गुरुवार, 16 फ़रवरी 2017

भाषा के विकास में भारतीय और पाश्चात्य विचार

भाषा का विकास • चौम्सकी, वाइगोत्सकी, पियाजे • चौम्सकी का जन्म अमरीका में फिलाडेल्फिया प्रांत के इस्ट ओक लेन में हुआ था। • उनके पिता यूक्रेन में जन्मे श्री विलियम चौम्सकी (1896-1977) थे जो हीब्रू के शिक्षक एवं विद्वान थे। • चौम्सकी ने अपने भाषावैज्ञानिक गुरु श्री हैरिस से उनके द्वारा प्रतिपादित प्रजनक भाषाविज्ञान के ट्रांसफार्मेशन सिद्धांत को सीखा जिसकी बाद में चौम्सकी ने अपनी व्याख्या की और कांटेक्सट फ्री ग्रामर के सिद्धांतों का प्रतिपादन किया। • चौम्सकीय भाषाविज्ञान की शुरुआत उनकी पुस्तक सिंटैक्टिक स्ट्रक्चर्स से हुई मानी जा सकती है जो उनके पीएचडी के शोध, लाजिकल स्ट्रक्चर आफ लिंग्विस्टिक थीयरी (1955, 75) का परिमार्जित रूप था। • इस पुस्तक के द्वारा चौम्सकी ने पूर्व स्थापित संरचनावादी भाषावैज्ञानिकों की मान्यताओं को चुनौती देकर ट्रांसफार्मेशनल ग्रामर की बुनियाद रखी। • इस व्याकरण ने स्थापित किया कि शब्दों के समुच्य का अपना व्याकरण होता है, जिसे औपचारिक व्याकरण द्वारा निरुपित किया जा सकता है और खासकर सन्दर्भमुक्त व्याकरण द्वारा जिसे ट्रांसफार्मेशन के नियमों द्वारा व्याख्यित किया जा सकता है। • उन्होंने माना कि प्रत्येक मानव शिशु में व्याकरण की संरचनाओं का एक अंतर्निहित एवं जन्मजात (आनुवांशिक रूप से) खाका होता है जिसे सार्वभौम व्याकरण की संज्ञा दी गयी। • ऐसा तर्क दिया जाता है कि भाषा के ज्ञान का औपचारिक व्याकरण के द्वारा माडलिंग करने पर भाषा उत्पादकता के बारें में काफी जानकारी इकट्ठा की जा सकती है, जिसके अनुसार व्याकरण के सीमित नियमों द्वारा कैसे असीमित वाक्य निर्माण कैसे संभव हो पाता है। • चौम्सकी ने प्राचीन भारतीय वैय्याकरण पाणिनी के प्राचीन जेनेरेटिव ग्रामर के नियमों के महत्व भी स्वीकृत करते हैं। • चौम्सकी ने अपने प्रिंसिपल्स ऐंड पैरामीटरस का माड्ल अपने पीसा के व्याख्यान के बाद 1979 में विकसित की थी जो बाद में लेक्चर्स आन गवर्नमेंट ऐंड बाइंडिंग के नाम से प्रकाशित हुई। इसमें चौम्सकी ने सार्वभौम व्याकरण के बारे में काफी अकाट्य दावे एवं तर्क पेश किये। • चौम्सकी की भी मान्यता यही रही कि भाषाओं के बीच दिखाई पड़नेवाला फ़र्क उनकी तल संरचनाओं का है. अपने मूल प्रजनन बिन्दु पर ये सभी भाषायें एक ही व्याकरण द्वारा आत्मसातीकृत होती है. • नाइडा ने अपने व्यावहारिक अनुवाद कर्म में चौम्सकी के इस सिद्धान्त का सहारा लिया. वाइगोत्सकी • वाईगोटस्की एक विचारक थे जिन्होंने पूर्व सोवियत संघ के पहले दशकों के दौरान काम किया था। • उनका मानना था कि बच्चे व्यावहारिक अनुभव के माध्यम से सीखते हैं। • उन्होंने दावा किया कि जब कोई बच्चा कोई नया काम सीखने की कगार पर होता है तब वयस्कों द्वारा समय पर और संवेदनशील हस्तक्षेप से बच्चों को नए कार्यों (जिन्हें समीपस्थ विकास