अकहानी
निश्चित रूप
से स्वतंत्रता के पश्चात बदलते हुए परिवेश में सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक
मान्यताओं में परिवर्तन आया है, जिसके कारण मूल्यों का विघटन हुआ है पुराने मूल्य
टूट रहे हैं और नए मूल्यों ने करवट ली है। जिससे स्त्री-पुरूष दोनों के लिए नये
क्षेत्र खुल गए हैं। उसे अपनी अस्मिता को खोजना और उसे सुरक्षित रखने के लिए कठिन
प्रयासों की जरूरत है, जिसका रूप साहित्यकारों के कथा साहित्य में स्पष्ट रूप से
देखने को मिलता है। विचार किया जाए तो अकहानी
अकविता जैसे शब्द के आने के कारण ही गद्य साहित्य में अकहानी का आविर्भाव हुआ। कुछ
विचारकों का मानना है कि अकहानी की प्रेरणा पश्चिम के ‘एंटी
स्टोरी’ से हिंदी में आई है। इस बात को समझाते हुए डॉ.
श्रीनिवास शर्मा लिखते हैं कि, 'साठोत्तरी
काल में अकहानी का आन्दोलन चला। यह आन्दोलन पश्चिम के एण्टी स्टोरी आन्दोलन से
प्रभावित रहा।'[1] अकहानी के प्रमुख हस्ताक्षरों में दूधनाथ सिंह, ज्ञान
रंजन, रवीन्द्र कालिया, भीमसेन त्यागी, विश्वेश्वर, गंगाप्रसाद
विमल, महेन्द्र भल्ला, रमेश बक्षी, श्रीकांत वर्मा
आदि प्रमुख हैं। डॉ. श्रीनिवास शर्मा लिखते हैं कि, 'अकहानी को जन्म देने वाले लेखक वे हैं जो
स्वतंत्रता के बाद होश सँभालने लगे थे। लोकतंत्र की विद्रूपता, युवा वर्ग की
बौखलाहट, तरह-तरह के आन्दोलन से त्रस्त जनमानस नये तेवर लेकर आया।'[2]
अकहानी के प्रबल समर्थक गंगा प्रसाद विमल ने
अकहानी को अभारतीय कहने वालों को ‘अज्ञान का आग्रह भोही’ कहा
है। उन्होंने इसे अपरिभाषेय स्वीकारा। डॉ. लक्ष्मीसागर वार्ष्णेय के मतानुसार, 'अ-कहानी के संबंध में डॉ गंगाप्रसाद विमल का
कथन है, वस्तुतः एक अलग आधार पर यदि निष्पक्ष होकर विश्लेषण किया जाए तो हमें ज्ञात होगा कि लगभग सभी समकालीन रचनाएँ
पूर्व-रचनाएओं का विकास या विरोध न होकर एक नई तरह की कथा-रचनाएँ हैं, जिन्हें
सामान्य शब्दों में कथा-रचनाएँ भी नहीं कहा जाना चाहिए इसीलिए उन्हें अ-कहानी कहा
जाता है।'[3] वास्तव में अकहानी में सामाजिक संघर्षों से संबंधित विषयों को
ग्रहण न करके यौन प्रसंगों अर्थात् सेक्स को ही कहानी का विषय बनाया है। जिसे इनकी
इन कहानियों में देखा जा सकता है, उदाहरण के लिए दूधनाथ सिंह - ‘रीछ’, गंगाप्रसाद
विमल - ‘विध्वंस’,
ज्ञान रंजन - ‘छलांग’, कृष्ण
बलदेव वैद - ‘त्रिकोण’
आदि हैं।
इतना ही नहीं इसमें सभी मूल्यों का निषेध करते
हुए साहित्यिक मूल्य को भी अस्वीकार कर दिया है। लेकिन यह जरूरी भी नहीं है कि इस
दौर के सभी लेखकों ने ऐसा किया है। यहाँ यह जरूर कहा जा सकता है कि यथार्थ बोध या
विसंगति को अपना केन्द्र बिन्दु बना लिया है। डॉ. लक्ष्मीसागर वार्ष्णेय जी लिखते
हैं कि, 'अ-कहानी किसी तरह के मूल्यों की रक्षा करती हुई
या आग्रह रखती हुई नहीं चलती है। उसके लिए पुराने मूल्यों का टूटना भी कोई
महत्त्वपूर्ण बात नहीं है।'[4] एक तर्क यह भी है कि अकहानी से जुड़े सभी
कहानीकारों को सर्वाधिक सफलता संबंध भाव की स्थितियों को उभारने में मिली हैं। साथ
ही नैतिक वर्जनाओं और निषेधों के प्रति दृष्टि बहुत आक्रामक रही है। जहाँ इनकी
कहानियों में पुराने मूल्यों के अस्वीकारने और बिगड़े हुए आपसी संबंधों के यथार्थ
चित्रण में हैं, वहीं सेक्स केन्द्रित कहानी होने के कारण
अकहानी न तो व्यापक बन सकी अर्थात् जन सामान्य तक अपनी जगह बना पाई और न अधिक
प्रामाणिक। जीवन की बुनियादी सच्चाईयों की अवहेलना करने से अकहानी लंबे समय तक
अपना आस्तीत्व नहीं बना सकी। डॉ. श्रीनिवास शर्मा लिखते है कि, 'अकहानी से उनका मतलब यह है कि इस कहानी में वे
सारी विशेषताएँ छोड़ दी गयी हैं जो अब तक कहानी में थीं। वैसे तो अकहानी भी कहानी
है पर वह अपने से पिछली कहानियों की विशेषताओं से मुक्त है।'[5]
[1] हिन्दी साहित्य का आधुनिक काल, डॉ.
श्रीनिवास शर्मा, पेज-46
[2] हिन्दी साहित्य का आधुनिक काल, डॉ. श्रीनिवास
शर्मा, पेज-46
[3] स्वातंत्र्योत्तर हिन्दी साहित्य का इतिहास, डॉ.
लक्ष्मीसागर वार्ष्णेय, पेज-57
[4] स्वातंत्र्योत्तर हिन्दी साहित्य का इतिहास, डॉ.
लक्ष्मीसागर वार्ष्णेय, पेज-57
[5] हिन्दी साहित्य का आधुनिक काल, डॉ. श्रीनिवास
शर्मा, पेज-46
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें