शनिवार, 25 मई 2013



क्या करें मन उदास है
                                    डॉ. नीरज भारद्वाज
21वीं सदी के भारत में विकास को लेकर बहुत सारी बातें हो रही है। 21वीं सदी को लोग सूचना, विज्ञान, प्रौद्योगिकी आदि की सदी भी कह रहे हैं। इतना ही नहीं लोग चारों ओर अपने लाभ तथा विकास की बातें कर रहे हैं। सरकारें विकास के नाम पर वाह-वाई लूट रही हैं। लेकिन विकास का यह पथ समाज की दृष्टि से किस ओर जा रहा है, इस पर भी विचार करने की जरुरत है।
आए दिन समाचारपत्रों, समाचार चैनलों पर नर संहार की कोई न कोई बडी घटना मिल ही जाती है। कहने का भाव यह है कि विकास के साथ-साथ मानवता का हनन भी तेजी से हो रहा है। रिस्ते-नाते, व्यक्ति-व्यवहार सभी कुछ टूटते छुटते जा रहे हैं। समाज का एक वर्ग तो धन लोलुप प्रवृति से जी रहा है, वहीं दूसरा वर्ग एक-एक पैसे को मोहताज है। आखिर समाज में इस प्रकार की फैलती जा रही बुराइयों को मिटाने का प्रयास हो रहा है या नहीं, यह सोचने की बात है।
सब कोई अपने में लगें हैं। यदि यही गति रही तो समाज का विघटन नहीं, विनाश व्यक्ति स्वयं कर देगा। बेटी ने प्रेमी के साथ मिलकर सारे परिवार को मारा, नौकर ने मालिक को मारा, इज्जत की खातिर बाप ने बेटी को मारा, धन न मिलने के कारण बाप को मारा, अवैध रिस्तों के कारण पत्नि ने पति को और पति ने पत्नि को मारा, कर्ज न चुकाने के कारण उद्योगपति ने पूरे परिवार को मारा, पांच साल की बच्ची से बलात्कार, सामुहिक बलात्कार आदि न जाने कितनी ही घटनाएं और खबरें आज समाज के सामने आ रही है। लोग उन्हें ध्यान से पढते हैं। लेकिन सोचने कि बात यह है कि हमारा समाज और देश किस दिशा में जा रहा है।
 मानवता शब्द केवल कहने को रह गया है। इन सब बातों पर सोचकर केवल साहित्य की रचना होना रह गया है क्या? हमें सोचना होगा और विचार करना होगा कि कमी कहां पर है तथा उसमें सुधार कहां से हो सकता है। सुधार के साथ-साथ समाज को जागरुक करने के लिए कौन से नए कदम उठाए जा सकते हैं। आज समाज को सहयोग और एक दूसरे के काम आने की जरुरत दिख रही है। लेकिन शुरुआत कहां से हो यह सोचा जा रहा है। मेरा भारत गांव की मिट्टी में ही खुश था। पता नहीं विकास का कौन सा श्राप इसे धीरे-धीरे निगल रहा है। यह सोचकर मन बहुत बार उदास होता है। मानना यह है कि शुरआत कहीं ओर से नहीं हमें अपने आप से ही करनी होगी और करनी चाहिए भी। विकास का पथ इतना भयानक होगा यह कल्पना कभी सोची भी नहीं थी। रिश्ते-नाते इतनी तेजी से टूटते चले जाएगें। हमें सोचना होगा एक बार फिर नए सिरे से और देश को नई रोशनी देनी होगी। 

