पुरस्कार
प्रसाद की कहानियों
में देशप्रेम, ऐतिहासिकता और मानव संघर्ष आदि का वर्णन हमें दिखाई देता है।
पुरस्कार कहानी प्रेम और मुक्ति चेतना का विकास करके लिखी गई कहानी है। कहानी की
शुरआत कोशल के प्रसिद्ध परम्परागत उत्सव से होती है, जिसमें राजा किसी भी कृषक की
जमीन को बोने के लिए चुनता है और उसे उपहार स्वरूप स्वर्ण मुद्रा देता है। इस
वर्ष मधूलिका की जमीन ली जाती है। मधूलिका
वीर सेनापति सिंहमित्र की कन्या होती है। राजा बड़ा खुश होता है क्योंकि सिंहमित्र
ने मगध के साथ युद्ध में विजय दिलाई थी। लेकिन मधूलिका राजा का उपहार लेना स्वीकार
नहीं करती और अपनी भूमि पर काम करना चाहती है। इन सभी बातों को दूर खड़ा कोशल का
राजकुमार अरूण देख रहा था। मधूलिका को दूसरी जगह भूमि दे दी जाती है और वहीं पर
अपना गुजर बसर करती है। इसी दौरान उसका परिचय अरूण से होता है, वह नहीं जानती यह
युवक कौन है और किस उद्देश्य से मेरे पास आया है।
अरूण राजा से
मधूलिका की जमीन वापस दिलाने की बात भी कहता है। दोनों ही युवा है मधूलिका अरूण के
बीच प्रेम हो जाता है। लेकिन दोनों ही मर्यादा में रहते हैं। मधूलिका को धीरे-धीरे
अरूण की वास्तविकता का पता चल जाता है कि वह मगध पर आक्रमण कर उसे अपना गुलाम
बनाना चाहता है और अपनी हार का बदला लेना चाहता है। मधूलिका भी वीर स्वर्गीय
सिंहमित्र की कन्या थी। उसने प्रेम से बड़ा देशप्रेम सोचा और अरूण को सेना के
हाथों पकड़वा देती है। अरूण को प्राण दंड़ दिया जाता है। वीर कन्या मधूलिका की
बड़ी जय जयकार होती है। राजा ने पुरस्कार देने के बारे में पूछा तो मधूलिका ने
कहा- मुझे कुछ न चाहिए। अरूण हँस पड़ा। राजा ने कहा- नहीं मैं तुझे अवश्य दूंगा।
माँग ले। मधूलिका कहती है- तो मुझे भी प्राण दण्ड मिल। -कहती वह बन्दी अरूण के पास
जा खड़ी होती हुई।
1.
देशप्रेम
2.
ऐतिहासिकता
3.
मानव संघर्ष
4.
मुक्ति चेतना
5.
सच्चा प्रेम (अधूरा
प्रेम)
6.
नारी जीवन
आकाशदीप
कहानीकार के रूप में भी जयशंकर प्रसाद मानव-मन की भावनाओं को
चित्रित करने में सफल रहे हैं। इनकी कहानी आकाशदीप भी इस भावना से अलग नहीं
है। नाटककार होने के नाते, वे कहानी में भी कई बार नाटक का पुट भर देते थे, इस
कहानी में भी प्रसाद बड़े ही नाटकीय ढंग से भाव तथा अनुभूतियों को साकार बनाने का
सफल प्रयास किया है। बुद्धगुप्त को जलदस्यु और चम्पा को बंदिनी कहकर प्रसाद ने
पाठक को उस मूल संवेदना के साथ जोडा़ है। जिससे पता चलता है कि मानव के आचरण और व्यवहार को प्रेम तथा
त्याग के रास्ते पर चलाकर काफी बदला जा सकता है। आकाशदीप कहानी प्रेमकथा होते हुए
भी इसमें उससे ऊपर उठकर सेवाभाव और मानव प्रेम है। कहानी की नायिका चंपा आजीवन
भूले-भटके नाविकों को राह दिखाने और दस्यु बुद्धगुप्त की याद में ऊँचे स्तंभ पर
दीप जलाती रहती है।
कहानी में दिखाया गया है कि प्रेम किस प्रकार कर्म पर विजय
प्राप्त कर लेता है। जलदस्यु बुद्धगुप्त को दुर्दान्त बनाने में परिस्थितियों की
अहम भूमिका थी। अन्यथा वह भी क्षत्रिय
था। अब जलपोतों को लूटना और विरोध करने वालें की नृशंस हत्या कर देना, उसका कर्म
बन चुका था। चम्पा अपनी माँ की मृत्यु के बाद अपने पिता के साथ पोत पर ही अपने
पिता से साथ रहने लगी। जिसका उसने बार-बार
उल्लेख भी किया है। ''पिता इसी मणिभद्र के यहाँ प्रहरी का काम करते थे। माता का
स्वर्गवास हो जाने पर मैं भी पिता के साथ नाव पर ही रहने लगी। आठ वर्ष से समुद्र
ही मेरा घर है।'' एक बार जलदस्युओं ने उसके पिता के जलपोत पर हमला किया। अन्य
प्रहरियों के साथ उसके पिता भी हत्या हो जाती है।
मणिभद्र की कुदृष्टि चम्पा पर पड़ती है और वह उसे बन्दी बना लेता
है। उसी जहाज पर बन्दी बुद्धगुप्त भी था। जो मौका लगते ही चतरुाई से बन्धनमुक्त हो जाते हैं। जैसे ही
चम्पा बुद्धगुप्त को देखती है तो समझ जाती है यही जलदस्यु मेरे पिता की मौत का
कारण है। बुद्धगुप्त से घृणा करने लगती है।
इस बीच उनकी नाव एक सुनसान द्वीप से जा टकराती है। बुद्धगुप्त उस द्वीप का
नाम चम्पाद्वीप रख देता है और चम्पा को समझाता है कि वह उसके पिता की मौत का कारण
नहीं है। इससे चम्पा के प्रेम में और वृद्धि होती है। बुद्धगुप्त चाहता है कि
परिणय के बाद दोनों स्वदेश वापस लौटें। लेकिन चम्पा इंकार कर देती है और बताती है
कि वह संसार से विरक्त हो चुकी है।
एक दिन जब वह नीले समुन्द्र में जलते दीपों की परछाईं और उनकी
चमक देखती है तो उसे अपनी माँ की याद आ जाती है। वह बुद्धगुप्त को जलते दीपक के
सम्बन्ध में बताती है कि इसमें किसी के आने की उम्मीद भरी हुई है। चम्पा कहती है
कि जब मेरे पिता समुन्द्र में जाया करते थे तो मेरी माँ ऊंचे खंभे पर दीपक जलाकर
बांधा करती थी जिससे संदेश मिलता था कि कोई घर पर इंतजार कर रहा है इसलिए मैं भी
निरन्तर आकाश के छितराये तारों की चमक समुन्द्र-जल में देखती हूँ।
