रविवार, 29 मार्च 2020

रामचरितमानस का अध्ययन


रामचरितमानस का अध्ययन
रामचरितमानस के अध्ययन पर बात करें तो गोस्वामी तुलसीदास ने भारत के लगभग सभी तीर्थ स्थानों का भ्रमण करने के बाद संवत् 1631 में अयोध्या जाकर रामचरितमानस लिखना प्रारंभ किया और इस अलौकिक ग्रंथ को केवल दो वर्ष सात महीने में समाप्त कर दिया। कुछ लोगों को जानकर यह नया लगेगा कि रामचरितमानस का कुछ अंश विशेषतः किष्किंधा कांड काशी में रचा गया। मानस की समाप्ति के बाद गोस्वामी तुलसीदास ने काशी में अपना बहुत सा समय बिताया। तुलसीदास के मित्रों में नवाब अब्दुर्रहीम खानखाना, महाराज मानसिंह, नाभा जी और सरस्वती जी आदि कहे जा सकते हैं।
       रामचरितमानस को विद्वान समन्वय का काव्य कहते हैं। मानस को सात कांडो में विभाजित करके लिखा गया है। जो इस प्रकार हैं-
1.       बालकांड
2.       अयोध्याकांड
3.       अरण्यकांड
4.       किष्किंधाकांड
5.       सुंदरकांड
6.       लंकाकांड
7.       उत्तरकांड
बालकांड की विशेषताएँ-
1.       बालकांड की शुरूआत सोरठे से होती है।
2.       इसका अंत भी सोरठे से होता है।
3.       इसमें सोरठे -18, दोहे – 343, छंद – 38 हैं।
अयोध्याकांड की विशेषताएँ-
1.       अयोध्याकांड की शुरूआत दोहे से होती है- श्री गुरू चरण सरोज रज...
2.       इसका अंत सोरठा से होता है
3.       इसमें सोरठा – 13, दोहे – 313, छंद – 13 हैं।
अरण्यकांड की विशेषताएँ-
1.       अरण्यकांड की शुरूआत सोरठा से होती है।
2.       इसका अंत दोहे से होता है।
3.       इसमें सोरठा – 5, दोहे – 41, छंद – 9 हैं।
किष्किंधाकांड की विशेषताएँ-
1.       इसकी शुरूआत सोरठा से होती है।
2.       इसका अंत भी सोरठा से होता है।
3.       इसमें सोरठा – 30, दोहा – 30, छंद – 1 हैं।
सुंदरकांड की विशेषताएँ-
1.       सुंदरकांड की शुरूआत चौपाई से होती है- जामवंत के बचन सुहाए, सुनि हनुमंत हृदय अति भाए।
2.       इसका अंत दोहा से होता है।
3.       इसमें सोरठा – 1, दोहा – 59, और छंद – 3 हैं।
लंकाकांड की विशेषताएँ-
1.       इसकी शुरूआत दोहे से होती है।
2.       इसका अंत भी दोहे से होता है।
3.       इसमें सोरठा – 4, दोहे – 117 और छंद – 27 हैं।
उत्तरकांड की विशेषताएँ-
1.       इसकी शुरूआत दोहे से होती है।
2.       इसका अंत भी दोहे से होता है- मो सम दीन न दीन हित, तुम्ह समान रघुबीर।
3.       इसमें सोरठा – 3, दोहे – 127 और छंद – 13 हैं।
विचार करें तो मानस में कुल दोहे और सोरठों की संख्या 1074 है। श्लोक- २७, चौपाई-४६०८ हैं।

