सचेतन कहानी
अकहानी के दौर में ही सचेतन कहानी का
भी जन्म हुआ। जब नई कहानी से संबंधित कहानीकारों की जीवन दृष्टि इधर-उधर भागने लगी
और उनके अंदर अव्यवस्थितता का दौर जारी रहा तथा गुटबंदी की प्रवृत्ति प्रधान हो गई
तब कुछ युवा कहानीकारों ने यथार्थवादी दृष्टि से सचेतनता पर बल दिया। सचेतन कहानी
के प्रतिनिधि लेखक महीप सिंह हैं, उन्होंने इसके बारे में जो कहा वो इस प्रकार है,
'सचेतना एक दृष्टि है जिसमें जीवन जिया
भी जाता है और जाना भी जाता है।'[1]
दूसरे शब्दों में कहें तो डॉ. महीप सिंह ने सचेतना दृष्टि को आधुनिकता की
एक गतिशील स्थिति स्वीकारा है, जो
हमारे सक्रिय जीवन-बोध और मनुष्य को उसकी अनुभूतियों के साथ समग्र परिवेश के
संदर्भ में स्वीकार करती है। डॉ. श्रीनिवास शर्मा लिखते हैं कि, 'सचेतन कहानी में यथार्थ के प्रति
परिवेश के प्रति, जीवन मूल्यों के प्रति एक नयी दृष्टि का बोध होता है।'[2] सचेतन कहानीकारों में मनहर चैहान, महीप सिंह, कुलभूषण, राम कुमार ‘भ्रमर’ तथा बलदेव वंशी आदि उल्लेखनीय हैं।
सचेतन कहानी में समाज और व्यक्ति के
ऊपरी संबंधों पर सूक्ष्मता से दृष्टि डाली गई है, साथ ही व्यक्ति के आंतरिक संबंधों पर भी। जहाँ अकहानी सेक्स, पुराने
मूल्यों को तोड़ने में पूर्णतया आक्रांत है। वहीं सचेतन कहानी इससे मुक्त है। डॉ.
श्रीनिवास शर्मा के मतानुसार, 'सचेतन कहानी में जीवन को जीने की एक
दृष्टि है। ये कहानीकार अपनी स्थिति को चाहे सह्य हो या असह्य एक चुनौती के रूप
में स्वीकार करते हैं। सचेतन कहानी में जीवन को विसंगत यथार्थ के धरातल पर देखना
ही सही देखना है।'[3] कहानीकार किसी भी काल का हो वह अपने
समय और परिस्थिति को अपने साहित्य में उजागर करना नहीं भूलता है। विचार करें तो इस
दौर की अधिकांश कहानियों में किसी न किसी सामाजिक, राजनीतिक अथवा वार्षिक विसंगतियों को उघाड़ा गया है। कुछ कहानियों के
हम यहाँ उदाहरण दें सकते हैं- महीप
सिंह- ‘युद्ध मन’, शैलेश मटियानी -‘उसने नहीं कहा था’ आदि कहानियाँ हैं। दूसरी ओर काम संबंधों
के यथार्थ का उद्घाटन करती कहानियाँ इस प्रकार हैं, हिमांशु जोशी -‘चीलें’, राजकुमार भ्रमर -‘गिरस्तिन’, मनहर चौहान -‘उड़ने वाली लाशें’, आदि। जीवन की कटु विडंबना पर आधारित
कहानियों में सुखवीर -‘नारायणे’ तथा बलदेव वंशी -‘एक
खुला आकाश’ उल्लेखनीय हैं। डॉ. लक्ष्मीसागर
वार्ष्णेय जी लिखते हैं कि, 'सचेतन कहानियों के पक्षधरों का कहना है
कि यह सचेतना जीवन में छाए हुए धुंधलके को दूर करती है।'[4] वास्तव में ये कहानीकार शिल्प के
प्रति जागरूक हैं तथा नवीन शिल्प को स्वीकार करते हैं।
[1] स्वातंत्र्योत्तर हिन्दी साहित्य का इतिहास, डॉ.
लक्ष्मीसागर वार्ष्णेय, पेज-58
[2] हिन्दी साहित्य का आधुनिक काल, डॉ. श्रीनिवास
शर्मा, पेज47
[3] हिन्दी साहित्य का आधुनिक काल, डॉ. श्रीनिवास
शर्मा, पेज47
[4] स्वातंत्र्योत्तर हिन्दी साहित्य का इतिहास, डॉ.
लक्ष्मीसागर वार्ष्णेय, पेज-58
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