रविवार, 19 मई 2013

शिक्षक और शोध


शिक्षक और शोध

आज के भागते-दौडते और बदलते परिवेश के काल में शिक्षा और शिक्षक दोनों ही तेजी से बदलते दिखाई दे रहे हैं। शिक्षा के बदलते परिवेश के कारण ही समाज, संस्कृति और लोगों के आव-भाव तेजी से बदल रहे हैं। विचार किया जाए तो मानव मूल्यों के विघटन के इस दौर में और विश्वग्राम की परिकल्पना के इस समय में शिक्षा और शिक्षक दोनों की ही जिम्मेदारी बढती जा रही है। समझा जाए तो एक योग्य शिक्षक ही शिक्षा के स्तर को बढाने और उसे देश-दुनिया में फैलाने का कार्य करता है। राष्ट्र विकास और राष्ट्र को दिशा देना दोनों ही स्थितियों में शिक्षक अपनी महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है, क्योंकि शिक्षक समाज का द्रष्टा होने के साथ-साथ उभरते समाज का ताना-बाना भी तैयार करता है। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी लिखते हैं कि, माना, कि बच्चे की विवेक-शक्ति सुषुप्तावस्था में होती है, परंतु एक सचेत शिक्षक उसे प्रेम से जाग्रत करके उसे शिक्षित बना सकता है। वह बच्चे में सयंम की टेव डाल सकता है, ताकि बुद्धि इंद्रियों के वशीभूत न होकर बचपन से ही उसकी पथ प्रदर्शन बन जाए।
वर्तमान समय में शिक्षक को लेकर बहुत सारे नए मत और विचार उभर कर आ रहे है। उन विचारों तथा विषयों पर चर्चा, परिचर्चा आदि भी हो रही है। लेकिन इन सब बातों से दूर एक विचार यह भी है कि शिक्षक राष्ट्र का निर्माता होता है। इस विचार से यह स्पष्ट होता है कि एक शिक्षक अपने पूरे जीवन काल में अपना सारा समय, ऊर्जा और शोध केवल राष्ट्र के निर्माण में ही लगा देता है। उसके शोध का ही परिणाम होता है कि एक राष्ट्र विकास के पथ पर अग्रसर होता है। विचार किया जाए तो एक शिक्षक हर समय शोध करता रहता है और वह एक शोधार्थी का जीवन यापन करता है। साथ ही साथ वह शोधक का भी कार्य करता है, क्योंकि किसी भी प्रकार की त्रुटि या दोष-निवारण करने वाला शोधक कहलाता है। देखा जाए तो आज कि शिक्षा प्रणाली में  शिक्षक  को अधिकतम गुण प्राप्त कर उसे आधुनिक वैद्य, अभियंता अथवा  अच्छे उद्योग में शिक्षार्थी को कैसे प्रवेश मिलेगा, इस ओर अपने शिक्षार्थियों का ध्यान एकाग्र करना हो गया है।
एक आदर्श शिक्षक अपने शिक्षार्थी में अच्छे गुणों को डालने के लिए उसके प्रश्नों को सुलझाने के लिए कितने ही शोध और प्रयास करता है। वह केवल उपदेश न कर उसका आचरण तथा विचार कैसा हों, इन सब बातों का अध्ययन करता है,  क्योंकि शिक्षार्थी  शिक्षक के प्रत्येक कृत्य का अनुकरण करता है। उसके अनुसार आचरण करने का प्रयत्न करता है। सही मायनों में शिक्षक ही पूरी शिक्षा व्यवस्था का केंद्र बिंदु होता है अर्थात् पूरी शिक्षा व्यवस्था उसी के आस-पास घुमती दिखाई देती है। दूसरे शब्दों में कहें तो संपूर्ण शैक्षिक प्रक्रिया की श्रृंखला में शिक्षक महत्वपूर्ण और निर्णायक भूमिका अदा करता है।
शिक्षक पूरी शैक्षिक प्रक्रिया का महत्वपूर्ण माध्यम है, उसी के शोध और प्रयास से एक शिक्षार्थी अज्ञान रुपी अंधकार से निकलकर ज्ञान के प्रकाश का पुंज बनता है। समझा जाए तो शिक्षा की गुणवत्ता शिक्षक की गुणवत्ता और उसके शोध पर निर्भर करती है। एक शिक्षार्थी में ज्ञानात्मक, भावात्मक, गुणात्मक आदि गुण एवं शिक्षा तभी आ सकेगी जब शिक्षक स्वयं ज्ञान का आलोक पुंज हो और उसमें खोजी अर्थात् शोध की प्रवृति हो। इस दृष्टि से शिक्षक अपने ज्ञान को हमेशा बनाए रखने के लिए शोध करता रहता है।
