शुक्रवार, 20 दिसंबर 2013
चश्मा बदल गया
बुधवार, 4 दिसंबर 2013
देश का क्या हाल है।
देश का क्या हाल है।
डॉ. नीरज भारद्वाज
हर एक देशवासी को अपने देश से प्रेम होता है और वह हर समय अपने देश के बारे में सोचता रहता है। पत्रकार मन है इसी लिए सवालों का आना-जाना लगा ही रहता है। कई बार तो ऐसे सवाल दिमाग में आते हैं कि उनका जवाब ढूंढ निकालना बडा कठिन लगता है। लेकिन साहित्य तुरंत उनके जवाब दे देता है। इसी लिए पुस्तकों को छोडने का मन ही नहीं करता और उनसे हर समय जुडे रहने का मन करता रहता है। साहित्य अपने आप में एक ऐसा वृक्ष है जिसकी न जडों का पता और न ही उसके फैलाव का पता चल पाता है अर्थात् जितना उसकी गराई में जाओं उतना ही और जानने की कोशिश होती है।
एक दिन घुमते फिरते दिमाग में कई सारे सवाल अपने ही आप पैदा हो गए और मैं उनकी खोज में कहीं ओर नहीं, बल्कि अपने ही समाज में निकल पडा और लोगों से बातें करता रहा। लेकिन मन शांत नहीं हुआ और मैं साहित्य के बारे में जानने के लिए 9 से 10 साल के बच्चों से, जो विद्यालय में पढते थे, उनसे जा मिला और उनसे हिंदी के कुछ रचनाकारों के नाम जानना चाहा, तो वह मेरे सवाल से ही घबरा गए। मैंने सोचा शायद आज की पीढी के लिए यह सवाल नया है, क्योंकि ये किताबें कम पढते होंगे और रचनाकारों के बारे में भी कम ही जानते होंगे। एक दो ने रचानाकर का नाम तो बता दिया। लेकिन उनकी रचना के नाम बताते समय अटक गए। तो मैंने सोचा इनसे सिनेमा जगत के कुछ नायक-नायिकाओं के बारे में जान लिया जाए, क्योंकि टेलीविजन तो यह रोज देखते हैं। मैंने फिल्म अभिनेता मनोज कुमार, जो अपने जामाने में भारत कुमार के नाम से विख्यात रहे उनके बारे में जानना चाहा तो सारे बच्चे मेरा मुंह ताकने लगे। मेरा सिर चकराया कि यह कैसे भावी नागरिक है न सिनेमा से जुडे न ही साहित्य से, फिर क्या होगा इस देश का।
मेरे साथ चल रहे मित्र ने कहा कि किसी नए हिरो का नाम लो। तो मैंने उससे कहा कि किसी नए रचानाकर का नाम लूं। क्या ये उसके बारे में बता पाएंगे। उन्होंने उत्तर दिया नहीं भाई, तो फिर नए हिरो का नाम क्यों याद किए हुए है। वो भी कातर भरी नजरों से मुझे देखने लगे। मैंने कहा सवाल साहित्य और सिनेमा के बीच का नहीं है। सवाल आज की उस पीढी का है, जो केवल और केवल रोजाना का सोच रही है और अपने तक ही बंध कर रहना चाहती है। वह अपने परिवार, देश और दुनिया से नहीं जुडना चाह रही है, क्योंकि संयुक्त परिवारों का टूटना ही इस नए परिवेश और समाज का कारण है।
जहां तक जानकारी की बात है आज का बच्चा इंटरनेट से जुडकर जान तो बहुत कुछ रहा है। लेकिन समझ कुछ नहीं रहा। वह केवल अपना हित चाहता है। इसी लिए सडक के किनारे कितने ही लोग सडक दुर्घटना में किसी की मदद न मिलने के कारण मर जाते हैं। कितने ही लोग धर्म और आस्था के नाम पर ठगे जाते हैं, कितने ही लोग विश्वास के नाम पर विश्वासघात कर उनके बच्चों का शोषण करते हैं और न जाने कितने ही अपराध हो रहे है। इन सभी बातों का जिम्मेदार कोई और नहीं, बल्कि हमारा बदलता समाज और उसकी बदलती सोच ही है। वर्तमान का भारत मेरी दृष्टि से रोजाना के बारे में जानने के लिए ही रह गया है। वह भूत और भविष्य से धीरे-धीरे दूर होता जा रहा है। लेकिन मेरे साहित्यकार मित्र निराश न हो, क्योंकि वही सही मायनों के भारत का सच्चा निर्माण करते हैं। जरुरत है अब ऐसी रचनाओं की जो युवा पीढी में फिर से जान डाल दे।
शुक्रवार, 18 अक्टूबर 2013
यथार्थवाद
रहस्यवाद
रविवार, 13 अक्टूबर 2013
संस्कृति और संस्कार
रविवार, 29 सितंबर 2013
सोशल मीडिया और हम
सोशल मीडिया और हम
डॉ. नीरज भारद्वाज
वर्तमान में संचार तकनीक एवं माध्यमों में एक अद्भुत व अभूतपूर्व परिवर्तन देखा गया हैं I आज तकनीक ने भौतिक सीमाओं को तोड़कर पूरी दुनिया को एक-सूत्र में पिरो दिया है I इसी के चलते मीडिया का क्षेत्र आज शिक्षा तथा समाज की दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण हो गया हैI आज मीडिया का क्षेत्र केवल पत्रकारिता तक ही सीमित नहीं है, बल्कि यह आधुनिक युग का एक ऐसा सत्य है, जो मानव-जीवन तथा इससे जुड़े लगभग सभी क्षेत्रों से किसी न किसी रूप से जुड़ा हुआ हैI पिछले कुछ समय से मीडिया के क्षेत्र में काम करने की परिकल्पना में भी बड़ा परिवर्तन देखा गया है। जो दिनों दिन बढ ही रहा है।