वह बुद्धगुप्त का प्यार छोडऩे के लिए तैयार हो जाती है लेकिन
द्वीप के लोगों का विकास करने के लिए अपनी कृतव्य-भावना पर अडिग रहती है। साथ ही
कहानीकार प्रसाद ने द्वीप-निवासियों द्वारा उसके प्रति श्रद्धा एवं विश्वास का भाव
दिखाकर उसे उत्साहित करने का प्रयास किया है।
कहानी के अंत में प्रसाद द्वारा कहे गए वाक्य ने कहानी की मूल
संवेदना को स्पष्ट करने प्रयास किया है- 'यह
कितनी ही शताब्दियों पहले की कथा है। चम्पा आजीवन उस द्वीप-स्तम्भ में आलोक जलाती
ही रही। किन्तु उसके बाद भी बहतु दिन, द्वीपनिवासी, उस
माया-ममता और स्नेह-सेवा की देवी की समाधि-सदृश उसकी पूजा करते थे।”एक
दिन काल के कठोर हाथों ने उसे भी अपनी चंचलता से गिरा दिया।' कहानी अपने व्यापक
कलेवर में राष्ट्रप्रेम, मानवीय प्रेम, सच्ची सेवा भावना, त्याग, करूणा आदि न जाने
कितने ही गुणों को अपने में समाये हुए है।
गुण्डा
बीसवीं सदी की शुरुआत में
जब भारतवर्ष में अग्रेंजी हुकूमत के खिलाफ आवाज बुलंद की जा रही थी, उस समय लगभग सभी लेखक और
कवि अपने शब्दों में क्रांति भर कर लोगों को जागरूक करने का काम कर रहे थे। इन
जोशीली कविताओं और कहानियों को पढ़कर लोगों के अंदर राष्ट्रवाद की भावना ओत-प्रोत
होने लगती थी। इसी दौर में छायावाद और राष्ट्रवाद को एक सूत्र में बांधते हुए आम
जनमानस के दिलों में जयशंकर प्रसाद अपनी अमिट छाप छोड़ी। इसी दौर में लिखी उनकी एक कहानी है ‘गुण्डा' । विचार करें तो गुण्डा एक नकारात्मक शब्द है लेकिन इस रचना में गुण्डा का एक सकारात्मक किरदार है, जिसका नाम है नन्हकू
सिंह। ‘गुण्डा' कहानी में उन्होंने
अंग्रेजों के खिलाफ चल रहे संघर्षों को दर्शाया है। जयशंकर प्रसाद ने उस वक्त अपने लेखनी
की ताकत दिखाई जब देश गुलामी की जंजीरों में जकड़ा था। उस समय लोग ठीक से लिख नहीं
पाते थे, ऐसे समय में प्रसाद ने भारत के गौरवशाली इतिहास की परंपरा का वर्णन करते
हुए लोगों को देश प्रेम से जोड़ा। जयशंकर प्रसाद की कहानी ‘गुण्डा’
हिन्दी की श्रेष्ठ कहानियों में स्थान रखती है। इस कहानी की कथा
वाराणसी के तत्कालीन परिवेश पर आधारित है। ईसा की अठारहवी शती के अन्तिम भाग में
समस्त न्याय आरै विद्यावाद को शस्त्र-बल के समक्ष परास्त होते देख एक नवीन
सम्पद्राय वर्ग को प्रसाद ने उल्लेख किया है, जिन्हें कांशी
के लागे ‘गुण्डा’ समझते हैं। उनका धर्म
वीरता था जिसका प्रदर्शन वे अन्याय, अत्याचार के विरुद्ध निर्बल
और असहाय की रक्षा करते थे। ऐसे ही एक पात्र नन्हकू सिहं का इस कहानी में जिक्र है, जो काशी के प्रतिष्ठित जमीदांर बाबू निरजंन सिहं का वीर पत्रु है। जीवन के
किसी ‘अलभ्य अभिलाषा’ के पूर्ण न होने पर वह मानसिक चाटे से घायल हो जाता है, परन्तु स्वाभिमान के साथ निभर्य हाकेर अपने साथियों को लकेर काशी की गलियों
में घमूता रहता है। वहीं की एक तवायफ की लडक़ी - दलुरी को नन्हकू और राजमाता पन्ना