शोध कार्य में दो क्रियाएं सन्निहित होती हैं- पहली किसी कच्ची धातु की उपलब्धि करना, दूसरी यह कि उसे गलाकर पवित्र परिष्कृत एवं दोषरहित बनाना। शिक्षक इन दोनों ही क्रियाओं को करता है अर्थात् उसके सामने आने वाला कोई भी बच्चा एक कच्चे घडे के समान होता है, जिसे वह अपने ज्ञान और बुद्दि के प्रयोग से समाज का सभ्य नागरिक बनाता है। एक शिक्षक की बुद्धि तथा विचार हमेशा नए-नए प्रयोगों की ओर रहती है। किसी भी सत्य को निकटता से जानने के लिए शोध एक महत्वपूर्ण प्रक्रिया होती है। समय- समय पर विभिन्न विषयों की खोज और उनके अध्ययन और निष्कर्षो की विश्वसनीयता और प्रमाणिकता भी शोध की मदद से ही संभव हो पाती है। जैसे-जैसे समय बीत रहा हैं वैसे-वैसे मानव की समस्याएँ भी विकट होती जा रही हैं। इन सभी बातों पर विचार एक शिक्षक अपने शोध और प्रयोग से करता रहता है।
वास्तव में देखा जाए तो एक शिक्षक अपने शोध में बोधपूर्वक, ज्ञानपूर्वक आदि प्रयत्नों से तथ्यों का संकलन कर सूक्ष्मग्राही एवं विवेचक बुद्धि से उसका अवलोकन-विश्‌लेषण करके नए तथ्यों या सिद्धांतों का उद्‌घाटन करता है और अपने शिक्षार्थी को आगे बढाता है। नए ज्ञान की प्राप्ति के व्यवस्थित प्रयत्न ही शोध होता हैं और शिक्षक इसके लिए हमेशा तैयार रहता है। शोध ही वह शक्ति है, जो मानव ज्ञान को दिशा प्रदान करती है तथा ज्ञान भंडार को विकसित एवं परिमार्जित करती है और इस दिशा में केवल एक शिक्षक ही प्रयासरत रहता है। मानव की सोच विविधता वाली होती है और उसकी रूचिप्रकृतिव्यवहारस्वभाव और योग्यता भिन्न - भिन्न होती है। इस कारण से अनेक जटिलताएं भी पैदा हो जाती है। अत: मानवीय व्यवहारों की अनिश्चित प्रकृति के कारण जब हम उसका व्यवस्थित ढंग से अध्ययन कर किसी निष्कर्ष पर आना चाहते हैं तो वहां पर हमें शोध का प्रयोग करना होगा। इस तरह सरल शब्दों में कहें तो सत्य की खोज के लिए व्यवस्थित प्रयत्न करना या प्राप्त ज्ञान की परीक्षा के लिए व्यवस्थित प्रयत्न भी शोध कहलाता है।
शिक्षक के शोध का ही परिणाम होता है कि एक राष्ट्र में व्याप्त उसकी व्यावहारिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक, राजनैतिक, साहित्यिक आदि सभी समस्याओं का समाधान होता है, क्योंकि वह हर समय अपने शिक्षार्थी को हर समस्या और उसके समाधान के विषय में विस्तार से बातें करता रहता है। इतिहास इस बात का साक्षी रहा है कि राष्ट्र को गति देने में शिक्षक की भूमिका और उसका शोध सदा ही महत्वपूर्ण रहा है। शिक्षा आयोग (1964-66) की रिपोर्टानुसार- भारत का भाग्य अब उसकी कक्षाओं में तैयार हो रहा है। इस दृष्टि से पूरा अध्ययन करने पर पता चलता है कि शिक्षा सतत् और जीवन पर्यंत चलने वाली प्रक्रिया है और शिक्षक इस प्रक्रिया का केंद्र है। इसीलिए कहा जा सकता है कि एक शिक्षक हर क्षण और समय केवल शोध ही करता है। उसी के शोध और प्रयोगों का परिणाम है, आज का उभरता समाज तथा राष्ट्र।

                                    डॉ. नीरज भारद्वाज (9350977005)
                                                                       dr.neerajbhardwaj0108@gmail.com
                                    Blog- mnbhardwaj.blogspot.com








रविवार, 12 मई 2013

हिंदी प्रश्न


.    तोडने ही होंगे मठ और गढ सबकिसकी पंक्ति है?
2.    द्रुत झरो जगत के जीर्ण पत्रपंक्ति के रचनाकार कौन हैं?
3.    उत्तर प्रियदर्शीकिसकी गीति-नाट्य रचना है?
4.    केसव कहि न जाइ का कहिए! देखत तब रचना बिचित्र अति, समुझि मनहि मन रहिए!किसकी पंक्ति है?
5.    रावरे रूप को रीति अनूप, नयो नयो लागत ज्यों ज्यों निहारिये’ - किसकी पंक्ति है?
6.    प्रसिद्ध हिन्‍दी पत्रिका कल्पनाकहॉं से प्रकाषित होती थी?
7.    कोमल गांधारनाटक के रचनाकार कौन हैं?
8.    मुक्ति का रहस्यनाटक किसकी कृति है?
9.    हिन्दी साहित्य का नया इतिहासके लेखक कौन हैं?
10.   हिन्दी साहित्य का वैज्ञानिक इतिहासकिसकी कृति है?
11.    हिन्दी साहित्य का आलोचनात्मक इतिहासके रचनाकार कौन हैं?
12.    हिन्दी साहित्य की संवेदना का विकासकिसकी रचना है?
13.    कवि कुछ ऐसी तान सुनाओ जिससे उथल पुथल मच जाएकिसकी पंक्ति है?
14.    मध्यवाचार्य किस सम्प्रदाय के संस्थापक हैं?
15.    किन रचनाकारों की भाषा को संधाभाषा कहा गया?
16.    धिक् जीवन जो पाता ही आया विरोधकिसकी पंक्ति है?
17.    दुःखवा मैं कासे कहूँ मोरी सजनीकिसकी कहानी है?
18.    मधुप गुनगुना कर कह जाताकिसकी पंक्ति है?
19.    मर्द साठे पर पाठे होते हैं।किसकी उक्ति है?
20.    ये उपमान मैले हो गये हैंकिसकी पंक्ति है?
21.    हम राज्य लिये मरते हैंकिसकी काव्य-पंक्ति है?
22.    हिन्दी व्याकरणकिसकी रचना है?
23.    हिन्दी शब्‍दानुशासनकिसने लिखा है?
24.    हिन्दी भाषा का उद्भव और विकासकिसकी रचना है?
25.    देवीदीनमुंशी प्रेमचन्द के किस उपन्यास का पात्र है?
26.    प्रैक्टिकल क्रिटिसिज्मकिसका ग्रन्थ है?
27.    सेक्रेड वुडकिसकी रचना है?
28.    लिरिकल बैलेडसकिसने लिखा है?
29.    पोयटिक्सकिसकी कृति है?
30.    जात पांत पूछै नहिं कोईकिसकी पंक्ति है?
31.    प्रेम प्रेम ते होय प्रेम ते पारहिं पइएपंक्ति के रचनाकार कौन हैं?
32.    आधुनिक काल में गद्य का आविर्भाव सबसे प्रधान घटना हैकिसका कथन है?
33.    अब अभिव्यक्ति के सारे खतरे उठाने ही होंगेकिसकी उक्ति है?
34.    सबने भी अलग अलग संगीत सुनाकिसकी पंक्ति है?
35.    प्रिय के हाथ लगाये जागी, ऐसी मैं सो गई अभागीकिसकी उक्ति है?
36.    अंतिम अरण्यकिसका उपन्यास है?
37.    विश्‍वबाहु परशुरामकिसका उपन्यास है?
38.    शीलवतीसुरेन्द्र वर्मा के किस नाटक की पात्र है?
39.    मानवमूल्य और साहित्यकिसकी कृति है?
40.    बिहारी सतसईनामक ग्रन्थ के रचयिता कौन हैं?
41.    देव और बिहारीकिसकी कृति है?
42.    बिहारी और देवकिसकी रचना है?
43.    नैया बिच नदिया डूबति जायकिसकी उक्ति है?
44.    माध्यमकिस संस्थान की पत्रिका है?
45.    इलाहाबाद से प्रकाषित कादम्बिनीपत्रिका के प्रथम सम्पादक कौन थे?
46.    पासंगनामक कहानी संग्रह के रचनाकार कौन हैं?
47.    जंगल का जादू तिल तिलनामक कहानी संग्रह के रचनाकार कौन हैं?
48.    दुक्खम सुक्खमउपन्यास की लेखिका कौन हैं?
49.    संसद से सडक तककविता संग्रह के रचनाकार कौन हैं?
50.    मुख नहीं चंद्रमा हैइस पंक्ति में कौन सा अलंकार है?
51.    जिन्दगीनामाकिसकी कृति है?
52.    तुम्हारे लिएकिसकी कृति है?
53.    बाबूलाल तेली की नाकनामक कहानी के रचनाकार कौन हैं?
54.    अकेला पलाशऔर समरांगणउपन्यास किस महिला उपन्यासकार की रचनाएं हैं?
55.    हमसफरनामाकिसके द्वारा रचित रेखाचित्र-संग्रह है?
56.    कुइयाँजानउपन्यास किसकी कृति है?’
57.    तुलसीदास चंदन घिसैंशीर्षक रचना के लेखक कौन हैं?
58.    'राम की जलसमाधि' किस कवि की प्रसिद्ध रचना है?
59.    'रेहन पर रग्‍घू' किसका उपन्‍यास है?
60.    'मानवी' काव्‍य संग्रह के रचयिता कौन हैं?