भारतीय मीडिया के पुराने परिपेक्ष्य पर नजर डाले तो हमें पता चलता है कि हिंदी पत्रकारिता का प्रारंभिक काल भारतीय नवजागरण अथवा पुनर्जागरण का काल था। उस दौरान भारत की राष्ट्रीय, सामाजिक, जातीय तथा भाषायी चेतना जागृत हो रही थी। विचार किया जाए तो इस दौर की पत्रकारिता एक मिशन के तौर पर काम कर रही थी और लोगों के बीच जनजाग्रति का एक साधन थी। वास्तव में उस दौर के सभी पत्रकारों ने पत्रकारिता के क्षेत्र में जो आयाम और आदर्श स्थापित किए, वे आज भी पत्रकारिता की उदीयमान पीढ़ी के लिए मार्गदर्शन का स्त्रोत हैं। लेकिन धीरे-धीरे समाज परिवर्तन, सोच परिवर्तन, साधन परिवर्तन आदि के कारण मीडिया और उसके साधन अपना स्वरुप बदल रहे हैं। आज सोशल मीडिया का युग है। सोशल साइटस ही लोगों से सीधे तौर पर जुडी हैं। वही लोगों को जाग्रत कर उनके विचारों को हवा देकर फैलाने का काम कर रही है।
आज हर तरफ सोशल मीडिया अथवा न्यू-मीडिया के सकारात्मक पक्षों पर कम चर्चा हो रही है, जबकि उसके नकारात्मक पक्षों की अधिक विचार किया जा रहा है। आज लोग सोशल साइटस के माध्यम से अपने विचार प्रकट कर रहे हैं, चाहे वह सरकार के खिलाफ हो या किसी अन्य घटना के प्रति। वास्तव में सोशल मीडिया ने अभी तक विभिन्न आंदोलनों और सामाजिक बहसों को चलाने में युवाओं को एक मंच प्रदान किया है। जिसका उपयोग सरकार की कुनीतियों के विरूद्ध आंदोलनों को खड़ा करने के लिए भी किया गया है। यही सरकार की फिक्र का भी कारण है। सरकार आए दिन सोशल मीडिया पर उंगली उठाती है और यह कहने से नहीं चुकती की सोशल मीडिया को सही ढंग से प्रयोग में लाए नहीं तो इस पर भी लगाम लगा दी जाएगी।
सरकार का सोशल मीडिया के प्रति कडा व्यवहार या ब्यान देना बिलकुल ठीक है, क्योंकि कुछ शरारती तत्व अपनी उट-पटांग हरकतों से देशवासियों को गुमराह करने की कोई कसर नहीं छोडते ऐसे में सरकार यदि कोई ठोस कदम नहीं उठाएगी तो क्या हम ऐसी ही लोगों के हाथों की कठपुतली बन कर रह जाएगें, जो वो सोशल मीडिया के माध्यम से करना चाह रहे हैं।
सोशल मीडिया आम आदमी का मंच है। लेकिन इसे गलत रुप से प्रयोग करके लोग इसको भी बंद कराने में जुटे हैं। एक समय था जब टीवी पर मनोरंजन के कार्यक्रम लोग फ्री में देखते थे और एक आज का समय है कि आप हर एक चैनल देखने के पैसे दे रहे हो, क्या लोगों की समझ में नहीं आ रहा। ये भौतिकवादी युग है यहां किसी की नहीं चलती सभी कुछ बाजार की गिरफ्त में है। सरकार नीतियां बनाती है फिर उन पर अमल होता है और जनता उनके प्रयोग का साधन होती है। यदि सोशल मीडिया के साथ लोग ऐसे ही उट-पटांग काम करते रहे तो हो सकता है भविष्य में आपको अलग-अलग साइट पर काम करने के लिए अलग-अलग पैसे देने होगे। हमें यह ध्यान रखना जरुरी है कि हमारे देश की कितनी जनता आज भी दो वक्त की रोटी खाने में सक्षम नहीं है। फिर वह कैसे इन सभी चीजों से जुडेंगे। टीवी चैनल तो दूर हो ही गए हैं, अब इसे भी दूर कर दो। यह सभी प्रयास केवल बडे लोगों का पेट भरने के लिए है। इस पर सोचना बहुत जरुरी है।
पर्दा है पर्दा
पर्दा है पर्दा
डॉ. नीरज भारद्वाज
पर्दा शब्द सुनते ही आपके और हमारे दिमाग में खिडकी-दरवाजों पर टकने वाले पर्दे आ गए। कुछ के दिमाग में पर्दा है पर्दा गाना याद आ गया। लेकिन यह वो पर्दा नहीं, बल्कि सिनेमाई पर्दा है। सिनेमा को बहुत से लोग बडा पर्दा भी कहते हैं अर्थात् सिनेमा के नायक-नायिकाओं को बडे पर्दे के नायक-नायिका कहा जाता है, तो स्वाभाविक है कि सिनेमा बडा पर्दा हो गया। टीवी को लोग छोटा पर्दा कहते हैं। विचार किया जाए तो आज लोकप्रियता के हिसाब से छोटा पर्दा ही बडा पर्दा हो गया है। एक जमाना था जब फिल्मों में काम करने वाले लोग अर्थात् बडे पर्दे के नायक-नायिका छोटे पर्दे पर कम ही आते थे, आते भी थे तो केवल नाम मात्र के लिए। यदि कोई नायक-नायिका छोटे पर्दे पर आ भी जाते थे, तो यह कह दिया जाता था कि अब इसे बडे पर्दे पर काम नहीं मिला होगा इसीलिए छोटे पर्दे पर आए हैं। कहने का भाव वह उस नायक-नायिका की कडी आलोचना थी।
समय बदला, साधन बदले, मनोरंजन के तौर-तरीके बदले और वर्तमान तक आते-आते परिस्थिति बिलकुल उल्ट दिखाई दे रही है। आज हर एक बडा सुपर स्टार छोटे पर्दे पर आने के लिए बेकरार है। वह छोटे पर्दे पर आकर अपनी फिल्म के बारे में बताता है, उसका प्रचार करता है साथ ही छोटे पर्दे पर दिखना भी चाहता है और टीवी पर प्रसारित होने वाले कार्यक्रमों में हिस्सा भी लेते हैं। आज बडे पर्दे पर दिखाई देने वाले ऐसे कितने ही सितारे हैं, जो एक जमाने में छोटे पर्दे पर ही काम करते थे। लेकिन आज वह कहां से कहां पहुंच गए हैं। यह उनके परिश्रम का ही फल है।
कई बार तो ऐसा लगता कि आज छोटे पर्दे पर आने के लिए सितारो के बीच होड लगी हुई है। इसके कितने ही उदाहरण हमें मिल जाएगें। कलर्स पर आने वाले बिग बॉस कार्यक्रम की बात करें तो एक सीजन में उसमें सलमान खान और संजय दत्त की जोडी ने कमाल किया। अब सलमान खान उसे संभाल रहे हैं। कपिल की कॉमेडी में तो लगभग सभी सितारे आ चुके हैं। चन्नई एक्सप्रेस फिल्म के रिलीज होने से पहले सुपर स्टार एस.आर.के स्टार प्लस के धारावाहिक दीया और बाती हम में आए। इससे पहले वो कौन बनेगा करोडपति में भी अपने दमखम को दिखा चुके हैं। टीवी पर ही प्रसारित होने वाले कार्यक्रम सत्यमेय ज्यते को लेकर आमिर खान आए। बडे पर्दे के सबसे बडे नायक कहलाए जाने वाले सुपर स्टार अमिताभ बच्चन ने तो छोटे पर्दे पर आते ही तहलका मचाया और कौन बनेगा करोडपति के कितने ही सीजन हमारे सामने लेकर आ चुके हैं। सुपर स्टार विनोद खन्ना भी बडे पर्दे से निकलकर छोटे पर्दे पर दिखाई दे चुके हैं। यहां सभी का जिक्र करना संभव नहीं है। लेकिन यह बात तो स्पष्ट है कि ऐसे कितने ही नायक-नायिका हैं, जो बडे पर्दे से छोटे पर्दे पर आते रहे हैं।
विचार करे और समझे तो पर्दा बडा हो या छोटा दोनों का काम एक ही है और वो है लोगों का मनोरंजन करना। आज बढते टीवी चैनलों के युग में मनोरंजन केवल फिल्म तक ही सीमित नहीं रहा, बल्कि वह हर जगह दिखाई देने लगा। आज टीवी पर कितने ही कार्यक्रम ऐसे भी आते हैं, जिनके बारे में एंकर कहता मिलता है कि आप इसे अपने मोबाइल पर भी अपलोड कर सकते हैं। इंटरनेट ने अब मनोरंजन को लोगों के और नजदीक ला दिया है। कहने का भाव यह कि अब मनोरंजन आपकी जेब में ला दिया गया है। एक समय में कवि ने कल्पना कि थी दुनिया मेरी जेब में और इस विषय पर फिल्म भी बनी और शायद गाना भी बना। आज वह बात सार्थक दिखाई पडती है। बडे पर्दे से छोटा पर्दा और अब छोटे से भी छोटा पर्दा अर्थात् मोबाइल पर कार्यक्रमों का लाइव आना और उसे लोकप्रियता मिलनी बाकि है। पर्दा कितना छोटा हो गया यह किसी ने नहीं सोचा होगा। इतना ही नहीं अभी यह कितना ओर छोटा होगा यह देखना अभी बाकि है।
मंगलवार, 24 सितंबर 2013
लेखक
देश और दुनिया दोनों के बारे में सोचना जरुरी है। एक आदर्श लेखन केवल अपने तक नहीं रहता बल्कि वह सभी को साथ लेकर चलने की सोचता है।
सोमवार, 23 सितंबर 2013
हंसना जरुरी है।
हंसना जरुरी है।
डॉ. नीरज भारद्वाज
टेलीविजन पर प्रसारित होने
वाले कार्यक्रम धीरे-धीरे अपना दायरा बढाने में सफल होते नजर आ रहे हैं। जिस दौर
में भारतीय टेलीविजन ने शुरुआत की थी उस समय उसके पास सिर्फ एक ही चैनल था और वह
था दूरदर्शन जिसे डीडी-1 के नाम से जाना जाता रहा है। फिर डीडी-2 और उसके बाद निजी
चैनलों का दौर आ गया। धीरे-धीरे तकनीक बढी और टेलीविजन पर प्रसारित होने वाले
कार्यक्रमों की संख्या में भी बढोत्तरी होनी शुरु हो गई।
टेलीविजन पर पहले सामाजिक कार्यक्रमों से शुरुआत हुई। फिर मनोरंजन के
सभी प्रकार के कार्यक्रम टीवी चैनलों पर दिखाई देने लगे। आज टेलीविजन पर लगभग हर
एक सोच से जुडे व्यक्ति के मतलब के कार्यक्रम आते हैं। टीवी ने महिला, पुरुष,
बच्चा, युवा सभी को सभी के आयु और वर्ग के कार्यक्रम दिये हैं। अब कोई व्यक्ति यह
नहीं कह सकता की टीवी पर ऐसा कार्यक्रम नहीं आता, बल्कि कई बार तो हमारी सोच से
परे हट कर ऐसा कार्यक्रम हमारे सामने आ जाता है, जिस की कल्पना करना भी संभव नहीं
था। लोगों को खाना बनाना, घुमने फिरने के स्थान बताना, बच्चों को पढना,
कार्यक्रमों में हिस्सा लेकर इनाम जितना, हंसी-मजाक, देश-विदेश की सारी जानकारी
आदि आज टीवी कार्यक्रमों के माध्यम से ली जा सकती है या ये कहें कि वे यह सभी
जानकारी दे रहे हैं।
आज के भागते दौडते समय में लोगों के पास समय की कमी है और ऐसे में यदि
कोई आपसे हंसी मजाक की बातें करता है तो यह समझों कि वह हमारे लिए वरदान बन जाती
है। टीवी पर हंसी मजाक के कार्यक्रमों का आना लगा ही रहता है। देख भाई देख
धारावाहिक में शेखर सुमन और उस कार्यक्रम में दिखाए गए परिवार ने टीवी की दुनिया में हंसी मजाक का जो
उदाहरण रखा। वह अपने में एक यादगार पल रहे होंगे। जसपाल भट्टी द्वारा बनाए गए हंसी
मजाक के कितने ही कार्यक्रम टीवी पर लोकप्रिय हुए। समय बदला और फिर हंसी को लेकर रिएयल्टी-शो
सामने आए। विचार किया जाए तो हंसी मजाक का दौर टीवी पर सबसे ज्यादा लोकप्रिय रहा
है। अब पिछले कुछ दिनों से क्लर्स चैनल पर कपिल की कॉमेडी ने सभी कार्यक्रमों को
पछाड दिया है। कपिल के द्वारा कहे जाने वाला शब्द बाबा जी का ठल्लू अपने आप में एक
अलग ही उदाहरण है। कपिल अपने आप में एक ऐसा उदाहरण बन गया है कि टेलीविजन पर हंसी
कि दुनिया की चर्चा हो और उसका नाम न आए तो गलत होगा।
वास्तव में हंसी हमारे जीवन में बडा महत्व रखती है और जो व्यक्ति चाहे
कैसे भी करके हमे तो पल की खुशी देता है तो वह हमारे लिए उस समय भगवान ही होता है,
क्योंकि गम देने के लिए यह समाज कम नहीं है। रोज सुबह उठते ही नई समस्या जन्म ले
लेती है, मंहगाई की मार, बेरोजगारी की लंबी लाईन, राशन दफ्तर में लाईन आदि कितने
ही पल हमारी खुशी को खा जाते हैं। इसीलिए हंसते- हंसते यदि यह जीवन कट जाता है तो
इससे अच्छी बात क्या होगी। आप सभी टीवी पर हंसाने वाले नायक-नायिकाओं का बहुत-बहुत
धन्यवाद, जो आप सभी इस समाज को दे रहे हो, वह वास्तव में ही समाज का एक बहुत बडा
कार्य है। साधु संत यदि धर्मग्रंथों की बात करते हैं तो आप उनसे कम नहीं हो,
क्योंकि समाज के बहुत से पहलु होते हैं। जिसका ख्याल रखना हम सभी की जिम्मेदारी
है।
मंगलवार, 17 सितंबर 2013
नई पीढ़ी की फिल्में और हम
नई पीढ़ी की फिल्में और हम
डॉ. नीरज भारद्वाज
आज का समाज जितनी तेजी से बदल रहा है। इसकी
कल्पना शायद ही किसी न की होगी। मानव मूल्यों के विघटन के इस दौर में हर एक चीज
बिकाऊ नजर आने लगी। हमारी हंसी -मजाक, रोना आदि सभी बाजार की गिरफ्त में आ गए हैं।
व्यक्ति भी एक व्यापार बन गया है। बच्चा पैदा करने के कितने पैसे लगेंगे या लेगी।
बच्चा पालने के कितने पैसे। किराए पर कोख लेना नया फंडा शुरु हुआ है। फिगर खराब न
हो तो पति किसी दूसरी औरत के साथ संबंध बनाकर उससे बच्चा पैदा कर सकता है, पति-पत्नि
दोनों खुश है। यह सभी ड्रामा पढकर देखकर बहुत अजीब सा लगता है। शादी की तो मानों
जरुरत ही नहीं रही है। लोग कहते हैं सोच बदलों, क्या ऐसी सोच के साथ समाज में रहना
होगा। संबंध किसी ओर के साथ बनाओं रहों किसी ओर के साथ, बच्चा किसी से पैदा करो,
लालन-पालन करे कोई ओर। शुद्ध विचारों का तो इस आधुनिक समाज ने दिवाला ही निकाल
दिया है। रोमांस शुद्ध देशी हो गया है, प्यार के बीच केवल चद्दर रह गई है। चोली और
सैक्सी गीतों का जमाना ही पुराना हो गया है। इस सारी सामाजिक प्रक्रिया को बदलने
में फिल्मों की भूमिका सबसे महत्वपूर्ण रही है। देश दुनिया घुमने के बाद अब बहुत
सी फिल्में केलव नग्नता ही परोसती है और
कहते हैं समय की यही मांग है।
एक समय था जब फिल्में लोगों का आदर्श होती थी।
लेकिन धीरे-धीरे समय की मांग और बदलते सामाजिक परिवेश के चलते फिल्में भी अपने मूल
से हटकर केवल और केवल पैसे कमाने का एक साधन बन गई है। आज फिल्म के सुपर हिट होने
का कारण दर्शक नहीं, बल्कि करोडों रुपया का बिजनेस है। पुरानी पीढी के लोगों से
बात करने पर पता चलता है कि कैसे फिल्में खुलती चली गई और जुम्मन दृश्य से आज हॉट
सीन तथा उससे भी आगे बढ गई है। पुरानी फिल्मों में यदि किसी जुम्मन दृश्य को
दिखाना होता था तो फूलों को मिलाकर संदेश दे दिया जाता था। लेकिन वर्तमान में तो
नायक-नायिका दुकान से कॉडम खरीदने उट-पटांक डॉयलाग करते दिखाई दे जाते हैं, साथ ही
कुछ दृश्य तो हद ही पार कर गए हैं। किसी से बात करें तो कहते हैं कि इसमें बुराई
ही क्या है लोगों को नई जानकारी मिल रही है। आज फिल्म रिलीज करने से पहले यह बात कहनी
पडती है कि यह फिल्म परिवार के देखने के लायक है और इस फिल्म में हॉट सीन की भरमार
है। जबकि पुरानी फिल्मों को इतना कुछ संदेश नहीं देना पडता था। विचार करे और जाने
तो यही सभी कुछ आधुनिकता है तो फिर आने वाला समय कैसा होगा इसकी कल्पना करके
साहित्यिक मन उदास होता चला जाता है।€
रविवार, 15 सितंबर 2013
हिंसा नहीं साथ चाहिए
हिंसा नहीं साथ चाहिए
डॉ. नीरज भारद्वाज
धर्म, आस्था, राजनैतिक हानि-लाभ, साम्प्रदायिकता आदि के नाम पर यह देश
कब तक ऐसे दंगों को सहता रहेगा। यह सवाल बार-बार जहन में उठता है और दब जाता है।
आखिर यह हिंसा कब रुकेगी। कितने ही साहित्यकार और मेरे लेखक मित्र ऐसे विषयों पर
लिख चुके हैं। लेकिन लोगों की समझ पता नहीं किस दिशा की ओर है। एक बार विभाजन का
तांडव देख चुके देशवासी क्या फिर ऐसा ही करने जा रहे हैं। ऐसी हिंसाओं में कितनी
ही माताओं के लाल, कितनी ही सुगानों के सुहाग और कितनी ही बहनों के भाई जाने
अनजाने भगवान को प्यारे हो जाते हैं। क्या देशवासियों को कोई फर्क नहीं पडता। यदि
हिंसा, हत्या और जोर-जबरदस्ती किसी भी चीज का समाधान होता तो आज पूरे विश्व में
जंगल राज होता। लेकिन जिस तरीके से भारतीय जनता अपना आपा खोकर ऐसी हिंसाओं को जन्म
देती है तो यह बडे ही शर्म की बात है। यदि देश का कोई भी शहीद स्वतंत्रता सैनानी
जीवित होता और हमारे इस दंगे आचरण को देखता तो वह अपने किये हुए पर जरुर पछताता,
क्योंकि उसने ऐसा सोचा भी नहीं होगा।
उत्तर प्रदेश में हुई
हिंसा देश के लिए शर्मसार कर देने वाली घटना है। सभी राजनैतिक दल हिंसा को देख रहे
हैं, मरते लोगों पर राजनीति कर रहे हैं। यह समय देशवासियों को समझाने उन्हें एकजुट
रहने के लिए कहने का है। एक तरफ तो देश सीरिया के हमले को गलत बता रहा है, वहीं
दूसरी ओर अपने ही देश में, जो हो रहा है क्या यह सीरिया से कम है। रुपये का दिवाला
निकल चुका है, राजनीति ठंडे बस्ते में पडी है, राजनेता मौके की तलाश में है, जनता
मर रही है, ब्यान बाजी जारी है। एक ओर संदेश आने वाला है, जांच कमेटी बैठा दी गई
है, लोग शांति बनाए रखे।
पत्रकारिता और पत्रकार
लोगों को समझाने और उन्हें सही खबर दिखाने का प्रयास करती है। लेकिन पत्रकारों पर
जानलेना हमला करके उन्हें भी नहीं छोडा जा रहा है। हिंसा में हमारा एक पत्रकार
साथी सत्य से अवगत कराता-कराता दुनिया ही छोड गया। इसका जिम्मेदार कौन है। ऐसे हाल
को देख शहीद देशभक्त गणेश शंकर विद्यार्थी जी याद आ गए।
यदि समय रहते सभी कुछ ठीक
नहीं हुआ और धर्म या आस्था के नाम पर ऐसे ही दंगे होते रहे, तो वह दिन दूर नहीं कि
हम अपनी आने वाली पीढी के लिए केवल और केवल हिंसा ही छोड जायेगें। हमारा
देशवासियों से एक ही निवेदन है कि वह ऐसी हिंसाओं को रोके और यदि कहीं सूत्रों से
पता चलता भी है, तो उसे रोकने का प्रयास करें। सच्चे अर्थों में यही देशभक्ति है।
मित्रों माला का हर एक मोती अपना स्थान रखता है और माला में से एक मोती निकल जाए
तो उसकी भरपाई कोई नहीं कर सकता है।
बुधवार, 21 अगस्त 2013
भाषाः अर्थ और परिभाषा
भाषाः अर्थ और परिभाषा
भाषा की मूलभूत इकाई ध्वनि है। इसके संयोजन से भाषा का निर्माण होता है, और व्यक्ति अपने अनुभवों की अभिव्यक्ति करता है। ध्वनियों के संयोजन से शब्द का निर्माण, और शब्दों की व्यवस्था से वाक्य का निर्माण होता है। वाक्य ही भाषा को आस्तित्व प्रदान करते हैं।
ध्वनि शब्द वाक्य भाषा
इस प्रकार भाषा शब्दों का संयोजित रूप है, जो किसी व्यक्ति समाज या राष्ट्र के संस्कारों से निधरित होती है और समाज में परस्पर विचार-विर्मश का एक सशक्त साध्न बनती है। भाषा के द्वारा ही समाज, समूह अथवा राष्ट्र की सभी सांस्कृतिक, सामाजिक और धर्मिक व्यवस्था स्पष्ट होती चली जाती हैं।
मनुष्य अपने भावों विचारों एवं अनुभूतियों को भली-भांति केवल ध्वनि संकेतों के माध्यम से ही अभिव्यक्त करता है। संकेतों को अशाब्दिक भाषा और ध्वनि संकेतों को शाब्दिक भाषा कहते हैं। भाषा के माध्यम से ही एक व्यक्ति अपने विचार, कल्पना व चिंतन को एक दूसरे तक पहुंचाता है। ‘भाषा’ शब्द की व्युत्पत्ति संस्कृत की ‘भाष्’ धतु से माना जाती है, जिसका शाब्दिक अर्थ है - व्यक्त वाणी या बोलना। भाषा के कारण ही मनुष्य इस जीवन जगत में सर्वश्रेष्ठ प्राणी है। भाषा ही हर एक व्यक्ति तथा देश की पहचान होती है और उस देश की सभ्यता, संस्कति और संस्कार उनकी भाषा में प्रतिबिंबित होते हैं। डाॅ बाबूराम सक्सेना ने बडे़ ही सरल शब्दों में भाषा शब्द के अभिप्राय को स्पष्ट करते हुए लिखा है, भाषा शब्द का प्रयोग कभी व्यापक अर्थ में होता है तो कभी संकुचित। विचार किया जाए तो भाषा जिस सांस्कतिक विरासत में पफलती-पफूलती है वह उस विरासत को पीढ़ी-दर-पीढ़ी पहुंचाने का कार्य भी करती है। भाषा का उद्गम ही मनुष्य वेफ विकास का सूचक है। भाषा का विकास समयानुसार होता रहा है और युगीन स्थितियों से संचालित होकर भाषा निरंतर नया और सरल रूप धारण करती रही है।
भारतीय विद्वानों के अनुसार भाषा की परिभाषाः
महर्षि पतांजलि के मतानुसार, व्यक्ता वाचि वर्णों येषां ते इमे व्यक्तवाचः कहने का भाव है कि वर्णों में व्यक्त होने वाली वाणी ही भाषा है।
भर्तृहरि वेफ अनुसार, भाषा यथार्थ को गढ़ती है ;यानी पहले से ही मौजूद किसी यथार्थ को महज उद्घाटित भर नहीं करतीद्ध
आचार्य दंडी वेफ अनुसार, फ्यह सृष्टि अंध्कार में डूब गई होती, यदि भाषा रूपी प्रकाश का अभ्युदय न हुआ होता ।,
कामता प्रसाद गुरू के अनुसार, भाषा वह साध्न है जिसके दवारा मनुष्य अपने विचार दूसरों पर भली-भांति प्रकट कर सकता है और दूसरों के विचार आप स्पष्टतया समझ सकता है।
भोलानाथ तिवारी के अनुसार, भाषा उच्चारण-अवयवों से उच्चारित स्वेच्छाचारी ध्वनि प्रतीकों की वह अवस्था है जिसके दवारा एक समाज के लोग आपस में भावों और विचारों का आदान-प्रदान करते हैं।
बाबूराम सक्सेना के अनुसार, भाषा से तात्पर्य, विचारों एवं भावों का व्यक्तिकरण प्रमुख रूप से श्रोत, ग्राहय ध्वनि चिह्नों से प्रमाणित होता है।
सुमित्रानंदन पंत के अनुसार, भाषा संसार का नादमय चित्रा है, ध्वनिमय स्वरूप है, यह विश्व की हृदयतंत्राी की झंकार है, जिनके स्वर में अभिव्यक्ति होती है।
पाश्चात्य विद्वानों के अनुसार भाषा की परिभाषाः
मैक्स मूलर के अनुसार, भाषा और कुछ नहीं, केवल मानव की चतुर बुदध् िदवारा आविष्कृत एक ऐसा उपाय है, जिसकी सहायता से हम अपने विचार सुगमता और तत्परता से प्रकट कर सकते हैं।
प्लेटो के अनुसार, विचार आत्मा की मूक या ध्वनि-हीन बातचीत है, पर वही जब ध्वनि के रूप में होठों दवारा प्रकट होती है, तो उसे भाषा कहते हैं।
पियाजे वेफ अनुसार, भाषा अन्य संज्ञानात्मक तंत्रों की भांति परिवेश वेफ साथ अंतःक्रिया वेफ माध्यम से ही विकसित होती है।
क्रोंच के अनुसार, भाषा अभिव्यक्ति की दृष्टि से उच्चरित एवं सीमित ध्वनियों का संगठन है।
चाॅम्स्की वेफ अनुसार, भाषिक क्षमता जन्मजात ही होती है, वरना भाषिक व्यवस्था को सीखने की प्रक्रिया संभव ही नहीं हो सकती। वे मानते हैं कि, भाषा सीखे जाने वेफ काम में, वैज्ञानिक पड़ताल भी साथ-साथ चलती रहती है।
व्योगोत्स्की वेफ अनुसार, बच्चे की भाषा समाज वेफ साथ संपर्क का ही परिणाम है, साथ ही बच्चा अपनी भाषा वेफ विकास वेफ दौरान दो तरह की बोली बोलता हैः पहली आत्मवेफंद्रित और दूसरी सामाजिक।
स्वीट के अनुसार, ध्वन्यात्मक शब्दों के दवारा विचारों को प्रकट करना ही भाषा है।
भारतीय और पाश्चात्य विद्वानों की भाषा की परिभाषाओं को जानने के बाद कहा जा सकता है कि भाषा वाक-प्रतिकों की एक व्यवस्था है। वाक-प्रतिक अनेक प्रकार के होने के कारण भाषा भी अनेक प्रकार की होती है। दूसरे शब्दों में कहें तो भाषा ध्वनि संकेतों का प्रयोग होता है, जो रूढ़ एवं परंपरागत होते हैं।
भाषा की मूलभूत इकाई ध्वनि है। इसके संयोजन से भाषा का निर्माण होता है, और व्यक्ति अपने अनुभवों की अभिव्यक्ति करता है। ध्वनियों के संयोजन से शब्द का निर्माण, और शब्दों की व्यवस्था से वाक्य का निर्माण होता है। वाक्य ही भाषा को आस्तित्व प्रदान करते हैं।
ध्वनि शब्द वाक्य भाषा
इस प्रकार भाषा शब्दों का संयोजित रूप है, जो किसी व्यक्ति समाज या राष्ट्र के संस्कारों से निधरित होती है और समाज में परस्पर विचार-विर्मश का एक सशक्त साध्न बनती है। भाषा के द्वारा ही समाज, समूह अथवा राष्ट्र की सभी सांस्कृतिक, सामाजिक और धर्मिक व्यवस्था स्पष्ट होती चली जाती हैं।