के प्रेम का पता होता है। लेकिन वह कहीं भी बताती नहीं है। पन्ना अपने पत्रु राजा
चतेसिहं के साथ काशी के आतंक पूर्ण भय और सन्नाटे के माहौल में कैद कर ली गई है।
जब दुलारी के माध्यम से नन्हकू सिंह को इस बात की जानकारी मिलती है, तो उसका मन अधीर हो उठता है। वह अपनी जान पर खेलकर अपने साथियों के साथ
उन्हें उस कैद से आजाद करने के लिए निकल पडत़ा है। वहाँ पहुँचकर वह अपने प्रयास में
सफल हाता है। वह स्वयं खडा़ होकर अविचलित भाव से तलवार चलाता हुआ दुश्मन से
राजमाता आरै राजपरिवार की रक्षा करता हुआ अपने प्राणों की आहुति दे देता है। कहानी
प्रेम, त्याग, देशभक्ति, राष्ट्रवाद आदि सभी गुणों से भरी हुई है।
बेड़ी
जयशंकर प्रसाद की कहानियों में प्रेम,
विश्वास, राष्ट्रभक्ति आदि कितने ही गुण दिखाई देते हैं। लेकिन इन सब बातों से परे
प्रसाद की कहानियों में बालमन, बाल-मनोविज्ञान, बालचेष्टा आदि बालक को केन्द्र में
रखकर कितने ही पक्ष दिखाई देते हैं। बेड़ी प्रसाद की ऐसी ही कहानी है,
जिसमें अंधे पिता की सेवा, पुत्र द्वारा पिता की बातों को मानना तथा उनका कर्तव्य पालन, बचपन छोड़ पारिवारिक
जिम्मेदारी निभाना आदि कितने ही पक्ष कहानी में उभरकर आए हैं।
लेखक सड़क पर भीख माँगते अंधे व्यक्ति को
देखता है उसके साथ उसकी लाठी पकड़े एक लड़का दिखाई देता है। कुछ दिनों बाद अंधा
अकेला दिखाई देता है, बात जानने पर पता चलता है कि लड़का घर छोड़कर भाग गया और भीक्षा
में मिलने वाले पैसे से कुछ पैसे बचाकर रख लेता था, उन पैसों को भी ले उड़ा। लेकिन
फिर सड़क पर एक दिन अंधा और उसके साथ लड़का दिखाई देता है, जानने के बाद पता चलता
है कि वह भागा नहीं था, बल्कि बाबा कि सेवा के लिए काम ढूँढने के लिए शहर गया था
सो वापस आ गया। लेकिन अबकी बार बच्चा न भागे इसके लिए अंधे ने बच्चे के पैरों में
बेड़ी बाँध दी है, जिससे उसे चलने में तकलीफ भी होती है। उसी समय सड़क पार करते
समय एक तेज गति से आती कार बच्चे से टकराई, बच्चा दौड़ न सका, क्योंकि पैरों में
बेड़ी बँधी थी। मूक दर्शक भीड़ कह रही थी, हत्य़ारे ने बेड़ी पहना दी है, नहीं
तो क्यों चोट खाता! बुड्ढे ने कहा- काट
दो बेड़ी बाबा, मुझे न चाहिए। और मैंने हत्बुद्धि होकर देखा कि बालक के
प्राण-पखेरू अपनी बेड़ी काट चुके थे।
छोटा
जादूगर
बाल साहित्य के रूप में छोटा जादूगर एक सफल रचना है। उसी को यहाँ अपनी
दृष्टि से देखने का प्रयत्न कर रहा हूँ। माना जाए तो इस बाल साहित्य में जयशंकर
खुद एक पात्र हैं, जो उस बालमन को पढने का प्रयत्न कर रहे हैं। छोटा जादूगर प्रसाद की ऐसी ही
कहानी है, जिसमें बीमार माँ की सेवा, पुत्र द्वारा माँ की बातों को मानना तथा उनका
कर्तव्य पालन, बचपन छोड़ पारिवारिक जिम्मेदारी निभाना आदि कितने ही पक्ष कहानी में
उभरकर आए हैं। कहानी के आरंभ में ही प्रसाद सारी घटना को खोलकर रख देते हैं कि यह
बालक जादूगर कैसे बना, ''मनुष्यों की भीड़ से जाड़े की सन्ध्या भी वहाँ गर्म हो रही थी। हम
दोनों शरबत पीकर निशाना लगाने चले। राह में ही उससे पूछा-‘‘तुम्हारे और कौन हैं?’’ खिला-पिला कर पहले जयशंकर प्रसाद उसका विशवास जीतते हैं, इसके बाद अपनी इस जिज्ञासा को शांत करते हैं कि यह लड़का यहाँ अकेले
क्यों आया है? उसे शांत करने में वे सफल हो जाते हैं. वे उससे
पूछते हैं कि – ‘‘माँ और बाबूजी.’’,‘‘उन्होंने तुमको यहाँ आने के
लिए मना नहीं किया?’’,‘‘बाबूजी जेल में है.’’,‘‘क्यों?’’,‘‘देश के लिए।’’-वह गर्व से बोला.,‘‘और तुम्हारी माँ?’’,‘‘वह बीमार है.’’,‘‘और तुम तमाशा देख रहे हो?’’ उसके मुँह पर तिरस्कार की हँसी फूट पड़ी. उसने कहा-‘‘तमाशा देखने नहीं,
दिखाने निकला हूँ। कुछ पैसे
ले जाऊँगा, तो माँ को पथ्य दूँगा। मुझे शरबत न पिलाकर आपने
मेरा खेल देखकर मुझे कुछ दे दिया होता, तो मुझे अधिक प्रसन्नता
होती।’’
कहानी
अपने छोटे से कलेवर में बहुत सारे प्रश्नों को एक साथ लेकर चलती नज़र आती है।
कहानी के केन्द्र में बालक है लेकिन लेखक का उद्देश्य उससे बहुत ऊपर दिखाई पड़ता
है। यहाँ जाति, धर्म से ऊपर देश को दिखाया गया है। इस संवाद के माध्यम से सारी बात
खुलकर सामने आ जाती है।
मैंने पूछा-‘‘कौन?’’,‘‘मैं हूँ छोटा जादूगर।’’और अंतत: उस छोटा जादूगर को
इस विश्व का सबसे बड़ा जादूगर अपना जादू दिखा देता है। उसके जादू से उसकी माँ की
साँसे थम सी जाती हैं। माँ और पुत्र की ममता का वह नज़ारा बहुत दर्दनाक था। पर बड़े
लोग इस हकीकत को जानते हैं कि बड़ा जादूगर पूरे जीवन अपना जादू दिखाते हुए, उस पात्र का अंत भी कर देता है।
कहानी देशभक्ति, बालमन,
पारिवारिक स्थिति, माता-पिता सेवा, आर्थिक कमजोरी और राष्ट्र की स्थिति को
दिखाती नज़र आती है। कहानी में जयशंकर प्रसाद ने एक निराश्रित बालक के
बालमन को पढने में सफलता प्राप्त की है। कहानी को पढ़ते हुए या तो हम अपने बचपन में
खो जाते हैं, या अपने आस-पास में खेलते हुए बच्चों के वातावरण
में। यही प्रसाद की सफलता का मापदंड है। कहानी के छोटे-छोटे संवाद कौतुहल पैदा
करते हैं और पाठक के सामने रोचक ढंग से उजागर हो जाते हैं।
विरामचिह्न
स्वाभिमान
विरामचिह्न
विरामचिह्न कहानी भारतीय गाँवों में फैले जातिवाद को दिखाती है। लेखक
ने कहानी में बड़े ही मर्मस्पर्शी तरीके से इसमें जातिवाद, ऊँच-नीच, वृद्ध समस्या,
ग्रामीण जीवन, रीति-रिवाज, मंदिर में अछूतों के प्रवेश पर रोक आदि कितनी ही
समस्याओं को एक साथ उजागर किया है। कहानी अपने छोटे से कलेवर में बंधी हुई है।
मंदिर के बाहर एक गरीब अछूत बुढ़िया फल बेच रही होती है लेकिन कोई उसके फल नहीं
खरीदता है। तीन दिन से न तो उसके फल बिके है और न ही तीन दिन से उसने कुछ खाया है
वह अपने सड़े से एक केले को उठाती है और मंदिर के बाहर से ही भगवान की ओर उसे