जनवादी कहानी और सहज कहानी


जनवादी कहानी
व्यवस्थाओं के बदलते दौर के साथ साहित्यकारों ने भी अपने-अपने मत के अनुसार कहानी कविताओं का दौर जारी रखा और उसी का परिणाम यह हुआ कि जनवादी कहानी प्रकाश में आई। बाकि सभी कहानियों की तरह जनवादी कहानी एक पत्रिका और व्यक्ति पर केन्द्रित नहीं रही। विचार करें तो इसमें सातवें-आठवें दशक में इसराइल, असगर वजाहत, मार्कंडेय, प्रदीप मांडव, नमिता सिंह, सूरज पालीवाल आदि की कहानियों का जो तेवर रहा उसे जनवादी कहा गया है। जब कहानी का नाम ही जनवादी हो गया तो यह समझने में देर नहीं लगेगी की जनवादी आंदोलनकारी कहानीकार आर्थिक सामाजिक शोषण का विरोध करते हैं तथा इसका उत्तरदायी वर्तमान व्यवस्था को देते हैं।

सहज कहानी
सहज कहानी की बात उठाने वाले अमतृ राय हैं वे इसके प्रथम एवं अंतिम प्रवक्ता हैं। अमतृ राय की माने तो वह कहते है कि सहज कहानी से हमारा अभिप्राय इनमें से किसी एक से या दो से या दस से नहीं बल्कि इन सबसे और इनसे अलग और भी बहुत से हैं। क्योंकि सहज कहानी से हमारा अभिप्राय उस मूल कथारस से है, तो कहानी की अपनी खास चीज है और जो बहुत सी नई कही जाने वाली कहानियों में एक सिरे नहीं मिलता। दूसरा उन्होंने इसके बारे में कहा है कि यह न तो कोई नारा है न कोई आंदोलन। इस दृष्टि से विचार करें तो सहज कहानी अकेले कंठ की पुकार बनकर रह गई, इसकी वैचारिकता को कहानीकारों का समर्थन नहीं मिला है। लेकिन इतिहास के पन्नों पर अपना नाम तो लिखवा ही दिया है।

सक्रिय कहानी


सक्रिय कहानी
बदलते दौर के साथ हिंदी में एक कहानी विधा में एक नया नाम और जुड़ा वह है सक्रिय कहानी। सक्रिय कहानी का सीधा और स्पष्ट मतलब है व्यक्ति की चेतनात्मक ऊर्जा और जीवंतता की कहानी। सक्रिय कहानी के जीवन और विकास के बारे में डॉ. लक्ष्मीसागर वार्ष्णेय जी लिखते हैं कि, '1980 के बाद एक और नया नारा सुनाई दिया और वह है सक्रिय कहानी का नारा। राकेश वत्स ने मंच-78 अंक में यह नाम प्रचलित किया।'[1] सक्रिय कहानी व्यक्ति की बेबसी, वैचारिक निहत्थेपन और नपुंसकता से निजात दिलाकर पहले स्वयं अपने अंदर की कमजोरियों के खिलाफ खड़ा होने के लिए तैयार करने की जिम्मेदारी अपने सिर लेती है। विचार करें तो कुछ हद तक सक्रिय कहानी जनवादी कहानी के अति निकट ठहरती है। सक्रिय कहानी से जुड़े कहानीकारों में सुरेंद्र कुमार, विवेक निझावन, रमेश बतरा, धूमकेतु आदि मुख्य हैं।
 सक्रिय आंदोलन से जुड़े कहानीकार आर्थिक-सामाजिक शोषण का विरोध करते हैं। इसके लिए वे वर्तमान व्यवस्था को उत्तरदायी बतलाते हैं। डॉ. लक्ष्मीसागर वार्ष्णेय जी के मतानुसार, 'राकेश वत्स ने इस कहानी का संबंध आदमी की चेतनात्मक ऊर्जा और जीवन्तता से बताया है। वह आदमी की बेबसी, वैचारिक निहत्थेपन और नपुंसकता से निजात दिलाती है।'[2] इस दृष्टि से इन कहानीकारों ने सक्रिय आदमी को उभारने का प्रयत्न किया है।


[1]  स्वातंत्र्योत्तर हिन्दी साहित्य का इतिहास, डॉ. लक्ष्मीसागर वार्ष्णेय, पेज-100
[2]  स्वातंत्र्योत्तर हिन्दी साहित्य का इतिहास, डॉ. लक्ष्मीसागर वार्ष्णेय, पेज-100

समांतर कहानी


समांतर कहानी
आठवें दशक की कहानी में समांतर कहानी का आंदोलन प्रमुख है। विचार करें तो समांतर कहानी का बीजवपन कहें या प्रादुर्भाव सन् 1971-72 में ही हो चुका था।  डॉ. श्रीनिवास शर्मा के अनुसार, 'सारिका के विशेषांक समांतर विशेषांक सन् 1972 में प्रकाशित करके समांतर कहानी आंदोलन का आरंभ किया।'[1] इसके बाद दो सारिका में सन् 1974 से समांतर कहानी के विशेषांकों दौर प्रारंभ हो गया। समयानुसार समांतर कहानी आंदोलन में ने नई गति से लोगों के साथ जुड़ना आरंभ कर दिया। इसके मुख्य रचनाकार कमलेश्वर रहे हैं उनके अतिरिक्त, इब्राहीम शरीफ, रमेश बतरा, कामता नाथ, मधुकर सिंह, जितेंद्र भाटिया, निरूपमा सेवती, हिमांशु जोशी आदि कहानीकारों ने स्पष्ट समर्थन दिया। डॉ. लक्ष्मीसागर वार्ष्णेय जी लिखते हैं कि, 'समांतर या समानांतर कहानी का शिगूफ़ा 1974 में कमलेश्वर ने छोड़ा- आम आदमी से जुड़ी हुई कहानी।'[2]
जबकि समांतर कहानी के कुछ पक्षधर इसे आंदोलन नहीं स्वीकारते थे। समांतर कहानीकार रचना एवं सामयिक सत्यों के बीच सामंजस्य की स्थापना करता है। अर्थात् उसका चिंतन एवं लेखन परिवेशानुसार होता है। दूसरे शब्दों में कहें तो जीवन-सत्य और रचना के बीच सामंजस्य। यह कहानी आम आदमी की संपूर्ण लड़ाई को दिशा-निर्देशित करती है। डॉ. लक्ष्मीसागर वार्ष्णेय जी लिखते हैं कि, 70 के बाद की कहानी का स्वर अधिक तीखा है। उसमें जिंदगी की हरकत बताई जाती है। दुर्भाग्यवश आम आदमी की तलाश भी एक फार्मूला बन गया है। इसी फार्मूले का दूसरा नाम समानांतर या समांतर कहानी है।'[3] देखा जाए तो समांतर कहानी का केन्द्र बिंदु सामान्य मानव है। यह सामान्य मानव के संघर्षों की पक्षधर है क्योंकि उसका पूर्ण विश्वास है कि एकजुटता ही सामान्य मानव संघर्षों में विजयी होगी। समांतर कहानी के विषय में विद्वानों का यह कथन विशेष ध्यान देने योग्य है, जिसे डॉ. श्रीनिवास शर्मा ने अपनी पुस्तक हिन्दी साहित्य का आधुनिक काल में लिखा है, 'कमलेश्वर द्वारा प्रचारित-प्रसारित समांतर कहानी एक ऐसा  शीशा था जो, आम आदमी का सहारा लेकर खड़ा किया गया था और जो कमलेश्वर के सारिका के संपादक-पद को छोड़ते ही (सन् 1978) धराशायी हो गया।'[4]
कोई भी साहित्य विधा हो वह अपने समय और परिस्थिति को ध्यान मेंम रखकर ही पाठक के समाने आती है ठीक वैसे ही समांतर कहानी आंदोलन राजनीतिक महत्व को स्वीकारता है। राजनीति में उथल-पुथल का दौर हमेशा जारी रहता है। इसी को ध्यान में रखते हुए राजनीति में सक्रिय भाग लेते हुए क्रांति हेतु कार्य करना समांतर कहानीकार को रूचिकर प्रतीत होता है। राजनीतिक संघर्षों को वह सांस्कृतिक परिपे्रक्ष्य में अवलोकता है। समांतर कहानी ने भाषित स्तर पर भावुकता का निराकरण करके उसे स्पष्ट, प्रत्यक्ष एवं प्रभावपूर्ण स्वरूप प्रदान किया है। साथ ही इन कहानीकारों की लेखन प्रवृति यह रही है कि शिल्प पर ध्यान ने देकर कहानीकार मानवीय पीड़ा पर ध्यान देता है।


[1]  हिन्दी साहित्य का आधुनिक काल, डॉ. श्रीनिवास शर्मा, पेज-48
[2]  स्वातंत्र्योत्तर हिन्दी साहित्य का इतिहास, डॉ. लक्ष्मीसागर वार्ष्णेय, पेज-99

[3]  स्वातंत्र्योत्तर हिन्दी साहित्य का इतिहास, डॉ. लक्ष्मीसागर वार्ष्णेय, पेज-99
[4]  हिन्दी साहित्य का आधुनिक काल, डॉ. श्रीनिवास शर्मा, पेज-48

शनिवार, 28 मार्च 2020

सचेतन कहानी


सचेतन कहानी
अकहानी के दौर में ही सचेतन कहानी का भी जन्म हुआ। जब नई कहानी से संबंधित कहानीकारों की जीवन दृष्टि इधर-उधर भागने लगी और उनके अंदर अव्यवस्थितता का दौर जारी रहा तथा गुटबंदी की प्रवृत्ति प्रधान हो गई तब कुछ युवा कहानीकारों ने यथार्थवादी दृष्टि से सचेतनता पर बल दिया। सचेतन कहानी के प्रतिनिधि लेखक महीप सिंह हैं, उन्होंने इसके बारे में जो कहा वो इस प्रकार है, 'सचेतना एक दृष्टि है जिसमें जीवन जिया भी जाता है और जाना भी जाता है।'[1]  दूसरे शब्दों में कहें तो डॉ. महीप सिंह ने सचेतना दृष्टि को आधुनिकता की एक गतिशील स्थिति स्वीकारा है, जो हमारे सक्रिय जीवन-बोध और मनुष्य को उसकी अनुभूतियों के साथ समग्र परिवेश के संदर्भ में स्वीकार करती है। डॉ. श्रीनिवास शर्मा लिखते हैं कि, 'सचेतन कहानी में यथार्थ के प्रति परिवेश के प्रति, जीवन मूल्यों के प्रति एक नयी दृष्टि का बोध होता है।'[2] सचेतन कहानीकारों में मनहर चैहान, महीप सिंह, कुलभूषण, राम कुमार भ्रमरतथा बलदेव वंशी आदि उल्लेखनीय हैं।
सचेतन कहानी में समाज और व्यक्ति के ऊपरी संबंधों पर सूक्ष्मता से दृष्टि डाली गई है, साथ ही व्यक्ति के आंतरिक संबंधों पर भी। जहाँ अकहानी सेक्स, पुराने मूल्यों को तोड़ने में पूर्णतया आक्रांत है। वहीं सचेतन कहानी इससे मुक्त है। डॉ. श्रीनिवास शर्मा के मतानुसार, 'सचेतन कहानी में जीवन को जीने की एक दृष्टि है। ये कहानीकार अपनी स्थिति को चाहे सह्य हो या असह्य एक चुनौती के रूप में स्वीकार करते हैं। सचेतन कहानी में जीवन को विसंगत यथार्थ के धरातल पर देखना ही सही देखना है।'[3] कहानीकार किसी भी काल का हो वह अपने समय और परिस्थिति को अपने साहित्य में उजागर करना नहीं भूलता है। विचार करें तो इस दौर की अधिकांश कहानियों में किसी न किसी सामाजिक, राजनीतिक अथवा वार्षिक विसंगतियों को उघाड़ा गया है। कुछ कहानियों के हम यहाँ उदाहरण दें सकते हैं- महीप सिंह- युद्ध मन’, शैलेश मटियानी -उसने नहीं कहा थाआदि कहानियाँ हैं। दूसरी ओर काम संबंधों के यथार्थ का उद्घाटन करती कहानियाँ इस प्रकार हैं,  हिमांशु जोशी -चीलें’, राजकुमार भ्रमर -गिरस्तिन’, मनहर चौहान -उड़ने वाली लाशें’, आदि। जीवन की कटु विडंबना पर आधारित कहानियों में सुखवीर -नारायणेतथा बलदेव वंशी -एक खुला आकाशउल्लेखनीय हैं। डॉ. लक्ष्मीसागर वार्ष्णेय जी लिखते हैं कि, 'सचेतन कहानियों के पक्षधरों का कहना है कि यह सचेतना जीवन में छाए हुए धुंधलके को दूर करती है।'[4] वास्तव में ये कहानीकार शिल्प के प्रति जागरूक हैं तथा नवीन शिल्प को स्वीकार करते हैं।



