शिक्षक और शोध
आज के भागते-दौडते
और बदलते परिवेश के काल में शिक्षा और शिक्षक दोनों ही तेजी से बदलते दिखाई दे रहे
हैं। शिक्षा के बदलते परिवेश के कारण ही समाज, संस्कृति और लोगों के आव-भाव तेजी
से बदल रहे हैं। विचार किया जाए तो मानव मूल्यों के विघटन के इस दौर में और
विश्वग्राम की परिकल्पना के इस समय में शिक्षा और शिक्षक दोनों की ही जिम्मेदारी
बढती जा रही है। समझा जाए तो एक योग्य शिक्षक ही शिक्षा के स्तर को बढाने और उसे
देश-दुनिया में फैलाने का कार्य करता है। राष्ट्र विकास और राष्ट्र को दिशा देना
दोनों ही स्थितियों में शिक्षक अपनी महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है, क्योंकि
शिक्षक समाज का द्रष्टा होने के साथ-साथ उभरते समाज का ताना-बाना भी तैयार करता
है। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी लिखते हैं कि, माना, कि बच्चे की विवेक-शक्ति
सुषुप्तावस्था में होती है, परंतु एक सचेत शिक्षक उसे प्रेम से जाग्रत करके उसे
शिक्षित बना सकता है। वह बच्चे में सयंम की टेव डाल सकता है, ताकि बुद्धि
इंद्रियों के वशीभूत न होकर बचपन से ही उसकी पथ प्रदर्शन बन जाए।
वर्तमान समय में
शिक्षक को लेकर बहुत सारे नए मत और विचार उभर कर आ रहे है। उन विचारों तथा विषयों
पर चर्चा, परिचर्चा आदि भी हो रही है। लेकिन इन सब बातों से दूर एक विचार यह भी है
कि शिक्षक राष्ट्र का निर्माता होता है। इस विचार से यह स्पष्ट होता है कि
एक शिक्षक अपने पूरे जीवन काल में अपना सारा समय, ऊर्जा और शोध केवल राष्ट्र के
निर्माण में ही लगा देता है। उसके शोध का ही परिणाम होता है कि एक राष्ट्र विकास
के पथ पर अग्रसर होता है। विचार किया जाए तो एक शिक्षक हर समय शोध करता रहता है और
वह एक शोधार्थी का जीवन यापन करता है। साथ ही साथ वह शोधक का भी कार्य करता है,
क्योंकि किसी भी प्रकार की त्रुटि या दोष-निवारण करने वाला शोधक कहलाता है। देखा जाए तो आज कि
शिक्षा प्रणाली में शिक्षक को अधिकतम गुण प्राप्त कर उसे आधुनिक वैद्य, अभियंता अथवा अच्छे उद्योग में शिक्षार्थी को कैसे प्रवेश
मिलेगा, इस ओर अपने शिक्षार्थियों
का ध्यान एकाग्र करना हो गया है।
एक आदर्श शिक्षक अपने शिक्षार्थी में अच्छे गुणों को
डालने के लिए उसके प्रश्नों को सुलझाने के लिए कितने ही शोध और प्रयास करता है। वह केवल उपदेश न कर उसका आचरण तथा विचार कैसा हों, इन सब बातों का
अध्ययन करता है, क्योंकि शिक्षार्थी शिक्षक के प्रत्येक कृत्य का अनुकरण करता है। उसके
अनुसार आचरण करने का प्रयत्न करता है। सही मायनों में शिक्षक ही पूरी शिक्षा व्यवस्था
का केंद्र बिंदु होता है अर्थात् पूरी शिक्षा व्यवस्था उसी के आस-पास घुमती दिखाई
देती है। दूसरे शब्दों में कहें तो संपूर्ण शैक्षिक प्रक्रिया की श्रृंखला में
शिक्षक महत्वपूर्ण और निर्णायक भूमिका अदा करता है।
शिक्षक पूरी शैक्षिक प्रक्रिया का महत्वपूर्ण
माध्यम है, उसी के शोध और प्रयास से एक शिक्षार्थी अज्ञान रुपी अंधकार से निकलकर
ज्ञान के प्रकाश का पुंज बनता है। समझा जाए तो शिक्षा की गुणवत्ता शिक्षक की
गुणवत्ता और उसके शोध पर निर्भर करती है। एक शिक्षार्थी में ज्ञानात्मक, भावात्मक,
गुणात्मक आदि गुण एवं शिक्षा तभी आ सकेगी जब शिक्षक स्वयं ज्ञान का आलोक पुंज हो
और उसमें खोजी अर्थात् शोध की प्रवृति हो। इस दृष्टि से शिक्षक अपने ज्ञान को
हमेशा बनाए रखने के लिए शोध करता रहता है।
शोध कार्य में दो
क्रियाएं सन्निहित होती हैं- पहली किसी कच्ची धातु की उपलब्धि करना, दूसरी यह कि
उसे गलाकर पवित्र परिष्कृत एवं दोषरहित बनाना। शिक्षक इन दोनों ही क्रियाओं को
करता है अर्थात् उसके सामने आने वाला कोई भी बच्चा एक कच्चे घडे के समान होता है,
जिसे वह अपने ज्ञान और बुद्दि के प्रयोग से समाज का सभ्य नागरिक बनाता है। एक
शिक्षक की बुद्धि तथा विचार हमेशा नए-नए प्रयोगों की ओर रहती है। किसी भी सत्य को निकटता से जानने के लिए शोध एक
महत्वपूर्ण प्रक्रिया होती है। समय- समय पर विभिन्न विषयों की खोज और उनके अध्ययन
और निष्कर्षो की विश्वसनीयता और प्रमाणिकता भी शोध की मदद से ही संभव हो पाती है।
जैसे-जैसे समय बीत रहा हैं वैसे-वैसे मानव की समस्याएँ भी विकट होती जा रही हैं। इन
सभी बातों पर विचार एक शिक्षक अपने शोध और प्रयोग से करता रहता है।
वास्तव में देखा जाए
तो एक शिक्षक अपने शोध में बोधपूर्वक, ज्ञानपूर्वक आदि प्रयत्नों से तथ्यों का
संकलन कर सूक्ष्मग्राही एवं विवेचक बुद्धि से उसका अवलोकन-विश्लेषण करके नए
तथ्यों या सिद्धांतों का उद्घाटन करता है और अपने शिक्षार्थी को आगे बढाता है। नए
ज्ञान की प्राप्ति के व्यवस्थित प्रयत्न ही शोध होता हैं और शिक्षक इसके लिए हमेशा
तैयार रहता है। शोध ही वह शक्ति है, जो मानव ज्ञान को दिशा प्रदान करती है तथा
ज्ञान भंडार को विकसित एवं परिमार्जित करती है और इस दिशा में केवल एक शिक्षक ही
प्रयासरत रहता है। मानव की सोच विविधता वाली होती
है और उसकी रूचि, प्रकृति, व्यवहार, स्वभाव और योग्यता भिन्न - भिन्न होती
है। इस कारण से अनेक जटिलताएं भी पैदा हो जाती है। अत: मानवीय व्यवहारों की
अनिश्चित प्रकृति के कारण जब हम उसका व्यवस्थित ढंग से अध्ययन कर किसी निष्कर्ष पर
आना चाहते हैं तो वहां पर हमें शोध का प्रयोग करना होगा। इस तरह सरल शब्दों में
कहें तो सत्य की खोज के लिए व्यवस्थित प्रयत्न करना या प्राप्त ज्ञान की परीक्षा
के लिए व्यवस्थित प्रयत्न भी शोध कहलाता है।
शिक्षक के शोध का ही
परिणाम होता है कि एक राष्ट्र में व्याप्त उसकी व्यावहारिक, सामाजिक, सांस्कृतिक,
आर्थिक, राजनैतिक, साहित्यिक आदि सभी समस्याओं का समाधान होता है, क्योंकि वह हर
समय अपने शिक्षार्थी को हर समस्या और उसके समाधान के विषय में विस्तार से बातें
करता रहता है। इतिहास इस बात का साक्षी रहा है कि राष्ट्र को गति देने में शिक्षक
की भूमिका और उसका शोध सदा ही महत्वपूर्ण रहा है। शिक्षा आयोग (1964-66) की
रिपोर्टानुसार- भारत का भाग्य अब उसकी कक्षाओं में तैयार हो रहा है। इस
दृष्टि से पूरा अध्ययन करने पर पता चलता है कि शिक्षा सतत् और जीवन पर्यंत चलने
वाली प्रक्रिया है और शिक्षक इस प्रक्रिया का केंद्र है। इसीलिए कहा जा सकता है कि
एक शिक्षक हर क्षण और समय केवल शोध ही करता है। उसी के शोध और प्रयोगों का परिणाम
है, आज का उभरता समाज तथा राष्ट्र।
डॉ. नीरज
भारद्वाज (9350977005)
Blog-
mnbhardwaj.blogspot.com
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