रविवार, 2 जून 2019

जीने का मंत्र − 'सर्वे भवन्तु सुखिनः' कहानी संग्रह



जीने का मंत्र 'सर्वे भवन्तु सुखिनः' कहानी संग्रह
अमेरिका की भव्य और पावन धरती पर लगभग 25 वर्षों से रह रहीं, भारतीय मेधा और राष्ट्रीय चेतना की संवाहिका श्रीमती नीलू गुप्ता जी किसी परिचय की मोहताज नहीं हैं। प्रवासी साहित्यकार जिस प्रकार का लेखन कर रहे हैं, निश्चित रूप से सराहनीय हैं। आज के दौर में स्त्री-विमर्श, दलित-विमर्श, किन्नर-विमर्श, अल्पसंख्यक-विमर्श आदि विषयों से भरी चेतना साहित्य में देखने को मिलती है। ऐसे समय में जहाँ तनाव, बिखराव, अलगाव, एकाकीपन, पर-पुरूष संबंध आदि की चर्चा हो रही हो, तब एक संजीवनी की तरह जुड़ने-जोड़ने, नकारात्मकता में सकारात्मक की दृष्टि दे, ऐसी साहित्यकार, ऐसी लेखिका बहुत समय के उपरान्त देखने को मिली हैं। प्रेमचंद के आदर्शोन्मुखी यथार्थवाद की दृष्टि उनके कहानी संग्रह 'सर्वे भवन्तु सुखिनः' में देखने को मिलती है।
      उनकी कहानी संग्रह का नाम 'सर्वे भवन्तु सुखिनः' भारतीय संस्कृति की आत्मा है। वह परिवार को विशाल रूप में अर्थात् वसुधैव कुटुम्बकम् के रूप में देखती हैं। यही कारण है कि वह 'जियो और जीने दो', 'सबका साथ सबका विकास' के मंत्र को धारण किए हुए, दिन-रात कार्य करते हुए नज़र आती हैं। उनकी हर कहानी में मानवता का पाठ सिखाती-समझाती, आगे-बढ़ने और चैन से जीवन जीने को प्रेरित करती लेखिका अप्रत्यक्ष रूप से झाँकती नज़र आयेंगी। उनकी कहानियाँ मात्र आदर्शवाद से प्रेरित नहीं हैं। अमेरिका के नियम-कायदे और लेखिका की मददगार की भूमिका का पुट देखने को मिलता है। वे असामान्य स्थिति में धैर्य के साथ समाधान ढूँढती-बताती नज़र आती हैं। यथार्थ की घटनाएँ तभी सकारात्मक रूप में जोड़ने-मिलने में परिवर्तित हो जाती हैं। वास्तव में यही जीवन का मूल-मंत्र है, गीता का सार है, पुराणों का आधार है। जिसे भौतिकवादी युग में हम भूलते जा रहे हैं और अपना जीवन असंतुलित, अशांत, मशीन सा बना रहे हैं। विश्वास की जगह अविश्वास, प्रेम की जगह घृणा, नफ़रत, रागद्वेष को अपना रहे हैं, फिर अकेले होने का विलाप कर रहे हैं।
      'सर्वे भवन्तु सुखिनः' इस संग्रह की पहली कहानी है। नीना और रीता की मित्रता को दर्शाती, यह कहानी यथार्थ से जुड़ी है। हिंदी समिति की गोष्ठी की दोनों सदस्या एक दूसरे की मदद करती नज़र आती हैं। एक वर्ष पूर्व ही पति के देहांत के उपरांत, बेटी के पति के देहान्त से दुखी रीता नीना को बड़ी बहन सी समझती है। वह बेटी के पास रहने लगती है, एक वर्ष बाद अपनी बेटी को अपने पास बुला लेती है। इस प्रकार रीता को अपनी मित्र-मंडली और राखी को माँ का साथ मिल जाता है। दोनों  खुशहाल जीवन जीते हुए, अपने अपने कर्म में प्रवृत्त थे, तभी दीवाली के दिन लकड़ी के मकान में आग लग जाने के कारण घर और सामान जल कर राख हो जाता है। रीता भी जल जाती है। मित्रों द्वारा की गयी, तुरंत कार्यवाही से रीता को कपड़े, मकान किराए पर रहने और एक साल में नए मकान बनाने का कार्यक्रम इंश्योरेंस कंपनी ने कर दिया। रीता भी ठीक हो जाती है। दूसरों का भला करने वाले कभी दुखी नहीं होते। 'जिंदगी ज़िदादिली का नाम है। जिंदगी जीना तो कोई रीता से सीखे।' (पृष्ठ-29)  हर समस्या में समाधान खोजने वाले ही सफल व्यक्ति कहलाते हैं।
      'पराधीन सुख सपनेहु नाहीं' लेखिका की मित्र सुधा के जीवन को दर्शाती, यह कहानी पुत्र-बहू के आर्थिक उन्नति के साथ बदलते व्यवहार को दर्शाती है। पुत्र-बहू के ताने-बाने से व्यथित सुधा अपने दूसरे बेटे के पास भारत आने का सोचती है। लेखिका की सूझ-बूझ से उसे सीनियर होने के कारण काउंटी से कम दामों पर मकान मिल जाता है और वह आराम से रहने लगती है। लेखिका यह बताना चाहती है कि यदि आप अमेरिका के कायदे कानून भली भाँति जानते हैं, तो आपको पराधीन रहने की जरूरत नहीं। यथार्थ घटना पर आधारित 'अमेरिका में नाइन वन वन' कहानी बच्चों के ऊपर किसी भी प्रकार के दबाव और मारने के कानून को दर्शाती है। अमेरिका की स्वतंत्र, उदारवादी सोच के कारण बच्चों तक को मुक्त वातावरण दिया जाता है। मालती और नरेश अपने पोते को पढ़ने, शरारत न करने से रोकते हैं। पोता नरेश के थप्पड़ मार देने से किस प्रकार नाइन वन वन नम्बर मिला कर पुलिस को बुला लेता है। भारतीय और पाश्चात्य संस्कृति की टकराहट को दिखाकर पाश्चात्य देश में उनके नियमों से चलने की सीख, यह कहानी देती है।
      'माँ का त्याग' कमल और भीम पत्नी-पति के रिश्ते में सासु माता रमा पर तानें-बानों का कहर बरसाती, कमल हर बात में तुम्हारी माँ को यह नहीं आता, वह नहीं आता। अपनी माँ की तारीफ करती हुई कमला रमा को घर छोड़ने पर मजबूर कर देती है। माँ अपने बेटे को अपने कारण जलील होता देखकर दुखी होती है, तभी उसकी सहेली अचला उसी तरह सताई गई औरत, उसे फ्लोरिडा के  'शांतिनिकेतन' संस्था में ले जाती है। माँ इसलिए खुश थी कि अब उसका बेटा खुश है। रमा का बेटा भीम जब भी वहाँ आता, अपनी माँ को देखकर खुश होता, उसकी दैनिक चर्या कितनी अच्छी है। माँ कहती है- 'आपस में तुम दोनों खुश रहना, तुम्हारी खुशी में तुम्हारी माँ भी खुश है, मेरी बिलकुल चिंता मत करना।' (पृष्ठ-47) नकारात्मक, तनावग्रस्त जीवन में समाधान ढूँढकर जीवन जीना ही जीवन है।
      'बहू बेटी से बढ़कर' कहानी मधु और रागिनी के सास-बहू के संबंधों को दर्शाती है। रागिनी अपनी सास को अपनी माँ से बढ़कर मानती है। मधु भी अपनी बहू को बेटी से बढ़कर मानती है। समाज में क्या हो रहा है, कौन दुर्व्यवहार कर रहा है। इसे छोड़ सद्भावना से संबंधों को चलाने की सीख यह कहानी देती है। रागिनी 'छज्जू के चौबारे' पर मधु के जन्मदिन पर कहती है- 'मम्मी के अनुसार बेटी हमें जितनी प्यारी होती है, बहू हमें उससे भी अधिक प्यारी होनी चाहिए। बहू हमारे घर की शान और मर्यादा है। बहू और सास का रिश्ता, माँ बेटी से बढ़कर होता है।' (पृष्ठ-53) मधु भी कहती है- ''मुझे तुम्हारी जैसी बेटी पर गर्व है।....आप अपनी आँखो का नूर अपनी आँखों में बसाकर रखें, बहू ही आपकी असली बेटी है और आपके वृद्धावस्था की लाठी है।'' (पृष्ठ-54)
'सूझबूझ' कहानी में आशा और दीपक का खुशहाल परिवार बेटे समीर की सहेली नीलम की बेटी ऋचा से विवाह होना। बेटे-बहू का दूरी के अन्तराल के कारण अलग रहना। आशा को व्यथित करता है। सामाजिक संस्थाओं में कार्य करने पर भी अकेलेपन की पीड़ा उसे दुखी कर देती है। उसके जन्म दिन पर बेटे-बहू की तरफ से डॉगी को उपहार में देना, जादू की पुड़िया का काम कर जाता है। अमेरिका, यूरोप में अकेलेपन की यही जादुई पुड़िया जीवन दान देती है। परिवार में खुशियाँ लौट आती हैं।
'पराये भी अपने' कहानी में खुशहाल मालती और दीपक की आप बीती है। बेटे विपुल को डॉक्टर बनाया और डॉक्टर लड़की से विवाह भी करवाया। शादी के दो महीने बाद ही विपुल अपनी पत्नी के साथ स्टैनफर्ड अस्पताल के फ्लैट में रहना चाहता है। पोती तन्वी की देखरेख सासू माता की बजाए नैनी से बहू करवाती है। बहुत कम मिलने जाती है। आशा के पड़ोस में आए नए दम्पति नीना और अशोक की बेटी अनिशा को दादी-बाबा और उन दोनों को माँ-बाप मिल गए। अनिशा के जन्म दिन पर चारू और विपुल भी आते हैं। नीना कहती है-'आपको ऐसे दम्पति से मिलाना चाहती हूँ, जो हमारे माता-पिता से भी बढ़कर हैं। हमारी अनिशा की देखभाल जी जान से करते हैं।' (पृष्ठ-68) नीना के रोने पर चारू और विपुल का हृदय परिवर्तन हो जाता है, पूरा परिवार मिल जाता है।
'राधा का स्वाभिमान' कहानी राधा और महेश के संबंधों को दर्शाती है। महेश का संबंध राधा की सहेली अरूणा से हो जाता है। राधा को महेश स्वयं बता देता है कि अब वह अरूणा के साथ रहेगा। उसी समय से राधा अपनी बेटी रीमी के साथ एक नौकरी की तैयारी करती है और अच्छे पद पर पहुँच जाती है। समाचारपत्र में महेश की मृत्यु की घटना सुनकर वह रोती नहीं। 'अरे राधा! तुम्हारे लिए तो महेश उसी दिन मर गया था, जिस दिन उसने तुम्हारे साथ विश्वासघात किया था।'(पृष्ठ-76) आज की सजग नारी का स्वाभिमान इस कहानी में दिखाई पड़ता है। 'तमन्ना' कहानी में तमन्ना और मीता दो सहेलियों के माध्यम से एकाकी जीवन जीने वाले स्त्री-पुरूष को जोड़ने का कार्य किया गया है। तमन्ना के पिता राजीव पत्नी की मृत्यु के उपरान्त अकेले बेटी के साथ रह रहे थे। उधर मीता की माता नलिनी पति की मृत्यु के बाद भारत में अकेली रहकर बेटी को पाल रही थी। मीता की माँ जब तमन्ना के घर पहुँचती है,  तो राजीव उसे देखकर हैरान हो जाता है। वह उससे शादी करना चाहता था, लेकिन जातिगत कारणों से विवाह नहीं हो सका। दोनों अपूर्ण लोगों को मिलाकर संपूर्ण करने का कार्य उनकी पुत्रियाँ करती हैं, 'थोड़ी सी सूझबूझ से दो अधूरे परिवार एक हो गए।'(पृष्ठ-85)
'जायें तो जायें कहाँ' कहानी में शान्ता और मोहन जैसे लोगों के दर्द को बयाँ किया है, जो अपना सब कुछ बलिदान करके अपनी संतानोँ को आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करते हैं। रोहन अमेरिका में पढ़ने जाता है और वहाँ अच्छी नौकरी पाकर अपने माता-पिता को अपने पास बुलाता है। रोहन अमेरिका में ही शादी और एक पुत्र के होने की सूचना, माता-पिता को मिलने पर देता है। बच्चों के लिए घर बेचकर जाना और उनसे मिली उपेक्षा के यथार्थ को यह कहानी दर्शाती है। बहू और बेटे की उपेक्षा से तंग आकर शांता और मोहन को नए तरीके से जीवन यापन भारत में आकर करना पड़ता है। लिफाफे में रखे डॉलरों की मोटी रकम माता-पिता के ऋण को चुकाने का भाव है। वापस पत्र लिखकर वे कहते हैं 'निस्वार्थ प्यार तो प्यार माँगता है, धन नहीं। हम अपनी खुशी से तुम्हारा दिया हुआ यह पैसा अपने पोते अंशुल के लिए दादा-दादी की ओर से उपहार स्वरूप भेज रहे हैं।'(पृष्ठ-96) यह पत्र पढ़कर रोहन को अपनी भूल का एहसास हुआ और वह माता-पिता की पचासवीं शादी की साल गिरह पर भारत आकर उनके नए मकान के कागजात उन्हें सौंपता है और माता-पिता के गले लगा। पति-पत्नी और पोते का जीवन खिल उठा।
'स्वतंत्र वातावरण में घुटन' यह कहानी युवाओं में मादक पदार्थों के बढ़ते प्रयोग से हुई बर्बादी को दर्शाती है। सुजाता का पुत्र अपनी पत्नी और स्वयं को गोली मार देता है। मादक पदार्थों का सेवन, खुली छूट का परिणाम यह कहानी दर्शाती है। 'स्वप्न हुए साकार' दो सहेलियों के प्रेम और दाम्पत्य जीवन की सुखद घटनाओं की यथार्थ कहानी है। 'प्यार का बदलता रंग' कहानी आभा और गिरीश के बदलते प्यार को दर्शाती है। प्रेम-विवाह करने वाले गिरीश का मन अमेरिका में किस प्रकार भ्रमित होता है। आभा अकेली 'मैत्रेयी' एक नान प्रॉफिट संस्था से जुड़कर अपना केस लड़ती है और ग्रीन कार्ड बनवाती है 'जब तक उसे काम नहीं मिलेगा, गिरीश कोर्ट के फैसले के अनुसार उसका पूरा रहने का, खाने का खर्चा देगा।'(पृष्ठ-119) इस प्रकार उसका जीवन सुखमय बन जाता है। 'अनोखा उपहार' कहानी अपने-अपने माता-पिता के साथ-साथ दूसरे के माता-पिता का सम्मान करने से दाम्पत्य जीवन कैसे सुखद होता है, यह दर्शाती है। अनिशा के जन्मदिन पर पराग द्वारा दी गई पार्टी में अनिशा अपने सास-ससुर को अपने माता-पिता से बढ़कर बताती है, केक काटते समय उपहार स्वरूप अनिशा के माता-पिता को वहाँ बुलाकर पराग एक अच्छे पति की भूमिका अदा करता है।
इन सभी कहानियों को आधार बनाकर देखा जाए, तो श्रीमती नीलू गुप्ता जी की कहानियाँ देशकाल की सीमाओँ से परे, जाति-धर्म के बंधनों से मुक्त, राजनीतिक गलियारो से अलग, केवल मनसा, वाचा, कर्मणा की भावना से ग्रस्त विश्व बंधुत्व की भावना को संजोए हुए हैं। उनकी सामाजिक सेवा-साधना की परछाई, उनके साहित्य में स्पष्ट दिखलाई पड़ती है। संवेदना की दृष्टि से कहानियों की सीख मात्र उपदेशात्मक न होकर, कहानी के घटनाक्रम में सही बैठती है। विदेशी कलेवर में भारतीयता कूट-कूट कर भरी हुई है। कहानी का मूल तत्व जिज्ञासा पाठक को अंत तक बाँधे रखता है। पात्रों की सीमा कहानी को बिखरने नहीं देती है। भाषा की दृष्टि से कहानियाँ सहज, सरल, सरस हैं, मुहावरों का प्रयोग भी यदा-कदा देखने को मिलता है। पाश्चात्य परिवेश को दर्शाती और भारतीय संस्कृति का बोध कराती, ये कहानियाँ छात्रों को पाठ्यक्रम में पढ़ानी चाहिएँ। समस्या से समाधान की ओर, अंधेरे में उजाले की किरण और सत्यम् शिवम् सुन्दरम् के बोध से रची, यह रचना निश्चित रूप से हिंदी साहित्य की अमूल्य निधि होगी। ऐसी रचनाएँ मानव-मूल्यों की रक्षा करती हैं और नकारात्मक, तनावग्रस्त, एकाकीपन में जीवन जीने की कला सिखाती हैं।

डॉ. सुधांशु कुमार शुक्ला
आई.सी.सी.आर.
चेयर हिंदी,
वार्सा यूनिवर्सिटी,
वार्सा पोलैंड
+48579125129

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