[1]  स्वातंत्र्योत्तर हिन्दी साहित्य का इतिहास, डॉ. लक्ष्मीसागर वार्ष्णेय, पेज-58
[2]  हिन्दी साहित्य का आधुनिक काल, डॉ. श्रीनिवास शर्मा, पेज47
[3]  हिन्दी साहित्य का आधुनिक काल, डॉ. श्रीनिवास शर्मा, पेज47
[4]  स्वातंत्र्योत्तर हिन्दी साहित्य का इतिहास, डॉ. लक्ष्मीसागर वार्ष्णेय, पेज-58

अकहानी


अकहानी    

निश्चित रूप से स्वतंत्रता के पश्चात बदलते हुए परिवेश में सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक मान्यताओं में परिवर्तन आया है, जिसके कारण मूल्यों का विघटन हुआ है पुराने मूल्य टूट रहे हैं और नए मूल्यों ने करवट ली है। जिससे स्त्री-पुरूष दोनों के लिए नये क्षेत्र खुल गए हैं। उसे अपनी अस्मिता को खोजना और उसे सुरक्षित रखने के लिए कठिन प्रयासों की जरूरत है, जिसका रूप साहित्यकारों के कथा साहित्य में स्पष्ट रूप से देखने को मिलता है। विचार किया जाए तो अकहानी अकविता जैसे शब्द के आने के कारण ही गद्य साहित्य में अकहानी का आविर्भाव हुआ। कुछ विचारकों का मानना है कि अकहानी की प्रेरणा पश्चिम के एंटी स्टोरीसे हिंदी में आई है। इस बात को समझाते हुए डॉ. श्रीनिवास शर्मा लिखते हैं कि, 'साठोत्तरी काल में अकहानी का आन्दोलन चला। यह आन्दोलन पश्चिम के एण्टी स्टोरी आन्दोलन से प्रभावित रहा।'[1] अकहानी के प्रमुख हस्ताक्षरों में दूधनाथ सिंह, ज्ञान रंजन, रवीन्द्र कालिया, भीमसेन त्यागी, विश्वेश्वर, गंगाप्रसाद विमल, महेन्द्र भल्ला, रमेश बक्षी, श्रीकांत वर्मा आदि प्रमुख हैं। डॉ. श्रीनिवास शर्मा लिखते हैं कि, 'अकहानी को जन्म देने वाले लेखक वे हैं जो स्वतंत्रता के बाद होश सँभालने लगे थे। लोकतंत्र की विद्रूपता, युवा वर्ग की बौखलाहट, तरह-तरह के आन्दोलन से त्रस्त जनमानस नये तेवर लेकर आया।'[2]
 अकहानी के प्रबल समर्थक गंगा प्रसाद विमल ने अकहानी को अभारतीय कहने वालों को अज्ञान का आग्रह भोहीकहा है। उन्होंने इसे अपरिभाषेय स्वीकारा। डॉ. लक्ष्मीसागर वार्ष्णेय के मतानुसार, 'अ-कहानी के संबंध में डॉ गंगाप्रसाद विमल का कथन है, वस्तुतः एक अलग आधार पर यदि निष्पक्ष होकर विश्लेषण किया जाए तो  हमें ज्ञात होगा कि लगभग सभी समकालीन रचनाएँ पूर्व-रचनाएओं का विकास या विरोध न होकर एक नई तरह की कथा-रचनाएँ हैं, जिन्हें सामान्य शब्दों में कथा-रचनाएँ भी नहीं कहा जाना चाहिए इसीलिए उन्हें अ-कहानी कहा जाता है।'