का क्षेत्र नाम दिया गया) को सीखने में मदद मिल सकती है। • इस तकनीक को "स्कैफोल्डिंग (मचान बनाना)" कहा जाता है क्योंकि यह नए ज्ञान के साथ बच्चों के पास पहले से मौजूद ज्ञान पर निर्मित होता है जिससे वयस्क बच्चे को सीखने में मदद मिल सकती है। • वाइ़गटस्कि का ध्यान पूरी तरह से बच्चे के विकास की पद्धति का निर्धारण करने में संस्कृति की भूमिका पर केंद्रित था। • उन्होंने तर्क दिया कि बच्चे के सांस्कृतिक विकास में हर कार्य दो बार प्रकट होता है: पहली बार सामाजिक स्तर पर और बाद में व्यक्तिगत स्तर पर। • पहली बार लोगों के बीच (अंतरमनोवैज्ञानिक) और उसके बाद बच्चे के भीतर (अंतरामनोवैज्ञानिक). यह स्वैच्छिक ध्यान, तार्किक स्मृति और अवधारणा निर्माण में समान रूप से लागू होता है। चौम्सकी वाइगोत्सकी पियाजे 1. चौम्सकी भाषा को जन्मजात मानते हैं अर्थात् बच्चे भाषा सीखने की क्षमता के साथ पैदा होते हैं। 2. भाषा अनेक विधाओं से सीखने की कला है। 3. भाषा मस्तिष्क का विकास है। 4. व्यावहारिक या अनौपचारिक व्याकरण (Functional Grammar) का विकास चौमस्की ने किया। 1. वाइगोत्सकी भाषा के सामाजिक अर्थात् सामाजिक अंतःक्रिया स्वरूप पर बल देते हैं। 2. अंतः क्रियाएँ (अंतःवाक्) भाषा का विकास करती हैं। 3. भाषा एवं चिंतन एक-दूसरे से स्वतंत्र रूप से विकसित होते हैं। 4. 1. पियाजे बच्चे के शारीरिक विकास के साथ भाषा के विकास की बात करते हैं। 2. भाषा अनुकरण के माध्यम से सीखी जाती है, वह विचार पर बल देते हैं। भाषा संबंधी भारतीय मत पाणिनि पूर्व भाषा-चिन्तन • प्राचीनतम ग्रंथ ऋग्वेद में अनेक बार 'वाक्' के महत्त्व पर प्रकाश डाला गया है। • भाषाशास्त्र में वाक (स्पीच)-विवेचन एक अत्यंत जटिल विषय है। 'वाक्' वह मूल शक्ति है, जिसे हम सामाजिक सन्दर्भो के माध्यम से भाषा के रूप में ग्रहण करते हैं। • वेद में इसी वाक्-शक्ति की अधिष्ठात्री देवी के रूप में सरस्वती का आह्वान किया गया है, • 'उच्चारण भाषा का प्राणतत्त्व होता है', इसे सभी भाषाविज्ञानी स्वीकार करते हैं। • वेद में शुद्ध उच्चारण को अत्यन्त महत्त्वपूर्ण माना गया है। चूँकि वेद 'अपौरुषेय' है, इसलिए उसका समय निश्चित नहीं है। वेदो के बाद ब्राह्मण ग्रन्थ • ऐतरेय ब्राह्मण में भाषाविज्ञान के दो मुख्य विषयों - भाषा-वर्गीकरण एवं शब्द-अर्थ का विवेचन किया गया है। • वेद-पाठ थोड़ा कठिन है। उसके अध्ययन को सरल बनाने के लिए पदपाठ की रचनाकर 'वेद-वाक्य'को पदों में विभक्त किया गया और इस क्रम में सन्धि, समास, स्वराघात जैसे विषयों का विश्लेषण भी हुआ। • यह निश्चय ही भाषा का वैज्ञानिक अध्ययन था। पदपाठ' के पश्चात् प्रातिशाख्यों एवं शिक्षाग्रन्थों का निर्माण कर ध्वनियों का वर्गीकरण, उच्चारण, स्वराघात, मात्रा आदि अत्यन्त महत्त्वपूर्ण भाषावैज्ञानिक विषयों पर विस्तारपूर्वक प्रकाश डाला गया। • विभिन्न संहिताओं के उच्चारण-भेदों को सुरक्षित रखने एवं ध्वनि की सूक्ष्मताओं का विवेचन करने में क्रमशः प्रातिशाख्यों और शिक्षाग्रन्थों का अपना विशिष्ट स्थान है। • इसी क्रम में उपनिषदों की चर्चा भी अपेक्षित है - विशेषकर तैत्तिरीय उपनिषद् की। इसमें अक्षर, अथवा वर्ण, स्वर, मात्रा, बल आदि भाषीय तत्त्वों पर भी चिन्तन किया गया है। • वैदिक शब्दों का जो कोश तैयार किया गया, उसे 'निघंटु' की संज्ञा दी गई। इसका निर्माण-काल ८०० ई। पू। के आसपास माना जाता है। • 'निघंटु' में संगृहीत वैदिक शब्दों का अर्थ-विवेचन किया गया 'निरुक्त' में। निरुक्तकार यास्क ने अर्थ के साथ-साथ शब्द-भेद, शब्द-अर्थ का सम्बन्ध जैसे विषयों पर भी विचार किया। पाणिनि और पाणिनिकालीन भाषाशास्त्रीय चिन्तन  पाणिनि और उनकी अष्टाध्यायी • संसार के भाषाविज्ञानियों में पाणिनि (450ईपू) का स्थान सर्वोपरि है। • पाश्चात्य विद्वानों ने भी पाणिनि की श्रेष्टता मुक्तकण्ठ से स्वीकार कर ली है। ईसा के लगभग पांच सौ वर्ष पूर्व ऐसा विलक्ष्ण भाषाविज्ञानी उत्पन्न हुआ था। • पाणिनि का अप्रतिम भाषावैज्ञानिक ग्रन्थ, आठ अध्यायों में विभक्त रहने के कारण, अष्टाध्यायी कहलाता है। • आठों अध्यायों में चार-चार पाद हैं। सम्पूर्ण ग्रन्थ सूत्र रूप में रचित है और कुल सूत्रों की संख्या लगभग चार सहस्र (3997) है। • प्रसिद्ध चौदह माहेश्वर सूत्र ही अष्टाध्यायी के मूलाधार माने गए हैं। • अष्टाध्यायी के आठ अध्यायों में संज्ञा (सुबन्त), क्रिया (तिं अत), समास, कारक, सन्धि, कृत् और तद्धित प्रत्यय, स्वर-ध्वनि-विकार और पद का विवेचन किया गया है। • परिशिष्ट में गणपाठ एवं धातुपाठ देकर ग्रन्थ की उपादेयता और बढ़ा दी गई है। • भाषा में शब्द का प्रयोग निश्चित नियमों के आधार पर ही होना चाहिए. इसी पृष्ठभूमि के संस्कृत के 'कठोर 'वैयाकरण पाणिन ने 'अष्टाध्यायी 'की रचना की. • शब्द के मूल, प्रत्यय और धातु की अवधारणाएं तथा शब्दरूपों के निर्माण की अवधारणा प्रस्तुत करने वाले पहले व्यक्ति पाणिनी थे। • वे पहले व्यक्ति थे जिन्होंने यादॄच्छिक प्रतीकात्मक वर्णनात्मक भाषा का प्रयोग किया। • 'अष्टाध्यायी'की प्रमुख विशेषताएँ हैं : 1. वाक्य को भाषा की मूल इकाई मानना। 2. ध्वनि-उत्पादन-प्रक्रिया का वर्णन एवं ध्वनियों का वर्गीकरण। 3. सुबन्त एवं ति अन्त के रूप में सरल और सटीक पद-विभाग। 4. व्युत्पत्ति - प्रकृति और प्रत्यय के आधार पर शब्दों का विवेचन। पतञ्जलि और उनका महाभाष्य • अबतक सम्पूर्ण संसार में महाभाष्यकार के रूप में प्रतिष्ठित होने का श्रेय केवल पतञ्जलि को है। • महाभाष्य लिखने के मूल में कात्यनीय वार्तिको की प्रेरणा काम करती रही है। • महाभाष्य का अधिकांश भाग कात्यायन द्वारा उठायी गई शंकाओं के समाधान से सम्बद्ध हैं। • पतञ्जलि का मुख्य उद्देश्य उन पाणिनीय सूत्रों को दोषमुक्त सिद्ध करने का रहा है, जो कात्यायन की दृष्टि में या तो दोषमुक्त थे अथवा बहुत उपादेय नहीं थे। • महाभाष्य में कुल 1689 सूत्रों की व्याख्या की गई है। • यद्यपि महाभाष्य का आधार अष्टाध्यायी ही रही है, तथापि इसमें पतञ्जलि ने जनभाषा का जैसा विस्तृत विवेचन किया है, वैसा अन्यत्र दुर्लभ है। • संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंश इन तीनों प्रकार की भाषाओं को ध्यान में रखते हुए उन्होंने भाषा को एक व्यवस्थित स्वरूप प्रदान किया। पाणिनि-पश्चात् का भाषाध्ययन • अष्टाध्यायी की टीका एवं उसकी मौलिक व्याख्या की दृष्टि से क्रमशः काशिका एवं कौमुदी ग्रन्थों का विशिष्ट महत्त्व है। • कौमुदी ग्रन्थों में सिद्धांत कौमुदी (भट्टोजि दिक्षित) एवं लघुकौमुदी प्रसिद्ध हैं। • मण्टनमिश्र प्रसिद्ध भाषाचिन्तक थे। इन्होंने 'स्फोटसिद्धि'नामक ग्रन्थ की रचना की। • भाषाविज्ञान को भृर्तहरि की देन : वाक्यपदीय का महत्त्व पाणिनि-पतञ्जलि-पश्चात् के भाषाशास्त्रियो में वाक्यपदीयकार भृर्तहरि (सातवी शताब्दी) का स्थान अत्युच्च है। • न केवल प्राचीन भाषाशास्त्र की दृष्टि से भृर्तहरि महान है, अपितु आधुनिक भाषाविज्ञानी भी उनके चिन्तन से अत्यधिक प्रभावित हैं। • तीन काण्डों - ब्रह्मकाण्ड, वाक्यकाण्ड और पदकाण्ड में विभक्त वाक्यपदीय भाषाविज्ञान का एक उत्कृष्ट ग्रन्थ है। • अत्यन्त संक्षेप में इस ग्रंथ की विशेषताओं पर निम्नांकित रूपों में प्रकाश डाला जा सकता है : 1. भाषा की इकाई वाक्य ही होता है, चाहे उसका अस्तित्व एक वर्ण के रूप में क्यों न हो। 2. वाशक्ति विश्व-व्यवहार का सर्वप्रमुख आधार है। 3. वाक्-प्रयोग एक मनोवैज्ञानिक क्रिया होता है, जिसमें वक्ता और श्रोता दोनों का होना आवश्यक है। ज्ञातव्य है कि गार्डीनर, जेस्पर्सन एवं चॉम्सकी प्रभृति अधिक चर्चित आधुनिक भाषाविज्ञानी भी इसका पूर्ण समर्थन करते हैं। 4. हर वर्ण में उस के अतिरिक्त भी किञ्चित वर्णांश सम्मिलित रहता है। अमरीकी भाषाविज्ञान ने भी प्रयोग द्वारा इसे सिद्ध करने का सफल प्रयास किया है। भौतिक विज्ञान भी यही बतलाता है। 5. ध्वनि उत्पादन, उच्चारण, ध्वनि-ग्रहण, स्फोट आदि का विस्तृत विवेचन भर्तृहरि ने किया है। भाषाविज्ञान के ये प्रमुख विषय हैं। 6. भर्तृहरि अर्थग्रहण में लोक प्रसिद्ध को ही महत्त्व देते हैं। पतञ्जलि के बाद इन्होंने ही इस पर विशद रूप से विचार किया है। 7. भर्तृहरि ने शिष्ट भाषा के साथ-साथ लोक भाषा के अध्ययन पर भी बहुत बल दिया है। यही प्रवृति आज सम्पूर्ण विश्व मे दिखाई पड़ती है। इस प्रकार, भर्तृहरि के भाषा सिद्धांत अत्यन्त व्यापक अथच पूर्ण वैज्ञानिक हैं। 8. भर्तृहरि ने शब्द के व्युत्पत्तिमूलक अर्थ की कमियों को रेखांकित किया. दरसल शब्द का स्वयं का कोई यथार्थ नहीं होता, बल्कि उसके अर्थ का सम्बन्ध पाठ के द्वारा निर्धारित सन्दर्भ और अन्य शब्दों की पूर्वापरता से नि:सृत होता है. भर्तृहरि ने भाषा की आन्तरिक संरचना को सार्वभौम माना.

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