अर्पण करके खा लेती है, क्योंकि निम्न जाति को मंदिर में प्रवेश नहीं दिया जाता
था।
बुढ़िया का बेटा राधे जवान है और तेज स्वभाव का है, वह माँ से कहता है
सभी घर चले गए तू यहाँ क्यों बैठी है। जब खाने को ही नहीं है तो देवता का क्या
करना। बुढ़िया जैसे ही घर पहुँचती है तो वहाँ मंदिर का पुजारी, महंत जी के जमादार
कुंज ने बुढ़िया को आवाज लगाई और बताया कि कल तेरा बेटा कुछ अछूतों को लेकर मंदिर
में प्रवेश करना चाहता है, उसे समझा देना वह ऐसा ना करे वरना परिणाम अच्छा न होगा।
यह कहकर वह चला गया। बुँढ़िया ने राधे को समझाया की वह ऐसा ना करे लेकिन राधे
मानने वाला नहीं था। अगले दिन मंदिर के बाहर ऊँच वर्ग के लोग और निम्न जाति के लोग
जो राधे के साथ आए थे आमने-सामने हो गये। राधे जैसे ही मंदिर में जाने के लिए आगे
बढ़ा किसी ने राधे के सिर पर करारी चोट दी। राधे वहीं गिर पड़ा बाकि लोग भाग गये।
पुलिसा आयी लेकिन कुछ नहीं हुआ। बुढ़िया यह सब देख रही थी। राधे का शव देहलीज के
समीप रख दिया गया। बुढ़िया ने देहलीज पर सिर झुकाया पर वह सिर उठा न सकी। मंदिर
में घुसनेवाले अछूतों के आगे बुढ़िया विरामचिह्न सी पड़ी थी।
महात्मा गांधी जी ने
अछूतोद्धार आंदोलन चलाया था और उन्हें हरिजन कहा। इससे उनमें आत्मसम्मान की भावना
जाग उठी। उन्होंने समझ लिया कि मंदिर में प्रवेश कर भगवान की मूर्ति के दर्शन करना
उनका अधिकार है। इसी विषय को लेकर प्रसाद जी ने शायद इस कहानी की रचना कर दी थी। कहानी
में दलित विमर्श, जातिगत भेद भाव, आस्था और विश्वास, वृद्ध समस्या, ऊँच-नीच का भेद
भाव आदि कितने ही विषयों पर प्रकाश डाला गया है।
स्वाभिमान
प्रसाद कहानी कला में मँजे हुए कलाकार कहे जा सकते हैं। उन्होंने हर
एक विषय पर अपने लेखनी चलाई और समाज को जागृत किया। स्वाभिमान कहानी वृद्ध समस्या,
स्त्री विमर्श, आत्मसम्मान, गरीबी, ग्रामीण रहन-सहन आदि कितने ही विषय एक साथ लेकर
हमारे सामने आती है। कहानी में बुढ़िया के साथ उसकी बेटी भी दिखाई गई है, जो काम करती
है लेकिन बुढ़िया को यह पसंद नहीं है कि बेटी की कमाई खाऊँ। वह जिस किसी से भी
मिलती काम के लिए कहती। बाबू रामनाथ ने बुढ़िया को दुकान पर काम के लिए रख लिया।
बुढिया झाड़ू लगाती और बिखरे सामान को ठीक जगह पर रखती, लाल मिरच फटकनी पड़ती आदि
काम करती। कुछ समय तो ऐसे ही बिता लेकिन जैसे-जैसे समय बिता उसका शरीर अब जवाब
देने लगा। बाबू रामनाथ ने उसे पेंशन देने की कही और घर पर रहने की सलाह दी। यह सब
सुनकर बुढ़िया के स्वाभिमान को ठेस लगी और पेंशन लेने से पहले ही अक्षयलोक को
पहुँच गयी। बाबू रामनाथ ने पेंशन का पैसा उसके दाह-कर्म में लगा दिया।
कहानी वृद्ध समस्या, स्त्री विमर्श, स्वाभिमानी जीवन, गरीबी का
चित्रण, सामाजिक सरोकार, रीति-रिवाज और परंपरा आदि कितने ही विषयों पर प्रकाश
डालती है।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें