शनिवार, 25 मई 2013



क्या करें मन उदास है
                                    डॉ. नीरज भारद्वाज
21वीं सदी के भारत में विकास को लेकर बहुत सारी बातें हो रही है। 21वीं सदी को लोग सूचना, विज्ञान, प्रौद्योगिकी आदि की सदी भी कह रहे हैं। इतना ही नहीं लोग चारों ओर अपने लाभ तथा विकास की बातें कर रहे हैं। सरकारें विकास के नाम पर वाह-वाई लूट रही हैं। लेकिन विकास का यह पथ समाज की दृष्टि से किस ओर जा रहा है, इस पर भी विचार करने की जरुरत है।
आए दिन समाचारपत्रों, समाचार चैनलों पर नर संहार की कोई न कोई बडी घटना मिल ही जाती है। कहने का भाव यह है कि विकास के साथ-साथ मानवता का हनन भी तेजी से हो रहा है। रिस्ते-नाते, व्यक्ति-व्यवहार सभी कुछ टूटते छुटते जा रहे हैं। समाज का एक वर्ग तो धन लोलुप प्रवृति से जी रहा है, वहीं दूसरा वर्ग एक-एक पैसे को मोहताज है। आखिर समाज में इस प्रकार की फैलती जा रही बुराइयों को मिटाने का प्रयास हो रहा है या नहीं, यह सोचने की बात है।
सब कोई अपने में लगें हैं। यदि यही गति रही तो समाज का विघटन नहीं, विनाश व्यक्ति स्वयं कर देगा। बेटी ने प्रेमी के साथ मिलकर सारे परिवार को मारा, नौकर ने मालिक को मारा, इज्जत की खातिर बाप ने बेटी को मारा, धन न मिलने के कारण बाप को मारा, अवैध रिस्तों के कारण पत्नि ने पति को और पति ने पत्नि को मारा, कर्ज न चुकाने के कारण उद्योगपति ने पूरे परिवार को मारा, पांच साल की बच्ची से बलात्कार, सामुहिक बलात्कार आदि न जाने कितनी ही घटनाएं और खबरें आज समाज के सामने आ रही है। लोग उन्हें ध्यान से पढते हैं। लेकिन सोचने कि बात यह है कि हमारा समाज और देश किस दिशा में जा रहा है।
 मानवता शब्द केवल कहने को रह गया है। इन सब बातों पर सोचकर केवल साहित्य की रचना होना रह गया है क्या? हमें सोचना होगा और विचार करना होगा कि कमी कहां पर है तथा उसमें सुधार कहां से हो सकता है। सुधार के साथ-साथ समाज को जागरुक करने के लिए कौन से नए कदम उठाए जा सकते हैं। आज समाज को सहयोग और एक दूसरे के काम आने की जरुरत दिख रही है। लेकिन शुरुआत कहां से हो यह सोचा जा रहा है। मेरा भारत गांव की मिट्टी में ही खुश था। पता नहीं विकास का कौन सा श्राप इसे धीरे-धीरे निगल रहा है। यह सोचकर मन बहुत बार उदास होता है। मानना यह है कि शुरआत कहीं ओर से नहीं हमें अपने आप से ही करनी होगी और करनी चाहिए भी। विकास का पथ इतना भयानक होगा यह कल्पना कभी सोची भी नहीं थी। रिश्ते-नाते इतनी तेजी से टूटते चले जाएगें। हमें सोचना होगा एक बार फिर नए सिरे से और देश को नई रोशनी देनी होगी। 

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