काव्यशास्त्र
डॉ. नीरज भारद्वाज
काल–विभाजनः- भारतीय काव्यशास्त्र के विकास का इतिहास 500 वर्ष ईसा पूर्व से अठारहवी शताब्दी तक, लगभग दो हजार वर्षों तक फैला हुआ है। विद्वानों ने इस काल का विभाजन विभिन्न तर्कों के आधार पर कई तरह से किया है। लेकिन अधिकांश विद्वानों के अनुसार इसे निम्नलिखित चार भागों में बाँटा गया हैः-
1. आदिकाल या प्रारंभिक काल-(अज्ञातकाल से छठवीं शताब्दी अर्थात् आचार्य भामह तक।)
2. रचना काल- छठवीं शताब्दी से आठवीं शताब्दी तक (आचार्य भामह से आचार्य आनन्दवर्धन तक)
3. निर्णयात्मक काल- आठवीं शताब्दी से दसवीं शताब्दी तक (आचार्य आनन्दवर्धन से आचार्य मम्मट तक)
4. व्याख्या काल- दसवीं शताब्दी से अठारहवीं शताब्दी तक (आचार्य मम्मट से आचार्य विश्वेश्वर पण्डित तक)
1.आदिकाल या प्रारंभिक कालः- इस काल में मुख्य रूप से दो ही आचार्य दिखते हैं- आचार्य भरत और आचार्य भामह, यदि निरुक्तकार महर्षि यास्क या वैय्याकरण महर्षि पाणिनी आदि को छोड़ दिया जाय। क्योंकि इनकी विवेचना केवल उपमा अलंकार तक ही सीमित है। आचार्य भरत का एकमात्र ग्रन्थ नाट्यशास्त्र मिलता है, जिसमें नाटक के विभिन्न अंगों और रसों पर ही विस्तार से विचार किया गया है। काव्यशास्त्र के दृष्टिकोण से नाट्यशास्त्र के केवल 16वें अध्याय में काव्य के गुण-दोषों और अलंकारों पर प्रकाश डाला गया है। इसमें केवल चार अलंकारों, दस गुणों और दस ही दोषों का उल्लेख मिलता है। अतएव इस ग्रंथ में काव्यशास्त्र के बीज मात्र ही दिखायी पड़ते हैं।
आचार्य भरत के बाद इस परम्परा में रुद्र आदि आचार्यों के नाम आते है, जिन्होंने नाट्यशास्त्र पर टीकाएँ लिखीं हैं, किन्तु दुर्भाग्य की बात है कि उनके ग्रंथ अनुपलब्ध हैं। यदि व्यापक दृष्टि से देखा जाय तो आचार्य भामह काव्यशास्त्र के प्रथम आचार्य हैं, और उनका काव्यालंकार इस विद्या का प्रथम मुख्य ग्रंथ है। इसमें नाट्यशास्त्र में वर्णित चार अलंकारों के सथान पर 38 अलंकारों का निरूपण किया गया है।
2.रचनात्मक काल- आचार्य भामह से आचार्य आनन्दवर्धन तक 200 वर्षों का यह काल है। इस काल में काव्यशास्त्र मुख्य चार वाद या सम्प्रदाय- अलंकार सम्प्रदाय, रीति सम्प्रदाय, रस सम्प्रदाय और ध्वनि सम्प्रदाय के मूल ग्रंथों का प्रणयन हुआ। सम्प्रदाय सहित उनके आचार्यों का विवरण नीचे दिया जा रहा है-
1. अलंकार सम्प्रदाय- आचार्य भामह, उद्भट और रूद्रट।
2. रीति सम्प्रदाय- आचार्य दण्डी और वामन।
3. रस सम्प्रदाय- आचार्य लोल्लट, शंकुक और भट्टनायक आदि।
4. ध्वनि सम्प्रदाय- आचार्य आनन्दवर्धन।
इस काल को काव्यशास्त्र के विकास का काल कहा जा सकता है। इस काल में काव्य के अलंकारों, रीतियों गुणों आदि का निरूपण किया गया । आचार्य भरत के नाट्यशास्त्र में प्रतिपादित ‘रससूत्र’ पर टीकाएं लिखकर आचार्य लोल्लट, शंकुक, भट्टनायक आदि ने रस सिद्धान्त की प्रतिष्ठा की। आचार्य आनन्दवर्धन द्वारा ध्वनि-सम्प्रदाय की स्थापना की गयी।
3.निर्णयात्मक कालः- इस काल के प्रमुख आचार्य अभिनवगुप्त, कुंतक, महिमभट्ट आदि हैं। आचार्य अभिनवगुप्त ने ध्वन्यालोक पर प्रसिद्ध लोचन टीका लिखी। अन्यथा ध्वनि के आलोक को अर्थात् ध्वन्यालोककार आचार्य आनन्दवर्धन द्वारा प्रतिपादित ध्वनि-सिद्धांत को बिना लोचन (टीका) द्वारा समझना कठिन होता।
इसके अतिरिक्त उन्होंने आचार्य भरत द्वारा प्रणीत नाट्यशास्त्र पर भी अभिनव-भारती नामक प्रसिद्ध टीका लिखी। आचार्य कुंतक ने वक्रोक्तिजीवित नामक उत्कृष्ट ग्रंथ लिखकर वक्रोक्ति-सम्प्रदाय की स्थापना की। आचार्य महिमभट्ट नैय्यायिक हैं और इन्होंने व्यक्तिविवेक नामक ग्रंथ लिखा है। इस ग्रंथ में ध्वनि-सिद्धांत का बड़ी कट्टरता से विरोध करते हुए न्यायांतर्गत अनुमान द्वारा सिद्ध करने का प्रयत्न किया गया है।
4.व्याख्या कालः- साहित्यशास्त्र के लिए यह काल बहुत ही महत्वपूर्ण है। यह आचार्य मम्मट से लेकर आचार्य विश्वेश्वर पण्डित तक अर्थात् दसवीं शताब्दी से अठारहवीं शताब्दी तक विस्तृत है। इस काल में अनेक आचार्य हुए हैं। इनमें आचार्य हेमचन्द्र,विश्वनाथ, जयदेव, शारदातनय, शिङ्गभूपाल, भानुदन्त, गौडीय वैष्णव आचार्य रूपगोस्वामी आदि हैं। इसके अतिरिक्त कवि शिक्षा के क्षेत्र में ग्रंथों का निर्माण करने वाले राजशेखर, क्षेमेन्द्र, अमरचन्द्र आदि आचार्यों के नाम उल्लेखनीय हैं। इसी काल में आचार्य क्षेमेन्द्र ने ‘औचित्य विचार चर्चा’ नामक ग्रंथ लिखकर ‘औचित्यवाद’ की स्थापना की। इस काल के आचार्यों के योगदान को देखते हुए विभिन्न सम्प्रदायों के अनुयायी के रूप में उन्हें निम्नवत् प्रदर्शित किया जा सकता हैः-
1. रस सम्प्रदाय- शारदातनय, शिङ्गभूपाल, भानुदन्त, रुपगोस्वामी आदि आचार्य।
2. अलंकार सम्प्रदाय- पण्डितराज जगन्नाथ, विश्वेश्वर पण्डित आदि आचार्य।
3. ध्वनि सम्प्रदाय- मम्मट, रुय्यक, विश्वनाथ, हेमचन्द्र, विद्याधर, विद्यानाथ, जयदेव, अप्पयदीक्षित आदि।
4. औचित्य सम्प्रदाय- आचार्य क्षेमेन्द्र।
5. कवि शिक्षा- राजशेखर, क्षेमेन्द्र, अरिसिंह, अमरचन्द्र, देवेश्वर आदि आचार्य।
कुछ अन्य साहित्यशास्त्र की दो हजार वर्ष की यात्रा के निम्नलिखित तीन पड़ाव मानते हैं-
1. पू्र्वध्वनिक कालः- अज्ञातकाल से आचार्य आनन्दवर्धन तक।
2. ध्वनिकाल- आचार्य आनन्दवर्धन से आचार्य मम्मट तक।
3. ध्वन्योत्तर काल- आचार्य मम्मट से पण्डितराज जगन्नाथ तक।
उक्त वर्गीकरण के पीछे विद्वानों द्वारा ध्वनि सिद्धांत को इस यात्रा का मील का पत्थर मानना है।
आचार्य ग्रंथ
भरत नाट्यशास्त्र
भामह काव्यालंकार
दण्डी काव्यादर्श