[3] वास्तव में अकहानी में सामाजिक संघर्षों से संबंधित विषयों को ग्रहण न करके यौन प्रसंगों अर्थात् सेक्स को ही कहानी का विषय बनाया है। जिसे इनकी इन कहानियों में देखा जा सकता है, उदाहरण के लिए दूधनाथ सिंह - रीछ’, गंगाप्रसाद विमल - विध्वंस’, ज्ञान रंजन - छलांग’, कृष्ण बलदेव वैद - त्रिकोणआदि हैं।
 इतना ही नहीं इसमें सभी मूल्यों का निषेध करते हुए साहित्यिक मूल्य को भी अस्वीकार कर दिया है। लेकिन यह जरूरी भी नहीं है कि इस दौर के सभी लेखकों ने ऐसा किया है। यहाँ यह जरूर कहा जा सकता है कि यथार्थ बोध या विसंगति को अपना केन्द्र बिन्दु बना लिया है। डॉ. लक्ष्मीसागर वार्ष्णेय जी लिखते हैं कि, 'अ-कहानी किसी तरह के मूल्यों की रक्षा करती हुई या आग्रह रखती हुई नहीं चलती है। उसके लिए पुराने मूल्यों का टूटना भी कोई महत्त्वपूर्ण बात नहीं है।'[4] एक तर्क यह भी है कि अकहानी से जुड़े सभी कहानीकारों को सर्वाधिक सफलता संबंध भाव की स्थितियों को उभारने में मिली हैं। साथ ही नैतिक वर्जनाओं और निषेधों के प्रति दृष्टि बहुत आक्रामक रही है। जहाँ इनकी कहानियों में पुराने मूल्यों के अस्वीकारने और बिगड़े हुए आपसी संबंधों के यथार्थ चित्रण में हैं, वहीं सेक्स केन्द्रित कहानी होने के कारण अकहानी न तो व्यापक बन सकी अर्थात् जन सामान्य तक अपनी जगह बना पाई और न अधिक प्रामाणिक। जीवन की बुनियादी सच्चाईयों की अवहेलना करने से अकहानी लंबे समय तक अपना आस्तीत्व नहीं बना सकी। डॉ. श्रीनिवास शर्मा लिखते है कि, 'अकहानी से उनका मतलब यह है कि इस कहानी में वे सारी विशेषताएँ छोड़ दी गयी हैं जो अब तक कहानी में थीं। वैसे तो अकहानी भी कहानी है पर वह अपने से पिछली कहानियों की विशेषताओं से मुक्त है।'[5]


[1] हिन्दी साहित्य का आधुनिक काल, डॉ. श्रीनिवास शर्मा, पेज-46
[2]  हिन्दी साहित्य का आधुनिक काल, डॉ. श्रीनिवास शर्मा, पेज-46
[3]  स्वातंत्र्योत्तर हिन्दी साहित्य का इतिहास, डॉ. लक्ष्मीसागर वार्ष्णेय, पेज-57
[4]  स्वातंत्र्योत्तर हिन्दी साहित्य का इतिहास, डॉ. लक्ष्मीसागर वार्ष्णेय, पेज-57
[5]  हिन्दी साहित्य का आधुनिक काल, डॉ. श्रीनिवास शर्मा, पेज-46