उत्तरमाला

1.    मुक्तिबोध
2.    सुमित्रानन्दन पन्त
3.    अज्ञेय
4.    तुलसीदास
5.    घनानन्द
6.    हैदराबाद
7.    शंकर शेष
8.    लक्ष्मीनारायण मिश्र
9.    बच्चन सिंह
10.    गणपतिचन्द्र गुप्त
11.    डॉ0 रामकुमार वर्मा
12.    लक्ष्मीसागर वार्णेय
13.    बालकृष्ण शर्मा नवीन
14.    द्वैतवाद
15.    बौद्ध-सिद्ध
16.    निराला
17.    चतुरसेन शास्त्री
18.    जयशंकर प्रसाद
19.    प्रेमचंद
20.    अज्ञेय
21.    मैथिलशरण गुप्त
22.    कामताप्रसाद गुरु
23.    किशोरीदास वाजपेयी
24.    उदय नारायण तिवारी
25.    गबन
26.    रिचर्ड्स
27.    टी.एस. इलियट
28.    विलियम वर्ड्सवर्थ
29.    अरस्तू
30.    रामानन्द
31.    सूरदास
32.    आचार्य रामचन्द्र शुक्ल
33.    मुक्तिबोध
34.    अज्ञेय
35.    निराला
36.    निर्मल वर्मा
37.    विष्वम्भरनाथ उपाध्याय
38.    सूर्य की पहली किरण से सूर्य की अन्तिम किरण
39.    धर्मवीर भारती
40.    पद्मसिंह शर्मा
41.    कृष्ण बिहारी मिश्र
42.    लाला भगवानदीन
43.    कबीर
44.    हिन्दी साहित्य सम्मेलन
45.    बालकृष्ण राव
46.    मेहरुन्निसा परवेज
47.    प्रत्यक्षा
48.    ममता कालिया
49.    धूमिल
50.    अपह्नुति
51.    कृष्णा सोबती
52.    हिमांशु जोशी
53.    स्वयं प्रकाश
54.    मेहरुन्निसा परवेज
55.    स्वयं प्रकाश
56.    नासिरा शर्मा
57.    हरिशंकर परसाई
58.    भारत भूषण
59.    काशीनाथ सिंह
60.   गोपाल सिंह नेपालीv

समाचारपत्र


समाचारपत्र

मुद्रण यंत्रों के अविष्कार तथा छापेखाने की विकास यात्रा से समाचारपत्रों का जन्म हुआ माना जाता है। पुनर्जागरण काल से समाचारपत्रा पूर्णतः अस्तित्व में आया। जैसे-जैसे यूरोप में व्यापार का पैफलाव हुआ और लोंगों को एक दूसरे के बारे में जानने की इच्छा जागी तो इसी जानने की इच्छा को लिखित रूप से मुद्रित कर सन् 1622 में लंदन के एक दर्जन मुद्रकों ने मिलकर समाचारपत्रा को जनता का सम्प्रेषण का माध्यम बनाया। ये अपने ग्राहकों को नियमित रूप से ‘समाचार चैपन्ने’ देते थे। ये सभी साप्ताहिक समाचारपत्रा थे। चंचल सरकार लिखते हैं कि, ‘‘आरंभिक समाचारपत्रा सोलहवी सदी में निकले, जिसमें मुख्यतः वाणिज्य सम्बन्ध्ी समाचार होते थें चूंकि सरकार के निर्णयों का वाणिज्य और व्यापार पर प्रत्यक्ष रूप से प्रभाव पड़ता था इसलिए बाद में राजनीतिक समाचार भी छपने लगे।’’ख्1,  विकास की गति बढ़ने और पिं्रटिंग प्रेस के विशाल रूप लेने के चलते सन् 1702 में लंदन का पहला दैनिक ‘डैली काॅर्नट’ ;क्ंपसल ब्वनतंदजद्ध नामक समाचारपत्रा आस्तित्व में आया। चीन में ‘पीकिंग गजेट’ के नाम से एक विज्ञप्ति प्रकाशित होती थी, जिसे कुछ विद्वानों ने संसार का सर्वप्रथम समाचारपत्रा माना है। वास्तव में प्रेस के विकास के बाद विश्व के अनेक देशों में समाचारपत्रा प्रकाश में आने लगे और वह जनसंचार का लोकप्रिय साध्न बनने लगे।

भारत की बात की जाए तो भारत में अंग्रेजों के आगमन के बाद ही प्रेस का उदय हुआ और सामाचारपत्रा प्रकाश में आए। 29 जनवरी, 1780 में ‘बंगाल गजेट आॅपफ कलकता जरनल एडवरटाइजर’ पहला समाचारपत्रा कोलकत्ता से प्रकाशित हुआ। जगदीश प्रसाद चतुर्वेदी लिखते हैं कि, ‘‘कोलकत्ता में सन् 1780 में जेम्स आगस्टस हिकी ने ‘बंगाल गजट’ या ‘कलकता जर्नल एडवर्टाइजर’ समाचारपत्रा प्रकाशित कर भारतीय पत्राकारिता की नींव डाली थी।’’ख्2, इसके बाद तो निर्भिक होकर सन् 1791 में अमेरीका के डुआनी नामक पत्राकार ने कोलकत्ता से ही ‘इण्डियन वल्र्ड’ नामक समाचारपत्रा निकला जिसके वे प्रधन सम्पादक थे। भारतीय पत्राकारों में राजाराम मोहन राय का नाम अविस्मरणीय है। इन्होंने सन् 1820 में अपने मित्रा ताराचंद दत्त तथा भवानी चरण बनर्जी के संपादन में बंगला भाषा में ‘संवाद कौमुदी’ नाम से समाचारपत्रा प्रकाशित किया। अंग्रेजी सरकार के निरंकुश शासन तंत्रा के चलते भारतीय समाचारपत्रों पर अंकुश लगने से समाचारपत्रा निकलते रहे और बंद होते रहे। बंगला भाषा में ही सन् 1818 में ‘दिग्दर्शन’ नाम से मासिक पत्रा श्रीरामपुर बैपटिस्ट मिशन से प्रकाशित हुआ। इसके आठ वर्ष बाद 30 मई, 1826 को कोलकत्ता से ‘उदंत मात्र्तण्ड’ नाम से हिन्दी का पहला पत्रा निकला। जिसके सम्पादक पं. जुगल किशोर शुक्ल थे। ‘उदंत मात्र्तण्ड’ को हिन्दी का प्रथम समाचारपत्रा भी कहा जाता है। निरंकुश अंग्रेजी शासन के चलते अन्य पत्रों की तरह 4 दिसंबर, 1828 में यह बंद हो गया और सन् 1850 में शुक्ल जी ने ‘सामदण्ड मात्र्तण्ड’ नामक एक नया पत्रा निकाला।

सन् 1857 तक कई समाचारपत्रा निकले जिसमें हिन्दी के अलावा दूसरी भारतीय भाषाओं को भी अपनाया गया था। इन सब का उद्देश्य अंग्रेजी सरकार की दमनकारी नीतियों का विरोध् करना था, जिनमंें से कुछ प्रमुख समाचारपत्रा इस प्रकार हैं।

समाचारपत्रा का नाम

सन्

स्थान जहाँ से प्रकाशित हुए

मात्र्तण्ड

सुधकर

1846

1850

कोलकत्ता

बनारस

बु(ि प्रकाश

1852

आगरा

ग्वालियर गजेट

1853

ग्वालियर

समाचार सुधवर्षण

1854

कोलकत्ता

समय की गति और अंग्रेजी शासन की निरंकुश नीतियों के कारण समाचारपत्रांे को स्थायित्व नहीे मिल पाया। सन् 1881 में बाल गंगाध्र तिलक ने मराठी में ‘केसरी’ और ‘मरहट्ठा’ समाचारपत्रा निकाला। सन् 1919 में साप्ताहिक समाचारपत्रा ‘यंग इंडिया’ निकला, जिसके सम्पादक मोहनदास करमचंद गाँध्ी थे। भारत में समाचारपत्रों का सही जन्म और विकास आजादी की लड़ाई के समय ही हुआ और इसमें कोई संदेह नहीं कि अध्किांश समाचारपत्रों का प्रकाशन और संपादन करने वाले भारतीय स्वतंत्राता सेनानी थे। इन सभी समाचारपत्रों का उद्देश्य भारत की स्वतंत्राता और अंगे्रजी सरकार की दमनकारी नीतियों को लिखकर जनता तक पहँुचाना था।

स्वतंत्राता के बाद समाचारपत्रों की बात की जाए, तो लगभग सभी समाचारपत्रा नए जोश और उत्साह से भरे हुए थे। राष्ट्रहित और जनता की समस्याओं को उजागर कर सरकार का ध्यान आकर्षित करना, यह अपना परम ध्र्म समझने लगेे। सही अर्थों में स्वतंत्राता के बाद ही हिन्दी समाचारपत्रों ने आशतीत प्रगति की और उन्हें स्थायित्व मिला। स्वतंत्राता संग्राम के बाद अस्तित्व में आए कुछ बड़े स्तर के हिन्दी दैनिक समाचारपत्रा इस प्रकार हंै।



समाचारपत्रा का नाम

सन्

स्थान जहाँ से प्रकाशित हुए

नवभारत टाइम्स

1947

दिल्ली

नवजीवन

1947

लखनऊ

दैनिक जागरण

1947

लखनऊ

अमर उजाला

1948

आगरा

सन्मार्ग

1948

वाराणसी

युगध्र्म

1951

नागपुर

राष्ट्रदूत

1951

राजस्थान

वीर अर्जुन

1954

दिल्ली

राजस्थान पत्रिका

1956

राजस्थान

वीर प्रताप

1958

प्ंाजाब

दैनिक भास्कर

1958

भोपाल

देशबंध्ु

1959

रायपुर

पंजाब केसरी

1964

जालंध्र

जनसत्ता

1983

दिल्ली

राष्ट्रीय सहारा

1991

दिल्ली

समाचारपत्रों में समयानुसार दिनों दिन बढ़ोतरी हो रही है और साथ ही समाचारपत्रों ने साहित्य, संस्कृति, ध्र्म, वाणिज्य, समाज, खेल आदि की दुनिया को अपने पन्नों में समाहित भी कर लिया है। इन सभी विषयों से जुड़े स्तंभ या समाचारों के लिए समाचारपत्रा में अलग-अलग पृष्ठ भी बना दिए गए हैं या ये कहंे कि समाचारपत्रों को पाठक की रूचि के अनुसार बाँट दिया गया है। भारत में दिनों-दिन समाचारपत्रों की लोकप्रियता बढ़ रही है। चंचल सरकार लिखते हैं कि, ‘‘दैनिक पत्रों ने स्वतंत्राता के बाद जो गति दिखाई, वह गति आज भी बरकरार है। समाचारपत्रा दिनों-दिन अपने अंदर नयापन लाकर लोगों को अपनी ओर आकर्षित कर रहा है, जिससे उनका रोज नया कलेवर हमारे सामने आ रहा हैं।’’ख्3, इस प्रकार समाचारपत्रा जनसंचार माध्यमों में महत्वपूर्ण भूमिका आदा करते रहे हैं तथा अलग पहचान भी बनाए हुए हैं।



ख्1, चंचल सरकार, समाचारपत्रों की कहानी ;दिल्ली: नेंशनल बुक ट्रस्ट, 2006द्ध, पृ.6

ख्2, जगदीश प्रसाद चतुर्वेदी, हिन्दी पत्राकारिता का इतिहास ;दिल्ली: प्रभात प्रकाशन, 2004द्ध, पृ. 05

ख्3, चंचल सरकार, समाचारपत्रों की कहानी ;दिल्लीः नेशनल बुक ट्रस्ट, 2006द्ध, पृ. 18