वामन काव्यालंकारसूत्रवृत्ति
रूद्रट काव्यालंकार
आनंदवर्द्धन ध्वन्यालोक
अभिनवगुप्त ध्वन्यालोक की लोचन टीका और अभिनव भारती
आचार्य राजशेखर काव्यमीमांशा
कुंतक वक्रोक्तिजीवित्तम्
महिम भट्ट व्यक्तिविवेक
भोजराज सरस्वती कंठाभरण एवं श्रृंगारप्रकाश
मम्मट काव्यप्रकाश, अग्निपुराण
विश्वनाथ साहित्यदर्पण
पंडित जगन्नाथ रसगंगाधर
• भारतीय काव्यशास्त्र का विधिवत् चिंतन भरतमुनि के नाट्यशास्त्र से आरंभ होता है।
• आचार्य भरत ने स्वयं भी काव्यशास्त्र का स्वतंत्र चिंतन नहीं किया है। उन्होंने व्यवस्थित रूप से नाटक या रूपक का वर्णन किया है। प्रसंगवश काव्यशास्त्र के विषय उनके नाट्यशास्त्र में घुल मिल गए।
• वर्तमान समय में उपलब्ध नाट्यशास्त्र में 36 अध्याय तथा 5000 से अधिक श्लोक हैं।
• काव्यशास्त्र का कोई भी अध्ययन नाट्यशास्त्र से ही आरंभ होता है। रस, छंद और अलंकार का उद्भव इसी ग्रंथ से है।
• भरतमुनि के रस सूत्र तत्रविभावानुभावव्यभिचारिसंयोगाद्रसनिष्पितः नाट्यशास्त्र के छठे अध्याय में यह सूत्र दिया गया है।
• भरतमुनि के रस सूत्र मे रस के अतिरिक्त 5 शब्द हैं- 1.विभाव, 2.अनुभाव, 3. संचारी भाव, 4. संयोग, 5.निष्पत्ति।
• भरत के अनुसार संयोग का अर्थ संसर्ग है और निष्पत्ति का अर्थ नवरूप प्राप्ति होता है।
• भरतमुनि के अतिरिक्त विद्वानों ने संयोग और निष्पति पर जो विचार प्रकट हुए उनमें भट्टलोल्लट –उत्पत्तिवाद, शंकुक -अनुमतिवाद, भट्टनायक –भुक्तिवाद, अभिनवगुप्त –अभिव्यक्तिवाद कहलाते हैं।
• भट्टलोल्लट (उत्पत्तिवाद) के अनुसार संयोग का अर्थ कारण-कार्य-संबंध तथा निष्पत्ति का अर्थ उत्पत्ति है।
• लोल्लट ने कारण-कार्य संबंध का उल्लेख तीन संदर्भों में किया-
• 1. विभाव और स्थायी भाव में उत्पाद्य-उत्पादक संबंध होता है। 2. अनुभाव और स्थायीभाव में बोधक-बोध्य संबंध होता है। 3. स्थायी भाव और व्यभिचारी भाव में पोष्यं-पोषक संबंध होता है।
• इस दृष्टि से लोल्लट ने रस-प्रक्रिया के तीन स्तर बताए 1. उत्पत्ति ( अर्थात् उत्पत्तिवाद- मूल नायक में रस उत्पन्न होने के कारण 2. प्रतीति (अर्थात् आरोपवाद- नट में रस की प्रतीति के कारण) 3. पुष्टि या उपचिति (अर्थात् चमत्कारवाद- प्रेक्षक अर्थात् देखने वाला के हृदय में चमत्कारपूर्ण अनुभूति के कारण)
• लोल्लट की दृष्टि भरत की तरह यथार्थवादी है। वह प्रेक्षक के भाव की चर्चा नहीं करते हैं और उसकी आनंदानुभूति की बात कह देते हैं।
• शंकुक (अनुमितिवाद) शंकुक का मत अनुमितिवाद कहलाता है। शंकुक ने निष्पत्ति का अर्थ अनुमिति किया है। वे मानते हैं कि रस मूल रूप में मुख्य (रामादि) पात्र में निहित रहता है नट तो उसका अनुकरण करता है। इसीलिए रसनिष्पत्ति अनुकरण है।
• स्थायी भाव वास्तव में रामादि अनुकार्य में रहता है और नट इसका अपने कौशल से अनुकरण करता है, जिससे ऐसा प्रतीत होता है कि नट स्थायी भाव का अनुभव कर रहा है।
• स्थायी भाव का यह अनुकरण ही रस कहलाता है।
• शंकुक के मत को रस सिद्धांत का पहला दार्शनिक चिंतन कहा जाता है।
• भट्टनायक (भुक्तिवाद) इन्होंने संयोगात् का अर्थ भोज्य-भोजक संबंधात् तथा निष्पत्ति का अर्थ भुक्ति किया।
• इनके मत का मूल है कि काव्य की संरचना तथा उसके आस्वादन में तीन शक्तियाँ प्रमुख हैं- अभिधा, भावकत्व और भोजकत्व। काव्यरस में प्रथम दो महत्वपूर्ण हैं।
• अभिधा व्यापार द्वारा काव्य के अर्थ का बोध होता है।
• भावकत्व व्यापार द्वारा विभावादि का साधारणीकरण होता है।
• भोजकत्व व्यापरा द्वारा सामाजिक साधारणीकृत विभावादि के पश्चात साधारणीकृत स्थायी भाव का भोग रस रूप में करता है।
• भट्टनायक ने ही रस को आस्वाद्य न कहकर आस्वाद बताया तथा साधारणीकरण के सिद्धांत की स्थापना की।
• अभिनवगुप्त (अभिव्यक्तिवाद) ये शैवाद्वैत दर्शन या प्रत्यभिज्ञा दर्शन के प्रकांड पंडित थे। इनके अनुसार संयोग का अर्थ व्यंजना और निष्पत्ति का अर्थ अभिव्यक्ति है।
• नाटक अथवा काव्य के उपकरणों द्वारा साधारणीकृत होकर देशकाल, स्व-पर, व्यक्तिगत रागद्वेष आदि की चेतना से मुक्त होकर रत्यादि भाव आस्वाद्य अथवा सुखमय प्रतीति के विषय बन जाते हैं। यह आस्वाद्य भाव और उसकी प्रतीति ही रस है।
• सफल अभिनय से सहृदय दर्शक तन्मय होते हैं और उन्हें ब्रह्मानन्द सहोदर अखण्ड रस का आनंद प्राप्त होता है।
• इनका विवेचन अद्वैतवाद पर आधारित है। वह रस निष्पत्ति को आत्मा के क्षेत्र का विषय मानते हैं।
• आचार्य भरत ने रस के आठ भेद माने।
• भरत के अनुसार-
1. श्रृंगार रस से हास्य रस,
2. रौद्र रस से करुण रस
3. वीर रस से अद्भुत रस
4. बीभत्स रस से भयानक रस
धनंजय आदि आचार्य चार मौलिक मनः सेवेगों के आधार पर मूल चार रस मानते हैं। चित्त की चार अवस्थाएँ- विकास, विस्तार, विक्षोभ एवं विक्षेप।
आचार्य उद्भट ने अपनी कृति काव्यालंकारसारसंग्रह में शांत रस को जोड़ा और नव रस की स्थापना की।
आचार्य विश्वनाथ ने अपनी कृति साहित्यदर्पण में वात्सल्य रस के बारे में कहा।
एक रसवाद को मानने वाले विचारक भी हैं-
1. भवभूति ने करुण रस को एक मात्र माना है।
2. आचार्य अभिनवगुप्त ने अपनी कृति अभिनव भारती में शांत रस को माना है।
3. आचार्य भोजराज ने श्रृंगार रस को माना है। उन्होंने इसे रस राज भी कहा है।
4. वैष्णव भक्तों ने भक्ति रस माना है।
रस के अन्य चिंतक
आचार्य धनंजय, धनिक, महिम भट्ट, मम्मट और पंडित जगन्नाथ प्रमुख हैं।
• धनंजय और धनिक इस की स्थिति सहृदयगत मानते हैं और स्वीकार करते हैं कि सहृदयगत स्थायीभाव ही रसत्व को प्राप्त होता है। वे केवल व्यंजना को स्वीकार नहीं करते हैं वे भट्ट नायक की भाँति संयोग का अर्थ भाव-भावक संबंध तथा निष्पत्ति का अर्थ भावित होना मानते हैं।
• महिम भट्ट भी रस के स्वरूप के विषय में अभिनव के मत का ही समर्थन करते हैं। वह रस की स्थिति सहृदय में मानते हैं परन्तु निष्पत्ति का अर्थ अनुमति और संयोग का अर्थ अनुमाष्य-अनुमाषक संबंध बताते हैं।
• मम्मट और जगन्नाथ ने भी अभिनव गुप्त के मत का स्वीकार किया
रस के कारण
स्थायी भाव
मानव मन की समस्त दशाएँ एवं वृत्तियाँ भाव कही जाती है। आचार्य भरत के मतानुसार- भाव के बिना रस और रस के बिना भाव की स्थिति संभव नहीं है। भाव के दो प्रकार माने जाते हैं- 1. स्थायी भाव, 2. अस्थायी भाव।
1. स्थायी भाव- सहृदय के हृदय में जो मनोविकार वासना रूप में सदैव विद्यमान रहते हैं तथा जिन्हें कोई अन्य भाव दबा नहीं सकता उन्हें स्थायी भाव कहते हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो जो स्थिति चिरकाल (लंबे समय तक) बनी रहे। स्थायी भावों की संख्या नौ मानी गई है।
रस के भेद
क्र.सं. स्थायी भाव रस रंग देवता
1 रति श्रृंगार रस हरा विष्णु
2 हास हास्य रस सफेद शिवगण
3 शोक करूण रस कोरा वस्त्र यम
4 क्रोध रौद्र रस लाल रुद्र
5 उत्साह वीर रस सुनहरा पीला इन्द्र
6 भय भयानक रस काला कामदेव
7 जुगुप्सा बीभत्स रस नीला महाकाल
8 विस्मय अद्भुत रस पीला ब्रहमा
9 निर्वेद शांत रस
2. अस्थायी भाव- जो भाव प्रकृति से अस्थिर होते हैं- रस की परिणति (पूरा होना) तक स्थिर नहीं होते, पानी के बुद-बुदों की भाँति क्षण-क्षण में डूबते-उतराते रहते हैं, उन भावों को संचारी भाव या व्यभिचारी भाव कहते हैं।
विभाव
विभाव का अर्थ है- वि- विशेष रूप से, भावयति- जो स्थायी भाव का ज्ञान कराता है, उसे जगाता है। लोक में जो रति (छवि) आदि स्थायी भावों के उद्बोधक होते हैं वे ही काव्य और नाटक में विभाव कहे जाते हैं। जैसे- लोक में सीता आदि को रामचन्द्रादि की रति का उद्बोधक माना है।
भर्तृहरि लिखते हैं- काव्य में रामादि विभाव शब्द के द्वारा ही ज्ञात होते हैं साक्षात् उपस्थित नहीं होते किंतु विभावन व्यापार के बल से सामाजिकों को वह सामने खड़े हुए दिखाई देते हैं।
o विभाव के दो भेद हैं- 1. आलंबन (सहारा, आश्रय) और 2. उद्दीपन (लक्ष्य साधना, उद्देश्य साधना)
o 1. आलंबन- जिसका आश्रय लेकर रसोद्गम होता है वह रामादि नायक आलंबन विभाव नाम से अभिहित होता है। आलंबन विभाव रूप नायक त्यागी, कृति (कार्य करने वाला –कृतज्ञ) होता है। मुख्य रूप से नायक के चार भेद होते हैं- धीरोदात्त, धीरोद्धत, धीर ललित, धीर प्रशांत।
o 2. उद्दीपन- जो भाव को उद्दीपत करते हैं वे उद्दीपन विभाव होते हैं। चाँदनी, उद्यान, एकांत स्थन आदि के द्वारा रति (छवि) होता है। प्रत्येक रस के आलंबन एवं उद्दीपन विभाव अलग-अलग होते हैं।
अनुभाव – आलंबन, उद्दीपन आदि कारणों से उत्पन्न भावों को बाहर प्रकाशित करने वाले कार्य अनुभाव कहे जाते हैं। वाणी तथा अंग संचालन आदि की जिन क्रियाओं से आलंबन तथा उद्दीपन आदि के कारण आश्रय (पाठक, दर्शक, श्रोता आदि) के हृदय में जाग्रत भावों का साक्षात्कार होता है, वह व्यापार अनुभाव कहलाते हैं। विद्वानों ने अनुभाव के पाँच विभाग किए हैं-
o 1. कायिक, 2. वाचिक, 3. मानसिक, 4. आहार्य, 5. सात्त्विक
o 1. कायिक- शरीर से संबंधित होने के कारण इन्हें कायिक अनुभाव कहा गया है।
o 2. वाचिक- यह वचनोद्गार के रूप में प्रकट होता है।
o 3. मानसिक- मन या हृदय की वृत्ति से उत्पन्न शंका, ग्लानि, चिंता आदि का उन्मीलन मानसिक अनुभाव कहलाता है।
o 4. आहार्य- मन में उठने वाली भावना के अनुरूप कृत्रिम (भावानुकूल) वेशभूषा की रचना।
o 5. सात्त्विक- सात्त्विक अनुभाव अंतःकरण में अंकुरित होने के कारण सात्त्विक कहलाते हैं। सात्त्विक अनुभाव आंतरिक भावों की बाह्य अवस्था है, जो आठ प्रकार की मानी गई है- स्तम्भ, स्वेद, रोमांच, स्वरभंग, कंप, वैवण्य, अश्रु और प्रलभ।
संचारी भाव (व्यभिचारी भाव)
1. निर्वेद: यह कम स्वभाव के लोगो में दिखायी देता है।
2. ग्लानि: दुर्बलता की भावना, बीमारियाँ, भूख, उल्टी अन्य निर्धारकों द्वारा उत्पन्न होता है। यह कमज़ोर बातों के साथ प्रतिनिधित्व किया जाना चाहिए।
3. शंका: यह संदेह, चोरी, पापी गतिविधि अन्य निर्धारकों के कारण उत्पन्न होता है। यह मुंह के स्थिर टकटकी सूखेपन के द्वारा प्रतिनिधित्व किया जाना चाहिए।
4. असुया: ईर्ष्या, घृणा, अन्य लोगों के गुड लक, और धन आदि विभावों द्वारा उत्पन्न होता है। यह दूसरों को दोष-गुणों के विधान निंदा में गलती खोजने का प्रतिनिधित्व करती है।
5. मद: यह शराब और अन्य चीज़ों के पीने के कारण होता है।
6. श्रम: यह लंबी यात्रा से और शारीरिक व्यायाम के परिणाम से उत्पन्न होता है। यह आह भरने से, धीरे-धीरे चलने से, शरीर के हलके मालिश आदि द्वारा इसका प्रतिनिधित्व किया जाता है।
7. आलस्य: यह प्राकृतिक स्वभाव, बीमारी गर्भावस्था आदि जैसे निर्धारकों के कारण होता है। यह दुख, सिर दर्द, आदि द्वारा प्रतिनिधित्व किया जाता है।
8. दैन्य: यह अवसाद, प्रिय वस्तुओं की गरीबी, चोरी आदि निर्धारकों का परिणाम है। मानसिक असंतुलन, अशुद्ध शरीर आदि द्वारा प्रतिनिधित्व किया जाता है।
9. चिन्ता: प्रतिबिंब समृद्धि गरीबी आदि के नुकसान की तरह निर्धारकों द्वारा निर्मित होता है। यह गहरी सोच, ध्यान आदि के द्वारा प्रस्तुत किया जाना चाहिए।
10. मोह: व्याकुलता की भावना, भाग्य, भय, घृणा आदि की क्रूर स्ट्रोक द्वारा निर्मित है। यह नुकसान चेतना की, हानि की दृष्टि से आदि नीचे गिरने से प्रतिनिधित्व किया जाना चाहिए।
11. स्मृति: याद सुख और दुख में अनुभवी लग रहा है प्राकृतिक याद करने का है। यह सोच नींद की आसानी हानि, आदि जैसे निर्धारकों के कारण होता है। यह सिर को हिला, नीचे देख, आंख भौंक जुटाने आदि की तरह परिणाम का प्रतिनिधित्व करती है।
12. ध्रृति: यह वेदों में साहस, ज्ञान, दक्षता, धन आदि की तरह निर्धारकों के कारण होता है। यह आनंद का प्रतिनिधित्व करती है।
13. व्रीडा: यह अपमान, पश्चाताप आदि जैसे निर्धारकों द्वारा उत्पन्न होता है। यह चेहरा छुपा सिर झुका, जमीन पर लाइनों ड्राइंग आदि द्वारा किया जाना चाहिए।
14. चपलता: भावना, जुनून, घृणा, प्रतिद्वंद्विता, क्रोध आदि से उत्पन्न होता है। यह कठोर शब्दों, गाली, ताड़ना, हत्या आदि का प्रतिनिधित्व करती है।
15. हर्ष: यह प्रियजनों आदि के साथ बैठक की, इच्छा की प्राप्ति की तरह निर्धारकों के कारण होता है। यह आदि सुंदर शब्दों के लिए आता है, आंखों की चमक द्वारा प्रतिनिधित्व होना चाहिए।
16. आवेग: भावना हवा या लीक में हाथियों की चाल, बारिश, आग, पागल भीड़ द्वारा उत्पादित, घबराहट कहा जाता है।
17. जड़ता: यह सुनवाई और वांछनीय या अवांछनीय वस्तुओं के देखने की तरह निर्धारकों द्वारा निर्मित है। यह आदि मौन रखते हुए जवाब देते नहीं द्वारा प्रतिनिधित्व होना चाहिए।
18. गर्व: यह शासन, महान जन्म, शबाब, शिक्षा आदि जैसे निर्धारकों के कारण होता है। यह तरह ईर्ष्या, अनादर, उपेक्षा आदि द्वारा प्रतिनिधित्व किया है।
19. विषाद: यह काम खत्म करने की असमर्थता, आकस्मिक आपदा की तरह निर्धारकों के कारण होता है, यह साहस के सहयोगी दलों, हानि आदि के लिए देख द्वारा प्रतिनिधित्व किया है।
20. औत्सुक्य: इस अपनों से जुदाई की याद की तरह निर्धारकों की वजह से एक लग रहा है, बगीचे की दृष्टि आदि है। यह नीचे डाली चेहरा, लेटी की इच्छा के साथ सोच, गहरी सांस द्वारा प्रतिनिधित्व होना चाहिए।
21. निद्रा: यह शारीरिक दुर्बलता थकान, नशा, आलस आदि जैसे निर्धारकों द्वारा निर्मित है। यह आदि, आंखों की रोलिंग जम्हाई, आँखों के सिकुड़ने, चेहरे की गंभीरता का प्रतिनिधित्व करती है।
22. अपस्मार: यह पागलपन का एक प्रकार है। यह एक ऐसी बुराई देवता, यक्ष, नागा, राक्षसों आदि के रूप में सुपर मानव शक्तियों की आत्माओं के कब्जे तरह निर्धारकों के कारण होता है। यह कांप चल रहे हैं, नीचे गिरने, पसीना आदि द्वारा प्रतिनिधित्व किया है।
23. सोना: सपने देखने की भावना, इंद्रियों की वस्तुओं का आनंद ले खींच कर जमीन पर या गद्दे पर लेटी या शरीर करार तरह निर्धारकों द्वारा निर्मित है। यह खर्राटों, सुस्ती, लोगों को नींद में बात कर रही द्वारा प्रतिनिधित्व होना चाहिए।
24. जागना:
25. क्रोध:
26. अवहित्था: यह शर्म की बात है, हार, क्रूरता आदि जैसे निर्धारकों द्वारा उत्पन्न होता है। यह बातचीत, अशुद्ध अर्थ आदि के विषय में परिवर्तन द्वारा प्रतिनिधित्व होना चाहिए।
27. उग्रत: यह भावना दूसरों के बीमार बोल का है, राजा को अपराध कर चोरी का पता लगाने जैसे निर्धारकों द्वारा निर्मित है। यह, हत्या गिरफ्तार, धड़कन, आदि द्वारा प्रतिनिधित्व होना चाहिए।
28. मति: यह आश्वासन, वेदों आदि का ज्ञान जैसे निर्धारकों के कारण होता है। यह विकल्प ओर इशारा करते हुए, चेलों समाशोधन संदेह करने के लिए अनुदेश द्वारा प्रतिनिधित्व किया जाना चाहिए, विविधताओं आदि।
29. व्याधि: यह हवा पित्त कफ कांप जोर आदि जैसे निर्धारकों के कारण होता है। यह, के कारण बुखार, कंपन को कांप शरीर के झुकने, नौकरियों के झटकों आदि द्वारा प्रतिनिधित्व किया है।
30. उन्माद: पागलपन की भावना के कारण अपनों से जुदाई की तरह निर्धारकों के लिए उत्पादन किया जाता है, धन की हानि, चोट आदि।
31. मरना (मरण): यह बीमारी के माध्यम से या बुरा चोट से आता है। बीमारी से निर्धारकों के पेट के रोग होते हैं, पेट का दर्द, बुखार, हैजा आदि। यह ढीला शरीर का प्रतिनिधित्व करती है, निष्क्रिय अंग होने के कारण जंगली जानवरों के हमले को, जहर लेने की वजह से हथियार, सांप के काटने को चोट तरह निर्धारकों के कारण होता है।
32. त्रास:
33. वितर्क: भावना विवेचना चिंतन असंभवता आदि जैसे निर्धारकों द्वारा उत्पन्न होता है। यह आइब्रो और सिर आदि की स्थापना चर्चाओं का प्रतिनिधित्व करती है।
o आचार्य देव ने छल को 34 वाँ संचारी भाव माना है।
काव्य गुण
गुण साहित्य शास्त्र में काव्य शोभा के जनक हैं। प्रसाद, माधुर्य और ओज काव्य के प्रमुख गुण हैं।
प्रसाद गुण हृदय पर वैसा ही प्रभाव डालता है, जैसे सूखे ईधन में अग्नि और स्वच्छजल पर प्रतिबिम्ब।
चित्त को प्रसन्न करने वाला माधुर्य गुण होता है। श्रृंगार, करूण और शांतके उपयुक्त गुण माना जाता है। इसमें सरल, सरस और माधुर्यमयी भाषा प्रयुक्त होती है।
ओज चित्त को उत्तेजित करने वाला गुण है, इसकी उपस्थिति वीर, रौद्र और भयानक रस में होती है। लंबे-लंबे समास और ट वर्ग ध्वनियों के बाहुल्य से इसमें थोड़ी कर्कशता रहती है। वीर रसात्मक रचनाओं में इस गुण की पर्याप्त संभावना रहती है।
शब्दों का अर्थ ग्रहण कराने वाली काव्यशक्तियाँ भी महत्वपूर्ण हैं। अभिधा, लक्षणा और व्यंजना
अभिधा
अभिधा शब्द शक्ति सीधा अर्थ बोध कराती है अर्थात् शब्दों के निश्चित अर्थों के अनुसार जो अर्थ प्रकट होता है, उस निश्चित अर्थ को प्रकट करने वाली शक्ति को अभिधा कहते हैं।
लक्षणा
लक्षणा से किसी विशिष्ट अर्थ की प्रतीकों के माध्यम से प्रतीति होती है। दूसरे शब्दों में कहें तो जहाँ मुख्यार्थ का बोध होने पर उससे ही संबंधित दूसरा अर्थ रूढि या प्रयोजन के आधार पर लगाया जाता है, वहाँ वह अर्थ लक्ष्यार्थ कहलाता है, जिस शक्ति द्वारा लक्ष्यार्थ ग्रहण किया जाता है उसे लक्षणा कहते हैं।
व्यंजना
व्यंजना शब्द शक्ति से व्यंग्यार्थ का बोध होता है। दूसरे शब्दों में कहें तो जब अभिधा और लक्षणा विराम ले लेते हैं तो तीसरी शक्ति कार्य करती है जो व्यंजना कहलाती है। व्यंजना के दो भेद हैं- 1. शाव्दी व्यंजना, 2. आर्थी व्यंजना।
छंद
छंद काव्य में शब्दों की उस कलात्मक व्यवस्था को कहते हैं, जो मात्राओं अथवा वर्णों की किसी निश्चित संख्या तथा यति, गति आदि की विशेष क्रम-योजना के अनुसार की जाती है।
छंद के आठ अंग है –
1.पाद, 2. वर्ण, 3. मात्रा, 4. यति, 5. गति, 6. गण, 7. तुक, 8. प्रत्यय।
पाद- एक आघात में उच्चरित होने वाले अंश को पाद अथवा चरण कहते हैं।
वर्ण- स्वर और व्यंजन।
मात्रा- लघु और दीर्घ।
यति- वाक्य की समाप्ति पर तनिक रूकना।
गति- किसी छंद में लय।
गण- छंद में तीन वर्णों के सम्मिलित समूह अथवा मात्राओं के नियत समूह को गण कहते हैं।
तुक- चरणों के अंत में रहने वाली वर्ण-समानता।
प्रत्यय- छंद की संख्या, भेदो भेद, स्वरूप, शुद्धशुद्धि आदि।
सभी छंदों को दो वर्गों में विभक्त किया जा सकता है-1. वैदिक छंद 2. लौकिक छंद।
वेदों में प्रयुक्त छंद वैदिक छंद कहलाते हैं।
अन्य काव्य-ग्रंथों में प्रयुक्त होने वाले सभी छंद लौकिक छंद है। लौकिक छंद के दो रूप है-1. मात्रिक, 2.वर्णिक।
मात्रिक छंद मात्राओं की नियत संख्या पर आधारित है।
वर्णिक छंद वर्णों की निश्चित संख्या क्रम पर आधारित है।
मात्रिक छंद की तीन श्रेणियाँ है- 1. सममात्रिक छंद (चौपाई) 2. अर्ध सममात्रिक छंद, (दोहा, सोरठा) 3.विषम मात्रिक छंद।
छंद में लघु मात्रा अर्थात् हृस्व मात्रा का चिह्न (।), तथा गुरू अर्थात् दीर्घ मात्रा का चिह्न (s) है।
लघु मात्रा वाले स्वर- अ, इ, उ, ऋ। इनकी एक मात्रा गिनी जाती है।
दीर्घ मात्रा वाले स्वर- आ, ई, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ इनकी दो मात्राएँ गिनी जाती है।
गण का नाम वर्ण-क्रम लक्षण उदाहरण
यगण ISS पहला वर्ण लघु, शेष गुरू सुरेखा
मगण SSS तीनों गुरू आभारी
तगण SSI पहले दो गुरू, फिर लघु साकार
रगण SIS गुरू,लघु, गुरू साधना
जगण ISI लघु, गुरू, लघु शिकार
भगण SII गुरू, दो लघु वाहन
नगण III तीनो लघु जलज
सगण IIS दो लघु, एक गुरु कविता
यमाताराजभानसलगा- याद करने का नियम। ल- से लघु और ग- से गुरु
चौपाई
इसमें चार चरण होते हैं। प्रत्येक चरण सोलह मात्राएँ होती हैं तथा चरण के अंत में लघु मात्रा वाला वर्ण नहीं आता। दो चरण मिलकर एक अर्धाली बनते हैं। ये दोनों चरण प्रायः एक ही पंक्ति में लिखे जाते हैं। पहले दूसरे चरण की तथा तीसरे चौथे चरण की तुक परस्पर मिलती है।
तात जनक तनया यह सोई। धनुष जग्य जेहि कारन होई।
पूजन गौरि सखीं लै आईं। करत प्रकासु फिरत फुलवाईं।
भा निरमल तिन्ह पायँन्ह परसे । पावा रूप रूप के दरसे ॥
मलय-समीर बास तन आई । भा सीतल, गै तपनि बुझाई ॥
न जनौं कौन पौन लेइ आवा । पुन्य-दसा भै पाप गँवावा ॥
ततखन हार बेगि उतिराना । पावा सखिन्ह चंद बिहँसाना ॥
बिगसा कुमुद देखि ससि-रेखा । भै तहँ ओप जहाँ जोइ देखा ॥
पावा रूप रूप जस चहा । ससि-मुख जनु दरपन होइ रहा ॥
नयन जो देखा कवँल भा, निरमल नीर सरीर ।
हँसत जो देखा हंस भा, दसन-जोति नग हीर ॥
(पद्मावत- जायसी)
उमा राम बिषइक अस मोहा। नभ तम धूम धूरि जिमि सोहा।।
बिषय करन सुर जीवसमेता। सकल एक तें एक सचेता।।
पति परित्याग हृदय दुखु भारी। कहइ न निज अपराधबिचारी।।
उमा कहउँ मैं अनुभव अपना । सत हरि भजनु जगत सब सपना ॥
बिनु सतसंग बिबेक न होई। राम कृपा बिनु सुलभ न सोई।।
जौं पै दुष्ट हृदय सोइ होई । मोरें सनमुख आव कि सोई ॥
तात राम नहिं नर भूपाला । भुवनेस्वर कालहु कर काला ॥
लंका निसिचर निकर निवासा । इहाँ कहाँ सज्जन कर बासा ॥ (रामचरित मानस- तुलसी)
रोला
यह चार पंक्तियों में लिखा जाने वाला एक सममात्रिक छंद है। इसकी प्रत्येक पंक्ति में 11, 13 की यति के क्रम में 24 मात्राएँ होती है। पहली-दूसरी तथा तीसरी चौथी पंक्तियों की तुक परस्पर मिलती है।
उदाहरण
बाधाओं से नहीं तनिक भी जो घबराये।
मृत्यु-पंथ पर बढ़े अधर पर हास बिछाये।
मृत्युभूमि के लिए जिन्होंने प्राण लुटाये।
हरिगीतिका
यह चार पंक्तियों में लिखा जाने वाला सममात्रिक छंद है। इसकी प्रत्येक पंक्ति में 16 तथा 12 मात्राओं की यति के क्रम से 28 मात्राएँ होती हैं। पंक्ति के अंत में तुक साम्य होता है।
उदाहरण
ऊधौ, तुम हौ अति बड़भागी।
अपरस रहत सनेह तगा तैं, नाहिन मन अनुरागी।
पुरइनि पात रहत जल भीतर, ता रस देह न दागी।
ज्यौं जल माहँ तेल की गागरि, बूँद न ताकौं लागी।
प्रीति-नदी मैं पाउँ न बोरयौ, दृष्टि न रूप परागी।
सूरदास अबला हम भोरी, गुर चाँटी ज्यौं पागी।।
दोहा
• यह दो पंक्तियों में लिखा जाने वाला एक सममात्रिक छंद है। इसका विषम (प्रथम-तृतीय) चरणों में 13-13 तथा सम (दूसरे-चौथे) चरणो में 11-11 मात्राएँ होती है।
• उदाहरण-
जप माला छापा तिलक, सरै न एकौ काम।
मन काँचै नाचै वृथा, साँचे राचै राम।।
दुख में सुमरिन सब करे, सुख मे करे न कोय ।
जो सुख मे सुमरिन करे, दुख काहे को होय ॥ 1 ॥
सोरठा
यह अर्ध सममात्रिक छंद है, जो दो पंक्तियों में लिखा जाता है। इसके पहले व तीसरे (विषम) चरणों में 11-11 मात्राएँ तथा दूसरे व चौथे (सम) चरणों में 13-13 मात्राएँ होती है।
उदाहरण-
लिख कर लोहित लेख, डूब गया है दिन अहा!
व्योम-सिंधु सखि देख, तारक बुदबुद दे रहा!!
ओछे को सतसंग, रहिमन तजहु अँगार ज्यों।
तातो जारै अंग, सीरो पै कारो पै कारो लगै।।
बंदौ गुरू पद कंज, कृपा सिंधु नर रूप हरि।
महा मोह तम पुंज, जासु बचन रविकर निकर।।
कवित्त
इसे घनाक्षरी अथवा मनहरण वृत्त भी कहते हैं। यह दण्डक जाति का वर्ण वृत्त है। कवित्त अथवा घनाक्षरी के चार चरणों में से प्रत्येक चरण में 31 वर्ण होते हैं जिसमें प्रायः 8 8 8 7 वर्णों के बाद यति (छंद में कहीं कहीं विराम की आवश्यकता) क्रम रहता है। चरण के अंत में गुरू वर्ण रहता है। लंबा चरण होने के कारण इसे दो पंक्तियों में लिखा जाता है।
उदाहरण- तेज ना रहेगा तेजधारियों का नाम को भी,
मंगल मयंक मंद मंद पड़ जायँगे।
मीन बिन मारे मर जायँगे सरोवर में,
डूब डूब शंकर सरोज सड़ जायँगे।
सुनो कै परम पद, ऊनो कै अनंत मद
नूनो कै नदीस नद, इंदिरा झुरै परी। (देव)
काव्य
• भामह- 'शब्दार्थों सहितौ कविताम्
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• पं. जगन्नाथ- 'रमणीयार्थ प्रतिपादकः शब्दः कविताम्' अर्थात् रमणीय शब्द के अंतर्गत कविता के सभी तत्त्व आते हैं।
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• पंत- कविता हमारे परिपूर्ण क्षणों की वाणी है।
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• जॉनसन ने कविता को छंदमयी वाणी माना- Poetry is metrical composition.
• कॉलरिज- कविता उत्तमोत्तम क्रमनुविधान है- Poetry is the best words in the best order.
• वर्ड्सवर्थ- कविता शांति के क्षणों में स्मरण किये हुए प्रबल मनोवेगों का सहज उच्छलन है- Poetry is the spontaneous overflow of powerful feeling. It takes its origin from emotions recollected in tranquility.
• हैडो ने कविता को श्रवण की कला कहा है।
प्रबंधकाव्य
प्रबंधकाव्य उस रचना को कहते हैं जिसमें क्रमबद्ध रूप से एक ही कथा का वर्णन किया जाता है। इसके पद्य माला में गूँथे गए फूलों की भाँति कथा रूपी सूत्र में बँधे होते हैं। कथा-सूत्र से बाहर निकलने पर पद्यों का आशय स्पष्ट नहीं पाता। उदा- रामचरितमानस, साकेत, पद्मावत आदि।
मुक्तक काव्य
मुक्तक काव्य में प्रत्येक पद्य स्वतंत्र होता है। अर्थात् एक पद्य का अर्थ जानने के लिए दूसरे पद्य की आवश्यकता नहीं होती। मुक्तक काव्य अपने आप में पूर्ण और स्वतंत्र होते हैं। आचार्य अभिनव गुप्त के अनुसार मुक्तक काव्य पूर्वापर संबंध से मुक्त रहता है फिर भी रसानुभूति में सक्षम होता है। मुक्तक काव्य व्यक्तिगत भावों का चित्रण रहता है। मुक्तक काव्य में प्रेम, व्यंग्य, भक्ति, वीरता अथवा वैराग्य की भी अभिव्यक्ति हो सकती है। उदा- सूरदास के पद, मीरा के पद, बिहारी के दोहे आदि।
महाकाव्य
सर्वप्रथम संस्कृताचार्य भामह ने महाकाव्य का लक्षण निरूपण किया। महाकाव्य के में नायक के संपूर्ण जीवन का चित्रण किया जाता है। महाकाव्य की रचना सर्गबद्ध रूप में होती है, उसमें नाटक की पंचसंधियों का होना जरूरी होता है। उसके चरित्र महान् होते हैं। अलंकार, रस आदि उसे सौंदर्य प्रदान करते हैं। युद्ध प्रकृति, राजदरबार आदि का वर्णन भी आवश्यक है। अंत में नायक विजयी दिखाया जाता है।
खंडकाव्य
इसमें नायक के किसी एक अंश का वर्णन किया जाता है। इसमें कथा विस्तार नहीं होता। खंडकाव्य का कथानक प्रायः इतिहास अथवा पुराणों से ही लिया जाता है। खंडकाव्य में पात्रों की संख्या कम होती है।
गीतिकाव्य
गीत काव्यशास्त्र में कोई अलग विधा नहीं मानी गई। हिंदी गीतिकाव्य का संबद्ध आरंभ से संगीत रहा है। कबीर ने अपने तानपूरा और मीरा ने करताल से अपने गीतों का गा-गाकर जनता को मनोमुग्ध किया है। बाद में भी यही परंपरा राष्ट्रीयकाव्य धारा और वर्तमान तक चली आ रही है।
अलंकार
अलंकार शब्द की व्युत्पत्ति को भरत के नाट्यशास्त्र से देखा जाता है।
भरत ने नाट्यशास्त्र में अलंकार शब्द के समानांतर लक्षण शब्द का भी प्रयोग किया है।
उन्होंने काव्य के 36 लक्षणों की चर्चा की है। किन्तु परवर्ती विद्वानों ने अधिकांश लक्षणों को अलंकार के रूप में परिगणित कर लिया है। आगे चलकर अलंकार के लिए चित्र शब्द का भी प्रयोग हुआ है।
भरत ने नाट्यशास्त्र में चार अलंकारों का नामोलेख किया है- उपमा, दीपक, रूपक, यमक।
भामह अलंकार के पहले प्रबल पोषक आचार्य है।
भामह के काव्यशास्त्रीय ग्रंथ का नाम काव्यालंकार है।
भामह अतिश्योक्ति को अलंकार का बीज मानते हैं।
अतिशयोक्ति का अर्थ है लोकातिक्रान्तगोचर वचन अर्थात् जन सामान्य की भाषा से भिन्न उक्ति। यह उक्ति ही वक्रोक्ति है।
अतिशयोक्ति काव्य में लोकोत्तरता- असाधारणता लाती है और वक्रोक्ति रमणीयता।
भामह ने 2 शब्दालंकार और 36 अर्थालंकार सहित कुल 38 अलंकार माने हैं।
भामह के बाद दण्डी ने काव्य में अलंकारों की स्थिति अनिवार्य अंग के रूप में स्वीकार करते हुए कहा कि काव्य के सौंदर्य कारक धर्मों को अलंकार कहते हैं।
दंडी ने 2 शब्दालंकार और 35 अर्थालंकार सहित कुल 37 अलंकार माने हैं।
आचार्य वामन ने रीति संबंधी अपने जिस मत की स्थापना की है उनका प्रसिद्ध काव्यशास्त्रीय ग्रंथ है-काव्यालंकारसूत्रवृत्ति।
वामन के अनुसार काव्य की आत्मा रीति है। काव्यशोभा के उत्पादक धर्म तो गुण हैं किंतु उस शोभा को उत्कर्ष प्रदान करने वाले धर्म को अलंकार कहा जाता है।
उद्भट के ग्रंथ का नाम है अलंकारसारसंग्रह।
उद्भट ने 4 शब्दालंकार और 37 अर्थालंकार सहित कुल 41 अलंकार माने हैं।
रुद्रट ने काव्यालंकार में अलंकार शब्द को काव्य से जोड़ा।
रूद्रट ने 62 अलंकार माने हैं।
आचार्य कुंतक ने वक्रोक्ति को ही अलंकार कहा है।
आचार्य आनंदवर्धन ने रस के उत्कर्ष हेतु के रूप में अलंकारों को स्वीकर किया है।
जगन्नाथ की दृष्टि में अलंकार काव्य की आत्मा व्यंग्यार्थ में रमणीयता उत्पन्न करने वाले हैं।
आचार्य भोज ने अपने ग्रंथ सरस्वती कांठाभरण में 24 शब्दालंकार, 24 अर्थालंकार, 24 उभयालंकारों सहित 72 भेद किए हैं।
मम्मट ने अलंकारों की संख्या 67 मानी है। इसमें 6 शब्दालंकार, 61 अर्थालंकार माने हैं।
मम्मट अलंकारों को आत्मा का आभूषण स्वीकार करते हैं।
मम्मट ने काव्यप्रकाश के दशम उल्लास में विशेष अलंकार के निरूपण पसंग में अतिशयोक्ति को अलंकारों का प्राण स्वीकार किया है।
आचार्य विश्वनाथ ने साहित्यदर्पण में 7 शब्दालंकार और 75 अर्थालंकार सहित कुल 82 अलंकार माने हैं।
आचार्य वामन ने 2 शब्दालंकार और 29 अर्थालंकार सहित कुल 31 अलंकार माने हैं।
कवि मनः व्यापार के आधार पर अलंकारों को कुछ विचारक पाँच वर्गों में तो कुछ छः वर्गों में रखते हैं-
1. साम्यमूलक- उपमा, रूपक दृष्टांत आदि।
2. अतिशयमूलक- अतिशयोक्ति।
3. औचित्यमूलक- स्वबावोक्ति।
4. वैषम्यमूलक- विरोध, विभावना।
5. वक्रतामूलक,
6. चमत्कारमूलक- यमक, चित्र, मुद्रा आदि।
अलंकारों का वर्गीकरण
1. शब्दालंकार 1.1. अनुप्रास (छेकानुप्रास, वृत्यानुप्रास, श्रुत्यानुप्रास, लाटानुप्रास, अंत्यानुप्रास)
1.2. यमक, 1.3. श्लेष, 1.4. वक्रोक्ति (श्लेषाश्रित वक्रोक्ति, काकू आश्रित वक्रोक्ति)
2. अर्थालंकार 2.1. साम्यमूलक (उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा, दृष्टांत, निदर्शना, प्रतिवस्तूपमा),
उपमा (पूर्णोपमा, लुप्तोपमा, मालोपमा)
रूपक (निरंग रूपक, सांग रूपक, परंपरित रूपक)
उत्प्रेक्षा (हेतुत्प्रेक्षा, फलोत्प्रेक्षा)
2.2. वैषम्यमूलक (असंगति, विरोधाभास, विभावना, विशेषोकित, विषम आदि) 2.3. अतिशयमूलक (अतिशयोक्ति, अत्युक्ति) 2.4. वक्रतामूलक ( वक्रता)
3. उभयालंकार।
अलंकार के मूल में अतिशयोक्ति और वक्रोक्ति होती है।
अलंकार काव्य के सहज और अनिवार्य गुण न होकर अस्थिर धर्म हैं।
अलंकार काव्य-सौंदर्य के सर्जक न होकर बर्धक तत्त्व हैं।
अलंकार रसोपकारक तत्त्व हैं अर्थात् वे अंगी न होकर अंग हैं।
सत् काव्य में अलंकार की स्वतंत्र सत्ता अमान्य है।
आचार्य केशव ने अलंकारहीन कविता को नग्न माना है।
देव- अलंकार काव्य में अद्भुत रूप की योजना करते हैं।
पाश्चात्य काव्यशास्त्र में अलंकार के पर्याय मिलते हैं- ट्रोप्स (Tropes), फिगर्स (Figures), ओरनामेण्ट्स (Ornaments)। इन शब्दों का प्रयोग ग्रीक रोमन काव्यशास्त्र में पाया जाता है।
ट्रोप्स (Tropes) का अर्थ है वक्र- इसमें अर्थ की वक्रता प्रमुख होती है।
फिगर्स (Figures) का अर्थ है- रूप एवं आकार तथा
ओरनामेण्ट स्पष्ट ही अलंकार का वाचक है।
बिंब
बिंब को अंग्रेजी में इमेज कहते हैं। अर्थात् मूल कल्पना बिंब है।
साहित्य में बिंब वह भाषिक और शैल्पिक उपकरण है, जिसके द्वारा कोई रचनाकार अमूर्त का मूर्तिकरण करता है।
पाश्चात्य विद्वानों का विश्वास है कि प्रत्येक मनुष्य के मन में कुछ इंद्रिय द्वारा अनुभव करने पर हमारे हृदय पर जो प्रभाव पड़ता है और उससे जिस प्रकार की मानस अभिव्यक्ति होती है, उसे बिंब कहते हैं।
डॉ. नगेन्द्र के अनुसार- 1. काव्य-बिंब एक प्रकार का मानसिक बिंब है। 2. काव्य-बिंब का निर्माण शब्दार्थ और कल्पना के द्वारा होता है। 3. काव्य-बिंब के मूल में भाव की सन्निहित आवश्यक है।
काव्य का बिंब मानस की एक सजीव, सुंदर और सरस चित्र है, जिसमें कवि की भावना, अनुभूति और कल्पना मूर्त रूप धारण करती है।
डॉ. नगेन्द्र ने पाँच ज्ञानेंद्रियों के आधार पर पाँच प्रकार के बिंब माने हैं- 1. दृश्य बिंब (आँख), 2. नाद बिंब (कान), 3. गंध बिंब (नाक), 4. स्पर्श बिंब (त्वचा), 5. स्वाद बिंब (जिह्वा)।
प्रो. वासुदेव के अनुसार- 1. धारणात्मक (कवि की कल्पना के सहारे, बात सुनकर, कहानी पढ़कर, गीत सुनकर आदि)। 2. दृश्यात्मक (देखकर किसी दृश्य को देखकर भाव आना और लिखना)। 3. स्वरचित अथवा स्वानुभूत (केवल सुनी-सुनाई बातों के आधार पर जिसे कभी देखा नहीं-स्वर्ग, नरक, कल्पवृक्ष आदि)।
प्रतीक
प्रतीक के द्वारा हम काव्य में बाह्य जगत से सामग्री उठाकर उसे नया अर्थ देते हैं।
प्रतीक के द्वारा वस्तुआ जगत के पदार्थों तथा स्थितियों को प्रतीक बनाकर उनके माध्यनम से संवेदनाओं और अनुभूतियों को व्यिक्ता किया जाता है।
दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं कि प्रतीक द्वारा मूर्त जगत में अर्मूत भावनाओं का निरूपण किया जाता है, इसे देखा नहीं जाता, मात्र महसूस किया जा सकता है। अपने अंतर में ही समझा या विश्लेाषित किया जा सकता है।
19 वीं. शती के अंतिम चरण में तीन फ्रांसीसी कवियों- मालामें, वर्लेन और रिंबों ने प्रतीकवाद स्कूल की स्थापना की जिसको अंतरराष्ट्रीय प्रभाव पड़ा।
पाश्चात्य विद्वान अरबन ने दो प्रकार के प्रतीक माने हैं-1. बाहरी प्रतीक, 2. आंतरिक प्रतीक।
रामचन्द्र शुक्ल ने दो प्रतीक माने हैं- 1. भावात्मक 2. विचारात्मक।
प्रतीकों के दो वर्गीकरण और भी हैं- 1. अगोचर प्रतीक 2. गोचर प्रतीक।
हिन्दी साहित्य में प्रतीक योजना की व्यवस्था आदिकाल से ही दिखाई देती है- मध्यकाल के पद्मावत में रतनसेन- आत्मा, पद्मावती- परमात्मा, हीरामन तोता- गुरु, नागमति-छल- प्रपंच, राघव चेतन- शैतान, और अलाउद्दीन-माया का प्रतीक है।
मिथक
हिंदी में मिथक के लिए पुराण कथा, पुरा कथा, देव कथा, धर्म कथा, पौराणिक प्रसंग आदि अनेक शब्द प्रयुक्त होते हैं।
हिंदी में मिथक शब्द के निर्माता हजारी प्रसाद द्विवेदी हैं।
डॉ नगेन्द्र के अनुसार मिथक का संबंध मिथक से स्थापित किया जाए तो इसका अर्थ हो सकता है सत्य और कल्पना का परस्पर अभिन्न संबंध अथवा अकात्म्य।
फ्रैंच भाषा के मिथ को एक ऐसे विश्वास के अर्थ में लिया जाता है, जिसका न तो कभी अस्तित्व था, न है और न होगा।
एम. एलियड के अनुसार- मिथक धार्मिक कथा है और इसीलिए वह सही इतिहास है क्योंकि विश्व का अस्तित्व उसे सिद्ध करता है।
मिथक का परिवेश अलौकिक तथा धार्मिक होता है उनमें प्रधानता देवी-देवताओं के वृत्त होते हैं, जिनका धार्मिक महत्त्व होता है, जिन्हें तर्कों द्वारा सिद्ध नहीं किया जा सकता।
फ्रायड ने मिथक को स्वप्न का सजाती तथा इच्छापूर्ति का एक विधान माना है।
फैंटेसी
फैंटेसी का सामान्य अर्थ है मिथ्या कल्पना। दूसरे शब्दों में कहें तो मिथ्या तथ्यों से भरी हुई कृति ही फैंटेसी कहला सकती है।
मुक्तिबोध के अनुसार- फैंटेसी एक झीना परदा है जिसमें जीवन तथ्य झाँक-झाँक उठते हैं।
फ्रायड ने स्वप्न या दिवास्वप्न का ही नहीं कला और साहित्य का मूल फैंटेसी माना है।
सॉनेट
साहित्य भाषाओं की सीमाओं के परे होता है। तमाम विधायें एक भाषा में जन्म लेकर दूसरी भाषाओं के साहित्य में स्थापित हुईं। हिन्दी भाषा साहित्य इससे परे नहीं रहा।
बात छायावाद से शुरू करते हैं। छायावाद काल के काव्य में गीत एवं प्रगीत को प्रमुखता मिली इसीलिए इस काल को प्रगीत काल भी माना जाता है।
इस काल के कवियों ने पश्चिमी स्वच्छंदतावादी काव्य के प्रभाव में प्रगीत शैली को अपनाया। वे सर्वाधिक अंग्रेजी प्रगीत काव्य धारा से प्रभावित थे।
स्वरूप, पाठ्य विशेषताओं और गेयता के आधार पर अंग्रेजी प्रगीत और भारतीय गीत में काफी भिन्नता है। प्रगीत संगीत की लय में नहीं गाए जाते किंतु उनमें पर्याप्त माधुर्य और प्रवाह होता है।
संगीत के विधान के अनुरूप गेय पद रचना, जिसमें काव्य एवं संगीत तत्व का संतुलन रहता है, गीत कहलाती है।
पश्चिमी विद्वान पालग्रेव के अनुसार, ’प्रगीत (लिरिक) की रचना किसी एक ही विचार भावना अथवा परिस्थिति से संबंधित होती है तथा उसकी रचना शैली संक्षिप्त तथा भावरंजित होती है।’
शैली एवं आकार की दृष्टि से प्रगीत के छः स्वरूप हैं-
1. सॉनेट (चतुष्पदी) 2. ओड (संबोधन प्रगीत) 3. एलिजी (शोक प्रगीत) 4. सेटायर (व्यंग्य प्रगीत) 5. रिफ्लेक्टिव (विचारात्मक प्रगीत) 6. डाइडेक्टिव (उपदेशात्मक)
सॉनेट
सॉनेट इटैलियन शब्द sonetto का लघु रूप है। यह छोटी धुन के साथ मेण्डोलियन या ल्यूट (एक प्रकार का तार वाद्य) पर गायी जाने वाली कविता है।
सॉनेट का जन्म कहाँ हुआ, इस पर मतभेद हैं। कुछ विशेषज्ञों का कहना है कि सॉनेट का जन्म ग्रीक सूक्तियों (epigram) से हुआ होगा।
प्राचीन काल में epigram का प्रयोग एक ही विचार या भाव को व्यक्त करने के लिए होता था। कुछ विशेषज्ञ मानते हैं कि इंग्लैण्ड और स्कॉटलैंड में प्रचलित बैले से पहले सॉनेट का अस्तित्व रहा है।
यह भी मान्यता है कि यह सम्बोधिगीत (ode) का ही इटैलियन रूप है।
एक मान्यता कहती है कि इस विधा का जन्म सिसली में हुआ और इसे जैतून के वृक्षों की छॅंटाई करते समय गाया जाता था।
इतिहास और स्वरूप
सॉनेट को विशेष रूप से तीन आयामों में देखा-परखा गया है- 1. आकृति की विशिष्टता 2. भाव की विशिष्टता के साथ वैयक्तिक अभिव्यक्ति। 3. सर्वांगपूर्णता, कल्पना, प्रेरणा और माधुर्य।
इटली
तेरहवीं शताब्दी के मध्य में सॉनेट का वास्तविक रूप सामने आया। फ्रॉ गुइत्तोन को सॉनेट का प्रणेता माना जाता है। इटली के कवि केपल लॉप्ट ने सॉनेट की खोज के लिए फ्रॉ गुइत्तोन को ‘काव्य साहित्य का कोलम्बस’ कहा है। फ्रॉ गुइत्तोन ने स्थापित किया कि सॉनेट की प्रत्येक पंक्ति में दस मात्रिक ध्वनियाँ होना चाहिए। गुइत्तोन के सॉनेट में कुल चौदह चरण होते हैं जो दो भागों में बॅंटे होते हैं-
1- अष्टपदी- अष्टपदी में पहली से चौथी की, चौथी से पाँचवीं की और पाँचवीं से आठवीं पंक्ति की तुक मिलायी जाती है। इसी तरह दूसरी से तीसरी की, तीसरी से छठवीं की और छठवीं से सातवीं पंक्ति की तुक मिलती है।
हिन्दी प्रगतिशील कवि त्रिलोचन ने पांच सौ से ज्यावदा सॉनेटों की रचना की.
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