाशन के बावजूद अल्पजीवी ही सिद्ध हुआ। पण्डित श्रीधर पाठक खड़ी बोली गद्य के समर्थक थे। गोस्वामी जी और पाठक जी में खड़ी बोली पद्य आन्दोलन के दौर में इसी बात पर मनोमालिन्य भी हुआ। 4 जनवरी 1905 ई. को खत्री जी का निधन हो गया था। सरस्वती और अन्य पत्रिकाओं में खड़ी बोली कविताओं का प्रकाशन शुरू हो गया था। • 18 मई 1906 को गोस्वामी जी को लिखित अपने एक व्यक्तिगत पत्र में पण्डित श्रीधर पाठक ने कहा था- ‘‘पुराने प्रेमियों को भूल जाना गुनाह में दाखिल है।’’ पाठक जी की ओर से पारस्परिक मनोमालिन्य दूर करने की यह सार्थक चेष्टा थी। गोस्वामी जी ने अपने जीवनकाल में ही मैथिलीशरण गुप्त और छायावाद का उत्कर्ष देखा। उनका खड़ी बोली पद्य के प्रति विरोध दूर हो गया था। जनवरी 1910 ई. से 1920 ई. तक वृन्दावन से उन्होंने धार्मिक मासिक पत्र 'श्रीकृष्ण चैतन्य चन्द्रिका' का सम्पादन-प्रकाशन किया था। उक्त मासिक पत्र के प्रथमांक (जनवरी 1910 ई.) में स्वयं ‘श्री विष्णुप्रिया का विलाप’ शीर्षक कविता खड़ी बोली पद्य में लिखी थी। • गोस्वामी जी साहित्यकार ही नहीं, पत्रकार भी थे। उन्होंने वृन्दावन से भारतेन्दु मासिक पत्र का सम्पादन-प्रकाशन किया था जिसका प्रथमांक चैत्रा शुक्ल 15, विक्रम संवत् 1940 तदनुसार 22 अप्रैल 1883 ई. को प्रकाशित हुआ। इसका प्रकाशन 3 वर्ष 5 माह तक हुआ। किन्तु व्यय अधिक होने से इसे बन्द कर देना पड़ा। 1910 ई. से 1920 ई. तक वृन्दावन से ही 'श्रीकृष्ण चैतन्य चन्द्रिका' नामक धार्मिक मासिक पत्रिका का सम्पादन-प्रकाशन उन्होंने किया था। गोस्वामी राधाचरण जी ने ‘मेरा संक्षिप्त जीवन परिचय’ (1895 ई.) शीर्षक अपनी संक्षिप्त आत्मकथा में लिखा था- • ‘लिखने के समय किसी ग्रन्थ की छाया लेकर लिखना मुझे पसन्द नहीं। जो कुछ अपने मन का विचार हो वही लिखता हूँ। • पण्डित बालकृष्ण भट्ट और हिन्दी प्रदीप ने पण्डित राधाचरण गोस्वामी को हिन्दी के साढ़े तीन लेखकों में से एक माना था। हिन्दी प्रदीप जनवरी-फरवरी मार्च 1894 ई. (जिल्द 17 संख्या 5, 6 और 7) ने कहा था कि हिन्दी के साढ़े तीन सुलेखक थे- बाबू हरिश्चन्द्र अर्थात् भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, ब्राह्मण मासिक पत्र के सम्पादक प्रतापनारायण मिश्र और राधाचरण गोस्वामी, आधा पीयूष प्रवाह सम्पादक अम्बिकादत्त व्यास। • इस कथन से गोस्वामी जी की महत्ता का अनुमान लगाया जा सकता है। देशोपकार उनके सम्पूर्ण लेखन का मूलमन्त्र था। विचारों की उग्रता और प्रगतिशीलता में वे अपने युग के अन्य सभी लेखकों से बहुत आगे थे। वे एक क्रान्तिदर्शी साहित्यकार थे, प्रखर राष्ट्र-चिन्तक, साहित्य और समय की धारा को नया मोड़ देनेवाले युगद्रष्टा कथाकार भी। स्वाधीन चेतना, आत्मनिर्भरता, साहस, निर्भयता और आत्माभिमान उनके विशेष गुण थे। वे वस्तुतः भारतभक्त और हिन्दी साहित्य के एक गौरव स्तम्भ ही थे
भारतेंदु जी तो अपने आप में ही युग थे!
जवाब देंहटाएंधन्यवाद जानकारी देने के लिए
जवाब देंहटाएंविकिपीडिया से जब आप सामाग्री उठाते हैं तो संदर्भ भी दिया करें। ज़रूरी नही की आप सब कुछ पढ़ चुके हों किन्तु कॉपीराइट और प्लेगरिजम नाम के शब्द के बारे मे थोड़ी जानकारी प्रपट कीजिये
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