मनुष्य अपने भावों विचारों एवं अनुभूतियों को भली-भांति केवल ध्वनि संकेतों के माध्यम से ही अभिव्यक्त करता है। संकेतों को अशाब्दिक भाषा और ध्वनि संकेतों को शाब्दिक भाषा कहते हैं। भाषा के माध्यम से ही एक व्यक्ति अपने विचार, कल्पना व चिंतन को एक दूसरे तक पहुंचाता है। ‘भाषा’ शब्द की व्युत्पत्ति संस्कृत की ‘भाष्’ धतु से माना जाती है, जिसका शाब्दिक अर्थ है - व्यक्त वाणी या बोलना। भाषा के कारण ही मनुष्य इस जीवन जगत में सर्वश्रेष्ठ प्राणी है। भाषा ही हर एक व्यक्ति तथा देश की पहचान होती है और उस देश की सभ्यता, संस्कति और संस्कार उनकी भाषा में प्रतिबिंबित होते हैं। डाॅ बाबूराम सक्सेना ने बडे़ ही सरल शब्दों में भाषा शब्द के अभिप्राय को स्पष्ट करते हुए लिखा है, भाषा शब्द का प्रयोग कभी व्यापक अर्थ में होता है तो कभी संकुचित। विचार किया जाए तो भाषा जिस सांस्कतिक विरासत में पफलती-पफूलती है वह उस विरासत को पीढ़ी-दर-पीढ़ी पहुंचाने का कार्य भी करती है। भाषा का उद्गम ही मनुष्य वेफ विकास का सूचक है। भाषा का विकास समयानुसार होता रहा है और युगीन स्थितियों से संचालित होकर भाषा निरंतर नया और सरल रूप धारण करती रही है।
भारतीय विद्वानों के अनुसार भाषा की परिभाषाः
महर्षि पतांजलि के मतानुसार, व्यक्ता वाचि वर्णों येषां ते इमे व्यक्तवाचः कहने का भाव है कि वर्णों में व्यक्त होने वाली वाणी ही भाषा है।
भर्तृहरि वेफ अनुसार, भाषा यथार्थ को गढ़ती है ;यानी पहले से ही मौजूद किसी यथार्थ को महज उद्घाटित भर नहीं करतीद्ध
आचार्य दंडी वेफ अनुसार, फ्यह सृष्टि अंध्कार में डूब गई होती, यदि भाषा रूपी प्रकाश का अभ्युदय न हुआ होता ।,
कामता प्रसाद गुरू के अनुसार, भाषा वह साध्न है जिसके दवारा मनुष्य अपने विचार दूसरों पर भली-भांति प्रकट कर सकता है और दूसरों के विचार आप स्पष्टतया समझ सकता है।
भोलानाथ तिवारी के अनुसार, भाषा उच्चारण-अवयवों से उच्चारित स्वेच्छाचारी ध्वनि प्रतीकों की वह अवस्था है जिसके दवारा एक समाज के लोग आपस में भावों और विचारों का आदान-प्रदान करते हैं।
बाबूराम सक्सेना के अनुसार, भाषा से तात्पर्य, विचारों एवं भावों का व्यक्तिकरण प्रमुख रूप से श्रोत, ग्राहय ध्वनि चिह्नों से प्रमाणित होता है।
सुमित्रानंदन पंत के अनुसार, भाषा संसार का नादमय चित्रा है, ध्वनिमय स्वरूप है, यह विश्व की हृदयतंत्राी की झंकार है, जिनके स्वर में अभिव्यक्ति होती है।
पाश्चात्य विद्वानों के अनुसार भाषा की परिभाषाः
मैक्स मूलर के अनुसार, भाषा और कुछ नहीं, केवल मानव की चतुर बुदध् िदवारा आविष्कृत एक ऐसा उपाय है, जिसकी सहायता से हम अपने विचार सुगमता और तत्परता से प्रकट कर सकते हैं।
प्लेटो के अनुसार, विचार आत्मा की मूक या ध्वनि-हीन बातचीत है, पर वही जब ध्वनि के रूप में होठों दवारा प्रकट होती है, तो उसे भाषा कहते हैं।
पियाजे वेफ अनुसार, भाषा अन्य संज्ञानात्मक तंत्रों की भांति परिवेश वेफ साथ अंतःक्रिया वेफ माध्यम से ही विकसित होती है।
क्रोंच के अनुसार, भाषा अभिव्यक्ति की दृष्टि से उच्चरित एवं सीमित ध्वनियों का संगठन है।
चाॅम्स्की वेफ अनुसार, भाषिक क्षमता जन्मजात ही होती है, वरना भाषिक व्यवस्था को सीखने की प्रक्रिया संभव ही नहीं हो सकती। वे मानते हैं कि, भाषा सीखे जाने वेफ काम में, वैज्ञानिक पड़ताल भी साथ-साथ चलती रहती है।
व्योगोत्स्की वेफ अनुसार, बच्चे की भाषा समाज वेफ साथ संपर्क का ही परिणाम है, साथ ही बच्चा अपनी भाषा वेफ विकास वेफ दौरान दो तरह की बोली बोलता हैः पहली आत्मवेफंद्रित और दूसरी सामाजिक।
स्वीट के अनुसार, ध्वन्यात्मक शब्दों के दवारा विचारों को प्रकट करना ही भाषा है।
भारतीय और पाश्चात्य विद्वानों की भाषा की परिभाषाओं को जानने के बाद कहा जा सकता है कि भाषा वाक-प्रतिकों की एक व्यवस्था है। वाक-प्रतिक अनेक प्रकार के होने के कारण भाषा भी अनेक प्रकार की होती है। दूसरे शब्दों में कहें तो भाषा ध्वनि संकेतों का प्रयोग होता है, जो रूढ़ एवं परंपरागत होते हैं।
मंगलवार, 30 जुलाई 2013
मित्रो यह उत्तर पुस्तिका अनुमानित है।
Paper-II (Hindi, Part-IV
Ans.)
JP-2
91 (4. हम) 92 (1. प्रश्नवाचक) 93 (1. शारीरिक) 94 (4) 95 (4)
96 (2) 97
(4) 98 (3) 99 (-) 100 (2) 101 (4)
102 (1. पुण्य) 103
(2) 104 (1) 105 (4) 106 (1) 107 (4)
108 (3) 109
(1) 110 (4) 111 (3) 112 (1) 113 (2)
114 (2) 115
(1) 116 (4) 117 (2) 118 (4) 119 (1) 120(-)
(Hindi, Part-V Ans.)
121 (-) 122
(4 दंडित) 123 (4) 124 (1) 125 (4) 126 (1)
127 (3) 128
(2) 129 (1) 130 (4) 131 (3) 132 (1)
133 (4) 134
(2) 135 (1) 136 (4) 137 (-) 138 (-)
139 (1) 140
(-) 141 (3) 142 (1 या 3) 143 (2) 144(-)
146 (2) 147
(-) 148 (-) 149 (-) 150 (2).
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Ans.)
JP-2
91 (4. हम) 92 (1. प्रश्नवाचक) 93 (1. शारीरिक) 94 (4) 95 (4)
96 (2) 97
(4) 98 (3) 99 (-) 100 (2) 101 (4)
102 (1. पुण्य) 103
(2) 104 (1) 105 (4) 106 (1) 107 (4)
108 (3) 109
(1) 110 (4) 111 (3) 112 (1) 113 (2)
114 (2) 115
(1) 116 (4) 117 (2) 118 (4) 119 (1) 120(-)
(Hindi, Part-V Ans.)
121 (-) 122
(4 दंडित) 123 (4) 124 (1) 125 (4) 126 (1)
127 (3) 128
(2) 129 (1) 130 (4) 131 (3) 132 (1)
133 (4) 134
(2) 135 (1) 136 (4) 137 (-) 138 (-)
139 (1) 140
(-) 141 (3) 142 (1 या 3) 143 (2) 144(-)
146 (2) 147
(-) 148 (-) 149 (-) 150 (2).
शुक्रवार, 19 जुलाई 2013
पत्रकारिता जनून है
पत्रकारिता जनून है
डॉ. नीरज भारद्वाज
पत्रकारिता के अर्थ की बात करें तो पत्रकारिता को अंग्रेंजी
में
‘जर्नलिज्म’ कहते है, जो ‘जर्नल’ शब्द से निकला है] जिसका शाब्दिक अर्थ ‘दैनिक’
है अर्थात् दिन&प्रतिदिन के क्रिया&कलापों] सरकारी] सावर्जनिक बैठकों का विवरण ‘जर्नल’ कहलाता है। लेकिन शाब्दिक अर्थ जो भी हो पत्रकारिता यदि जनून है तो
पत्रकार जनूनी है, पत्रकारिता जंग है तो पत्रकार जंगी है, पत्रकारिता सच्चाई है तो
पत्रकार उस सच्चाई को उदघाटित करने वाला सत् चरित्र पुरुष है, पत्रकारिता राह है
तो पत्रकार उस राह का एक राहगीर है, पत्रकारिता देश का आईना है तो पत्रकार सच्चा
देशभक्त है, जो उस आईने पर धूल नहीं जमने देता है। पत्रकारिता और पत्रकार आखिर है
क्याॽ यह सवाल कई बार सामने आया तो यह सब लिखने को मन
किया। डॉ. शंकरदयाल शर्मा लिखते हैं कि “पत्रकारिता एक पेशा नहीं है, बल्कि यह तो जनता की सेवा का माध्यम है । पत्रकारों को केवल घटनाओं का विवरण ही पेश नहीं करना चाहिए, आम जनता के सामने उसका विश्लेषण भी करना चाहिए । पत्रकारों पर लोकतांत्रिक परम्पराओं की रक्षा करने और शांति एवं भाईचारा बनाए रखने की भी जिम्मेदारी आती है ।” आधुनिक समय मे पत्रकारों ने अपने निरंतर प्रयासों से पत्रकारिता को एक नई ऊँचाई और गंभीरता दी है । इस दृष्टि से पत्रकारिता यदि समसामयिक घटना&चक्र का शीघ्रता में लिखा गया इतिहास है तो
पत्रकार उस इतिहास को लिखने वाला एक सफल इतिहासकार है। प्रो. अंजन कुमार बनर्जी के शब्दों में कहें तो “पत्रकारिता पूरे विश्व की ऐसी देन है जो सबमें दूर दृष्टि प्रदान करती है ।
पत्रकारिता ज्ञान और विचारों को शब्दों तथा चित्रों के रूप में दूसरे तक पहुंचाना है। पत्रकारिता की उत्पत्ति
समाज
में
जनचेतना और
जागृति के
लिए
मानी
जाती
है। पत्रकारिता लोगों के बीच संवाद कायम करती है और पत्रकार उस संवाद
को नई रोशनी देता है। पत्रकारिता
सामाजिक, सांस्कृतिक एवं राजनीतिक चेतना की अग्रदूत बनकर जनकल्याण और विश्वबंधुत्व एवं भ्रातृत्व की भावना को विकसित करने का सशक्त माध्यम है। पत्रकारिता देश, समाज तथा
लोगों को ‘जीने की कला’ सिखाती है। विचार किया जाए तो हमारे
चारों ओर होने वाली सभी घटनाएं पत्रकारिता के अंग है और हम जाने-अजाने पत्रकारिता
करते रहते हैं, जरुरत है तो सिर्फ उसे पहचानने की। वास्तव में भारत में पत्रकारिता की कहानी भारतीय राष्ट्रीयता के विकास की कहानी है और दोनों की विकास भूमियां एक दूसरे की सहायक रही हैं। यदि पत्रकारिता को राष्ट्रीयता ने उजागर किया है तो पत्रकारिता ने भी राष्ट्रीयता को उज्वलित कर राष्ट्रीयता के विकास की अनुकूल भूमि तैयार की। पत्रकारिता
साहित्य की भाँति समाज में चलने वाली गतिविधियों एवं हलचलों का दर्पण है।
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